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मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 नवंबर 2024 को काव्य गोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर उत्तर प्रदेश एसोसिएशन ऑफ जर्नलिस्ट्स के प्रदेश अध्यक्ष सर्वेश कुमार सिंह का सम्मान रुद्राक्ष की माला, योगेन्द्रपाल सिंह विश्नोई के जीवन पर आधारित अमृत महोत्सव ग्रंथ और अंग वस्त्र प्रदान कर किया गया।
मुख्य अतिथि के रूप में सर्वेश कुमार सिंह ने कहा कि काव्य मन के भाव व्यक्त करने के साथ ही व्यक्ति को सकारात्मक कार्यों के लिए प्रेरित करता है। कविता में राष्ट्र प्रेम, सामाजिक एकता को जागृत करने की अद्भुत क्षमता है। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता संग्राम में कवियों ने समाज जागरण किया। साहित्य का पत्रकारिता में भी अमूल्य योगदान है, लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता का संकट गहराता जा रहा है। पत्रकारिता में विश्वसनीयता की पूंजी को भी संजोकर रखना है।
अध्यक्षता करते हुए डॉ महेश दिवाकर ने कहा ...
उठो कमर कसकर उठो लो हाथों तलवार!
सत्य अहिंसा से सखा किसे मिले अधिकार।।
विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने इस प्रकार अपनी अभिव्यक्ति दी
समय मिले तो खेलो खेल,
खेल खेल में कर लो मेल।
खेल चुको तो पढ़ो किताब,
ऊंचे ऊंचे देखो ख्वाब ।
संचालन करते हुए अशोक विद्रोही ने राष्ट्र प्रेम के भाव इस प्रकार व्यक्त किये...
हिंद का अब नया युग शुरू हो गया
विश्व में फिर से भारत गुरु हो गया ,
देश को आज केसरिया रंग भा गाया।
कैसा सुंदर सा ये आवरण आ गया।
राम सिंह निशंक ने पढा़-
सूरज से अठखेलियां करता आया शीत
दुबक रजाई में गए लोग हुए भयभीत।
राजीव प्रखर ने पढा़ -
मिटना अब भी शेष है, अन्तस से ॲंधियार।
जाते-जाते कह गया, दीपों का त्योहार।।
रघुराज सिंह निश्चल ने पढ़ा....
नभ से तोड़ सितारे लाओ
खुशियों में डुबकियां लगाओ
बस यह कुछ नुस्खे अपनाओ
फोकट में चर्चा में आओ"
राकेश चक्र ने पढ़ा-
फांसी के फंदे जो झूले उनका हिंदुस्तान कहां है?
टुकड़े करने वाले बोलो, भारत का अरमान कहां है?
रामदत्त द्विवेदी ने कहा-
क्यों बच्चे खूंखार हो गए?
क्यों समाज पर भार हो गए?
इंदू रानी ने पढ़ा
वह भी तो हमसे रिश्ता निभाता कभी।
हो अगर कुछ कमी तो बताता कभी ।।
काव्यगोष्ठी में महीका परमार , तुलसीराम डॉक्टर ओम प्रकाश कुंदन लाल ,डा़ अक्षेन्द्र सारस्वत, मुस्कान, एवं अन्य कवियों ने भी काव्य पाठ किया। राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति के संरक्षक योगेंद्र पाल विश्नोई एवं राम सिंह निशंक ने आभार अभिव्यक्त किया।
अशोक विद्रोही
उपाध्यक्ष
राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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1.
बाढ़!नदी की जब भी बदले बहती धारा
तहसीलों में हो जाता है वारा - न्यारा
सुनवाई पर लग जाते हैं खास मुकदमे
आम आदमी फिरता रहता मारा-मारा
लोकतंत्र की उनको चिंता सबसे ज़्यादा
कर घोटाले मान जिन्होंने पाया सारा
धूल फाइलें रहीं चाटती दफ्तर में ही
नेग नहीं जब तक हमने बाबू पर वारा
खपा ज़िन्दगी एक मुकदमे में ही अपनी
जीत गया वह अपना सबकुछ हारा-हारा
लगना तो था सीमेंट मगर मिलीभगत से
लगा पड़ा है मिल रेते में खालिस गारा
2.
तेल निकल आया घानी में,पता चलेगा चार जून को
कौन रहा कितने पानी में,पता चलेगा चार जून को
हाथ लगा कुछ या सूने ही रस्ते नापे गाल बजाते
हासिल क्या कड़वी बानी में,पता चलेगा चार जून को
सबने अपना ज्ञान बघारा जितना था उससे भी ज़्यादा
अंतर ज्ञानी-अज्ञानी में,पता चलेगा चार जून को
अपनी-अपनी हाँक रहे सब किसकी पार लगेगी नैया
किसकी भैंस गई पानी में,पता चलेगा चार जून को
लड्डू खाकर उछलोगे या,सोचोगे तुम पिछड गए क्यों
इस सत्ता की अगवानी में,पता चलेगा चार जून को
गोढ़ रखी थीं हर दिन गाली शब्दकोश के बाहर की सब
क्या निकला खींचातानी में,पता चलेगा चार जून को
मजबूरी में हाथ मिले थे या स्वाभाविक थे गठबंधन
हारे किसकी निगरानी में,पता चलेगा चार जून को
इनके दावे उनके दावे झूठे सच्चे कैसे भी हैं
दम निकला किसकी नानी में,पता चलेगा चार जून को
जाने कैसे क्या कर बैठे और कहाँ पर गच्चा खाया
समझदार ने नादानी में,पता चलेगा चार जून को
3.
दिनभर हाथ राम के जोड़े
और रात को कूमल फोड़े
वैद्य दवा तब लेकर आए
रिसन लगे जब सबके फोड़े
निकल गए सब छापों में ही
बिना कमाए जितने जोड़े
वोट बढ़ाने की कोशिश में
बैठे हार अक्ल के घोड़े
गाली पर गाली दे गाली
कीर्तिमान सदियों के तोड़े
जूँ ना रेंगी किसी कान पर
रेवड़ियों ने रस्ते गोड़े
मिलीभगत की लूट-पाट ने
कूप सभी खाली कर छोड़े
आजादी में ठाठ हमारे
पुरखों ने खाए थे कोड़े
जो भी आए पार उतरने
पाप किए हैं ज्यादा थोड़े
4.
वादे आए भर-भर बोरी
पूर्ण हुए कुछ कुछ की चोरी
है वेतन अब लाखों में, पर
नहीं छूटती रिश्वतखोरी
चिज्जी देती माँ बच्चों को
छुपा-छुपाकर चोरी-चोरी
चक्कर काट अदालत के भी
नहीं मानते छोरा-छोरी
ब्लैक कलर का लड़का भी तो
दुल्हन चाहे चिट्टी गोरी
पास निरंतर हो जाता है
कॉपी रखकर आता कोरी
बाँस बाँसुरी तब बनता है
करनी पड़ती उसमें सोरी
सुनते ही बच्चे सो जाते
ऐसी औषधि माँ की लोरी
पूरे घर की देखभाल को
खुली छोड़ते घर में मोरी
5.
इधर-उधर संकट ही संकट कहने को है बात जरासी
प्यास बुझाई जिसने सबकी है वर्षों से खुद वह प्यासी
जग भर का साहित्य व्यस्त है एक कहानी की चर्चा में
पढ़ कर देखो उपन्यास है कहने को है सिर्फ कथा सी
गौरव मिलना बहुत जरूरी उस नट को भी कलाकार सा
खेल खिलाती जिसकी मुनिया लगती सबको पूर्ण कला सी
अब तो बेटी बदल रही है किस्मत अपने घर वालों की
बेटा घर में ना होने पर पसरी क्यों फिर आज उदासी
सबके घर में बच जाता है ज्यादा या फिर थोड़ा खाना
फिर भी अपने इर्द-गिर्द ही रहती क्यों है भूख बला सी
अरमानों की फूँके होली मन मारे सब खड़े हुए हैं
भीड़ देखिए सबके सब ये बनने आए हैं चपरासी
चन्दा पर तो प्लाट कटेंगे होगी खेती-बाड़ी शायद
कौन चाँदनी बिखरायेगा सोच रही है पूरनमासी
6.
किस दुनिया में पहुँची माँ ।
प्यारी - प्यारी मेरी माँ ।।
पड़ी दूध में रहती थी,
सदा बताशे जैसी माँ ।।
उपवन सब बेकार लगे,
जब फूलों सी खिलती माँ ।।
मेरी भूल दिखावे को,
बादल जैसी तड़की माँ ।।
लगी सदा थी खिचड़ी में,
देसी घी के जैसी माँ ।।
मैंने भी कविता लिक्खी,
लिखवाने वाली भी माँ ।।
7.
हँसते रहिए , हँसते रहिए
और दिलों में बसते रहिए।
इस दुनिया को हँसी बाँटकर
ख़ुश रखने को जगते रहिए।
बतरस में जिसने विष घोला
उस विषधर को डसते रहिए।
दुख बोता है जो जीवन में
उससे थोड़ा बचते रहिए।
जग फुव्वारा एक हँसी का
इसमें खुद भी खिलते रहिए।
सौ मर्जों की एक दवा है
मार ठहाके हँसते रहिए।
हँसी चीरती सन्नाटों को
इसकी कसरत करते रहिए।
8.
तालमेल यदि है तो घर की गाड़ी आप धिकलती है
गलियारे गाने लगते हैं जब बारात निकलती है
साँझ-सवेरे अपने हों तो दिन भी अपना ही समझो
वरना पैरों के नीचे से मंज़िल रोज़ फिसलती है
धाराशाई तब हो जाते हैं पहलवान नौसिखियों से
जब दंगल में उनसे उनकी ही तकदीर विचलती है
मतदाता को झोंक दिया है जात औरआरक्षण में
वोट विभाजन की चतुराई नेताओं को फलती है
बोझ लाद कर के फ्यूचर का भेज दिया था कोचिंग को
खबर आत्महत्या की आई जाने किसकी ग़लती है
राजनीत के दल सारे ही दुबले निर्धन के मारे
किन्तु ग़रीबी जम बैठी है घर से नहीं निकलती है
9.
इधर-उधर जो करना था वह कर बैठा है
अब भीतर-भीतर उसका ही डर बैठा है
आखिरकार नहीं सुधरा उद्दंडी बालक
विद्यालय से नाम कटा अब घर बैठा है
खेती जिसको दी बोने को,रखवाली को
जाने किस हिकमत से उसको चर बैठा है
आना-जाना नहीं छूटता उसके घर का
कहता रहता है वह उस पर मर बैठा है
नहीं मयस्सर थी जिसको सूखी रोटी भी
उसको देखो देसी घी में तर बैठा है
पीते-पीते खेत बचा था दो बीघा बस
आखिर आज उसे भी गिरवी धर बैठा है
राजनीति नाली में रोज़ गिरेगी अक्सर
हर नेता में भाव दुश्मनी गर बैठा है
10.
उनके घर तो रिमझिम-रिमझिम कहकर ग़ज़ल गए
मेरे घर तक आते-आते बादल बदल गए।।
नानी के घर जाने को जैसे ही मना किया
एका करके गोल बनाकर बच्चे मचल गए।।
पहले अपनी जेब भरी पटवारी जी ने फिर
मेरे हक़ का ही मुझको दिलवाने दखल गए।।
उनका नाम करेगा उनका मेधावी बेटा
सारे घर वाले मिलकर करवाने नकल गए।।
बोई तो थी रामसरन ने ज्ञात सभी को था
पर,ले अमला मुखिया जी कटवाने फसल गए।।
जो सरकारी मदद दिलाने आए विपदा में
अपनी-अपनी सेवा करवा सारे डबल गए।
आम इलेक्शन सिर्फ अदावत अब तो आपस की
गाली खाकर गंगा न्हाने मुद्दे असल गए।
11.
जिसने मन से राम उचारे
पहुँच गए वह उसके द्वारे
भवसागर से पार लगाते
दो छोरों के राम किनारे
छोड़ जिदों को एक रहेंगे
समझें जो हम राम इशारे
इसके उसके राम सभी के
राम हमारे......राम तुम्हारे
राम भला ही करते सबका
हर बिगड़ी के...राम सहारे
राम काज में लड़ना कैसा
सबमें उनका नाम बसा रे
बीत रही जो, बीती जो या
हर लीला के...वही सितारे
उनकी निन्दा करने वाले
खुद को अब मत और गिरा रे
रावण ने भी....उनको माना
तब जाकर वह कहीं तिरा रे
हर उसने ही.....राम पुकारा
विपदा में...जो कहीं घिरा रे
पुण्य हमारे...तब ही फलते
जब हमने हों....पाप निथारे
भूत चढ़ा हो जब मिटने का
उसको कैसे.....कौन उतारे
12.
अद्भुत सुन्दर सबसे न्यारे
अचरज लगते राम हमारे
ग़ैर नहीं हो अपने ही हो
तुम भी ठहरे राम-दुलारे
उनके दर्शन करले वाला
और निहारे और निहारे
घर से उनके विस्थापन ने
रामचरित ही खूब निखारे
चमत्कार कर सकते थे वह
टिके रहे जो न्याय सहारे
उल्टे लटके उत्तर पाकर
राम विरोधी प्रश्न तुम्हारे
सहनशील मर्यादा जीती
गूँज उठे पुरुषोत्तम नारे
घोर विरोधी मन्दिर जाकर
माँग रहे अब गद्दी सारे
13.
डूबा सूरज कल निकलेगा
अँधियारे का हल निकलेगा
ज्ञान तनिक सा मिल तो जाए
खोटा सिक्का चल निकलेगा
बर्फ़ जमा है जितनी जग में
उसका होकर जल निकलेगा
स्वर्ण हिरण के पीछे-पीछे
दौड़ोगे तो छल निकलेगा
प्यास अगर है मन में सच्ची
कदम-कदम पर नल निकलेगा
दुख को भी मेहमान समझना
छक जाने पर टल निकलेगा
ठहरे ग़म को छाँट दिखाओ
खुशियों वाला पल निकलेगा
रोप दिए को पानी तो दो
पौधा-पौधा फल निकलेगा
14.
बात सुना!कुछ ताजा कर
दे दस्तक, मत भाजा कर
ग़म भी साझा कर लेंगे
इधर कभी तो आजा कर।
मुँह का स्वाद बदल देगी
चटनी से भी खाजा कर ।
सतत सनातन गाने को
जा बढ़िया सा बाजा कर।
ओछों को गरियाने दे
सुन!उनको भी राजा कर।
सहना अपनी आदत है
तू इतना मत गाजा कर।
15.
अगर भलाई कल की सोचें।
सबसे पहले जल की सोचें।।
उलझे रहते हो झगड़ों में
आओ इनके हल की सोचें।।
अपनी प्यास भूलकर दो पल
औरों के घर नल की सोचें।।
विफल रहे हैं अबतक हम तुम।
अब तो अच्छे फल की सोचें।।
बातचीत से काम बनें सब
कभी नहीं हम बल की सोचें।।
करें परस्पर घुल मिल बातें
नहीं किसी से छल की सोचें।।
मक्खन जी दे रहे परीक्षा
सभी परीक्षाफल की सोचें।।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद
बातचीत:9319086769
जब वह घर से निकला तो रास्ते में एक अजनबी से सामना हुआ। उसे लगा कि वह शख़्स रो रहा है। या फिर उसकी सूरत ही ऐसी है। शायद लगातार दुःख और तकलीफ़ें सहने की वजह से उसकी शक्ल ऐसी हो गयी है।
दोनों अपनी-अपनी रफ़्तार से चल रहे थे, इसलिए वह बस कुछ ही पल के लिए उसका चेहरा पढ़ पाया।
थोड़ी देर बाद उसे शक सा होने लगा कि उसके चेहरे ने उस अजनबी की शक्ल इख़्तियार कर ली है।
उसने देखा कि राह चलते लोग उसकी सूरत को बहुत ग़ौर से देख रहे हैं।
अब उसे एक आईने की ज़रूरत थी।
2. 'गुम'
बिजली की कड़कड़ाहट से जब देर रात बड़े मियाँ की आँख खुली तो उन्हों ने देखा कि बड़ी बी अपने बिस्तर पर नहीं थीं। यहीं-कहीं होंगी, आती होंगी, सोच कर चंद लम्हे इंतेज़ार किया। मगर जब बे-चैनी बढ़ी तो बिस्तर से उठ कर इधर-उधर देखने लगे। बड़े बेटे के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। बेटा और बहू निकल आए।
"तुम्हारी अम्मी कहाँ चली गयीं इस वक़्त?"
"ओह अब्बू!..." कहते हुए बेटे ने अफ़सोस से सर पकड़ लिया, "अम्मी जा चुकी हैं। अब वो नहीं आएँगी।"
परेशान बहू ने नर्म लहजे में कहा, "आप फिर भूल गए अब्बू! इस एक महीने में ये तीसरी बार है।"
बेटा हाथ पकड़ कर उन्हें उन के बिस्तर तक ले आया और लिटा कर चला गया।
बारिश शुरू हो चुकी थी। बड़े मियाँ देर तक ख़ाली बिस्तर को तकते रहे, फिर बुदबुदाए, "कैसा बुरा ख़्वाब है।"
3. 'बे-आई'
सूरज के डूबने का वक़्त नज़दीक था। भीड़, जिसकी नुमाइंदगी क़स्बे के चार-पाँच बदमाश कर रहे थे, बहुत ग़ुस्से में थी और लाठी-डंडों से लैस थी। शोर-शराबा बता रहा था कि ये लोग कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत रखते हैं।
ज़रा ही देर में जब भीड़ अपनी मंज़िल पर पहुँच गयी तो उसकी नुमाइंदगी कर रहे लोगों में से एक शख़्स एक तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए बोला, "ये रहा, यही है उसका मकान।"
ये सुन कर भीड़ उस मकान, जिसका कमज़ोर लकड़ी का दरवाज़ा अंदर से खुला था, में घुस गयी और अंदर मिलने वाले हर सामान और शख़्स को तोड़ना-फोड़ना शुरु कर दिया। घर में एक हंगामा बरपा हो गया, चीख़-ओ-पुकार मच गई। एक दुधमुँहा बच्चा एक छोटी सी चार-पाई पर पड़ा बिलख रहा था। एक वही था जो भीड़ का शिकार होने से बच पाया।
कारवाई शुरु हुए चंद मिनट ही हुए थे कि उंगली उठाने वाला शख़्स ज़ोर से चीख़ कर बोला, "अरे नहीं! शायद वो इसके बराबर वाला मकान था।"
4. 'जवाब’
"कई मिनट हो गए। पानी का नल घेर रखा है।.देखो, अब वो हाथ धो रहा है। ...अब उस ने हाथ गीला करके सर पर फेरा। ...लो, अब पैर धोने लगा। क्या तुम्हें ये सब अजीब नहीं लगता?"
"तुम्हारे लिए ये सब अजीब है। उस के लिए नहीं है। क्या फ़र्क़ पड़ता है इस बात से?"
"फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ेगा? पब्लिक प्लेस पर वो ये सब कैसे कर सकता है? ...अब देखो, ज़मीन पर कपड़ा बिछा कर खड़ा हो गया।"
"एक कोने ही में तो खड़ा है। अब जैसी जिस की श्रद्धा। क्या तुम्हारा कुछ नुक़सान कर दिया उस ने?"
"जो भी हो, मगर मुझे ये सब पसंद नहीं।"
"तो अब तुम क्या करोगे?"
"अगर उस को आज़ादी है तो मैं क्यूँ पीछे रहूँ।" कह कर उस ने कुर्ते की जेब से माला निकाली और कुछ प्रबंध किया, फिर पूछा, "और तुम?"
"मेरी अभी इच्छा नहीं है। तुम करो। और हाँ, जब कर चुको तो उस को शुक्रिया ज़रूर बोल देना।"
✍️ फ़रहत अली ख़ान
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412244221
तपाक से हाथ मिलाया, हाल-चाल पूछा, घर-गृहस्थी की चर्चा की। मैंने सोचा, चलो कोई तो आत्मीयता दिखाने वाला मिला। नई जगह पर परिचित व्यक्ति जरूरी होता है।
जब मैंने डिपार्टमेंट में प्रवेश किया तो किसी तेज तंबाकू की सुगंध मेरे नथुनों में जबरदस्ती घुसने की जिद करने लगी। मेरी निगाह उसी ओर घूम गई।
पतली मोरी की पैंट पर खद्दर की कमीज धारण किए हुए एक महाशय बनारसी स्टाइल में बीड़ा चबा रहे थे। लगता था कि इसके साथ ही वे सारे परिवेश को पीने की ख़ास कोशिश कर रहे थे।
नमस्कार-निवेदन के बाद मैंने अपना परिचय दिया तो वे चहक उठे,‘वाह, वाह आप ही हैं। आइए-आइए, बैठिए-बैठिए। बड़ी ख़ुशी हुई आपके आने पर। एक साथी बढ़ गया।’
उनके वार्तालाप से ही पता चल गया कि वे भी यहीं की तोड़ रहे हैं और मुझसे सीनियर है।
मैं नतमस्तक हो गया।
बोले,‘कोई परेशानी हो तो बताइएगा। मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?’और इसके साथ ही उन्होंने विद्यालय के संपूर्ण भूगोल, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर सेवापूर्व दीक्षा-भाषण दे डाला। दीक्षांत भाषण तो मैंने डिग्री लेते हुए कई बार अनमने मन से सुने थे, किंतु इस भाषण को पता नहीं क्यों, ध्यानपूर्वक सुनता रहा।
दीक्षांत समारोह के विशाल पंडाल में जगमगाती हुई रोशनी से दिया जाने वाला औपचारिक भाषण मुझे सदैव उबाता रहा है। वही औपचारिक शपथ बी॰ए॰ से लेकर पी-एच॰डी॰ की डिग्री तक बार-बार दुहराता रहा और फिर सम्मानित मुख्य अतिथि का लिखा भाषण, जिसकी छपी प्रतियाँ पहले भी बँट जाती थीं, बड़ा बोर करता था। लगता था कि इसका जीवन से कहीं से कहीं तक संबंध नहीं है और प्रायः मैं पंडाल में औपचारिकता निभाने के ख़याल से ही बैठा रहता था, अन्यथा मन तो भविष्य के सपने सजाने में सोने की तैयारी में लगा रहता था।
किंतु पता नहीं इस भाषण में क्या आकर्षण था कि मंत्रमुग्ध-सा सुनता रहा। अब मैं धनुषाकार हो गया था। यदि वहाँ जगह होती तो साष्टांग करने की इच्छा पूरी कर लेता। इतने में ही किसी दूसरे विभाग के प्राध्यापक भी वहाँ आ गए थे। इसलिए यह अवसर मेरे हाथ से निकल गया। तभी मन ने कहा-‘अच्छा ही हुआ। पहली भेंट में इतना ही काफ़ी है।’
वे दोनों काफ़ी देर तक विद्यालय का भूगोल डिस्कस करते रहे। समाजशास्त्र में चलती हुई गाड़ी राजनीति के स्टेशन पर आकर सीटी देने लगी। अभी तक मैं निस्पृह भाव से आगे की सोच रहा था, किंतु अब मेरे कान भी खड़े हो गए। मैंने पहली बार समझा कि भूगोल और समाज से बचकर निकला जा सकता है, किंतु राजनीति के दरवाजे ऑटोमेटिक हैं और इनमें भारी पावर का चुंबक भी लगा है। ये हमारे तन-मन को अपनी ओर खींचकर एकदम बंद हो जाते हैं। बचो बच्चू! कैसे बचोगे?
मुझे एहसास हुआ कि नुक्कड़वाले की चाय की दुकान से लेकर कालेज की कैंटीन तक सभी राजनीतिज्ञ हैं। जो इससे अलग है, वह संसार का सबसे व्यर्थ व्यक्ति है। अपने अस्तित्व के लिए किसी के साथ जुड़ना और किसी से कटना जरूरी है। बीच में नहीं रह सकते। होता होगा मध्यम मार्ग। चलते होंगे साधक उन पर भी, किंतु अब तो राजनीति की मोटर आपको घायल करती हुई निकल जाएगी। फिर तो पोस्टमार्टम के लिए भी पुलिस ही उठाएगी। भीड़ तो अपने रास्ते निकल जाती है।
मन में कैसी-कैसी कड़वाहट भर गई। मैं बड़ी घुटन-सी महसूस कर रहा था। पंखे की खर्र-खर्र में भी मेरी साँस मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी। मुझसे वहाँ न रुका गया। मैं वहाँ से उठ आया।
एक सप्ताह बीत गया। एक कहावत है-नया मुल्ला अल्ला-अल्ला पुकारता है। मैं छात्रों पर अपना प्रथम प्रभाव डालने में व्यस्त था। पता नहीं छात्रों को एक ही बार पंडित बनाने का भूत क्यों सवार हुआ?(अब तो मैं स्वयं भूत बन चुका हूँ) मुझे इस बात का भी ध्यान न रहा कि विद्यालय में प्राचार्य नाम का भी जीव रहता है और कभी-कभी उसके दर्शन करने अनिवार्य हैं। भगवान की एक क्वालिटी के विषय में मैं सदैव से आश्वस्त रहा हूँ कि तुम उसे भले ही याद न करो, वह तुम्हें अवश्य याद कर लेता है।
लायब्रेरी के एक कोने में कुर्सी पर आसीन मुझको किसी की आवाज ने चौंका दिया। गर्दन उठाई तो मेरे सामने चपरासी रूपी देवदूत (यमदूत भी कह सकते हैं।) एक कागज लिए हुए खड़ा था। अबू बेन ऐदम के समान मैं उससे उस लिस्ट के विषय में पूछने ही वाला था कि ‘हे देवदूत, इस पर किनके नाम लिखे हैं? क्या तुम भी अच्छे आदमियों के नाम नोट कर रहे हो?’ पर कुछ सोचकर रुक गया।
उसने अपनी स्वाभाविक वक्रता के साथ पूछा,‘आप ही अग्रवाल साब हैं?’ कहना तो चाहता था कि मिस्टर, तुम्हें बंदर या लंगूर दिखाई दे रहा हूँ? किंतु अपने चेहरे का ख़याल करके चुप रह गया। फिर इस चपरासी नामक जाति का बहुत नहीं तो थोड़ा-बहुत अनुभव अवश्य है, यह विशिष्ट प्राणी अपने को सबका बॉस समझता है।
एक बार की बात है। मैं इंटर में पढ़ता था। जाड़ों के दिन थे। प्रधानाचार्य महोदय धूप में बैठे चारों ओर का निरीक्षण कर रहे थे। वे अपने पास दूसरी कुर्सी रखना अपना अपमान समझते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति उनके पास आकर खड़े-खड़े बात करे। चांस की बात, उनका साला विद्यालय में ही चला आया। उन्होंने चपरासी को कुर्सी लाने के लिए आवाज लगाई। मंगू ने खचेडू को खचेडू ने कूड़ेसिंह और कूड़ेसिंह ने कल्लू को कुर्सी लाने का आदेश दिया और शांति के साथ अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। चारों ओर ‘कुर्सी-कुर्सी’ का शोर मच गया,किंतु कुर्सी न आई।
ऐसा सोचकर मैंने कहा,‘कहिए, क्या काम है?’
‘आपको प्रिंसिपल साब ने याद किया है।’ वह गंभीरता के साथ बोला।
‘कोई विशेष बात है?’ मैंने सवाल किया।
‘उनसे ही पूछिए।’ मानो वह प्रिंसिपल नहीं तो उन जैसा ही कुछ हो।
मुझे याद आया। मैंने अभी तक उनके आफ़िस के द्वार पर सिजदा नहीं किया है। एक फुरहरी-सी मेरे शरीर में दौड़ गई। जैसे किसी ने बर्फ़ का एक टुकड़ा मेरे कॉलर में डाल दिया हो।
प्राचार्य के आफ़िस में पूछकर जाने का रिवाज था। हड़बड़ी में मैं इस रिवाज का ध्यान न रख पाया। छात्रें को इस सांस्कृतिक कार्यक्रम से छूट मिली हुई थी। प्रिंसिपल साहब ने बिना मुँह उठाए पूछा, ‘कहो-कहो, क्या काम है? एप्लीकेशन लाए होगे। लाओ-लाओ।’ मैं मन-ही-मन ख़ुश हुआ कि हमारा प्राचार्य बड़ा दयालु और मिष्टभाषी है।
मैंने कहा,‘सर, मैं कोई एप्लीकेशन नहीं लाया। आपने---।’
नीचे कागज पर दृष्टि गड़ाए हुए ही उन्होंने कहा,‘क्या, क्या कहा, मैंने क्या?’
‘सर, आपने मुझे बुलाया था। मेरा नाम अग्रवाल। हिंदी विभाग में।’
प्राचार्य की मुखमुद्रा बदली होगी, उस पर सिलवटें भी पड़ी होंगी, मुँह पर कसैलापन भी उभरा होगा, दृष्टि भी वक्र हुई होगी, मुझे नहीं पता। मेरी दृष्टि तो नीचे की ओर थी। मैंने तो केवल इतना ही सुना, ‘ठीक है, ठीक है। किंतु आपको पता है, मैं एक जरूरी काम कर रहा हूँ। आपको प्राचार्य के पास आने के मैनर्स भी पता नहीं? महोदय, आगे से ध्यान रखिएगा। आप जा सकते हैं।’
मैं सर पर पैर रखकर भागा। मुझे फिर अहसास हुआ कि टुकड़ा डालने वाला रोब दिखाता ही है। चाहे छात्र हो अथवा प्राचार्य। यह अपनी-अपनी शक्ति पर निर्भर है कि हाथ से छीन भी लो और गुर्राओं भी अथवा पूँछ हिलाते हुए तलुवे चाटा करो।
मेरा मुँह एक बार फिर कड़वा हो गया।
पंद्रह दिन बीत गए। कोई हलचल नहीं हुई।
सारा कार्यक्रम बख़ैरियत चलता रहा। कभी-कभी अपने सीनियर मित्र से सलाह-मशवरा लेना अपना धर्म समझता था। उनकी वरीयता इस बात की डिमांड भी करती थी कि मैं बार-बार अपने जूनियर होने का भरोसा दिलाता रहूँ। मन को यह कहकर दिलासा दिलाता-‘फिक्र न करो, तुम्हारा क्या जाता है। चुप रहो, बोलना और मुँह खोलना अपने पाँव में ख़ुद कुल्हाड़ी मारना है।’ दिल ही तो था, कोई छात्र तो नहीं, इस नाजायज दबाव को मान लेता।
क्लासरूम में घुसा और हाजिरी रजिस्टर की पूँछ काटनी शुरू की। कितना उबाऊ काम है हाजिरी लेना। पचास सिंह और पच्चीस पुरुषवाचक रानियों की सूची का हनुमान चालीसा रोज पढ़ना पड़ता है। इस छात्र-स्वतंत्रता के युग में जेलर की हाजिरी परेड का औचित्य ही क्या है?‘न आने वालों’ को कौन बुला सकता है और जानेवालों को कौन रोक सकता है? है किसी में हिम्मत उनको परीक्षा में बैठने से रोक सके। इतना सोचते-सोचते रजिस्टर बंद कर दिया। आखि़री नाम जो आ गया था।
व्याकरण भी क्या बला है? छात्रों के सिर पर तलवार-सी लटकती रहती है। दुर्भाग्य से मैं इसकी राह का राहगीर बना दिया गया हूँ। मेरा वश चलता तो अपनी टाँग तोड़े पड़ा रहता। वह तो भविष्य का ख़्याल करके चुप रह जाता हूँ।
मेरे खड़े होते ही एक छात्र ने सवाल किया,‘सर आपने कहा था ‘निर’ उपसर्ग जिस शब्द में लग जाता है, उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है जैसे निर्दोष, जिसमें दोष न हो, निर्बल जिसमें बल न हो, निरंकुश जिस पर अंकुश न हो।’
बात ठीक थी माननी पड़ी।
फिर सर,‘निर्माता’ का अर्थ क्या हुआ?
मेरे बोलने से पहले ही एक दूसरा छात्र बोल पड़ा,‘जिसके माता न हो, सर।’
क्लासरूम में हँसी का बम बिस्फोट हो चुका था और मैं घुग्घू की भाँति सबको टाप रहा था। सारी व्याकरण धरी रह गई। लगा सैकड़ों गधे एक साथ मेरे कानों पर रेंक रहे हों।
विषय से हटकर मैं समाज की चर्चा करने लगा। मुझे सबके भविष्य की चिता एक साथ सताने लगी। देर तक उनकी सफलता के गुर बताता रहा। परीक्षा से फैलती-फैलती दीक्षा-गाथा जीवन और जगत् तक पहुँच गई।
मुझे एक अहसास हुआ कि असफलता व्यक्ति को दार्शनिक बना देती है और मैं दुनिया-भर के दार्शनिकों की जीवन-कथाओं को दोहराने लगा था।
✍️ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल
ए 402, पार्क व्यू सिटी 2
सोहना रोड, गुरुग्राम
78380 90732
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की मासिक काव्य गोष्ठी 14 अक्टूबर 2024 सोमवार को आयोजित की गई । गोष्ठी की अध्यक्षता रामदत्त द्विवेदी ने की मुख्य अतिथि के रूप में डॉ महेश दिवाकर एवं विशिष्ट अतिथि डॉ राकेश चक्र रहे। सरस्वती वंदना रघुराज सिंह निश्चल ने प्रस्तुत की एवं मंच संचालन अशोक विद्रोही द्वारा किया गया।
डॉ महेश दिवाकर द्वारा कवियों को जागृत करते हुए कहा देश की परिस्थितियों बहुत विषम होती जा रही हैं। साहित्यकारों का कर्तव्य है ऐसे समय में क्रांतिकारी गीत लिखें । लोगों की आत्मा को जागने वाली रचनाएं लिखें और अपने देश को बचाने के लिए वर्तमान असंतोष को अपने गीतों में व्यक्त करें।
योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई ने कहा -
आंसू की स्याही से लिखो मोती जैसे बोल ,
अपने गीतों की पुस्तक को धीरे-धीरे खोल।
किसे जरूरत है जो बोले पाप पुण्य की बात।
यहाँ प्रश्नों के उत्तर हो जाते गोलम गोल ।
अशोक विद्रोही ने देश प्रेम के भाव इस प्रकार व्यक्त किये–
रोके से भी रुक न सके हम वो दरिया तूफानी हैं।
मां जीजा के वीर शिवा राणा की अमर कहानी हैं
निकल पड़े यदि रण में तो मुश्किल है कि पीछे हट जायें,
इंच इंच कट जायेंगे हम सच्चे हिन्दुस्तानी हैं।
वीरेंद्र सिंह बृजवासी ने पढा़-
सर्वदा अलस्य त्यागो नहीं श्रम से दूर भागो ।
कठिनता की चाशनी में सफलता का मंत्र पागो।
राम सिंह निशंक ने कहा -
नगर गांव में प्रदूषण नित नित बढ़ता जाए ,
वायु शुद्ध कैसे रहे इसका करो उपाय।
अशोक विश्नोई ने कहा-
मर चुका आंखों का पानी लिख,
उजड़े हुए घरों की कहानी लिख।
क्या सोचता है प्यारे उठा कलम,
रोते हुए बच्चों की जवानी लिख ।
ओंकार सिंह ओंकार ने इस प्रकार अपनी अभिव्यक्ति दी-
पुतला रावण का सभी फूंक रहे हर साल ।
उसकी मगर बुराइयां लोग रहे हैं पाल ।
राजीव प्रखर ने कहा....
सूना-सूना जब लगा, बिन बिटिया घर-द्वार ।
चीं-चीं चिड़िया को लिया, बाबुल ने पुचकार।।
रघुराज सिंह निश्चल ने पढ़ा....
यह देश अगर सबका होता तो भारत क्या ऐसा होता।
भारत अखंड भारत रहता यह हाल न भारत का होता ।।
:::::प्रस्तुति::::::
अशोक विद्रोही
उपाध्यक्ष
राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत