'धूप में जब भी जले हैं पांव, घर की याद आई...' नवगीत दादा माहेश्वर तिवारी की लेखनी से शायद तब सृजित हुआ होगा जब दूर दराज़ इलाकों में आयोजित कवि सम्मेलनों और साहित्यिक आयोजनों में उन्हें कई-कई दिन घर से बाहर रहना पड़ा होगा, यह अलग बात है कि उनके इस नवगीत को तब 1970 के दशक में आपातकाल के परिणामस्वरूप आम जनमानस की पीड़ा की अति संवेदनशील अभिव्यक्ति कहा गया। दादा पास बैठना-बतियाना, मतलब साहित्य के एक युग से बतियाना होता था। उनके पास साहित्यकारों के, कविसम्मेलनों के, साहित्यिक आयोजनों के इतने संस्मरण थे कि जब भी बातचीत होती थी तो समय कब गुजर जाता था, पता ही नहीं चलता था। इसके साथ-साथ वह अपनी विशेष वाकशैली से उन किस्सों, घटनाओं और संस्मरणों को और अधिक रोचक बना देते थे।
एक बार उन्होंने सुल्तानपुर (उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन का संस्मरण सुनाया था। कविसम्मेलन के संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे। कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण वह जिन कपड़ों में थे उन्हीं में सीधे मंच पर पहुँच गए। मंच पर पहुँचते ही उन्हें काव्यपाठ करना पड़ा। कविसम्मेलन में उन्होंने अपना याद वाला गीत पढ़ा- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे / जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे...'। गीत पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आये, चाय पी ही रहे थे तभी एक वयोवृद्ध सज्जन उनके पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर तिवारी जी चौंक गए। उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा- 'तिवारीजी, एक बात बताईए कि यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर...?' जैसे-तैसे उन्हें टाला और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हँस पड़े। यह सुनकर उन्हें भी हँसी आ गई और इस ठहाके के साथ ही उठना ठीक लगा।
इसी गीत को लेकर उन्होंने एक और रोचक संस्मरण सुनाया था। शायद 1980 के दशक की बात है कि वाराणसी में एक कवि सम्मेलन में वह गये थे, कविसम्मेलन की अध्यक्षता उस समय के शीर्ष गीतकार भवानी प्रसाद मिश्र कर रहे थे। तिवारी जी ने वहाँ 'डायरी में उंगलियों के फूल से / लिख गया है नाम कोई भूल से...' और 'डबडबाई है नदी की आंख / बादल आ गए हैं...' सुनाए, किन्तु तभी अध्यक्षता कर रहे भवानी दादा वोले- 'माहेश्वर, वो याद वाला गीत और सुनाओ'। दरअसल, भवानी प्रसाद मिश्र को यह गीत बहुत प्रिय था। तिवारी जी ने अपने सुरीले अंदाज में सुनाया- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे / जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे...'। कवि सम्मेलन समाप्त हो जाने के बाद भवानी दादा ने कहा- 'माहेश्वर कल को मेरे साथ इलाहाबाद (अब प्रयागराज) चलना, गांधी जयंती पर कविसम्मेलन है।' इलाहाबाद पहुंचकर भवानी दादा से तिवारी जी बोले- 'दादा, लेकिन मेरे पास गांधीजी के संदर्भ में गीत नहीं है, फिर मैं क्या सुनाऊंगा'। भवानी दादा बोले- 'वो याद वाला गीत सुनाओ'। तिवारी जी ने फिर से उसी अंदाज में सुनाया- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे...।' देर रात समाप्त हुए कविसम्मेलन के बाद पत्रकारों ने भवानी दादा से पूछा- 'आपने गांधी जयंती पर आयोजित कविसम्मेलन में प्रेम गीत- याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे... कैसे पढ़वा दिया?' भवानी प्रसाद मिश्र बोले- 'गांधीजी की याद भी कंचन कलश भरवा सकती है।'
दादा माहेश्वर तिवारी जी के गीत जितने लोकप्रिय और प्रसिद्ध थे, उससे भी अधिक उनके ठहाके चर्चित रहते थे। उनसे जब भी कोई मिलता था, बातचीत के दौरान उनके ठहाकों की उन्मुक्तता में डूबे बिना नहीं रहता था। इन ठहाकों की गूँज तब और बढ़ जाती थी जब तिवारी जी के साथ इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के कवि कैलाश गौतम और होशंगाबाद (म.प्र.) के कवि विनोद निगम होते थे। एक बार दादा तिवारी जी ने बताया था कि बात 1983 की है, जब डा. शम्भूनाथ सिंह के संपादन में 'नवगीत दशक-1' आया था, तय हुआ कि इसका लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के हाथों होगा। प्रधानमंत्री कार्यालय से स्वीकृति मिल जाने के बाद लोकार्पण की तिथि को निर्धारित समय पर डा. शम्भूनाथ सिंह, देवेंद्र शर्मा इन्द्र, नचिकेता, उमाकांत मालवीय, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, कैलाश गौतम, नईम, श्रीकृष्ण तिवारी, विनोद निगम सहित लगभग 20 नवगीतकार प्रधानमंत्री आवास के प्रतीक्षा कक्ष में बैठकर इंतजार कर रहे थे, प्रोटोकॉल के तहत कक्ष के भीतर एक गहरी चुप्पी पसरी हुई थी, तभी शम्भूनाथ सिंह तिवारी जी गीत गुनगुनाते हुए बोले- 'यह तुम्हारा मौन रहना, कुछ न कहना सालता है...', तुरंत बाद ही सुरक्षा बल के जवान धड़धड़ाते हुए प्रतीक्षा कक्ष में आ गए। सभी कुछ सामान्य देखकर वे वापस चले गए, उनके जाते ही कैलाश गौतम, विनोद निगम और तिवारी जी ठहाके मारकर हँसने लगे।
ऐसा ही एक और किस्सा दादा तिवारी जी ने सुनाया था, जब बुद्धिनाथ मिश्र और कैलाश गौतम के साथ वह एक कवि सम्मेलन से रात 2 बजे वापस लौट रहे थे और सड़क पर बस का इंतजार कर रहे थे। चारों ओर सुनसान सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ था। तीनों ही लोग कविसम्मेलन में अन्य कवियों के कवितापाठ पर टिप्पणी करते हुए ठहाके मारकर हँस रहे थे, तभी वहाँ पुलिस की गश्ती जीप आ गई। पूछा- 'आप लोग कौन हैं और कहाँ जाएंगे? दादा तिवारी जी बोले- 'हम कवि लोग हैं, जहाँ ले जाना चाहो वहीं चले जाएंगे' और बहुत जोर से ठहाका लगा कर हंसने लगे। पुलिस के लोग बोले- 'चलो, ये सब पिए हुए हैं।' यह सुनकर तीनों ही ठहाके मारकर जोर जोर से हंसने लगे।
इसी प्रकार वर्ष 2019 में पावस गोष्ठी में आमंत्रण देने के लिए दादा तिवारी जी ने कवि राजीव प्रखर को फोन किया, मैं भी उस समय वहां उपस्थित था। दादा फोन पर बोले- 'राजीव प्रखर बोल रहे हैं?' उधर से आवाज आई- 'जी, राजीव प्रखर बोल रहा हूं, लेकिन आप कौन बोल रहे हैं?' दादा बोले- 'मैं माहेश्वर तिवारी का पड़ोसी बोल रहा हूं' इतना सुनते ही मैं और दादा ठहाका मारकर हंसने लगे। ऐसे अनगिनत किस्से, प्रसंग और संस्मरण हैं जो आज भी किसी चलचित्र की तरह जीवंत हैं यादों में।
✍️योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
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