सुबह के सात बज चुके थे। दीवार पर टंगी घड़ी की सुइयाँ थकान से लटकी हुई थीं, जैसे कई सालों से वक्त ढोते-ढोते अब थककर सुस्ताने लगी हों। अविनाश ने करवट बदली। बिस्तर पर पड़े-पड़े उसे लगा, जैसे उसकी ज़िन्दगी भी उसी घड़ी की तरह हो गई है-एक ही जगह ठहरी हुई, एक ही तरह घूमती हुई, बस बिना रुके, बिना किसी नए मोड़ के।
रसोई से चाय की महक आई। पूजा चाय का कप मेज़ पर रखकर बिना कुछ कहे चली गई। पहले ऐसा नहीं था। पहले वह चाय के साथ मुस्कान भी देती थी, अब सिर्फ़ अदरक देती है। मुस्कान जैसे ब्याज की तरह चुकता हो गई थी, बस कड़वाहट रह गई थी।
मोबाइल वाइब्रेट हुआ। स्क्रीन पर वही नंबर चमक रहा था-बैंक ।
"सर, आपकी होम लोन ईएमआई आज कटनी है। बैलेंस चेक कर लीजिए, वरना पेनल्टी लग जाएगी।"
अविनाश ने फोन काट दिया। यह कॉल हर महीने आती थी, उसी दिन, उसी समय। जैसे कोई मशीन हो, जो हर महीने उसकी आत्मा से एक और टुकड़ा काट लेती हो। वह सोचता था, "ज़िन्दगी की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं कि हम गरीब हो जाते हैं, बल्कि यह है कि हम हर महीने थोड़ा-थोड़ा मरते रहते हैं।"
बेटे बिट्टू का स्कूल बैग टूटा हुआ था। पिछले हफ्ते उसने कहा था-
"पापा, नया बैग ला दोगे?"
अविनाश ने हाँ कह दिया था। झूठ बोलना भी शायद अब उसकी ज़रूरत बन गया था। ऑफिस में बॉस की निगाहें उसे घूर रहीं थीं।
"क्या चल रहा है तुम्हारे दिमाग़ में?" क्या बताता? बैंक बैलेंस, होम लोन, क्रेडिट कार्ड, बच्चों की स्कूल फीस, राशन का बिल, बिजली का बिल... दिमाग़ किसी हाइवे पर दौड़ते ट्रैफिक की तरह था, तेज़ रफ्त्तार, बेतरतीब, हर मोड़ पर टकराने के लिए तैयार।
लंच ब्रेक में वह वॉशरूम गया। आईने में अपना चेहरा देखा-गहरी आँखों के नीचे काले धब्बे, सफ़ेद होते बाल, बुझी हुई आँखें। "कब हुआ मैं इतना बूढ़ा?"
बचपन में उसे लगता था कि आदमी तब बूढ़ा होता है, जब उसकी कमर झुकने लगती है।
लेकिन असली बुढ़ापा तब आता है, जब जेब में पैसे झांकते रह जाएँ और अंदर कुछ न मिले।
ऑफिस से लौटते वक्त समोसे की दुकान दिखी। जेब में पड़े पचास के नोट को टटोला। बचपन में माँ कहती थी-"जब मूड खराब हो, कुछ मीठा खा लो, अच्छा लगेगा।"
पर समोसे मीठे नहीं होते। और पंद्रह रुपए का समोसा भी अब गैरजरूरी खर्चा लगता था।
रात के खाने की मेज़ पर बिट्टू ने फिर सवाल किया -"पापा, इस बार मेरे बर्थडे पर क्या गिफ्ट दोगे?"
अविनाश ने मुस्कुराने की कोशिश की। "इस बार सरप्राइज़ दूँगा।"
बिट्टू खुशी से उछल पड़ा।
पूजा ने उसकी आँखों में देखा। उसे समझ आ गया कि अविनाश झूठ बोल रहा है।
पर बिट्टू को नहीं आया। शायद बच्चे बड़े होने के बाद झूठ पकड़ना सीखते हैं, और बड़े होने के बाद झूठ बोलना।
अगली सुबह बैंक का फिर कॉल आया। इस बार आवाज़ में थोड़ी सख्ती थी- "सर, आपकी आखिरी डेट थीं, अब पेनल्टी लग जाएगी।"
वह चुप रहा।
पेनल्टी? जो आदमी पहले से ही किश्तों में कट रहा हो, उसे और कौन-सी सजा दी जा सकती थी?
रात को करवटें बदलते हुए पंखे की आवाज़ सुनाई दी।
"पंखे से लटकने की मत सोचना," अचानक पूजा की आवाज आई।
अविनाश चौंक गया। "क्या?"
"कुछ नहीं।"
पर वह समझ गया कि पूजा ने उसके मन के विचार पढ़ लिए थे।
बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। उसे लगा, जैसे कोई कर्ज़ वसूली एजेंट दरवाज़ा खटखटा रहा हो।
"कब तक बचूंगा?"
उसने आँखें बंद कर लीं।
...और फिर कुछ भी नहीं।
✍️ डॉ. प्रशांत कुमार भारद्वाज
सूर्य नगर, लाइन पार
मुरादाबाद– 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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