बुधवार, 14 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की दो बाल कविताएं : जाड़ा


 
(एक)

सूरज दादा सिहर सिहर कर

 अकड़े ऐंठे बैठें हैं।

लगता सिकुड़ रहे सर्दी से, 

इससे   सचमुच  ऐंठे हैं ।।


जगते समय ,देर से उठते

जल्दी ही ,सो जाते हैं ।

खुद भी ठिठुर रहे  सर्दी से

हमको भी ठिठुराते हैं ।।


इस सर्दी के  कारण ही तो

रात बड़ी, दिन छोटा है।

इससे बहुत देर बिस्तर पर

सोना अपना होता है ।।

     

अगर देर तक दिन रहता तो

शीत सताती  हमें इधर ।

उछल कूद करने के कारण

हम सर्दी खाते   दिन भर ।।


कभी सिकुड़ कर, कभी फैलकर

कुदरत करती अपना काम।

यों मौसम परिवर्तन होता

गर्मी सर्दी पाते  नाम ।।

   

 अत: सिकुड़ना और फैलना

 हुआ ताप का असली काम।

 इसे ताप सिद्धांत समझ लो

मिलते विंटर समर नाम ।।


(दो)

जाड़ा जाड़ा जाड़ा जाड़ा

इस जाडे़ ने किया कबाड़ा ।

कट कट कट कट दॉत कटकते

मानो हम पढ़ रहे पहाड़ा ।।

   

दिन छोटा, पर रात बड़ी है

सर्दी हण्टर  लिये खड़ी है ।

सूरज भी सहमा- सहमा सा

लगता इस पर पडा कुहाड़ा ।।


दिन में धूप सुहानी लगती

छाया ,दैत्य- सरीखी खलती ।

लम्बी रातें ,लगें भयानक

छाता अँधकार है गाढ़ा ।।

  

 पशु -पक्षी भी महा- दुखी हैं

 जो समर्थ हैं ,वही सुखी हैं ।

 कॉप रहे  हैं  सब सर्दी से 

बछिया -बछड़े,पड़िया -पाड़ा ।।


क्षण क्षण में घिर आते बादल

छाता अँधियारा, ज्यों काजल

झम झम झम झम वर्षा होती

धन गरजें, ज्यों सिंह दहाड़ा ।।

    

 सबको भाती गरम  रजाई

 हलवा- पूड़ी, दूध -मलाई ।

 सुड़ड़ सुड़ड़ सुड़ नाक बोलती

 पीना पड़ता कड़वा काढ़ा ।।


आलू ,शकरकंद सब खाते 

धूप भरे दिन, सदा सुहाते ।

गजक रेबड़ी ,अच्छी लगतीं

गुड़ से खाते  गर्म सिंघाड़ा ।।


✍️ शिव अवतार रस्तोगी 'सरस'


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें