बुधवार, 21 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता के सम्मान में कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी)  प्रदीप गुप्ता के सम्मान में रविवार 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन किया गया। आयोजन में उपस्थित साहित्यकारों ने मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य पर चर्चा के साथ- साथ काव्य पाठ भी किया। 

   कांठ रोड स्थित कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में   प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के संरक्षण में आयोजित कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने किया । काव्य पाठ करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा-- 

साथ-साथ बढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

फ्रेमों में मढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

    प्रदीप गुप्ता का कहना था-- 

किनारे बैठ कर देख लिया बहुत हमने

मौज के साथ तनिक बह के भी देखा जाए 

हास्य व्यंग्य के वरिष्ठ रचनाकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा-- 

चोरी की कविताओं की 

हाय-हाय को लेकर

सवाल यह पैदा होकर सामने आया है

किसने किसका माल चुराया है

वरिष्ठ रचनाकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा -- 

द्वेष घृणा मिट सके दिलों से कुछ ऐसे अश्आर लिखो मानवता दम तोड़ रही है कुछ इसका उपचार लिखो    

    चर्चित नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम का कहना था --- 

रामचरितमानस जैसा हो

घर आनंद का अर्थ

मात-पिता पति पत्नी भाई 

गुरु शिष्य संबंध

पनपें बनकर अपनेपन के

अभिनव ललित निबंध 

     वरिष्ठ बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना ने कहा ....

प्राचीर के पीछे

सूरज निकल तो रहा है

पत्थरों के भीतर

कुछ पिघल तो रहा है

स्पंदन धीमे ही सही

जीवन चल तो रहा है

अंधेरा घना ही सही

दीपक जल तो रहा है

 मैं यूं ही डरा जा रहा हूं 

     युवा शायर ज़िया जमीर का कहना था... 

हकीकत था मगर अब तो फसाना हो गया है 

उसे देखे हुए कितना जमाना हो गया है  

युवा कवि मयंक शर्मा

मन ले चल अपने गांव यह शहर हुआ बेगाना

दुख का क्या है दुख से अपना पहले का याराना

      राजीव  प्रखर ने दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा ....

अब इतराना छोड़ दे, ओ निष्ठुर अंधियार

 झिलमिल दीपक फिर गया, तेरी मूंछ उतार  

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने नवगीत प्रस्तुत करते हुए कहा... 

उसके दम से मां की बिंदी, 

बिछिया कंगना हार 

नहीं पिता के हिस्से आया 

कभी कोई इतवार 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा ... 

सुंदरता नैसर्गिक हो सकती है

किंतु उसका स्थायित्व 

तुम्हें अर्जित करना पड़ता है 

फूल यूं ही फूल नहीं होता

उसे हर पल 

फूल रहना पड़ता है 

     डॉ मनोज रस्तोगी ने  कविता 'नई सदी की ओर' के माध्यम से युवा पीढ़ी के अपनी परंपराओं से विमुख होने पर चिंता व्यक्त की....

भेड़ियों के मुहल्ले में 

गूंजते हैं 

रात को स्वर 

आदमी आया ,आदमी आया 

 रंगकर्मी धन सिंह धनेंद्र ने मुरादाबाद के रंगमंच पर चर्चा की वहीं डॉ स्वीटी तलवार ने प्रदीप गुप्ता की कविता का पाठ किया ।अनिल कांत बंसल ने मुरादाबाद की साहित्यिक विरासत पर चर्चा की । आभार डॉ मनोज रस्तोगी ने व्यक्त किया ।










































मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत.... फूलों जैसी कुछ इच्छाएं अब भी जिंदा हैं...

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मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता की रचना ...लिखो वही जो ठकुर सुहाए, भले ही किसी की समझ न आए

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सोमवार, 19 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर की ग़ज़ल .... हकीकत था मगर अब तो फसाना हो गया है /उसे देखे हुए कितना जमाना हो गया है....

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मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत ...साथ-साथ बढ़ता है/ उम्र के/ अकेलापन/ फ्रेमों में मढ़ता है /उम्र के/ अकेलापन

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मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत...हम भारत माता के बच्चे यह भारत देश हमारा है.... उन्हीं के सुपुत्र अनंत मनु के स्वर में

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शनिवार, 17 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' का बाल कविता संग्रह ....नोक - झोंक । यह कृति वर्ष 2003 में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की गई । इस संग्रह में श्री सरस की 32 बाल कविताएं हैं ।


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डॉ मनोज रस्तोगी 

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822




मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की रचना..जिन्होनें बच्चों को दिलाए, जूते महंगे, ब्रांडेड/ उन सभी माता पिता के,पांव में छाला मिला


जब भी देखा गौर से, इक नया घोटाला मिला

कहीं पर काली दाल,कहीं दाल में काला मिला


शासकों के जुर्म को, चुपचाप सब सहते रहे

गूंगे थे कुछ,और कुछ की, जुबान पर ताला मिला


जिन्होनें बच्चों को दिलाए, जूते महंगे, ब्रांडेड

उन सभी माता पिता के,पांव में छाला मिला


अंधियारे से झोपड़ी,चुपचाप ही लड़ती रही

बंधुआ मजदूर सा किसी,महल में उजाला मिला


अपनी कृपा बरसाने को,वह हर समय तैयार था

मांगने वाला ही अक्सर,हमको ढीला ढाला मिला


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की कृति "हमारे कवि और लेखक एवं रस छंद अलंकार" । इस कृति के द्वितीय संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन हिंदी साहित्य सदन मुरादाबाद द्वारा संभवत: वर्ष 1991में किया गया । काव्य और सूत्रात्मक शैली में लिखी गई यह कृति कक्षा 9 से 12 तक के हिंदी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है। इस कृति में 55 साहित्यकारों के विस्तृत जीवन परिचय और साहित्य सेवा को 6 पंक्तियों के कुंडलिया छंद में बांधने का प्रयास किया गया है। इस 'छक्के' के नीचे अंकित 'उल्लेखनीय बिंदु', 'दृष्टिकोण' 'साहित्य सेवा' एवं 'सूक्ति' आदि का सहारा लेकर साहित्यकार का विस्तृत जीवन परिचय तैयार किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त रस, छंद, अलंकारों की काव्यबद्ध परिभाषाएं भी दी गई है ।


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मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोक कृष्णम के दोहे ....

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की काव्य कृति ....पर्यावरण पचीसी। यह कृति पुनीत प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई थी ।


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गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार की व्यंग्य कविता ...बदलाव.


हमारी शायरी सुनकर

या हमारी कविता पढ़कर,

अगर किसी का ज़हन नहीं बदला

मौहब्बत ने नफरत की 

और, नेकी ने बदी की जगह नहीं ली,

 तो ये सब हमारे खुद के दिल बहलाने का

 ही एक ज़रिया हो सकता है

इससे किसी और का बसेरा नहीं होता,

सोच बदलने से भी नया दिन निकलता है,

सिर्फ सूरज के चमकने से ही सवेरा नही होता।

कब तलक खाली जेब भूखे  पेट ,

डिग्री हाथ मे लेकर

हम आपके गीत  गायेंगे 

हम कोई साधु तो हैं नहीं

जो गंगा तट पर जा कर धूनी रमायेंगे

वैसे सचमुच युग बदल गया है, 

अब साधु महात्मा जंगल या

हिमालय की कन्दराओं में जाकर

एकान्त में

तपस्या नहीं करते ,

अब आप सन्यासी वाले कपड़ेे पहन कर

सियासत भी कर सकते हैं"

और बिजनेस भी

आप भी ज़माने  के इस बदलाव को

स्वीकार कर लीजिए,

विज्ञापनों और भाषणों से

अपना पेट भर लीजिए।

✍️ आमोद कुमार 

दिल्ली

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति ने 14 दिसंबर 2022 को आयोजित की काव्य-गोष्ठी

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की मासिक काव्य-गोष्ठी बुधवार 14 दिसंबर 2022 को विश्नोई धर्मशाला, लाइनपार पर आयोजित की गई। राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ रचनाकार रामदत्त द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना एवं विशिष्ट अतिथि के रुप में  के. पी. सरल मंचासीन रहे। कार्यक्रम का संचालन श्री रामसिंह निशंक ने किया। 

      उपस्थित रचनाकारों में प्रशांत मिश्र, राजीव प्रखर, ओंकार सिंह ओंकार, रामसिंह निशंक, रमेश गुप्ता, रघुराज सिंह निश्चल, रामेश्वर वशिष्ठ, योगेन्द्र पाल विश्नोई, कुन्दन लाल एवं डॉ. मनोज रस्तोगी ने अपनी-अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से विभिन्न सामाजिक पहलुओं को उजागर किया। योगेन्द्र पाल विश्नोई ने आभार-अभिव्यक्त किया।


















मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत .... शहर मेरा पीतलनगरी है स्वर्णिम आभा लिए हुए ....

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बुधवार, 14 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की दो बाल कविताएं : जाड़ा


 
(एक)

सूरज दादा सिहर सिहर कर

 अकड़े ऐंठे बैठें हैं।

लगता सिकुड़ रहे सर्दी से, 

इससे   सचमुच  ऐंठे हैं ।।


जगते समय ,देर से उठते

जल्दी ही ,सो जाते हैं ।

खुद भी ठिठुर रहे  सर्दी से

हमको भी ठिठुराते हैं ।।


इस सर्दी के  कारण ही तो

रात बड़ी, दिन छोटा है।

इससे बहुत देर बिस्तर पर

सोना अपना होता है ।।

     

अगर देर तक दिन रहता तो

शीत सताती  हमें इधर ।

उछल कूद करने के कारण

हम सर्दी खाते   दिन भर ।।


कभी सिकुड़ कर, कभी फैलकर

कुदरत करती अपना काम।

यों मौसम परिवर्तन होता

गर्मी सर्दी पाते  नाम ।।

   

 अत: सिकुड़ना और फैलना

 हुआ ताप का असली काम।

 इसे ताप सिद्धांत समझ लो

मिलते विंटर समर नाम ।।


(दो)

जाड़ा जाड़ा जाड़ा जाड़ा

इस जाडे़ ने किया कबाड़ा ।

कट कट कट कट दॉत कटकते

मानो हम पढ़ रहे पहाड़ा ।।

   

दिन छोटा, पर रात बड़ी है

सर्दी हण्टर  लिये खड़ी है ।

सूरज भी सहमा- सहमा सा

लगता इस पर पडा कुहाड़ा ।।


दिन में धूप सुहानी लगती

छाया ,दैत्य- सरीखी खलती ।

लम्बी रातें ,लगें भयानक

छाता अँधकार है गाढ़ा ।।

  

 पशु -पक्षी भी महा- दुखी हैं

 जो समर्थ हैं ,वही सुखी हैं ।

 कॉप रहे  हैं  सब सर्दी से 

बछिया -बछड़े,पड़िया -पाड़ा ।।


क्षण क्षण में घिर आते बादल

छाता अँधियारा, ज्यों काजल

झम झम झम झम वर्षा होती

धन गरजें, ज्यों सिंह दहाड़ा ।।

    

 सबको भाती गरम  रजाई

 हलवा- पूड़ी, दूध -मलाई ।

 सुड़ड़ सुड़ड़ सुड़ नाक बोलती

 पीना पड़ता कड़वा काढ़ा ।।


आलू ,शकरकंद सब खाते 

धूप भरे दिन, सदा सुहाते ।

गजक रेबड़ी ,अच्छी लगतीं

गुड़ से खाते  गर्म सिंघाड़ा ।।


✍️ शिव अवतार रस्तोगी 'सरस'


मुरादाबाद की साहित्यकार कंचन खन्ना का बाल गीत ....सर्दी आई


 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोक कृष्णम की व्यंग्य कविता ...कितने बचकाने हो तुम ...

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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल के गीत संग्रह 'चांद लगे कुछ खोया खोया' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा - छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते मिठास भरे गीत’

लखनऊ की वरिष्ठ गीत-कवयित्री डाॅ. रंजना गुप्ता ने कहा है कि ‘गीत मन की रागात्मक अवस्था है। मन के सम्मोहन की ऐसी दशा जब मन परमानंद की अवस्था में लगभग पहुँच जाता है, हम ज्यों-ज्यों गीत के अनुभूतिपरक सूक्ष्म तत्वों के निकट जाते हैं त्यों-त्यों जीवन का अमूल्य रहस्य परत-दर-परत हमारी आँखों के सामने खुलने लगता है और हम एक अवर्णनीय आनंद में सराबोर होने लगते हैं।’ 

      वरिष्ठ कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ की दो ‘सरस्वती-वंदनाओं’ से आरंभ होकर ‘जो सलोने सपन’ तक के 78 गीतों से गुज़रते हुए डाॅ. पूनम बंसल के मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं, हमारे त्योहारों-पर्वों के महत्व को रेखांकित करते मिठास भरे गीत हैं तो दार्शनिक अंदाज़ में जीवन-जगत के मूल्यों को व्याख्यायित करते गीत भी। कवयित्री ने शिल्पगत प्रयोग भी किए हैं जो संग्रह को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ऐसे ही सार्थक प्रयोगों के प्रमाण स्वरूप दोहा-छंद में लिखे एक गीत ‘कल की कर चिन्ता नहीं’ में कवयित्री जीवन को सकारात्मकता के साथ जीने के संदेश को व्याख्यायित करती हैं-

कल की कर चिन्ता नहीं, कड़वा भूल अतीत

वर्तमान को जी यहाँ, जीवन तो संगीत

अनुभव की छाया तले, पलता है विश्वास

कर्मभूमि है ज़िन्दगी, होता यह आभास

दही बिलोने से सदा, मिलता है नवनीत

इसी तरह जीवन की वास्तविकताओं को शब्दायित करते हुए जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त करता संग्रह का एक अन्य गीत ‘दुख के बाद सुखों का आना’ पाठक को मंथन के लिए विवश करता है-

दुख के बाद सुखों का आना, जीवन का यह ही क्रम है

साथ नहीं कुछ तेरे जाना, क्यों पाले मन में भ्रम है

जन्म-मृत्यु दो छोर सृष्टि के, बहता यह अविरल जल है

मरकर होता पार जगत से, पाता एक नया तल है

रूप बदलकर जीव विचरता, फिर भी आँख करे नम है

हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। प्रेम मात्र एक शब्द ही नहीं है, प्रेम एक अनुभूति है समर्पण, त्याग, मिलन, विरह और जीवन के क्षितिजहीन विस्तार को एकटक निहारने, उसमें डूब जाने की। कवयित्री के प्रेम गीतों में भावनायें अनुभूतियों में विलीन होकर पाठक को भी उसी प्रेम की मिठास-भरी अनुभूति तक पहुंचाने की यात्रा सफलतापूर्वक तय करती हैं। प्रेमगीतों के परंपरागत स्वर को अभिव्यक्त करता कवयित्री का एक हृदयस्पर्शी गीत देखिए-

चाँदनी रात में चाँद के साथ में

गीत को स्वर मिले हैं तुम्हारे लिए

रास्ते दूर तक थे कटीले बने

प्रेम के स्वप्न फिर भी सजीले बने

भावनाएँ सुगंधित समर्पित सभी

फूल मन में खिले हैं तुम्हारे लिए

इसी प्रकार प्रेम में विरह की संवेदना को कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल जब अपने गीत ‘साजन अब तो आ भी जाओ’ में गाती हैं तो लगता है कि जैसे कोई शब्दचित्र उभर रहा हो मन की सतह पर-

प्यार हमारा कहीं न बनकर रह जाये रुसवाई

साजन अब तो आ भी जाओ याद तुम्हारी आई

सपन-सलोने आँखों में आ-आकर हैं शर्माते

साँसों में घुल-मिलकर देखो गीत नया रच जाते

पर खुशियों के आसमान पर ग़म की बदरी छाई

उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी वह जीवनदायिनी घुट्टी है जो पग-पग पर हर पल नई ऊर्जा देती रहती है। हमारे देश में, समाज में उत्सवों की एक समृद्ध परंपरा है, वर्ष के आरंभ से अंत तक लोकमानस को विविधवर्णी उल्लास से सराबोर रखने वाले ये उत्सव अवसाद पर आह्लाद प्रतीक होते हैं। वसन्तोत्सव का आगमन अनूठे आनंद की अनुभूति का संचार तो करता ही है। वसंतोत्सव का पर्व तन की मन की व्याधियों को भूलकर हर्ष और उल्लास के सागर में डूब जाने का पर्व है। वसंत अर्थात चारों ओर पुष्प ही पुष्प, पीली सरसों की अठखेलियां, आमों के बौर की मनमोहक महक, कोयल का सुगम गायन सभी कुछ नई ऊर्जा देने वाला पर्व। संग्रह के एक गीत ‘मन के खोलो द्वार सखी री’ में डाॅ. पूनम बंसल भी वसंत को याद करते हुए अपनी भावनाएं कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-

मन के खोलो द्वार सखी री, लो वसंत फिर आया है

धरती महकी अम्बर महका, इक खुमार-सा छाया है

पीत-हरित परिधान पहनकर, उपवन ने शृंगार किया

प्रणय-निवेदन कर कलियों से भौंरांे ने गुंजार किया

इन प्यारे बिखरे रंगों ने, अभिनव चित्र बनाया है

वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रति पल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। सांस्कृतिक-क्षरण और मानवीय मूल्यों का पतन के रूप में आज के समय के सबसे बड़े संकट और सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिन्ता को कवयित्री गीत में ढालकर कहती हैं-

भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई

मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई

नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूल्यों का भी ह्रास हुआ

मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ

पश्चिम की इस चकाचौंध में लाज-हया भी शरमाई

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समर्थ गीत-कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की ही तरह निश्छल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। उनके इस प्रथम गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ में संग्रहीत उनके मिठास भरे और छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते गीत पाठक-समुदाय को अच्छे लगेंगे और हिन्दी साहित्य-जगत में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करायेंगे, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी। 



कृति - ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ (गीत-संग्रह)            

कवयित्री - डाॅ. पूनम बंसल

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-244105

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य200 ₹


समीक्षक
- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9412805981


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के हसनपुर (जनपद अमरोहा निवासी) के साहित्यकार मुजाहिद चौधरी की ग़ज़ल ... हमें महफिल सजाने की .....

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मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर का मुक्तक

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मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में जकार्ता,इंडोनेशिया निवासी) वैशाली रस्तोगी के दोहे .....

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल के कृतित्व पर केंद्रित हेमा तिवारी भट्ट का आलेख .... मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करते हैं डॉ शुक्ल


 "Art is perfect when it seems to be nature and nature hits the mark when she contains art hidden within her"

Cassius Longinus

लोंजाइनस की उपरोक्त पंक्तियाँ मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ आर. सी.शुक्ल जी की रचनाओं के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती हैं।उनकी रचनाएँ उनके गहन अध्ययन,अथाह ज्ञान और हिन्दी और अंग्रेजी दोनों पर उनकी मजबूत पकड़ के साथ साथ उनके जीवन अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हैं।डॉ. शुक्ल की अंग्रेजी में लिखी कविताओं की 10 पुस्तकें व हिंदी में लिखी 5 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।उनकी पहली हिन्दी काव्य कृति *मृगनयनी से मृगछाला*, तत्पश्चात *मैं बैरागी नहीं* के अतिरिक्त *The Parrot shrieks-2, Ponderings-3,* "मृत्यु" शीर्षक युक्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, *परिबोध* और 1-2 अप्रकाशित गीतों को पढ़ने का सुअवसर मुझे अद्यतन प्राप्त हुआ है।अपनी अल्प बुद्धि से इस पठित सामग्री के आधार पर डॉ शुक्ला जी की रचनाओं और एक रचनाकार के रूप में स्वयं शुक्ला जी के बारे में मेरा जो अवलोकन है,वह मेरी आरम्भ में कही गयी बात को पुष्ट करता है।

क्षणभंगुरता घूम रही है चारों तरफ हमारे

हरी घास पर बूँद चमकती आकर्षण हैं सारे।

 उपर्युक्त पंक्तियों के रचयिता डॉ शुक्ल जी गंभीर सोच और दार्शनिक प्रवृति के विद्वान लेखक हैं। भारतीय दर्शन, वेदों, उपनिषदों और आध्यात्म का उन पर गहरा असर है।ये संस्कार उन्हें अपने स्वजनों से बचपन से ही मिले हैं तथा उनके स्वभाव का हिस्सा हैं। पर स्वभाव भी दो तरह का होता है जन्मजात और अर्जित और हम पाते हैं कि डॉ शुक्ल के व्यक्तित्व में और उनकी रचनाओं में इन दोनों स्वभाओं का परस्पर द्वंद्व चलता है और अंत में श्रेष्ठता ही विजयी होती है। डॉ.शुक्ल जी की एक रचनाकार के रूप में उपलब्धि यह है कि वह सच का दामन नहीं छोड़ते।वे पूरी सच्चाई से अपनी कमियों को स्वीकारते हैं और पूरी तन्मयता से सच की तलाश में संघर्षरत रहते हैं।वे सहज स्वीकारते हैं-

  कामनाओं की डगर सीमा रहित है 

  कौन कह सकता यहांँ विश्राम होगा 

  एक इच्छा दूसरी से पूछती है

  किन शिलाओ पर तुम्हारा नाम होगा

  घूमती रहती सुई थकती नहीं है

  वासना दीवार पर लटकी घड़ी है।

    अपनी एक रचना में अपने ज्ञान व अनुभव के साथ वह मानव को चेताते हैं -

  मृत्युलोक के बाजारों में तृप्ति बिका करती है

  पर मरने से पहले मन की तृष्णा कब मरती है।

   अपनी कविता जीवन एक वस्त्र में वह स्पष्ट बताते हैं कि    

आकर्षण, क्रिया तथा क्रिया के पश्चात

 पैदा होने वाली वितृष्णा 

 यही वे तीन खूँटियांँ हैं

 जिन पर बारी-बारी से

 हम टाँगते रहते हैं

अपने जीवन के वस्त्र

उनकी दार्शनिक दृष्टि जो कि वैदिक ग्रंथों के सार धारण का परिणाम लगती है, हमें बार-बार सांसारिक बुराइयों से आगाह करती है और सही क्या है,की राह दिखाती है।कुछ उदाहरण देखें-

वासना से मुक्त होना ही तपस्या 

ज्ञान ही इंसान की अंतिम छड़ी है।

............................

 विक्रम के अग्रज का जीवन 

 हमें सामने रखना है 

 उसी तरह रागी,बैरागी बन

 यह जीवन चखना है

    श्री शुक्ल जी की रचनाओं का मुख्य प्रतिपाद्य आध्यात्म है। तृष्णा,वितृष्णा,असार जगत, क्षणभंगुर जीवन, मोक्ष और मृत्यु उनके प्रिय विषय रहे हैं। इनमें भी *मृत्यु* अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों स्वरूपों में उन्हेें कलम उठाने के लिए प्रेरित करती है।वह लिखते हैं कि-

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है

जो व्यक्ति पढ़ लेता है 

इस पुस्तक को गंभीरता से 

आत्मसात कर लेता है इसका संदेश

वह बुद्ध हो जाता है।

   उनकी मृत्यु पर केन्द्रित रचनाएं बुद्ध होने की ओर बढ़ाती हैं।ज्ञान प्राप्त करने के लिए कवि निरंतर एक यात्रा पर है पर यह यात्रा उसके अंतर्मन में चल रही है।इस आन्तरिक यात्रा ने समय समय पर विभिन्न विद्वानों,अन्वेषकों, महापुरुषों के जीवन को प्रभावित किया है तो फिर श्री शुक्ला जी अद्वितीय क्या कर रहे हैं?इस प्रश्न का उत्तर वे स्वयं अपनी एक पूर्व प्रकाशित अंग्रेजी रचना के माध्यम से दे चुके हैं।-

        Poets and philosophers

        get overjoyed they are great 

        but they are not 

        They are just repeating 

        what is registered 

        there in the books 

        Still they write

        Still they deliberate

        because

        They are engaged in search

        Search for that something evading as all

      उनकी लम्बी कविता परिबोधन भी इसी खोज यात्रा का एक पड़ाव है।वह अपना मत प्रस्तुत करने से पहले एक संस्कृत के विद्वान,उपनिषदों के अध्येता विद्वान पुजारी के माध्यम से मृत्यु से निर्भयता का संदेश आम जन को दिलवाते हैं।मृत्यु सम्बन्धित यह विचार पूर्व में भी कई दार्शनिकों और विद्वानों द्वारा रखा गया है।स्वयं कवि ने कविता में इसका जिक्र किया है।ओशो रजनीश कहते हैं कि मृत्यु एक उत्सव है

       सुप्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर बेचैन की प्रसिद्ध पंक्तियां हैं,       

   मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

   पूर्व प्रधानमंत्री कीर्ति शेष श्री अटल बिहारी वाजपेई जी अपनी एक कविता में लिखते हैं,

"हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि अंतिम दस्तक पर स्वयं उठकर कपाट खोलूँ और मृत्यु का आलिंगन करूँ।"

 हमारे उपनिषदों में मृत्यु से निर्भयता की ओर अग्रसर करने वाले कई सूत्र वाक्य हैं। *अभयं वै ब्रह्म:* इस ओर ही इंगित करता है।भगवद्गीता का सार ही मनुष्य को मृत्यु विषयक चिन्ता से मुक्त कर सत्कर्म की राह दिखाना है।मृत्यु के विषय में सोचने अर्थात मृत्यु से भयभीत होने या उसका शोक करने को भगवान निरर्थक बताते हैं। क्योंकि-

 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च।

 तस्मात् अपरिहार्य अर्थे न त्वम् शोचितुमहर्सि।।

 कवि ने प्रायः मृत्यु को अपनी कविताओं में विविध रूपकों से निरूपित किया है।यथा

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है।

मृत्यु प्रकृति के रहस्य-विधान का सारांश है।

मृत्यु कठपुतली के तमाशे का उपसंहार है।

मृत्यु जीवन की संध्या है,

नश्वरता का सबसे अधिक डरावना चित्र है।

मृत्यु महाभारत के युद्ध की समाप्ति का सन्नाटा है।

जन्म भीतर वाली सांस है,मृत्यु बाहर आने वाली।

मृत्यु निस्पृह होती है।

मृत्यु एक अवस्था है शब्दहीन शरीर की

मृत्यु... ‌एक उड़ती हुई चील आकाश में

   उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कवि मृत्यु के प्रति द्वंद्व की स्थिति में है।

          वेदों,उपनिषदों,विविध ग्रन्थों और अंग्रेजी व हिन्दी में विपुल साहित्य का अध्येता होने के कारण कवि जानता है मृत्यु के प्रति शास्त्र प्रचलित अभिमत महाज्ञानी को वीतरागी होने की ओर बढ़ाते हैं परन्तु एक सामान्य मानव के लिए भय,शोक,लालसा के वशीभूत मृत्यु की अनिवार्यता भयभीत करने वाली होती है।एक अध्ययनशील मानव मन का यह द्वंद्व ही परिबोधन के रूप में रचा गया है। प्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर नारायण के मृत्यु विषयक प्रबंध काव्य आत्मजयी से प्रेरित लगती यह लम्बी छंदमुक्त कविता परिबोधन सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देती है।जैसा कि आत्मजयी में पंक्ति है- 

 "केवल सुखी जीना काफी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है।"

     कवि जानता है कि मृत्यु से निर्भयता प्राप्त करना सरल नहीं है।ज्ञानी,ध्यानी और तत्वज्ञानी ही मृत्यु के भय से मुक्त हो पाते हैं और वीतरागी होकर इस जीवन को सहर्ष जीते हुए सहर्ष ही मृत्यु का आलिंगन करते हैं। परन्तु सामान्य जन के लिए इस निर्भयता को प्राप्त करना सरल नहीं है।क्योंकि मृत्यु आकाश में उड़ती चील की तरह कभी भी,कहीं भी अपने शिकार को तलाश कर उसे नोंच डालती है।ओशो रजनीश द्वारा उत्सव कही गयी मृत्यु कभी स्वयं उत्सव नहीं मनाती।मृत्यु का यह भयावह सत्य सामान्य जनों को भयभीत किये रहता है।तत्वादि के दुर्बोध ज्ञान पर मृत्यु की भयानकता का यह नैसर्गिक भय सामान्य मेधा पर हावी रहता है।यदि अनेक प्रयासों के बाद कोई सामान्य जन मृत्यु के भय को जीतने में सफल भी हो सका तो वह जीवन के प्रति उतना उत्साही नहीं रह पायेगा।उसे जीवन निर्रथक लगने लगेगा क्योंकि उसे अब मृत्यु का कोई भय नहीं है।तब कवि इस भय के साथ ही मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने ‌की राह बताते हैं।कवि जीवन के महत्व को समझने के लिए मृत्यु के भय को आवश्यक मानते हैं।और कहते हैं-

   भय के कारण लोग

   पुण्य के करते रहते कर्म

   त्रास मृत्यु का सदा

   छुपाए रहता है कुछ मर्म"

 मृत्यु का भय 

 एक शाश्वत सत्य है जगत का

कवि कहता है-

भय बहुत आवश्यक है

हमारे शुद्धिकरण के लिए

हमारे पाप रहित होने के लिए

और मृत्यु का भय 

यह तो एक परम औषधि है

सांसारिकता में लिप्त रोगियों के लिए।

मृत्यु के भय के कारण ही 

हम संयमित रख पाते हैं

अपने आपको

कुदरत के रहस्यों की कुंजी

छिपी है मृत्यु के भय में।

     सामान्य जनों के लिए मृत्यु का भय कितना फलदायी हो सकता है,यह परिबोधन के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है।क्योंकि मृत्यु से निर्भयता का पंथ आसान नहीं है,अतः मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करना ही कवि का अभीष्ट है।

     परिबोधन में डॉ.आर सी शुक्ल जी ने सरल रोजमर्रा की शब्दावली का प्रयोग करते हुए गूढ़ दर्शन को प्रस्तुत किया है।इस गूढ़ ज्ञान के सरस और निर्बाध प्रवाह के लिए छंदमुक्त काव्य विधा का चयन सर्वथा उपयुक्त मालूम देता है।कविता का भाव पक्ष कला पक्ष की अपेक्षा अधिक सबल है। आरम्भिक अनुच्छेद अन्तिम अनुच्छेदों के अपेक्षा अस्पष्ट व कम आलंकारिक हैं।अस्पष्टता यह है कि इन पंक्तियों का वक्ता कौन है,स्वयं कवि,मृत्यु या कोई और। क्योंकि मेरा भय यहाँ दो बार प्रयुक्त हुआ है जो कि मृत्यु ही प्रथम पुरुष सर्वनाम में कह सकती है परन्तु अगले ही अनुच्छेद में मृत्यु के लिए उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग किया गया है।

     डॉ शुक्ल जी और उनकी कविता परिबोधन के प्रति अपने विचार प्रवाह की श्रृंखला को समेटते हुए यही कहना चाहूँगी कि श्री शुक्ल जी एक विशिष्ट दर्शन के विद्वान कवि हैं।उन्होंने एक गहन दर्शन को सरल शब्दों में प्रस्तुत करके पाठकों के हितार्थ रचा है।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

बैंक कॉलोनी, 

खुशहालपुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना ....अमर रहेंगे वीर लाजपत राय ....

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मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी वर्मा की कविता .....प्रेम

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रविवार, 11 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा... ख़ुशबू के सफ़र की ग़ज़लें

 ग़ज़ल के संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा है- ‘ग़ज़ल एकमात्र ऐसी विधा है जो किसी ख़ास भाषा के बंधन में बंधने से इंकार करती है। इतिहास को ग़ज़ल की ज़रूरत है, ग़ज़ल को इतिहास की नहीं। ग़ज़ल एक साँस लेती, जीती-जागती तहजीब है।’ मुरादाबाद के साहित्यकार  ज़िया ज़मीर के  ग़ज़ल-संग्रह ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ की 92 ग़ज़लों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अश’आर में अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही उनकी शायरी की खासियत भी है। सादाज़बान में कहे गए अश’आर की बानगी देखिए जिनकी वैचारिक अनुगूँज दूर तक जाती है और ज़हन में देर तक रहती है-

  है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे

  बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे

  मंज़र जिन्होंने आँखों को आँखें बनाया था

  आँखें बची हुईं हैं वो मंज़र नहीं रहे

  हैरत की बात ये नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम

  हैरत की बात ये है कि हम मर नहीं रहे

बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे हर कोई एक बार नहीं कई बार जीना चाहता है परन्तु ऐसा मुमक़िन हो नहीं पाता। जीवन का सबसे स्वर्णिम समय होता है बचपन जिसमें न कोई चिन्ता, न कोई ज़िम्मेदारी, न कोई तनाव। बस शरारतों के आकाश में स्फूर्त रूप से उड़ना, लेकिन यह क्या ! आज के बच्चे खेल़ना, उछलना, कूदना भूलकर अपना बचपन मानसिक बोझों के दबाव में जी रहे हैं। शायर ज़िया ज़मीर भी स्वभाविक रूप से अपने बचपन के दिनों को याद करके अपने बचपन की आज के बचपन से तुलना करने लगते हैं लेकिन अलग अंदाज़ से-

 इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है

 इक ग़म का समन्दर है जो घटता ही नहीं है

 स्कूली किताबों ज़रा फुरसत उसे दे दो

बच्चा मेरा तितली पे झपटता ही नहीं है

इसी संवेदना का एक और शे’र देखिए-

बच्चे को स्कूल के काम की चिंता है

पार्क में है और चेहरे पे मुस्कान नहीं

वह अपनी ग़ज़लों में कहीं-कहीं सामाजिक विसंगतियों पर चिंतन भी करते हैं। वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रतिपल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। आज के विद्रूप समय की इस पीड़ा को शायर बेहद संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करता है-

  ये जो हैं ज़ख़्म, मसाहत के ही पाले हुए हैं

  बैठे-बैठे भी कहीं पाँव में छाले हुए हैं

  कोई आसां है भला रिश्ते को क़ायम रखना

  गिरती दीवार है हम जिसको संभाले हुए हैं

इसी पीड़ा का एक और शे’र देखिए-

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी

वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल ने अपने एक शे‘र में कहा भी है-’पीड़ा, आंसू, ग़म, बेचैनी, टूटन और घुटन/ये सारा कुछ एक जगह शायर में मिलता है’। अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े ज़िया ज़मीर की शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सुप्रसिद्ध नवगीतकार  माहेश्वर तिवारी जी का बहुत चर्चित और लोकप्रिय गीत है- ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेज़बान छत-दीवारों को घर कर देता है’। यह घर हर व्यक्ति के भीतर हर पल रहता है। परिणामतः हर रचनाकार और उसकी रचनाओं के भीतर घर किसी ना किसी रूप में हाज़िर रहता ही है। वर्तमान समय में घरों के भीतर की स्थिति की हकीकत बयान करती हुई ये पंक्तियाँ बड़ी बात कह जाती हैं-

  नन्हे पंछी अभी उड़ान में थे

  और बादल भी आसमान में थे

  किसलिए कर लिए अलग चूल्हे

  चार ही लोग तो मकान में थे

घर के संदर्भ में एक और कड़वी सच्चाई-

  मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है कब्जा इसका

  अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बगैर

ग़ज़ल का मूल स्वर ही शृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को जीते हुए ज़िया ज़मीर अपनी ग़ज़लों में कमाल के शे’र कहते हैं या यों कहें कि वह अपनी शायरी में प्रेम के परंपरागत और आधुनिक दोनों ढंग से विलक्षण शब्दचित्र बनाते हैं-

 वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी

 हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी

 आँखों से पढ़ा करते हैं सब और वो लड़की

 होठों से छुआ करती है तहरीर हमारी

प्रेम का आधुनिक रंग जो शायरी में मुश्किल से दिखता है-

 तनहाइयों की चेहरे पे ज़र्दी लिए हुए

 दरवाज़े पर खड़ा हूँ मैं चाबी लिए हुए

 सुनते हैं उसकी लम्बी-सी चोटी है आजकल

 और घूमती है हाथ में टैडी लिए हुए

उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। खुशबू के सफर की इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को मंत्रमुग्ध रखती है। वह कहते भी हैं- 

‘हमारे शे’र हमारे हैं तरजुमान ज़िया

हमारे फन में हमारा शऊर बोलता है’। 

निश्चित रूप से यह ग़ज़ल-संग्रह साहित्यिक समाज में अपार सराहना पायेगा और अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करेगा। बहरहाल, भाई ज़िया ज़मीर की बेहतरीन शायरी के ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’। 


कृति
- ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)                    

ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                            

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹


समीक्षक
: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981  



मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) की संस्था सुमन साहित्यिक परी मंच द्वारा फेसबुक पटल पर शुक्रवार 9 दिसंबर 2022 को आयोजित ऑनलाइन लाइव कार्यक्रम अमृत काव्य धारा....

 मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) की संस्था सुमन साहित्यिक परी मंच द्वारा फेसबुक पटल पर शुक्रवार 9 दिसंबर 2022 को ऑनलाइन लाइव कार्यक्रम अमृत काव्य धारा का आयोजन किया गया जिसमें संपूर्ण देश के 12 प्रतिभागियों ने प्रतिभाग किया । कार्यक्रम का शुभारंभ मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत मां वीणापाणि की वंदना से हुआ।

 मंच की अध्यक्ष डॉ दीपिका माहेश्वरी सुमन अहंकारा ने अपने मधुर स्वर से रचना पाठ करके सभी को सम्मोहित कर दिया .....

 ले श्यामा सुर साज़, पर्वत-पर्वत डोलती।

मुस्काते वनराज, मधुर-मधुर स्वर  घोलती॥

मधुर-मधुर स्वर घोल, मस्तानी रुत आ गयी।

मीठे मीठे बोल, अधर-अधर पर गूँजते॥

     कार्यक्रम में मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल  ने अपनी सुंदर रचनाओं से समां बांध दिया ....

"एक से सब दिन न होंगे, एक सी नहीं रात होगी

उजाले यदि साथ देंगे, अँधेरों में घात होगी,

तुम सतत चलते रहे तो जीत भी आसान होगी,

राह अपनी खुद बनाना, जिन्दगी आसान होगी I"

   मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने अपनी रचना " तमाशा जन्मदिन का " प्रस्तुत करते हुए कहा ...

   बच्चा टुकुर टुकुर देखता रहा 

   मम्मी डैडी को

   लिफाफों को

   और लोगों की अर्थ भरी मुस्कुराहटों को 

मुरादाबाद की कवयित्री डॉ रीता सिंह जी ने सुंदर मुक्तक से मंच का मान बढ़ाया.....

" पीर परायी आँसू मेरे ,कुछ ऐसे अहसास चाहिये ,

महके सौरभ रेत कणों में ,हरी भरी इक आस चाहिये ।। 

चमक दिखाती इस दुनिया में ,नहीं झूठी कोई शान चाहिये ,

मुझको तो सबके चेहरे पर ,इक सच्ची मुस्कान चाहिये ।।

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर ने मंच को इस प्रकार अपनी वाणी से सम्मानित किया_

"शब्द पिरोने का यह सपना, इन नैनों में पलने दो।

मैं राही हूॅं लेखन-पथ का, मुझे इसी पर चलने दो।

कल-कल करती जीवनधारा, पता नहीं कब थम जाए,

मेरे अन्तस के भावों को, कविता में ही ढलने दो।" 

लखनऊ के वरिष्ठ साहित्यकार चंद्र देव दीक्षित 'शास्त्री'  ने मंच को सुंदर गजल से सुशोभित किया....

"अब ज़माने का चलन न्यारा मुझे लगने लगा,

 दर्द ही न जाने क्यों प्यारा मुझे लगने लगा।।" 

    जबलपुर के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार बसंत कुमार शर्मा  ने सुंदर पंक्तियों से मंच को सजाया....

" जिसमें दिखती हो सच्चाई वह तस्वीर बने. 

किसमें इतनी हिम्मत है जो आज कबीर बने. "

प्रयागराज के वरिष्ठ साहित्यकार अशोक श्रीवास्तव ने नारी सशक्तिकरण पर रचनाएं सुनाई ....

"करते कन्या भोज, गर्भ पर चलती आरी, 

पूजी जाती मूर्ति, छली जाती है नारी." 

मध्य प्रदेश जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने व्यंगात्मक रचनाओं से समाज को दिशा दिखाते हुए अपनी बात कही....

"बाप की दो बात सह नहीं पाते।

अफसरों की लात भी प्रसाद है।।

*

पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों

मैं ढूँढ ढूँढ हारा घर एक नहीं मिलता।।"

*

अयोध्या से डॉ स्वदेश मल्होत्रा रश्मि" जी ने सुंदर ग़ज़ल से मंच को सुशोभित किया

लाख ओढ़े हिजाब होता है

चेहरा सबका किताब होता है

रोज चढ़ता है जो स्लीबों पर 

शख्स वो ही गुलाब होता है

इसके अतिरिक्त नरेंद्र भूषण, गोविंद रस्तोगी, श्याम सुंदर तिवारी, सुरेश चौधरी तथा सुधीर देशपांडे  ने कार्यक्रम में प्रतिभाग कर अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं। कार्यक्रम की संचालिका दीपिका माहेश्वरी ने आभार व्यक्त किया। 










:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ दीपिका महेश्वरी 'सुमन' (अहंकारा)

 संस्थापिका 

 सुमन साहित्यिक परी 

 नजीबाबाद, बिजनौर 

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नंबर 7060714750

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का नवगीत .....क्या लिखूं मैं अब व्यथा


कह दिया है सभी कुछ तो 

क्या लिखूं मैं अब व्यथा 

हर व्यथा के सामने है 

अनकही मेरी कथा  


हाथ में मौली बंधी है

आंख है अपनी ठगी

भाल पर मंगल तिलक है 

हाट पर बोली लगी 

हर वृथा के सामने है 

अनकही मेरी कथा।। 


खा रही है जिंदगी को

सांस दीमक की तरह

तेल अपने पी गए सब 

एक दीपक की तरह 

हर कुशा के सामने है ।

अनकही मेरी कथा।।


गीत, मुक्तक, छंद, गजलें 

कोश कविता के गढे 

हर विमोचन कह रहा है 

पृष्ठ-पृष्ठ चेहरे पढ़े  

हर प्रथा के सामने है  

अनकही मेरी कथा।। 


कह दिया है सभी कुछ तो

क्या लिखूं मैं अब व्यथा।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत



मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का नवगीत ..... प्रेम के टुकड़े हुए हैं, काम के उन्माद में

 


प्रेम के टुकड़े हुए हैं

काम के उन्माद में


साधुओं के रूप में

भेड़िये छलने लगे हैं

नग्न रिश्ते हो रहे हैं

वासना के कूप में 

क्यों भरोसा बुलबुलों को

हो रहा सय्याद में 


लग रहे माँ-बाप दुश्मन 

गैर लगता है सगा 

सभ्यता का क़त्ल करके

दे रहे खुद को दगा

कंस बैठा हँस रहा है

आजकल औलाद में 


हो रहे लिव इन रिलेशन

के बहुत अब चोंचले

भुरभुरी बुनियाद पर मत

घर करो तुम खोखले 

सात फेरों की शपथ अब

हो नहीं परिवाद में 


✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 8 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की लघुकथा....भ्रष्टाचार की एक रात


पत्रकारिता मेरा ज़नून था। अपने छात्र जीवन से ही मैं पत्रकारिता की तरफ उन्मुख हो चुका था। एक दिन मध्य रात्रि को मेरे पास फोन आया कि सरकारी जिला अस्पताल में प्रसव पीडा़ से एक नवविवाहिता तड़प रही है। उसका तुरंत आपरेशन होना है। लेडी डाक्टर आपरेशन करने के लिए दस हजार रुपये मांग रही है। मैं स्टोरी कवर करने सीधा अस्पताल पहुंच गया। डाक्टर व अस्पताल के कर्मचारी मुझे पहचानते थे। इसलिए मैने महिला के पति की कमीज की जेब में आवाज रिकार्डिंग की डिवाईस रख कर एक बार फिर उन्हें बात करने भेज दिया। डाक्टर की रिश्वत मांगने और डांटने डपटने की सारी रिकार्डिंग हो चुकी थी। मैने घटना स्थल के दो चार चित्र लिये और फिर डाक्टर के पास पहुंचा। मुझे देख कर वह सन्न रह गई। पत्रकार का इतनी रात्रि में अस्पताल में आना।उन्होंने तुरंत मुझे अपने चेम्बर में बैठाया और बोली- शरद जी आप कैसे इतनी रात में? मैं बोला डाक्टर साहब- "यह जो महिला पेशेन्ट है। इसके बारे में बात करनी है।" बस इतना कहना था कि उसने मुझसे बडी आत्मीयता से बात की और महिला का कल सुबह आपरेशन करने को कहा। मैं बोला - "यह बहुत गरीब है। दर्द से तड़प रही है। आप इनसे दस हजार रुपए की रिश्वत मांग रहीं हैं यह उचित नहीं है। आप इनका आपरेशन करिये आपको जो भी चाहिए मैं दूंगा।" इतना सुनते ही वह भड़क कर कहने लगी - " कौन रिश्वत मांग रहा है? जिसके मन की बात पूरी न करो वह डाक्टरो पर रिश्वत मांगने का आरोप लगा डालता है और आप भी ऐसे लोगों की तरफदारी कर रहें हैं।"

           मैंने उन्हें पूरी रिकार्डिंग सुना डाली और यह कह कर चला आया। आपका जो मन हो वह करें। मुझे कल के लिए समाचार का मसाला मिल गया है। वह मुझे रोकती रही और मैं वापस घर आ गया। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर बाद वह मेरे घर आ पहुंची। उनके हाथ में एक लिफाफा था। मेरी मेज पर रख कर बोली - "मैं बहुत तनाव में हूं और अभी जाकर मुझे उस युवती का आपरेशन करना है। मैं आपके हाथ जोड़ती हूं।अब इस बात को आगे मत बढा़ओ।"  वह रुंआंसी हो उठी थी। गलती की माफी चाहती हूं। इतना कह कर बिना मेरी कुछ सुने वह तेजी के साथ वापस चली गई। मैंने लिफाफा देखा तो उसमें पच्चीस हजार रुपये रखे थे। मैं बहुत परेशान हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करुं? मैने निर्णय लिया कि यह रुपये डाक्टर को वापस कर दूंगा और मैंने डाक्टर को तुरंत फोन कर इस निर्णय की जानकारी भी दे दी। इस खबर को मैंने अखबार में छपने को नहीं दी और चादर तान कर सो गया।

          अगले दिन किसी अन्य पत्रकार ने अपने अखबार में सुर्खियों में खबर छापी 'अंधेरे में टार्च की रोशनी में लेडी डाक्टर ने दर्द से छटपटाती गरीब महिला का सफल आपरेशन किया। जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं। डाक्टर के इस कार्य की चारों ओर खूब प्रशंसा हो रही है।'

       उस घनी अंधेरी रात में सब सो रहे थे। मगर भ्रष्टाचार का गंदा खेल चल रहा था। इस खेल में दर्द, छटपटाहट, आंसू, रुपया-पैसा, स्वार्थ,शोषण एवं लालच सबकी अपनी-अपनी भूमिका थी। परन्तु सदाचार, मानवता और संवेदना वहां से गायब थी।

✍️धन सिंह 'धनेन्द्र'

श्री कृष्ण कालोनी, चन्द्र नगर

मुरादाबाद  पिन -244001

उत्तर प्रदेश, भारत