सोमवार, 12 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल के कृतित्व पर केंद्रित हेमा तिवारी भट्ट का आलेख .... मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करते हैं डॉ शुक्ल


 "Art is perfect when it seems to be nature and nature hits the mark when she contains art hidden within her"

Cassius Longinus

लोंजाइनस की उपरोक्त पंक्तियाँ मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ आर. सी.शुक्ल जी की रचनाओं के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती हैं।उनकी रचनाएँ उनके गहन अध्ययन,अथाह ज्ञान और हिन्दी और अंग्रेजी दोनों पर उनकी मजबूत पकड़ के साथ साथ उनके जीवन अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हैं।डॉ. शुक्ल की अंग्रेजी में लिखी कविताओं की 10 पुस्तकें व हिंदी में लिखी 5 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।उनकी पहली हिन्दी काव्य कृति *मृगनयनी से मृगछाला*, तत्पश्चात *मैं बैरागी नहीं* के अतिरिक्त *The Parrot shrieks-2, Ponderings-3,* "मृत्यु" शीर्षक युक्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, *परिबोध* और 1-2 अप्रकाशित गीतों को पढ़ने का सुअवसर मुझे अद्यतन प्राप्त हुआ है।अपनी अल्प बुद्धि से इस पठित सामग्री के आधार पर डॉ शुक्ला जी की रचनाओं और एक रचनाकार के रूप में स्वयं शुक्ला जी के बारे में मेरा जो अवलोकन है,वह मेरी आरम्भ में कही गयी बात को पुष्ट करता है।

क्षणभंगुरता घूम रही है चारों तरफ हमारे

हरी घास पर बूँद चमकती आकर्षण हैं सारे।

 उपर्युक्त पंक्तियों के रचयिता डॉ शुक्ल जी गंभीर सोच और दार्शनिक प्रवृति के विद्वान लेखक हैं। भारतीय दर्शन, वेदों, उपनिषदों और आध्यात्म का उन पर गहरा असर है।ये संस्कार उन्हें अपने स्वजनों से बचपन से ही मिले हैं तथा उनके स्वभाव का हिस्सा हैं। पर स्वभाव भी दो तरह का होता है जन्मजात और अर्जित और हम पाते हैं कि डॉ शुक्ल के व्यक्तित्व में और उनकी रचनाओं में इन दोनों स्वभाओं का परस्पर द्वंद्व चलता है और अंत में श्रेष्ठता ही विजयी होती है। डॉ.शुक्ल जी की एक रचनाकार के रूप में उपलब्धि यह है कि वह सच का दामन नहीं छोड़ते।वे पूरी सच्चाई से अपनी कमियों को स्वीकारते हैं और पूरी तन्मयता से सच की तलाश में संघर्षरत रहते हैं।वे सहज स्वीकारते हैं-

  कामनाओं की डगर सीमा रहित है 

  कौन कह सकता यहांँ विश्राम होगा 

  एक इच्छा दूसरी से पूछती है

  किन शिलाओ पर तुम्हारा नाम होगा

  घूमती रहती सुई थकती नहीं है

  वासना दीवार पर लटकी घड़ी है।

    अपनी एक रचना में अपने ज्ञान व अनुभव के साथ वह मानव को चेताते हैं -

  मृत्युलोक के बाजारों में तृप्ति बिका करती है

  पर मरने से पहले मन की तृष्णा कब मरती है।

   अपनी कविता जीवन एक वस्त्र में वह स्पष्ट बताते हैं कि    

आकर्षण, क्रिया तथा क्रिया के पश्चात

 पैदा होने वाली वितृष्णा 

 यही वे तीन खूँटियांँ हैं

 जिन पर बारी-बारी से

 हम टाँगते रहते हैं

अपने जीवन के वस्त्र

उनकी दार्शनिक दृष्टि जो कि वैदिक ग्रंथों के सार धारण का परिणाम लगती है, हमें बार-बार सांसारिक बुराइयों से आगाह करती है और सही क्या है,की राह दिखाती है।कुछ उदाहरण देखें-

वासना से मुक्त होना ही तपस्या 

ज्ञान ही इंसान की अंतिम छड़ी है।

............................

 विक्रम के अग्रज का जीवन 

 हमें सामने रखना है 

 उसी तरह रागी,बैरागी बन

 यह जीवन चखना है

    श्री शुक्ल जी की रचनाओं का मुख्य प्रतिपाद्य आध्यात्म है। तृष्णा,वितृष्णा,असार जगत, क्षणभंगुर जीवन, मोक्ष और मृत्यु उनके प्रिय विषय रहे हैं। इनमें भी *मृत्यु* अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों स्वरूपों में उन्हेें कलम उठाने के लिए प्रेरित करती है।वह लिखते हैं कि-

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है

जो व्यक्ति पढ़ लेता है 

इस पुस्तक को गंभीरता से 

आत्मसात कर लेता है इसका संदेश

वह बुद्ध हो जाता है।

   उनकी मृत्यु पर केन्द्रित रचनाएं बुद्ध होने की ओर बढ़ाती हैं।ज्ञान प्राप्त करने के लिए कवि निरंतर एक यात्रा पर है पर यह यात्रा उसके अंतर्मन में चल रही है।इस आन्तरिक यात्रा ने समय समय पर विभिन्न विद्वानों,अन्वेषकों, महापुरुषों के जीवन को प्रभावित किया है तो फिर श्री शुक्ला जी अद्वितीय क्या कर रहे हैं?इस प्रश्न का उत्तर वे स्वयं अपनी एक पूर्व प्रकाशित अंग्रेजी रचना के माध्यम से दे चुके हैं।-

        Poets and philosophers

        get overjoyed they are great 

        but they are not 

        They are just repeating 

        what is registered 

        there in the books 

        Still they write

        Still they deliberate

        because

        They are engaged in search

        Search for that something evading as all

      उनकी लम्बी कविता परिबोधन भी इसी खोज यात्रा का एक पड़ाव है।वह अपना मत प्रस्तुत करने से पहले एक संस्कृत के विद्वान,उपनिषदों के अध्येता विद्वान पुजारी के माध्यम से मृत्यु से निर्भयता का संदेश आम जन को दिलवाते हैं।मृत्यु सम्बन्धित यह विचार पूर्व में भी कई दार्शनिकों और विद्वानों द्वारा रखा गया है।स्वयं कवि ने कविता में इसका जिक्र किया है।ओशो रजनीश कहते हैं कि मृत्यु एक उत्सव है

       सुप्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर बेचैन की प्रसिद्ध पंक्तियां हैं,       

   मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

   पूर्व प्रधानमंत्री कीर्ति शेष श्री अटल बिहारी वाजपेई जी अपनी एक कविता में लिखते हैं,

"हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि अंतिम दस्तक पर स्वयं उठकर कपाट खोलूँ और मृत्यु का आलिंगन करूँ।"

 हमारे उपनिषदों में मृत्यु से निर्भयता की ओर अग्रसर करने वाले कई सूत्र वाक्य हैं। *अभयं वै ब्रह्म:* इस ओर ही इंगित करता है।भगवद्गीता का सार ही मनुष्य को मृत्यु विषयक चिन्ता से मुक्त कर सत्कर्म की राह दिखाना है।मृत्यु के विषय में सोचने अर्थात मृत्यु से भयभीत होने या उसका शोक करने को भगवान निरर्थक बताते हैं। क्योंकि-

 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च।

 तस्मात् अपरिहार्य अर्थे न त्वम् शोचितुमहर्सि।।

 कवि ने प्रायः मृत्यु को अपनी कविताओं में विविध रूपकों से निरूपित किया है।यथा

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है।

मृत्यु प्रकृति के रहस्य-विधान का सारांश है।

मृत्यु कठपुतली के तमाशे का उपसंहार है।

मृत्यु जीवन की संध्या है,

नश्वरता का सबसे अधिक डरावना चित्र है।

मृत्यु महाभारत के युद्ध की समाप्ति का सन्नाटा है।

जन्म भीतर वाली सांस है,मृत्यु बाहर आने वाली।

मृत्यु निस्पृह होती है।

मृत्यु एक अवस्था है शब्दहीन शरीर की

मृत्यु... ‌एक उड़ती हुई चील आकाश में

   उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कवि मृत्यु के प्रति द्वंद्व की स्थिति में है।

          वेदों,उपनिषदों,विविध ग्रन्थों और अंग्रेजी व हिन्दी में विपुल साहित्य का अध्येता होने के कारण कवि जानता है मृत्यु के प्रति शास्त्र प्रचलित अभिमत महाज्ञानी को वीतरागी होने की ओर बढ़ाते हैं परन्तु एक सामान्य मानव के लिए भय,शोक,लालसा के वशीभूत मृत्यु की अनिवार्यता भयभीत करने वाली होती है।एक अध्ययनशील मानव मन का यह द्वंद्व ही परिबोधन के रूप में रचा गया है। प्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर नारायण के मृत्यु विषयक प्रबंध काव्य आत्मजयी से प्रेरित लगती यह लम्बी छंदमुक्त कविता परिबोधन सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देती है।जैसा कि आत्मजयी में पंक्ति है- 

 "केवल सुखी जीना काफी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है।"

     कवि जानता है कि मृत्यु से निर्भयता प्राप्त करना सरल नहीं है।ज्ञानी,ध्यानी और तत्वज्ञानी ही मृत्यु के भय से मुक्त हो पाते हैं और वीतरागी होकर इस जीवन को सहर्ष जीते हुए सहर्ष ही मृत्यु का आलिंगन करते हैं। परन्तु सामान्य जन के लिए इस निर्भयता को प्राप्त करना सरल नहीं है।क्योंकि मृत्यु आकाश में उड़ती चील की तरह कभी भी,कहीं भी अपने शिकार को तलाश कर उसे नोंच डालती है।ओशो रजनीश द्वारा उत्सव कही गयी मृत्यु कभी स्वयं उत्सव नहीं मनाती।मृत्यु का यह भयावह सत्य सामान्य जनों को भयभीत किये रहता है।तत्वादि के दुर्बोध ज्ञान पर मृत्यु की भयानकता का यह नैसर्गिक भय सामान्य मेधा पर हावी रहता है।यदि अनेक प्रयासों के बाद कोई सामान्य जन मृत्यु के भय को जीतने में सफल भी हो सका तो वह जीवन के प्रति उतना उत्साही नहीं रह पायेगा।उसे जीवन निर्रथक लगने लगेगा क्योंकि उसे अब मृत्यु का कोई भय नहीं है।तब कवि इस भय के साथ ही मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने ‌की राह बताते हैं।कवि जीवन के महत्व को समझने के लिए मृत्यु के भय को आवश्यक मानते हैं।और कहते हैं-

   भय के कारण लोग

   पुण्य के करते रहते कर्म

   त्रास मृत्यु का सदा

   छुपाए रहता है कुछ मर्म"

 मृत्यु का भय 

 एक शाश्वत सत्य है जगत का

कवि कहता है-

भय बहुत आवश्यक है

हमारे शुद्धिकरण के लिए

हमारे पाप रहित होने के लिए

और मृत्यु का भय 

यह तो एक परम औषधि है

सांसारिकता में लिप्त रोगियों के लिए।

मृत्यु के भय के कारण ही 

हम संयमित रख पाते हैं

अपने आपको

कुदरत के रहस्यों की कुंजी

छिपी है मृत्यु के भय में।

     सामान्य जनों के लिए मृत्यु का भय कितना फलदायी हो सकता है,यह परिबोधन के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है।क्योंकि मृत्यु से निर्भयता का पंथ आसान नहीं है,अतः मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करना ही कवि का अभीष्ट है।

     परिबोधन में डॉ.आर सी शुक्ल जी ने सरल रोजमर्रा की शब्दावली का प्रयोग करते हुए गूढ़ दर्शन को प्रस्तुत किया है।इस गूढ़ ज्ञान के सरस और निर्बाध प्रवाह के लिए छंदमुक्त काव्य विधा का चयन सर्वथा उपयुक्त मालूम देता है।कविता का भाव पक्ष कला पक्ष की अपेक्षा अधिक सबल है। आरम्भिक अनुच्छेद अन्तिम अनुच्छेदों के अपेक्षा अस्पष्ट व कम आलंकारिक हैं।अस्पष्टता यह है कि इन पंक्तियों का वक्ता कौन है,स्वयं कवि,मृत्यु या कोई और। क्योंकि मेरा भय यहाँ दो बार प्रयुक्त हुआ है जो कि मृत्यु ही प्रथम पुरुष सर्वनाम में कह सकती है परन्तु अगले ही अनुच्छेद में मृत्यु के लिए उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग किया गया है।

     डॉ शुक्ल जी और उनकी कविता परिबोधन के प्रति अपने विचार प्रवाह की श्रृंखला को समेटते हुए यही कहना चाहूँगी कि श्री शुक्ल जी एक विशिष्ट दर्शन के विद्वान कवि हैं।उन्होंने एक गहन दर्शन को सरल शब्दों में प्रस्तुत करके पाठकों के हितार्थ रचा है।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

बैंक कॉलोनी, 

खुशहालपुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

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