मंगलवार, 20 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था कला भारती ने रविवार 18 जून 2023 को आयोजित कार्यक्रम में किया साहित्यकार अम्बरीष गर्ग को कलाश्री सम्मान से सम्मानित

 महानगर मुरादाबाद के साहित्यिक पटल को अपने साहित्यिक समर्पण से गौरवान्वित कर चुके वरिष्ठ साहित्यकार अम्बरीष गर्ग को कला भारती साहित्य समागम की ओर से रविवार 23 जून 2023 को आयोजित कार्यक्रम में  कलाश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। उक्त आयोजन मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज पर हुआ। कवयित्री रश्मि प्रभाकर द्वारा प्रस्तुत माॅं शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता बाबा संजीव आकांक्षी ने की। मुख्य अतिथि नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में रामदत्त द्विवेदी एवं राजीव प्रखर मंचासीन रहे। कार्यक्रम का संचालन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने किया। 

      अर्पित मानपत्र का वाचन मयंक शर्मा तथा सम्मानित साहित्यकार अंबरीश गर्ग का जीवन परिचय राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें अंग-वस्त्र, मानपत्र एवं प्रतीक चिह्न अर्पित किए गये। कार्यक्रम के द्वितीय चरण में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें रचना-पाठ करते हुए सम्मानित साहित्यकार अम्बरीष गर्ग ने कहा -

 "मैं नदिया का नीर, तटों का मोह नहीं करता

कल-कल कह कर भी मैं पल-पल जीवन जीता हूॅं 

भस्मभूत मानव को आखिर, मैं ही पीता हूॅं

 लहर-लहर मेरा जीवन, मैं कभी नहीं मरता" 

उनके अतिरिक्त जितेन्द्र जौली, प्रशांत मिश्र, अशोक विद्रोही, मयंक शर्मा, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, डॉ. मनोज रस्तोगी, रघुराज सिंह निश्चल, रश्मि प्रभाकर, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, रूपचंद, दुष्यंत बाबा, राजीव प्रखर, योगेन्द्र वर्मा व्योम, रामदत्त द्विवेदी एवं बाबा संजीव आकांक्षी ने भी विभिन्न सामाजिक विषयों पर काव्य पाठ किया। आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने आभार अभिव्यक्त किया। 











































मुरादाबाद की साहित्यकार रश्मि प्रभाकर का गीत .... एक उपन्यास की नायिका जैसी मैं ...

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मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत ...सिर पर छाँव पिता की

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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रेमवती उपाध्याय का गीत .... आचरण की गंध से कर दें सुवासित यह धरा...

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मुरादाबाद के साहित्यकार बाबा संजीव आकांक्षी की रचना ...आखिर क्यों .

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मुरादाबाद के साहित्यकार मयंक शर्मा की ग़ज़ल ....

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ के ग़ज़ल संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की इंजी. राशिद हुसैन द्वारा की गई समीक्षा .…..समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें

      सरज़मीने-लखनऊ में जन्मे मशहूर व मारूफ़ शायर जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ जिनको अदब की दुनिया में इज्ज़तदाराना मुक़ाम हासिल है। वो जब किसी मुशायरे में मंचासीन होते, तो ऐसा लगता था, मानो पूरा लखनऊ मंच पर बैठा हो।उन्होंने अपने जीवनकाल में कई शिष्य बनाए या यूं कहें कि उनका शिष्य बनकर युवा शायर खु़द पर फ़ख्र महसूस करता था। नूर साहब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है, जिसमें उन्होंने पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया है, उसका एक शेर यूं है-

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

यह शेर सीधे दिल पर दस्तक देता है। सामाजिक परिवेश को बड़ी खू़बसूरती से अपने शेरों में कह देने का हुनर रखने वाले जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ की अदब की रोशनी की किरण जब मुरादाबाद पर पड़ी, तो एक नाम सामने आया- डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ जिनकी लेखनी पर नाज़ किया जा सकता है। कृष्णकुमार ’नाज’ का जन्म मुरादाबाद से चंद मील दूर कुरी रवाना गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए जब वह शहर आए तो यहीं के होकर रह गए। जीविका की खोज में कब साहित्य से प्रेम हुआ, पता ही नहीं चला और उसमें रमते चले गए। उनकी साहित्यिक  यात्रा आज भी बदस्तूर जारी है। यूं तो नाज़ साहब की कई किताबें मंजरे-आम पर आ चुकी हैं और वह अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके हैं। अभी हाल ही में उनका ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ का विमोचन हुआ, जिसका मैं भी साक्षी बना।

      आइए बात करते हैं नाज़ साहब के नये ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की। नाम ही पूरे संग्रह का सार है, क्योंकि नूर साहब के शागिर्द हैं तो नाज़ साहब ने भी अपने शेरों के ज़रिए समाज को आईना दिखाया है। नाज़ साहब परिपक्व ग़ज़लकार हैं। वैसे तो उन्होंने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ और मुहब्बत की बात की है, लेकिन उनकी शायरी में समाज में फैली विसंगतियों पर चिंतन ज़्यादा नज़र आता है। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे तक का जीवन दर्शन भी उनकी ग़ज़लों में मिलता है। जैसा कि किताब का शीर्षक ’दिये से दिया जलाते हुए’ अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

आइए शुरूआत बचपन से करते हैं, जब वो किसी बच्चे को हंसता हुआ देखते हैं, तो शेर यूं कहते हैं-

बच्चा है ख़ुश कि तितली ने रक्खा है उसका ध्यान

तितली भी ख़ुश कि नन्हीं हथेली है मेज़बान

फिर वो बचपन को याद करते हुए अपनी चाहत का इज़हार कुछ यूं करते हैं-

ज़हन का हुक्म है मुझको कि मैं दुनिया हो जाऊं

और दिल चाह रहा है कोई बच्चा हो जाऊं

नाज़ साहब ने जब बचपन की बात की, तो मां की ममता का ज़िक्र भी बड़ी ईमानदारी से अपनी ग़ज़ल में कर दिया। उन्हें मां की ममता कुछ इस तरह से बयां की है कि पढ़ने-सुनने वाले का दिल भर आए-

कलियां, फूल, सितारे, शबनम, जाने क्या-क्या चूम लिया

जब मैंने बांहों में भरकर उसका माथा चूम लिया

दुनिया के रिश्ते-नातों की नज़रें थी धन दौलत पर

लेकिन मां ने बढ़कर अपना राजदुलारा चूम लिया

कोई शायर इश्क़-मुहब्बत और हुस्न की बात न करे, ये हो नहीं सकता। नाज़ साहब ने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ में डूबे आशिक़ के दिल के जज़्बात को बड़ी ख़ूबसूरती से कह दिया है-

जबसे देखा है तेरे हुस्न की रानाई को

जी रही हैं मेरी आंखें तेरी अंगड़ाई को

+   +

आंखों से उनकी जाम पिए जा रहा हूं मैं

क्या ख़ूब ज़िंदगी है जिए जा रहा हूं मैं

उन्होंने आज के नौजवानों की हक़ीक़त को दिखाता क्या ख़ूब शेर कहा है-

हमने यूं भी वक़्त गुज़ारा मस्ती में याराने में

जब जी चाहा घर से निकले बैठ गए मयखाने में

जब मुहब्बत होती है तो बेवफ़ाई भी होती है, जुदाई भी होती है और यादें भी होती हैं, तनहाई भी होती है। प्यार में चोट खाए इंसान के दिल के दर्द को बड़े सलीके़ से अपनी शायराना अंदाज में कहते हैं-

बुझा-बुझा रहता है अक्सर 

चिड़ियों की चहकार भी अब तो

शोर शराबा सी लगती है 

जाने दिल की क्या मर्जी है।

+   +

दूर है मुझसे बहुत दूर है वो शख्स मगर

बावजूद इसके कभी आंख से ओझल न हुआ

+   +

ख्वाब मेरा जो कभी आपको छू आया था

अब उसी ख्वाब की तस्वीर बनाने दीजे

एक पिता मुफ़लिसी के दौर में अपने बच्चों का किस तरह लालन-पालन करता है, इस शेर को देखें-

एक बूढ़े बाप के कांधों पे सारे घर का बोझ

किस क़दर मजबूर है ये मुफ़लिसी की ज़िंदगी

और फिर वही बच्चे बड़े होकर नाफ़रमान हो जाते हैं। तब मां-बाप की बेबसी यूं बयां होती है-

बेटों ने तो हथिया लिए घर के सभी कमरे

मां-बाप को टूटा हुआ दालान मिला है

आज के समय में जब रिश्तों में मुहब्बत की कमी हो गई है, तब नाज़ साहब ने रिश्ते निभाने के लिए समर्पण को अहमियत दी है। वो कहते हैं-

सिमट जाते हैं मेरे पांव ख़ुद ही

मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं

+   +

उससे हार के ख़ुद को बेहतर पाता हूं

लेकिन जीत के शर्मिंदा हो जाता हूं

आज इक्कीसवीं सदी में थोड़ा-सा पैसा किसी के पास आ जाए तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। ऐसे मग़रूर के लिए लिखते हैं-

सरफिरी आंधी का थोड़ा-सा सहारा क्या मिला

धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया

शायर आने वाले वक़्त में हालात और क्या हो सकते हैं, उसकी फ़िक्र करते हुए लिखते हैं-

कभी अंधेरे, कभी रोशनी में आते हुए

में चल रहा हूं वजूद अपना आज़माते हुए

कौन करेगा हिफ़ाज़त अब इनकी मेरे बाद

ये सोचता हूं दिये से दिया जलाते हुए

इसी संग्रह की एक ग़ज़ल जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, उसके लिए क्या लिखूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं। बस एक बात समझ आई कि नाज़ साहब ने यह साबित कर दिया कि वो ही नूर साहब के सच्चे और पक्के शागिर्द हैं। उस ग़ज़ल के ये दो शेर प्रस्तुत हैं-

पेड़ जो खोखले पुराने हैं

अब परिंदों के आशियाने हैं

जिंदगी तेरे पास क्या है बता

मौत के पास तो बहाने हैं

नाज़ साहब का यह ग़ज़ल-संग्रह पूरा जहान समेटे हुए है। यह समाज के हर पहलू को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरते हुए एक मुकम्मल किताब लगती है।  इसको पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इसे बार-बार पढ़ा जाए।





कृति : दिये से दिया जलाते हुए (ग़ज़ल संग्रह)

ग़ज़लकार : डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

मूल्य : 200 रुपये पृष्ठ : 104 हार्ड बाउंड

संस्करण : वर्ष 2023


समीक्षक
: इंजी. राशिद हुसैन

मकान नंबर 4, ढाल वाली गली,मुहल्ला बाग गुलाब राय, नागफनी,मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

गुरुवार, 15 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की कृति ....लोकधारा 9 । यह कृति वर्ष 2023 में विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। इस कृति में उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियां धरती के अवतंस (संस्मरण), दिये यादों के (संस्मरण) और भारत की जीवनदायिनी सरिताएं (रेखा चित्र) समाहित हैं...



 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में दिल्ली निवासी) की साहित्यकार विमला रस्तोगी की बाल कहानी ...साहस । उनकी यह कहानी नई दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 10 अगस्त 1986 के अंक में प्रकाशित हुई थी ।


 

मंगलवार, 13 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के बाल कविता संग्रह "नन्ही परी चिया" की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा---बाल मन को साकार अभिव्यक्ति देती इक्यावन कविताएं

 

सरल व सुबोध भाषा-शैली एवं कहन में रची गई बाल कविताएं साहित्य जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस क्षेत्र में इनकी हमेशा से मांग भी रही है। बड़े होकर बच्चों की बात तो सभी कर लेते हैं परन्तु, जब एक बड़े के भीतर छिपा बच्चा कविता के रूप में साकार होकर बाहर आ जाये तो यह स्वाभाविक ही है कि वह कृति बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी पर्याप्त लोकप्रियता पाती है। कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता की समर्थ व सशक्त लेखनी से निकला बाल कविता-संग्रह 'नन्ही परी चिया' ऐसी ही उत्कृष्ट श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में साहित्यिक समाज के सम्मुख है। चार-चार पंक्तियों की अति संक्षिप्त परन्तु बाल मन को साकार अभिव्यक्ति देती कुल इक्यावन उत्कृष्ट रचनाओं का यह संग्रह इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि कवयित्री ने मन के भीतर छिपे बैठे इस बच्चे को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए बिल्कुल खुला छोड़ दिया है। यही कारण है कि इन सभी रचनाओं में, बड़ों के भीतर छिपा बच्चा मुखर होकर अपनी बात रख सका है। अध्यात्म, पर्यावरण, मानवीय मूल्य, बच्चों का  स्वाभाविक नटखटपन, देश प्रेम इत्यादि जीवन से जुड़े सभी पक्षों को चार-चार पंक्तियों की सरल एवं सुबोध रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त कर देना, देखने व सुनने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना है नहीं परन्तु कवयित्री ने ऐसा कर दिखाया है। कृति का प्रारंभ पृष्ठ 9 पर चार पंक्तियों की सुंदर "प्रार्थना" से होता है। सरल व संक्षिप्त होते हुए भी वंदना हृदय को सीधे-सीधे स्पर्श कर रही है, पंक्तियाॅं देखें -

"ईश्वर ऐसा ज्ञान हमें दो 

बना भला इंसान हमें दो 

कुछ ऐसा करके दिखलायें

जग में ऊंचा नाम कमायें"

इसी क्रम में पृष्ठ 10 पर उपलब्ध रचना "कोयल रानी" में  बच्चा एक पक्षी से बहुत ही प्यारी भाषा में बतियाता है, पंक्तियाॅं पाठक को प्रफुल्लित कर रही हैं -

"ज़रा बताओ कोयल रानी 

क्यों है इतनी मीठी बानी 

कुहू-कुहू जब तुम गाती हो

हम सबके मन को भाती हो"

इसी क्रम में एक अन्य महत्वपूर्ण रचना "नन्ही परी चिया" शीर्षक से पृष्ठ 11 पर उपलब्ध है जो मात्र चार पंक्तियों में बेटियों के महत्व  को सुंदरता से स्पष्ट कर रही है। मनोरंजन के साथ यह रचना समाज को एक संदेश भी दे जाती है -

"नन्ही एक परी घर आई 

झोली भर कर ख़ुशियां लाई 

चिया नाम से सभी बुलाते 

नख़रे उसके खूब उठाते"

इसी सरल व सुबोध भाषा शैली के साथ बिल्ली मौसी (पृष्ठ 12), हाथी दादा (पृष्ठ 13), गधे राम जी (पृष्ठ 14), कबूतर (पृष्ठ 15), बकरी (पृष्ठ 16), बादल (पृष्ठ 17), इत्यादि रचनाएं आती हैं जो बाल-मन को अभिव्यक्ति देती हुई कहीं न कहीं एक सार्थक संदेश भी दे रही हैं। इक्यावन मनोरंजक परन्तु सार्थक बाल रचनाओं की यह मनभावन माला पृष्ठ 59 पर उपलब्ध "15 अगस्त" नामक एक और सुंदर बाल कविता के साथ समापन पर आती है। देश प्रेम व एकता से ओतप्रोत चार पंक्तियों की यह संक्षिप्त रचना भी पाठक-हृदय का गहराई से स्पर्श रही है -

"स्वतंत्रता का दिवस मनायें 

आओ झंडे को फहरायें 

राष्ट्रगान सब मिलकर गायें

भारत माॅं को शीश नवायें"

कुल मिलाकर एक ऐसा अनोखा एवं अत्यंत उपयोगी संग्रह, जिसकी रचनाओं को बच्चे सरलतापूर्वक कंठस्थ भी कर सकते हैं। यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवयित्री ने इन हृदयस्पर्शी चतुष्पदियों को मात्र रचा ही नहीं अपितु, मन में छिपे उस भोले भाले परन्तु जिज्ञासु बच्चे से वार्तालाप भी किया है। मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं कि परिपक्व/अनुभवी पाठकगण भले ही इस सशक्त कृति का मूल्यांकन छंद/ विधान इत्यादि के पैमाने पर करें परन्तु, यह भी सत्य है कि बच्चों के कोमल मन अथवा मनोविज्ञान को समझना सरल बात बिल्कुल नहीं है। इसे तो बच्चा बनकर ही समझा जा सकता है। जब हम उनकी कोमल भावनाओं की बात करें, तो हमें अपना "बड़प्पन" एक तरफ उठाकर रखते हुए, बच्चों की दृष्टि से ही उन्हें देखना चाहिए। चूंकि कवयित्री ने इस संग्रह में स्वयं एक अबोध बच्चा बनते हुए अपनी सशक्त लेखनी चलाई है, यही कारण है कि यह संग्रह  बिना किसी लाग-लपेट के, मनमोहक लय-ताल के साथ, बच्चों व बड़ों सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श करने में समर्थ सिद्ध हुआ है, ऐसा मैं मानता हूॅं। 

कुल मिलाकर अत्यंत सरल व सुबोध भाषा-शैली सहित आकर्षक छपाई एवं साज-सज्जा के साथ, पेपरबैक संस्करण में उपलब्ध यह कृति अपने उद्देश्य में मेरे विचार से पूर्णतया सफल तथा स्तरीय बाल-विद्यालयों के कोर्स एवं स्तरीय पुस्तकालयों में स्थान पाने के सर्वथा योग्य है।




कृति
: नन्ही परी चिया (बाल कविता-संग्रह)

कवयित्री : डॉ. अर्चना गुप्ता

प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा

प्रकाशन वर्ष : 2022

मूल्य: 99₹


समीक्षक
: राजीव प्रखर

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत




शनिवार, 10 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से 10 जून 2023 को आयोजित कार्यक्रम में मुरादाबाद के साहित्यकार रामदत्त द्विवेदी की काव्य कृति 'हम ॲंधेरों को मिटायें' का लोकार्पण

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से महानगर के वरिष्ठ रचनाकार रामदत्त द्विवेदी की काव्य-कृति "हम ॲंधेरों को मिटायें" का लोकार्पण मिलन विहार, मुरादाबाद स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज के सभागार में किया गया। कवयित्री रश्मि प्रभाकर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता विख्यात व्यंग्य कवि डा मक्खन मुरादाबादी ने की। मुख्य अतिथि वरिष्ठ बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में ग़ज़लकार ओंकार सिंह ओंकार और वरिष्ठ कवि योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई मंचासीन हुए। कार्यक्रम का संचालन  राजीव प्रखर ने किया।         

       लोकार्पित कृति के रचनाकार  रामदत्त द्विवेदी का जीवन परिचय राजीव प्रखर ने प्रस्तुत किया। इस अवसर पर साहित्यिक संस्था-अक्षरा की ओर से संस्था के संयोजक योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा और विजयश्री वेलफेयर सोसाइटी की ओर से विवेक निर्मल द्वारा रामदत्त द्विवेदी  को मानपत्र एवं अंगवस्त्र अर्पित करके सम्मानित किया गया।

      इस अवसर पर कृति के रचनाकार राम दत्त द्विवेदी ने लोकार्पित कृति से रचना पाठ करते हुए कहा - 

हम हैं हिन्दू तुम मुसलमां, दोनों का खूं एक है

एक है अपनी जमीं और आसमाँ भी एक है

जो तुम्हारा है खुदा वह ही हमारा राम है

फिर बताओ क्यों दिलों में नफरतों की टेक है

द्विवेदी जी के साहित्यिक योगदान पर अपने विचार रखते हुए कार्यक्रम अध्यक्ष प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा, "श्री द्विवेदी ने कठिन परिस्थितियों में भी संस्था को निरंतर सक्रिय रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मुरादाबाद के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उनका रचनाकर्म इस काव्य कृति के रूप में समाज के सम्मुख आया है।"  

मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना ने कहा कि रामदत्त द्विवेदी की 87 वर्ष की आयु में उनकी कविताओं की पहली कृति आना बहुत महत्वपूर्ण है।

 इस अवसर पर महानगर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', जितेन्द्र कुमार जौली, कृष्ण कुमार नाज़, वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ, अशोक विश्नोई, विवेक निर्मल, अतुल जौहरी, रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ, डॉ पूनम बंसल, राम सिंह नि:शंक, नकुल त्यागी, मनोज वर्मा मनु, दुष्यन्त बाबा, रश्मि प्रभाकर, मयंक शर्मा, कृष्णा कुमार गुप्ता, कंचन खन्ना, प्रदीप शर्मा, प्रतीत शर्मा सहित रामदत्त द्विवेदी जी के परिवार के अनेक सदस्यों ने भी उपस्थित रहकर अपने विचार व्यक्त किए और उन्हें बधाई दी। संस्था के महासचिव जितेन्द्र जौली द्वारा आभार-अभिव्यक्त किया गया।
































गुरुवार, 25 मई 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......टेलीफोन की याद


अचानक पुराने जमाने के टेलीफोन की याद आ गई । काला कलूटा था । मोटा थुलथुल शरीर । एक बार जहां टिका दिया ,सारी जिंदगी वहीं पर टिका रहा । एक इंच इधर से उधर नहीं हिलने वाला । जब कपड़ा हाथ में लेकर झाड़ने का काम होता था, तो उसको उठा दिया जाता था और फिर धूल झाड़ कर अपनी जगह रख दिया जाता था। न कहीं कोई लेकर जाता था ,न उससे चला जाता था । एक *रिसीवर* था ,जिसे मुश्किल से दो फीट दूर बात करने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता था । इस पर भी इतराना ऐसा कि जैसे कहां के राजकुमार हों ! विश्व सुंदरी का पुरस्कार जीती हुई कोई स्त्री भी ऐसा गर्व न करेगी ,जैसे हमारे कालिया साहब किया करते थे ।

यह तो मानना पड़ेगा कि श्रीमान जी जहां विराजमान होते थे ,वहां की शोभा बन जाते थे । किसी – किसी के घर ,दफ्तर और दुकान में फिक्स-टेलीफोन हुआ करते थे । दस जगह जाओ तो एक जगह श्रीमान जी के दर्शन हुआ करते थे । आज की तरह थोड़े ही कि हर आदमी के हाथ में मोबाइल रखा हुआ है और एक आदमी भी बाजार में ऐसा न मिले जिसके पंजे में मोबाइल नहीं होगा । उस समय जिसके पास टेलीफोन होता था ,वह एक विशिष्ट स्थान रखता था । उसका टेलीफोन नंबर न केवल उसके काम आता था बल्कि आस-पड़ोस के निवासियों के काम भी आता रहता था । वह अपने लेटर-पैड पर पड़ोसी का टेलीफोन नंबर *पी-पी.* लिखकर अंकित कर देते थे । इसका अर्थ यह होता था कि पड़ोसी से टेलीफोन पर बात करनी है तो अमुक नंबर पर आप टेलीफोन मिला सकते हैं । जब पड़ोसी का टेलीफोन आता था ,तब टेलीफोन करने वाले को कहा जाता था कि पड़ोसी को हम बुला कर ला रहे हैं । तब तक आप इंतजार करिए और दो मिनट के बाद टेलीफोन करने का कष्ट करें । बहुत से लोग टेलीफोन पर बात करने से हिचकते थे । वह कहते थे “आप ही बात कर लीजिए।” बड़ी मुश्किल से उनसे कहा जाता था और समझाया जाता था कि टेलीफोन पर बात करने में कोई मुश्किल नहीं होती । आसानी से यह कार्य संपन्न हो जाता है।

कुछ लोग टेलीफोन पर इतनी जोर से बोलने के आदी होते थे कि उनकी आवाज पड़ोस के घर तक जाती थी । पड़ोसी को पता चल जाता था कि इस समय हमारे पड़ोसी की टेलीफोन पर बातचीत चल रही है । पड़ोसी समझता था कि हमारे घर पर टेलीफोन नहीं है ,इसलिए हमें चिढ़ाने के लिए यह महोदय ऊंची आवाज में बात कर रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं होता था । कुछ की आदत ही चीख – चीख कर बात करने की होती थी। सामने की दुकान पर अगर कोई बात कर रहा है तो सड़क – पार की दुकानों तक बातचीत का स्वर पहुंच जाता था ।

स्थानीय स्तर पर टेलीफोन मिलाने के लिए टेलीफोन पर एक गोल चक्कर बना रहता था । उसमें 1 से 9 तक के अंक तथा शून्य लिखा होता था । हर अंक के बाद गोल चक्कर घुमाना पड़ता था । उस जमाने में टेलीफोन – नंबर छोटे होते थे । उदाहरण के लिए शहर में किसी का नंबर 302 है किसी का 318 ,किसी का 412 । अतः तीन बार चक्कर घुमाने से टेलीफोन मिल जाता था और बात आसानी से हो जाती थी । शहर से बाहर टेलीफोन मिलाने के लिए *ट्रंक कॉल बुकिंग* करानी पड़ती थी । टेलीफोन एक्सचेंज का नंबर घुमा कर उनसे आग्रह किया जाता था “हमें दिल्ली बात करनी है । टेलीफोन नंबर इस प्रकार है । कृपया बातचीत कराने का कष्ट करें ।”

टेलीफोन ऑपरेटर का अस्त – व्यस्त आवाज में उत्तर मिलता था “एक मिनट इंतजार करो । बात कराते हैं ।”

एक-दो मिनट के बाद टेलीफोन की घंटी बोलती थी । उधर से आवाज आती थी ” लीजिए ,दिल्ली बात करिए ।”

अब हमारा संपर्क दिल्ली के टेलीफोन नंबर से जुड़ गया । जैसे ही बातचीत के तीन मिनट पूरे हुए , टेलीफोन ऑपरेटर महोदय बीच में टपक पड़ते थे । हमसे कहते थे “तीन मिनट हो गए ।”

इसका तात्पर्य यह था कि अगर हमें आगे भी बात करनी है ,तो पैसे ज्यादा देने पड़ेंगे । ऐसे में दो ही विकल्प होते थे । या तो ऑपरेटर महोदय से आग्रह किया जाए कि तीन मिनट और दे दीजिए या फिर टेलीफोन नमस्ते करके रख दिया जाए ।

टेलीफोन में “डायल टोन” का चला जाना एक आम समस्या रहती थी । डायल टोन एक प्रकार का स्वर होता था, जो टेलीफोन के तारों में प्रवाहित होता था ।इसमें एक हल्की सी गुनगुन जैसी आवाज टेलीफोन उठाते ही रिसीवर को कान पर रखकर बजने लगती थी । इसका अभिप्राय यह होता था कि टेलीफोन सही ढंग से काम कर रहा है । कई बार “टेलीफोन डेड” हो जाता था । इसका अर्थ था कि टेलीफोन में अब करंट का आना भी समाप्त हो गया । *टेलीफोन का डेड होना* बड़ी दुखद स्थिति मानी जाती थी । एक प्रकार की रोया-पिटाई मच जाती थी । टेलीफोन मृत पड़ा है और सब उसे देखे जा रहे हैं । अब किससे बात हो पाएगी ? कहां बात होगी ? कौन हम से बात कर पाएगा ? लाइनमैन इसी दिन के लिए अच्छे संबंध बनाकर रखा जाता था ।

*लाइनमैन* के अपने जलवे होते थे। जिस बाजार से निकल जाए ,ज्यादातर बड़े-बड़े लोग उसे पहल करके नमस्कार करते थे । लाइनमैन से सभी का काम पड़ता था । बड़े-बड़े दुकानदार तथा समाचार पत्रों के संवाददाता ,अधिकारीगण अपने टेलीफोन में *एस टी डी* . रखते थे अर्थात सीधे शहर से बाहर नंबर डायल करके टेलीफोन मिला सकते थे । उन्हें लाइनमैन से काम पड़ना ही पड़ना था । वैसे तो नियमानुसार टेलीफोन एक्सचेंज में शिकायत दर्ज करा कर टेलीफोन की किसी भी परेशानी को हल करने का प्रावधान होता था ,लेकिन लाइनमैन का महत्व सुविधा शुल्क – प्रधान व्यवस्था में अपनी जगह था।

जब तक मोबाइल नहीं आया ,टेलीफोन की तूती बोलती रही । जब मुट्ठी में समा जाने वाला छोटा – सा मोबाइल आया होगा ,तब इस भारी – भरकम ,विशालकाय ,काले- कलूटे आकार के प्राणी ने सोचा होगा कि यह छम्मकछल्लो हमारा क्या बिगाड़ लेगी ? हम तो लोगों के दिलों पर पचास साल से शासन कर रहे हैं । हमारी हस्ती कभी नहीं मिटेगी । लेकिन एक दशक में ही छोटे से मोबाइल ने विशालकाय टेलीफोन के राज – सिंहासन को पलट दिया। इस तरह घर ,दुकान और दफ्तर सब जगह टेलीफोन के लिए जो स्थाई सिंहासन का स्थान दशकों से सुरक्षित रखा हुआ था ,वह समाप्त हो गया ।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451