सोमवार, 6 मई 2024

मुरादाबाद के प्रताप सिंह कन्या इण्टर कालेज में अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर के तत्वावधान में 5 मई 2024 को कवि सम्मेलन, पुस्तक लोकार्पण और साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन

 मुरादाबाद के प्रताप सिंह कन्या इण्टर कालेज में रविवार पांच मई 2024 को अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर के तत्वावधान में आयोजित भव्य समारोह में अंकन नवोदित साहित्यिकार मंच की स्थापना की गई। इस अवसर पर तीन कृतियों डॉ प्रीति हुंकार के बाल कविता संग्रह – स्पर्श, इंदु रानी के काव्य संग्रह– हित स्पंदन और जितेंद्र कमल आनंद, राम किशोर वर्मा, डॉ प्रीति हुंकार और इंदु रानी के संपादन में साझा काव्य संग्रह साहित्य जगत के उभरते सितारे का लोकार्पण किया गया। समारोह में कवि सम्मेलन और  साठ साहित्यकारों को प्रतीक चिन्ह व सम्मान पत्र प्रदान कर सम्मानित भी किया गया। 

   वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण दयाल शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में मुख्य अतिथि डॉ महेश दिवाकर, विशिष्ट अतिथि अमरीश गर्ग, रोहित राकेश, जितेंद्र कमल आनंद, डॉ सीमा शर्मा, रघुराज सिंह निश्चल, धवल दीक्षित और डॉ मनोज रस्तोगी रहे। संचालन राजीव प्रखर और सरफराज हुसैन फराज ने किया।

   समारोह में डॉ प्रेमवती उपाध्याय, के पी सिंह सरल, मनोज वर्मा मनु, जितेंद्र कुमार जौली ,नकुल त्यागी,विनीता चौरसिया, दुष्यंत बाबा, पूजा राणा, प्रदीप बैरागी, डा० शरद , कमलेश सिंह, राम वल्लभ तिवारी,  डा० आजम, आनंद वर्धन, सांत्वना, अनुराग रोहिला, सीमा रानी, रेखा रानी जैनेन्द्रसिंह, राजबहादुर यादव, महिपाल सिंह, संजय कुमार, पूनम उदयचंद्रा, कृष्ण कुमार, आरती रैदास, देवेन्द्र प्रताप वर्मा, चुनमुन रागिनी, सुनीता, रेखा, अल्पना दीक्षित, कमल , राजवीरसिंह, रूपेश धनकर, जाग्रति, स्वदेश कुमारी, शालिनी गुप्ता,अंजु झा,शुभम कश्यप समेत अनेक रचनाकार उपस्थित थे। संयोजिका डॉ प्रीति हुँकार व इन्दु रानी ने आभार व्यक्त किया।


































रविवार, 5 मई 2024

मुरादाबाद के दिवंगत साहित्यकार अखिलेश वर्मा की स्मृति में शनिवार 4 मई 2024 को श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन



मुरादाबाद के स्वतंत्रता सेनानी भवन में आयोजित श्रद्धांजलि-सभा में कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा जी का स्मरण करते हुए आज उपस्थित सभी साहित्यकारों की आंखें नम हो गईं। विदित हो कि महानगर मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य  पर एक लंबे अरसे तक चर्चित व लोकप्रिय रहे सुविख्यात ग़ज़लकार एवं लघुकथा लेखक श्री अखिलेश वर्मा का रविवार 28 अप्रैल 2024 को बरेली में हुई सड़क दुर्घटना में असमय निधन हो गया था। उनकी स्मृति में हुई श्रद्धांजलि सभा में  साहित्यकारों ने उनके साथ अपने संस्मरणों को साझा करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। 

कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा का स्मरण करते हुए वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल ने कहा - "निष्ठुर काल ने हमसे एक और प्यारा इंसान व बेहतरीन शायर छीन लिया। उनकी रचनाएं हमें सदैव उनका स्मरण कराती रहेगी।" 

    वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा -"अपने मधुर व्यवहार  से अखिलेश जी ने प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में एक विशिष्ट स्थान बनाया। उनके व्यक्तित्व की सरलता उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।" 

वरिष्ठ शायर डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ की भावुकता भी अखिलेश जी को याद करते हुए इस प्रकार झलक उठी  - "अखिलेश वर्मा हमारे बीच में नहीं है, मन इस बात को मानने को अब भी तैयार नहीं। शायरी का एक जगमगाता दीपक समय से पूर्व ही विश्राम पर चला गया।" 

 डॉ. मनोज रस्तोगी के अनुसार -"कीर्तिशेष अखिलेश जी के अप्रकाशित साहित्य को सभी के प्रयासों से प्रकाशित कराया जायेगा। लोकप्रिय ब्लॉग साहित्यिक मुरादाबाद को आगे ले जाने में उनकी एक बड़ी भूमिका रही।" 

कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता के अनुसार - "अखिलेश जी भौतिक रूप से आज भले ही हमारे बीच न हों परंतु अपने साहित्यिक अवदान में सदा उपस्थित रहेंगे।" 

वरिष्ठ नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का कहना था -"श्री अखिलेश वर्मा ने अल्प समय में ही साहित्य को बहुत कुछ दिया। वह अपनी उत्कृष्ट रचनाओं में अमर रहेंगे। उनका अप्रकाशित साहित्य प्रकाशन तक जाना चाहिए।" 

कवि मनोज मनु के अनुसार - "अभी भी मन यही कह रहा है कि अखिलेश जी यहीं कहीं आसपास हैं। उनकी अद्भुत रचनाओं ने सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श किया।" 

महानगर के रचनाकार राजीव प्रखर का कहना था - "अखिलेश जी के व्यक्तित्व में विद्यमान सरलता, सौम्यता एवं जीवटता ने उन्हें एक बड़ा रचनाकार बनाया। उनका साहित्यिक समर्पण सभी को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा।" 

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर भी अखिलेश जी का स्मरण करते हुए अत्यंत भावुक हो उठीं। उनका कहना था - "अखिलेश जी ने साहित्य के क्षेत्र में पग पग पर मेरा मार्गदर्शन किया मेरी साहित्यिक-यात्रा में उनका बहुत बड़ा योगदान है।" 

वरिष्ठ समाजसेवी धवल दीक्षित का कहना था - "अल्प समय में ही अखिलेश जी साहित्य व समाज को ऐसी रोशनी दे गये हैं जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं।" 

कवि मयंक शर्मा का कहना था - "अखिलेश जी की रचनाएं ज़मीन से जुड़ी हुई रचनाएं हैं। उनका असमय चले जाना समाज की एक बड़ी क्षति है।" 

कवि दुष्यंत बाबा ने कहा - "अखिलेश वर्मा जी का असमय चले जाना साहित्य एवं मानवता दोनों के लिए एक ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति करना संभव नहीं होगा।" 

कवि राशिद हुसैन के अनुसार -"अखिलेश जी को पढ़ते-सुनते हुए ही मैं ग़ज़ल लेखन की ओर आकर्षित हुआ। उनका चले जाना निश्चित रूप से एक अपूर्णीय क्षति है।" 

युवा कवि आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ के अनुसार - "अखिलेश जी की रचनाएं उनकी उपस्थिति का आभास कराती रहेंगी।" 

इस अवसर पर वरिष्ठ रंगकर्मी राजेश सक्सेना,  कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा जी के परिवार से उनके बड़े भ्राता श्री अवनेश वर्मा, श्री अशोक वर्मा, श्रीमती इंदु वर्मा, अखिलेश जी के सुपुत्र लक्ष्य वर्मा तथा भतीजे ऋषभ वर्मा ने भी उनकी स्मृतियां को साझा करते हुए उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। अंत में अखिलेश जी की स्मृति में दो मिनट के मौन एवं शांति पाठ के पश्चात् श्रद्धांजलि-सभा पूर्ण हुई। 











































शुक्रवार, 3 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र गौतम का आलेख ....जीवन के खुरदुरेपन में मिठास पैदा करने वाला कवि। उनका यह आलेख प्रकाशित हुआ है दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ के 21 अप्रैल 2024 के अंक में


 16 अप्रैल 2024 को माहेश्वर तिवारी के निधन के साथ समकालीन नवगीत का उच्चतम शिखर ढह गया। इसके साथ उनकी सात दशक की काव्य-यात्रा का अवसान हो गया। तिवारीजी की रचनाएँ छठे दशक से ही ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। 'पांच जोड़ बांसुरी', 'नवगीत दशक-दो', 'यात्रा में साथ-साथ', 'गीतायन' जैसे सभी प्रतिनिधि नवगीत संकलनों में उनके गीत शामिल हैं। उनके नवगीत-संग्रह हैं: ‘हरसिंगार कोई तो हो', 'सच की कोई शर्त नहीं', 'नदी का अकेलापन' और 'फूल आये हैं कनेरों में'। इन संग्रहों का  समकालीन कविता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। काव्य-मंचों पर भी निरंतर उनकी उपस्थिति रही। उनका जन्म 22 जुलाई 1939 को बस्ती, (उ.प्र) में हुआ था। कुछ समय तक उन्होंने विदिशा में अध्यापन भी किया। उनकी संगीत-विशारद पत्नी विशाखा जी को चलने में कठिनाई थी। वे भी कॉलेज में पढ़ाती थीं। उनकी सुविधा का ध्यान रखते हुए माहेश्वर जी ने अध्यापन छोड़कर काव्य-मंचों को आजीविका का साधन बनाया लेकिन कभी मंचीय कवियों की तरह कविता के स्तर से समझौता नहीं किया।

माहेश्वर तिवारी के गीतों की ज़मीन बहुत विशिष्ट रही है। उन्होंने कृत्रिमताओं और बड़बोलेपन से दूर जीवन के ऐसे सहज चित्र प्रस्तुत किए, जिनमें पाठक के साथ चलने, उसकी संवेदना का हिस्सा बनने की अद्भुत क्षमता है। यह शक्ति उनकी काव्य-भाषा की बिंबात्मकता में निहित है। वे इसे नवगीत की काव्य-भाषा की विशिष्टता मानते हुए कहते हैं: “नवगीत एक बिंबप्रधान काव्य-रूप है। उसमें सहजता तो अभिप्रेय है लेकिन सपाटबयानी नहीं। सपाट सिर्फ़ गद्य हो सकता है कविता नहीं।... कविता... जितना व्यक्त करती है उतना ही अनकहा भी छोड़ देती है। दरअसल यह अनकहा ही तो कविता है”। नवगीत के विरोधियों ने इसकी प्रासंगिकता को नकारते हुए एक भ्रामक तस्वीर गढ़ने की कोशिश की लेकिन भ्रम को तोड़ते हुए माहेश्वर तिवारी ने स्पष्ट किया: “नवगीत नई कविता से मुकाबले के लिए ओढ़ा गया कोई आवरण नहीं है। कविता के इतिहास में यथार्थ के दबाव से इसका जन्म हुआ”। कम ही नवगीतकार ज़िंदगी के उतना निकट हैं, जितना माहेश्वर तिवारी। अति साधारण दृश्यों और घटनाओं से असाधारण संवेदना को व्यंजित करने वाले गीतों की रचना उनकी मौलिकता का आधार है। आश्वस्ति के स्पर्श में और रीढ़ को सिहरने वाले भय में क्या रिश्ता है, इसे परिवेश की हल्की रेखाओं से उभरने वाले बिंबों से वे कैसे चित्रित करते हैं, इसे ऐसे गीतों से समझा जा सकता है: 

उंगलियों से कभी

हल्का-सा छुएँ भी तो

झील का ठहरा हुआ जल

काँप जाता है।

मछलियाँ बेचैन हो उठतीं

देखते ही हाथ की परछाइयाँ

एक कंकड़ फेंक कर देखो

काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ

और उस पल

झुका कन्धों पर क्षितिज की

हर लहर के साथ

बादल काँप जाता है।

हम जिस खूंखार समय में जी रहे हैं, उसमें सत्ता और व्यवस्था के दानवी शिकंजे हमें कसे हैं। इस भयावह वातावरण में कविता का काम सबसे जटिल और कठिन है। माहेश्वर तिवारी इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और बहुत धारदार शैली में अपने वक़्त के वहशी चेहरे को बेनकाब करते हैं। खौफ़ के इस मंज़र की एक मुकम्मिल तस्वीर वे पाठक के सामने रखते हैं। विशेष यह है कि यह न तो नारेबाजी है और न नक्काशी। कविता की अनिवार्य उपस्थिती का नाम ही माहेश्वर तिवारी है। झुलसते हुए बारूदी सुरंगों के सफ़र को तय किया जाने का यह बयान बहुत मर्मस्पर्शी है: 

हम पसरती आग में

जलते शहर हैं

... हम झुलसते हुए

बारूदी सुरंगों के

सफ़र हैं 

कल उगेंगे

फूल बनकर हम

जमीनों में 

सोच को

तब्दील करते

फिर यकीनों में

आज तो

ज्वालामुखी पर

थरथराते हुए घर हैं  

नवगीत की रचना-प्रक्रिया में बिंबात्मकता के अतिरिक्त भाषा का रूपकात्मक और प्रतीकगर्भित प्रयोग इसकी नयी शैली का निर्माण करता है। जहां ये प्रयोग सहज एवं संवेदनाश्रित हैं, वहाँ वे इसकी उपलब्धि बने हैं, जहां उन्हें चमत्कार का जामा पहनाया गया है, वहाँ वे खिलवाड़ लगते हैं। माहेश्वर तिवारी के काव्य में प्रकृतिधर्मी प्रतीकों का अद्भुत प्रयोग नवगीत ही नहीं, समूची हिन्दी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखता है। जिजीविषा और  संघर्ष को प्रकृतिधर्मी प्रतीकों से माहेश्वर तिवारी ने ऐसे अद्भुत गीतों की रचना की है:  

कुहरे में सोये हैं पेड़

पत्ता-पत्ता नम है

यह सबूत क्या कम है

लगता है

लिपट कर टहनियों से

बहुत बहुत

रोये हैं पेड़

जंगल का घर छूटा

कुछ कुछ भीतर टूटा

शहरों में 

बेघर होकर जीते

सपनों में खोये हैं पेड़

यद्यपि माहेश्वर तिवारी ने रूमान को अभिव्यक्त करते ‘याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे’। जैसे कालजयी गीतों की भी रचना की है लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या उनके ऐसे गीतों की है, जिनमें अपने समय का दर्द गूँजता है। अपनी समस्त सौंदर्य-चेतना के बावजूद कविता यदि गूँगों की ज़ुबान नहीं बन पाती तो उसकी प्रासंगिकता संदिग्ध है। तिवारीजी के गीतों में मौजूद गहरा चिंतन हालात की प्रामाणिक तस्वीर ही नहीं है, सामाजिक संघर्ष का दस्तावेज़ भी है। समय के दर्द को आवाज देना पलायन नहीं अपितु मनुष्यता-विरोधी ताकतों को पहचान कर आम  आदमी को सुन्न कर देने वाले उस दर्द का अहसास भी करवाना है, जिसका प्रतीकार अपेक्षित है। यह माहेश्वर ने ऐसे गीतों से बखूबी किया है। 

 अंतत: माहेश्वर तिवारी द्वारा अपनी कविता के प्रेरणा-स्रोतों का यह उल्लेख उन्हें जीवन से जुड़ा हुआ कवि ही सिद्ध करता है: “मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ। मुझे बिंब और भाषा के लिए किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती। हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है। कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है। जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर। उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है। मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है। सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ। यह मिठास वहाँ से भी मिलती है। मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा स्रोत है। वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी”। 

✍️ राजेंद्र गौतम 

 

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता मीनाक्षी ठाकुर का गीत ....


एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में । 


गीत थमा, संगीत थमा है, 

शब्द अचंभित मौन खड़े। 

धूल- धूसरित भाव हो गये, 

व्याकुलता के भरे घड़े। 

फूल कनेरों के सूखे हैं, 

सन्नाटा है आँगन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


उखड़ गया वट वृक्ष पुराना, 

कुटिल -काल के अंधड़ में। 

 डाली से टूटा है पत्ता, 

 इस मौसम के पतझड़ में। 

हरसिंगारों के मुँह उतरे

क्रंदन करते हैं वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में।। 


आज अकेली नदी हो गयी

चला गया जो था अपना। 

 मंद हुई चिड़िया की धड़कन

टूट गया सुंदर सपना। 

पर्वत कोई गिरा यहाँ पर

हलचल सी है इस वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


✍️ मीनाक्षी ठाकुर 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ बुद्धि नाथ मिश्र का गीत ......

 




जी भर रोया

रोज एक परिजन को खोया

पाकर लम्बी उमर आज मैं

जी भर रोया।


जिनके साथ उठा-बैठा

पर्वत-शिखरों पर

उनको आया सुला

दहकते अंगारों पर

जो था मुझे जगाता

सारी रात हँसा कर

वह है खुद लहरों पर सोया।


एक-एक कर तजे सभी

सम्मोहन घर का

रहा देखता मैं निरीह

सुग्गा पिंजर का

हुआ अचंभित फूल देखकर

टूट गया वह धागा

जिसमें हार पिरोया।


किसके-किसके नाम

दीप लहरों पर भेजूँ

टूटे-बिखरे शीशे

कितने चित्र सहेजूँ

जिसने चंदा बनने का

एहसास कराया

बादल बनकर वही भिगोया। 


✍️ बुद्धिनाथ मिश्र

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ अजय अनुपम का गीत ......



...खुशबुओं के बीच माहेश्वर


बन उतरती धूप 

जिसके गीत में अक्षर

बो गये हैं खुशबुओं के बीज

माहेश्वर


चेतना में चांदनी की

दमकती काया

भाव से जिसने सहज ही

नेह बरसाया

खोल मन की बात

मिलना नेह में भरकर


आंँसुओं को गीत के कपड़े

पिन्हाते थे

गुनगुना कर चांँद-तारों को

बुलाते थे

अब बनाया चांँद-तारों में

उन्होंने घर


वह कनेरों के बगीचे के

दुलारे थे

फूल खुशबू या कि चमकीले

सितारे थे

बन गये नवगीत का पर्याय

शाश्वत-स्वर

खो गये हैं खुशबुओं के बीच

माहेश्वर


✍️डॉ. अजय अनुपम

मुरादाबाद