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बुधवार, 21 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी..... दावानल

     


अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मानव अंग पुनर्स्थापन विभाग में नेत्र प्रत्यारोपण के उपरांत जब मंजरी जोशी ने आंखें खोलीं तो हृदय में फूट रहे उल्लास के नवांकुर अधरों से प्रस्फुटित होने को अधीर हो उठे। दृष्टि चारों ओर घुमाकर उसने वातावरण के सौंदर्य को विस्मय से निहारा और संस्थान के चिकित्सक अनंत चतुर्वेदी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोली –"आप मेरे लिए देवदूत बनकर अवतरित हुए हैं सर! आपने मेरे नेत्रों को जीवन दान देकर मेरे जीवन को पुनर्प्रकाशित किया है। मेरा यह जीवन सदैव आपका ऋणी रहेगा। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भुला पाऊंगी कि आपने मुझे विश्व का सौंदर्य पुनः देखने की सामर्थ्य प्रदान की  है।"

      डॉक्टर चतुर्वेदी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराया–" बेटी तुम्हें मेरा नहीं अपितु उस व्यक्ति का ऋणी होना चाहिए जिसके नेत्रों को हमने तुम्हारे नेत्रों में प्रत्यारोपित किया है। आज के इस स्वार्थवादी युग में ऐसा महान धर्मात्मा होना असंभव नहीं तो कम से कम कठिन और दुर्लभ अवश्य है। एक ओर जहां इस युग में लोग अपने छोटे से स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों का जीवन लेने से भी नहीं हिचकते, वहीं उस बेचारे ने पांच-पांच लोगों को नवजीवन प्रदान कर मानवता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। धन्य है उसका यह प्रेरणादाई त्याग।" 

      मंजरी जोशी चौंकी–"पांच-पांच लोगों को किस प्रकार सर? मैंने तो मात्र नेत्रदान के विषय में ही सुना है। और वह भी केवल मृत्यु उपरांत ही।" 

      डॉक्टर चतुर्वेदी बताने लगे–"पिछले सप्ताह संस्थान में बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त एक ऐसा व्यक्ति आया था जिसके दोनों पैर और एक हाथ कुचला जा चुका था। रक्त भी बहुत बह चुका था। उसके बचने की आशा बहुत क्षीण थी। फिर भी संस्थान के चिकित्सकों ने कई दिनों तक अथक परिश्रम कर उसे जीवनदान दे दिया था। उसकी चेतना जब वापस लौटी तो हाथ-पैरों की दुर्दशा देखकर वह बहुत रोया। बिलख-बिलखकर बार-बार यही प्रार्थना करता रहा कि ऐसे जीवन से भी क्या लाभ जो पराश्रित होकर जिया जाए। इससे तो मौत अच्छी। डॉक्टर मुझे जहर का कोई ऐसा इंजेक्शन दे दो जो सरलता से मृत्यु की नींद सो सकूं।…

     "हमने उसे समझाया कि यदि तुम मृत्यु का आलिंगन करना ही चाहते हो तो अपने अंगों के दान से जीवन को अमरत्व प्रदान करते जाओ! उसकी आंखों में खुशी की लौ चमक उठी। तुरंत दानपत्र पर उसने अपने परिजनों के हस्ताक्षर करा दिए।… इस प्रकार उसके नेत्र तुम्हारे चेहरे पर हैं तथा यकृत, गुर्दे और हृदय अन्य ऐसे लोगों को प्रत्यारोपित किए गए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। वह मरकर भी अमर हो गया। धन्य है उसका जीवन, तुम्हें उसी का ऋणी होना चाहिए बेटी!"

      "क्या आप मुझे उसके घर परिवार का पता दे सकते हैं ताकि मैं वहां जाकर उसके परिजनों का आभार व्यक्त कर सकूं?"

      "नहीं बेटी संस्थान के नियमानुसार यह संभव नहीं है। हम दानकर्ता का पता किसी को नहीं देते। हां इतना अवश्य कहेंगे कि इस धरा पर राक्षस तो बहुत विचरण करते फिरते हैं, लेकिन ऐसा धर्मात्मा कभी-कभी ही अवतरित होता है। जो हजारों लाखों की भीड़ में अकेला होता है। तुलना करो बेटी! वह एक राक्षस भी इसी धरती का जीव था जिसने तुम्हारे नेत्रों की ज्योति छीनकर तुम्हारे जीवन में घोर अमावस जैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था। और यह धर्मात्मा भी इसी धरती पर जन्मा था जिसने तुम्हारे जीवन के अंधकार को अपना बलिदान देकर प्रकाशपुंज में परिवर्तित कर दिया। धरती और आसमान जैसा कितना विशाल अंतर है दोनों के व्यक्तित्व में।"

      मंजरी को लगा कि डॉक्टर चतुर्वेदी ने अनजाने में उसके रोपित व्रण को छील दिया …ऐसा व्रण जिसके रोपण में इतना लंबा समय निकल गया था… यकायक उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस का वीभत्स चेहरा उभर आया, जिसने एक प्रकार से उसे मृत्यु के आगोश में ही धकेल दिया था… उसके प्रकाशपुंज सदृश जीवन को तिमिराच्छादित कर दिया था…और वर्तमान छोड़कर वह अतीत से जा जुड़ी…….

     पत्रकारिता का पाठ्यक्रम कर रही थी वह उन दिनों। प्रतिदिन बस से आना-जाना पड़ता था। अनेक राक्षसी आंखों का सामना होता था। जिसे भी देखो वही उसके नैसर्गिक सौंदर्य को ऐसे निहारता प्रतीत होता जैसे क्षणिक अवसर मिलते ही समूचा निगल जाएगा। पर ऐसी काकदृष्टियों की अभ्यस्त हो चली मंजरी कांव-कांव करने वाले इन कव्वों से लेश मात्र भी तो भयभीत नहीं होती थी। कोई दुष्ट छींटाकशी करता भी तो वह मक्खी- मच्छर की भांति झटक देती। ऐसी अशोभनीय प्रक्रियाओं का प्रायः उसे नित्य प्रति ही सामना करना पड़ता था। अतएव किसी भी मनचले को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया था।

      बस कुछ इसी तरह से गंगा नदी की भांति कभी चट्टानों से टकराती, कभी पत्थरों को धकेलती, चकनाचूर करती जिंदगी अनवरत रूप से बही चली जा रही थी।

      लेकिन अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से एक भारी-भरकम चट्टान ने उसकी राह में आकर उसके प्रवाहक्रम को बाधित कर दिया। उसे क्या पता था कि प्रतिदिन पूरे रास्ते पीछा करने वाला वह राक्षस उसके जीवन को अंधकारमय बनाकर रख देगा? उसे न जीता छोड़ेगा न मरता। 

     सड़क पर बने यात्री प्रतीक्षालय से उसकी गतिविधियां प्रारंभ हो जातीं… हर पल में उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरता रहता और पलार्द्ध को भी दृष्टि टकराती तो दुष्ट विषाक्त हंसी हंस पड़ता। बस में चढ़ती तो साथ-साथ चढ़ता, सटकर बैठने अथवा खड़े होने की दुष्चेष्टा करता, उसके समीप अपना खुरदरा मुंह करके कोई भी फब्ती कस देता। उसकी दुष्चेष्टाएं जब असह्य हो उठतीं तो वह उसे आग्नेय नेत्रों से घूर देती। लेकिन अद्भुत  साहस का धनी था वह भी। नेत्रों से निकलती चिंगारियों से भी लेशमात्र भयभीत नहीं होता। अपितु दाईं आंख दबाकर धीरे से हंस पड़ता।

      कभी इतनी व्याकुल नहीं हुई थी मंजरी, जितना इस राक्षस के कारण हुई थी…हृदय की व्यथा कहे भी तो किससे कहे?… परिवार वालों से कहेगी तो तत्काल उसका विद्यालय जाना रोक देंगे… वे तो पहले से ही इस संघर्षभरे पाठ्यक्रम के विरोधी थे। मंजरी शैशव से ही संघर्षों से टकराना सीख गई थी। उसकी हठधर्मिता के समक्ष परिवार वालों को झुकना पड़ता था… थाने में शिकायत करने जाए तो पुलिस वाले चटखारे लेकर परिहास उड़ाएंगे, कई तरह के सुझाव देकर पीछे छुड़ा लेंगे। और थाने से निकलते ही हृदयोद्गार व्यक्त करने से भी नहीं चूकेंगे –'जालिम है भी तो इतनी खूबसूरत कि देखते ही दिल बेलगाम हो जाता है।'

     वह स्वयं ही कई दिनों तक आत्ममंथन करती रही…सोचती रही…विचारती रही… और आखिर में स्वयं ही उस राक्षस को सीख देने का  वज्र निर्णय  मन ही मन ले बैठी।

      एक सुबह को जब वह यात्री प्रतीक्षालय पहुंची तो उसका स्वयंभू प्रेमी पहले से ही वहां खड़ा था। उसके पहुंचते ही वह आगे बढ़कर बोला–'भगवान ने तुम्हें इतना भरपूर सौंदर्य प्रदान किया है कि तुम्हें देखते ही मेरा दिल बेकाबू हो जाता है। तुम नहीं जानतीं मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं। सच-सच बताओ क्या तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो?'

      क्रोध की पराकाष्ठा में मंजरी का अंग-अंग कंपकंपाने लगा। ढेर सारा झागदार थूक मुख से निकालकर उसने दुष्ट  के मुंह पर उछाल दिया। साथ ही दाएं पंजे में शरीर की संपूर्ण ऊर्जा सन्निहित कर तड़ाक से उसके गाल पर छापते हुए बोली–'ले यह है मेरा जवाब!'

      विस्मित नेत्रों से तमाशा देख रहे लोग रोमांचित होकर उपहास की हंसी हंस पड़े। और थोथी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उसकी बहादुरी की प्रशंसा करने लगे। परंतु चूड़ियां पहने कायर पुरुषों के वक्तव्य सुनने के लिए वह रुकी नहीं। तेज-तेज कदमों से घर पर वापस लौट आई। परिजनों ने वीरता भरा वृतांत सुना तो पीठ थपथपाने के बजाय उसी को डांटने लगे–'क्या जरूरत थी उस गुंडे मवाली से पंगा लेने की? कल को वह प्रतिशोध लेने पर उतर आया तो न जाने क्या परिणाम सहना पड़े? हमें नहीं करवानी ऐसी पत्रकारिता जिस की राह में कांटे ही कांटे बिछे पड़े हों।'

      साथ ही उसे कर्कश आदेश भी सुनना पड़ा था–'कल से तू कॉलेज नहीं जाएगी।घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी।'

      मंजरी पलांश में आकाश से धरती पर गिर पड़ी। उसे लगा उसका अस्तित्व शून्य में विलीन हो गया है। नेत्रों से अश्रु टपककर पैरों पर गिर पड़े। स्वर में आक्रोश का पुट उभर आया–'क्या समझते हैं आप नारी को? मोम की गुड़िया या हाड़मांस का निष्प्राण शरीर?… जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे उसकी कोई महत्ता ही न हो… क्या ईश्वर ने नारी को मात्र पुरुषों का अत्याचार सहने के लिए ही बनाया है? क्या उसे सिर उठाकर जीने का कोई अधिकार नहीं?… कैसी दयनीय स्थिति बना दी है इस पुरुष समाज ने नारी की… घर के लोग ईंटों की दीवारों में कैद रखना चाहते हैं तो बाहर के लोग जीवित निगल जाने को तैयार … लेकिन मंजरी को ऐसा कातर जीवन कदापि स्वीकार नहीं… वह जिएगी तो स्वाभिमान पूर्वक सिर उठाकर जिएगी, अन्यथा हंसते-हंसते सहर्ष मृत्यु का आलिंगन कर लेगी'…

     निकृष्ट छद्म प्रेमी से वह लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुई थी। अपितु एक नए उत्साह से भरकर फिर से विद्यालय जाने लगी थी।

      कुछ दिनों तक उस बर्बर की छाया भी कहीं दिखाई नहीं दी तो वह हर ओर से निश्चिंत हो गई थी। शायद अपमान दंश से लज्जित होकर वह कहीं किसी विवर में जा घुसा था।

      लेकिन वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी शीघ्र ही आ पहुंचा जब उसके जीवन के चंद्रमा जैसे प्रकाश को राहु ने ग्रसकर अमावस जैसा घोर अंधकार व्याप दिया।

      संध्या के झुरमुटे में जब वह एक दिन घर वापस लौट रही थी तो एक संकरी गली में किसी गुरिल्ले की भांति वह यकायक मंजरी के सामने प्रकट हुआ और लोहे के शिकंजे जैसा हाथ उसके मुंह पर चिपकाकर कंधे पर डाल समीपस्थ सुनसान खंडहर में ले गया। और लगा पाशविक कामुक चेष्टाएं करने। मंजरी ने पूरी शक्ति के साथ उसकी हर कुचेष्टा का प्रतिकार किया। परंतु एक कोमल कमनीय काया कब तक उस बलिष्ठ पशु का सामना कर पाती? शीघ्र ही उससे परास्त होने लगी। उसे लगा कि यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो वह उसकी अस्मत तार-तार कर देगा।

     अतएव अपने दांत उसने ऊपर पड़े राक्षस के वक्ष में पूर्ण शक्ति से चुभा दिए। असह्य वेदना से तिलमिलाकर वह उसके ऊपर से तो हट गया, परंतु क्रोधावेश में थरथरा उठा। दोनों हाथों से मंजरी का सिर पकड़कर उसने पूर्ण वेग के साथ दीवार में दे मारा। मंजरी की आंखों के सामने तारे से झिलमिलाए तथा मस्तक बड़ी तीव्रता से घूमने लगा। दोनों हाथों से सिर को थामकर वह एक और गिर पड़ी। और कुछ ही पलों में संज्ञाशून्य होती चली गई। फिर कुछ भी तो उसके संज्ञान में नहीं आ पाया कि निकृष्ट राक्षस ने उसकी अचेत देह के साथ  क्या-क्या किया?

      चेतना वापस लौटी तो उसने स्वयं को चिकित्सालय में परिजनों व चिकित्सकों से घिरा पाया। उन लोगों के पारस्परिक वार्तालाप से ही उसे आभास हुआ कि मस्तिष्काघात के कारण उसका रेटिना नष्ट हो चुका है। नेत्रों की ज्योति सदा-सदा के लिए समाप्त हो चुकी है।

     सन्न रह गई जलधारा सी सहज मंजरी जोशी… और वह केवल सन्न ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे किसी ने उसके भावनामृत युवा शरीर से सारी शक्ति खींच ली हो… जीवन हीन कर डाला हो। उसके अधरों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई।अंत:करण शोक और निराशा से परिपूर्ण हो उठा… लगा कि जैसे कोंपल जैसे बसंत पर यकायक पतझड़ टूट पड़ा है। मन हुआ कि चीत्कार कर उठे …इतनी जोर से रोए कि अपना ही सीना फट जाए… सावन की घनघोर काली घटाओं की तरह हृदय की पीड़ा सघन हो उठी… कालचक्र ने यह कैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था उसके सद्यप्रकाशित जीवन में…

      फिर भी दु:खाग्नि में जलते अपने हृदय पर उष्ण घृतवत आ गिरे इस भयावह वृतांत को पचाने में उसने समूची संयम शक्ति लगा दी। शांतभाव से समूचे घटनाक्रम को भीतर ही भीतर पी गई वह। असंतोष और क्षोभभरा एक भी शब्द मुख से बाहर नहीं निकलने दिया। लाभ भी क्या था कुछ कहने से? चंद्रमा पर लगा कलंक का टीका और भी काला हो सकता था।

      घृणा  लावे की तरह तन-मन को जलाकर राख करती रही… चुप रहकर भीतर ही भीतर वह जलती रही…बस जलती रही।

      परिजन उसे लेकर कहां-कहां नहीं घूमें-फिरे थे? किस-किस ख्याति प्राप्त नेत्र चिकित्सक के पास नहीं गए थे? परंतु हर किसी का एक ही निराशा भरा उत्तर होता था–'अफसोस नेत्र ज्योति वापस नहीं आ सकती। नेत्र प्रत्यारोपण के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं।'

      लेकिन नेत्र भी किसी दुकान पर बिकते हैं क्या कि खरीदो और प्रत्यारोपित करा लो?

      थक-हारकर निराश से सभी घर बैठ गए थे। और मंजरी को उसके भाग्य और परिस्थितियों पर छोड़ दिया था।

     परंतु मंजरी जोशी उस मृत्तिका से नहीं बनी थी जिससे निर्मित लोगों के लिए लाचारी और विवशता जैसे शब्द ज्यादा अर्थमय होते हैं। नेत्र ज्योति खोकर भी वह लाचार अथवा असहाय बनकर शांत नहीं बैठी। अपनी इस अपंगता को उसने चुनौती के रूप में स्वीकार किया। और परिजनों की इच्छा के विपरीत एक सहायिका के माध्यम से विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में छिपे हुए पहलुओं को उजागर करना उसका मुख्य शौक बन गया।काले चश्में से नेत्रों को ढके अपनी सहायिका को साथ लेकर चर्चाओं के वृत्त में कैद पुरुषों को प्रश्नों के जाल में ऐसा उलझाती कि शीर्ष पुरुष पिंजरे में बंद पक्षी की तरह छटपटाने लगता। ऐसे साक्षात्कार लोग चटखारे ले-लेकर पढ़ते।

        परंतु विगत की तिक्त स्मृतियां हर पल उसके मस्तिष्क में लोहशस्त्र जैसा प्रहार करती रहतीं। बलात् किए गए कामुक स्पर्शों की विषाक्त पीड़ा देह में वृश्चिक दंश जैसी चुभन का एहसास कराती रहती। जीवन को अंधकारमय बनाने वाले उस निकृष्ट राक्षस का वीभत्स चेहरा भयानक अट्टहास करता हुआ कभी भी उसके अवचेतन में उभर आता। तब आवेश में शरीर की शिराएं झनझना उठतीं। क्रोध की अधिकता में मुट्ठियां कस जातीं। मन करता कि कहीं सामने आ जाए तो उसका चेहरा नोंच डाले…

      लेकिन अगले ही पल अपने असामर्थ्यबोध पर तिलमिला उठती… सामने आ भी गया तो पहचानेगी कैसे?… उफ्फ!उसने तो न जीता छोड़ा और न मरता… इससे तो अच्छा था मार ही डालता… इस प्रकार घुट-घुटकर तो न मरना पड़ता… एक जीवित लाश बनकर तो न जीना पड़ता।

     उन्हीं दिनों उसने कहीं सुना कि आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉ अनंत चतुर्वेदी अपने सहयोगी चिकित्सकों के साथ उन रोगियों को उचित अंग प्रत्यारोपित कर नवजीवन प्रदान करने के महान कार्य में जुटे हुए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा रह जाता।

      बस वह पहुंच गई उनका साक्षात्कार शब्दांकित करने… डॉक्टर चतुर्वेदी उसे शांत, गंभीर, परोपकारी और त्यागी-तपस्वी से लगे। साक्षात्कार के मध्य ही डॉक्टर चतुर्वेदी उसकी काले चश्मे के पीछे से झांकती आंखों की असामर्थ्यता पहचान गए। उन्होंने स्वयं ही उसके सामने नेत्र प्रत्यारोपण का प्रस्ताव रख दिया। हर्षातिरेक में मंजरी का झरने की तरह झनझनाता हुआ मृदुल स्वर भर्रा उठा–'सर क्या मैं पूर्व की भांति फिर से विश्व के सौंदर्य का आनंद ले सकती हूं? क्या मेरी खोई हुई नेत्रज्योति पूरी तरह वापस लौट सकती है?'

     'हां-हां क्यों नहीं? हमारे नेत्र शल्यकर्म के कुछ ही दिनों बाद तुम विश्व की रंगीनियों का सौंदर्यपान अपनी आंखों द्वारा कर सकती हो!' डॉ चतुर्वेदी ने उसे विश्वास दिलाया तो वह सतरंगी सपनों की वादियों में विचरण करने पहुंच गई।

"बेटी! तुम्हारा ऑपरेशन सफल रहा, चाहो तो घर जा सकती हो!"  डॉक्टर चतुर्वेदी ने उसकी आंखों पर बंधी पट्टियां खोलते हुए कहा तो उसका स्वप्निल संसार ऐसे छिन्न-भिन्न हो गया जैसे किसी ने शांत और स्थिर जल में ऊपल फेंक दिया हो।

      घर वापस लौटते ही पुनः संघर्षमई पत्रकारिता में जुटने में उसने पल भर का भी विलंब नहीं किया। अपने कार्य में वह स्वयं को इस तरह उलझाए रखती कि स्मृतियां उद्वेलित न करें। लेकिन जब कभी विगत से जुड़ जाती तो हृदय में आकाश तक को धुंधला देने वाले रेतीले बवंडर उठ खड़े होते…विगत की कष्टकारी अनुभूतियां उसे अनंत रेगिस्तान जैसी झुलसन का एहसास करातीं तो वर्तमान के आनंददाई पल तन-मन को पुलकित करके रख देते। एक ओर वह नेत्रदान जैसा पुण्यकर्म करने वाले उस महान धर्मात्मा के चेहरे को अज्ञात रेखाओं द्वारा पहचानने का प्रयास करती रहती जिसका वह नाम तक नहीं जान सकी थी…कितना पवित्रात्मा था वह जो मरकर भी अमर हो गया… उसका तो किसी प्रकार ऋण भी नहीं चुकाया जा सकता।

     तो दूसरी ओर एकांतिक अवसर पाते ही वह विगत से जुड़ जाती। तब उसे अपने जीवन की सुख-शांति हर लेने वाले उस राक्षस का वीभत्स चेहरा चिढ़ाता हुआ सा दिखाई देता…घृणा तन-मन को जलाकर राख कर देने को उतावली हो उठती…

     और जब-जब भी उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस की भयावह आकृति उभरकर आती तब-तब उसकी देह में एक दावानल सुलगने लगता… ऐसा दावानल जिसकी प्रचंड लपटें आसमान तक की हर वस्तु को भस्मीभूत करने को आतुर हो उठतीं…दुःख और अपमान की चिंगारियां  उसके अंग-प्रत्यंग को झुलसाने लगतीं…सारे शरीर में उत्तेजना व्याप्त हो जाती।मन करता कि कहीं मिल जाए तो कुचल-मसलकर रख देगी…समाज के सामने ऐसा नंगा करेगी उसे कि पश्चात्ताप और घृणा की अग्नि में स्वयं ही तिल-तिल जल मरेगा।

     कैसी विचित्र सी स्थिति हो गई थी उसकी…कभी तो मन वर्तमान के आनंददाई क्षणों को महसूस कर चांदनी भरे आकाश की तरह निर्मल तथा शांतिमय हो जाता तो कभी अगले ही पल दुःख और अपमान के भारी बोझ से वर्षा के घटाटोप मेघ सा घिर आता। पाशविक दुराचरण और सामाजिक अवमानना का स्मरण होते ही उसके भीतर प्रतिशोध की वह भावना बलवती हो उठती जो ध्वंश की प्रलय लाती है।

     दैवयोग से ऐसा अवसर भी शीघ्र ही हाथ आ गया जब उस दुष्टात्मा तक पहुंचने का सूत्र उसके हाथों तक स्वत: चला आया।

     पिछले वर्षों के आपराधिक आंकड़ों का तुलनात्मक ग्राफ तैयार करते समय एक पुराने समाचारपत्र में उस राक्षस का सचित्र विवरण उसे अकस्मात् ही दिखाई दे गया…हूबहू वही था…वही बिज्जू जैसी चमक बिखेरती छोटी-छोटी आंखें, खुरदरा चेहरा और मोटे से भद्दे होंठ, दैत्यों वाली मोटी नाक और अस्त व्यस्त उलझे हुए बाल…छायाचित्र में भी कितना वीभत्स लग रहा था दुष्ट…जैसे अभी छायाचित्र से बाहर निकलकर पुनः पाशविक आचरण करने लगेगा।

     क्रोधाधिकता में जबड़े भिंच गए उसके और मुट्ठियां कस गईं, शिराएं झनझना उठीं…लगा जैसे खौलता हुआ तरल लोह पदार्थ उसकी नस-नस में प्रवाहित होकर ज्वालाएं उगल रहा है। तीव्र अपमान का एहसास और भयंकर वेदना ने एक बार पुनः उसके भावनामृत शरीर को झकझोरकर रख दिया…प्रतिशोध लेकर रहेगी उससे…दुर्भाग्य का जैसा काला डरावना बादल उस पिशाच ने जीवन के निर्मल आकाश पर आच्छादित कर दिया था उससे भी ज्यादा गहरी कालिमा वह उसके पूरे जीवन पर पोतकर रहेगी…ऐसा पंगु बना देगी उसे कि धूर्त मृत्यु की भिक्षा मांगने को विवश हो जाएगा।

     कंधे पर बैग लटका तत्काल सहायिका को साथ ले वह समाचारपत्र में दिग्दर्शित पते की खोज में निकल पड़ी। 

     और जब वह झुग्गी झोपड़ी जैसे उसके घर में प्रविष्ट हुई तो सामने की दीवार पर शीशे के आवरण में कैद उस निकृष्ट राक्षस की छायाकृति टंगी देखकर क्रोध की ज्वाला में दहक उठी। नेत्रों से चिंगारियां सी झड़ने लगीं… जैसे सर्वप्रथम उसी छायाचित्र को भस्मीभूत करेगी… संपूर्ण बदन में विद्युत लहरियों जैसी तेज लपटें सुलग  आईं… क्रोधावेश में उसे यह भी तो ध्यान नहीं रहा की छायाकृति पर तो पुष्पमाल टंगी है। सहायिका ने  भ्रू संकेत से उसका ध्यान आकृष्ट किया तो वह चौंक पड़ी… यथार्थ का बोध होते ही आवेश किसी तरल पदार्थ की भांति बहकर शिराओं से बाहर निकलने लगा। क्रोध का ज्वार भी नीचे गिरने लगा। देह शीतल होने लगी।

      असमंजस के से भाव नेत्रों में लिए वहां खड़ी एक युवती दो अजनबी युवतियों को घर में यकायक प्रविष्ट हुआ देखकर कुछ समझ नहीं पाई तो उसने मंजरी से पूछ लिया–" बहन जी! क्या आप इन्हीं के बारे में कोई जानकारी लेने आई हैं या कोई और प्रयोजन है ?"

      मंजरी की गर्दन स्वीकृति में हिलते ही उस युवती के नेत्रों में दर्द का समंदर उमड़ पड़ा और कंठ भर्रा गया–" बहन जी! मेरे पति की स्मृति है यह। बेचारे मरकर भी अमर हो गए। जीते जी तो मुझे कुछ सुख दिया या नहीं वह तो अलग की बात है, परंतु मरते समय जो पुण्य कार्य वह कर गए हैं उससे मेरा भी मस्तक गर्व से ऊंचा उठ गया …दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ कुचल गए थे उनके। जीने का कोई प्रयोजन भी नहीं रह गया था उनकी सोच में। अपंग और पराश्रित होकर जीना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। अपना एक जीवन खोकर पांच-पांच जिंदगियों को नया जीवन प्रदान कर गए हैं वह।अब आप ही बताइए बहन जी! क्या आपने ऐसे महान धर्मात्मा के विषय में कहीं सुना है जिसने पांच-पांच जिंदगियों को सुख पहुंचाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? वरना जिंदगी किसे प्यारी नहीं होती? क्या प्रेरणापुंज सदृश नहीं  है उनका यह कृत्य?"

      लंबी-लंबी सिसकियों के बीच उसका स्वर अटककर रह गया। अंगुलियों के पोरों से आंसुओं को पोंछकर वह पुनः भावनाओं में बह गई–" ऐसी श्रेष्ठ पुण्यात्मा के प्रति किसका मस्तक श्रद्धा से नहीं झुक जाएगा बहनजी? शायद आप भी इसी परोपकारी को शीश झुकाने आई होंगी? श्रद्धांजलि अर्पित करने आई होंगी इन्हें जैसे कि अन्य बहुत से लोग नित्यप्रति आते रहते हैं। प्रेरणादायक है ऐसे दानवीर का महान व्यक्तित्व।"

      मंजरी प्रस्तर प्रतिमा सी अवाक् खड़ी रह गई। उसके कर्णद्वय युवती के हृदयोद्गारों को बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। और विस्फारित सी दृष्टि उसी छायाकृति को अपलक निहारे जा रही थी। परंतु जिह्वा जैसे लकवाग्रस्त हो गई थी अथवा शब्दकोश ही समाप्त हो गया था… कोई भी तो शब्द मुख से बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे निकृष्ट राक्षस कहे या धर्मात्मा की उपाधि प्रदान करे?… अथवा धर्मात्मा-राक्षस कहकर पुकारे?…

     उसकी अपनी आंखों में उसी की आंखों की रोशनी जगमगा रही थी जिसने किन्हीं दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में उसे विवेकशून्यता से ग्रसित होकर नेत्रांधता प्रदान की थी।

      वर्षों से सुलगता आया दावानल इस तरह कभी स्वत: ही पलांश भर में शांत हो जाएगा जैसे किसी ने यकायक ढेर सारा जल उछाल दिया हो… उसने कभी सोचा भी नहीं था…न ही कभी कल्पित कर सकी थी।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 6 मई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी.....अपराजिता


..... जल्दी करो डॉक्टर!.....खून बहुत बह गया है....ये आईपीएस अधिकारी बिजेत्री हैं इनको पांच गोलियां लगी हैं ....20 लाख के इनामी दुर्दांत डाकू गुलाब सिंह के पूरे गिरोह का सफाया कर दिया इन्होंने   ..... 15 लोग मारे गये एक दरोगा और सिपाही की भी मौत हो चुकी है.......! 

.........आंखें खुली..चेतना शून्य कौमा में पहुँच चुकी हैं....... बचने की बहुत कम संभावना है.....! परन्तु आई पी एस विजेत्री की चेतना अवचेतन मस्तिष्क में कुछ और ही दौर से गुजर रही थी......! 

..... मैं विजेत्री ! मेरी कहानी तो मेरे जन्म से पहले ही शुरू हो चुकी थी जब मैं 4 महीने के भ्रूण अवस्था में थी तभी मेरे दादा दादी ने मां को हुक्म सुनाया.."तैयार हो जाओ तुम्हें हमारे साथ नर्सिंग होम चलना है, पता लगाना है लड़का है या लड़की!....हमें लड़का ही चाहिए कोई लड़की नहीं चाहिए! "    "समाज में   कोई बेइज्जती नहीं चाहिए" ....उनकी बातें सुनकर मेरा दिल दहल गया क्योंकि मुझे तो पता था कि मैं लड़की हूं जबकि मेरे पापा ने मां से कह रखा था "पहला बच्चा है  हमें न तो भ्रूण परीक्षण कराना है और न एवोर्शन!लड़की हो या लड़का......लड़की भी हमारे लिए  उतनी ही प्रिय होगी जितना कि लड़का इसलिए अम्मा बापू के कहने में मतआजाना!.........मेरी छुट्टी खत्म हो रही हैं मैं जा रहा हूँ........!"

     परन्तु मम्मी ठहरी गाँव की भीरू स्त्री.... बड़ों का कहना सिर झुका कर स्वीकार करना उनकी नियति बन चुका था...मन मार कर उन्हें दादा दादी के साथ नर्सिंग होम जाना ही पड़ा !

    वैसे मां खूब तंदुरुस्त थीं ....प्रेगनेंसी में लड़का मोटा तगड़ा हो उनके घर की एक लाठी जो तैयार होने जा रही थी...इसलिए माँ की खुराक बढ़ा दी गयी थी विशेष आवभगत की जाती थी.......! 

    अल्ट्रासाउंड हुआ और मेरे अस्तित्व की पोल खुल गई ..... दादा दादी पुराने खयालात के लोग थे तुरंत मेरे कत्ल का आदेश जारी हो गया .....हमें लड़की नहीं चाहिए......डाक्टर ! तुरंत अवोर्शन कर दीजिये!..........मैं स्तब्ध भय से थर थर कांप रही थी.....माँ भी बहुत डर रही थी..... ! 

       4 महीने का भ्रूण नन्ही सी जान.......बड़े-बड़े औजार मुझे खत्म करने के लिए आगे बढ़े परन्तु मै शुरू से चालाक थी  बिल्कुल दीवारों से चिपक गई और उनके हथियारों  के हाथ नहीं आई डॉक्टर बहुत हैरान थी  डॉक्टर ने कहा अगले हफ्ते आना सब ठीक से हो जाएगा मैं उस रात बिल्कुल नहीं सोई....आतंक से थरथर कांप रही थी लगातार रोये जा रही थी ....मन में कह रही थी पापा जल्दी आ जाओ अपनी बिटिया को बचा लो!....पापा आपके घर के एक कोने में पड़ी रहूंगी!....किसी चीज की जिद नहीं करूंगी सब कुछ भैया को दे देना..... मै रूखा सूखा खा कर रह लूंगी .....अच्छे कपड़ों की जिद भी नहीं करूंगी.....चाहे मुझे स्कूल भी मत भेजना.,.पापा आपके घर भैया तो आ जायेगा पर जरा सोचो उसकी कलाई पर राखी कौन बांधेगा ?...भैया दूज कौन करेगा.?..भैया जब दूल्हा बनेगा देहली घेर कर हक कौन मांगेगा.?...बहन वाली शादी की रस्में कौन पूरी करेगा.? फिर सोचो कहते हैं कन्या दान के बिना मुक्ति नही मिलती...!....लौट आओ पापा !.....आप कहाँ हो यहाँ आपकी अजन्मी बेटी की हत्या की योजना बन रही है .....! मेरे मन की बात शायद भगवान ने पापा तक पहुंचा दी  पापा को खबर लगी वे लौट आए....घर में बहुत हंगामा हुआ......मै सुबक पडी़......मेरे प्यारे पापा! मुझे बचा लेंगे !....

.............दादा दादी से गरज कर बोले "ऐसा कुछ भी नहीं होगा!" दादा दादी से उनकी बोलचाल भी बंद हो गई ....बहुत कहासुनी हुई....डाक्टर को जेल कराने की धमकी दे कर पापा वापस चले गये..... सो डॉक्टर ने दादी से साफ मना कर दिया........ गर्भ पात अपराध है.... ! 

   अब अचानक माँ के खान पान पर ध्यान देना बन्द कर दिया गया

इधर माँ को सफेद मिट्टी खाने की प्रबल इच्छा होने लगी वे मिट्टी खाने लगीं....! उस सबका मेरे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा जैसे तैसे मुझे दुनिया में लाया गया परंतु कमजोर होने के कारण माँ को बचाना भारी पड गया आपरेशन से इंफेक्शन हटाने में गर्भाशय ही निकालना पडा़ वे अब पुनः और बच्चे को जन्म नहीं दे सकती थी...कमजोरी की वजह से मुझे भी विशेष निगरानी में अलग मशीनों में रखा गया जैसे तैसे मैं बड़ी हुई और मैंने अपने कार्यों से लोगों को चमत्कृत करना शुरू कर दिया हर जगह हर काम में मैं प्रथम रहती....दादा दादी की मानसिकता में परिवर्तन हो इसलिए मैंने लड़को जैसे बाल, लड़कों के खेलों में भाग लेना शुरू किया धीरे-धीरे मैं बड़ी हो गई और मेरा सलेक्शन आईपीएस में हो गया मेरे पिता मुझसे बहुत खुश रहा करते  थे परंतु दादा दादी का दिल मैं कभी नहीं जीत सकी ! बोले...".भला अब इस लड़की से शादी कौन करेगा"....? 

.....इन दिनों मुझे एक गंभीर मिशन  सौंपा गया....खूंखार डाकू गुलाबसिंह का गिरोह सहित खात्मा!.....जो न जाने कितने कत्ल और डकैतियां कर चुका था....लंबी  7 फुट ऊंची चौडी़ कद काठी....,चौडी़ छाती  बड़ी-बड़ी जलती हुई आंखें लम्बी मूछें मेरा सामना मानो नर पिशाच से हुआ था उसका गिरोह उस समय का सबसे खतरनाक गिरोह था एक पुराना खंडहर इस गिरोह का ठिकाना था  रात को मुंह पर  नकाब लगाकर गांव में निकल पड़ता था जनता और पुलिस सभी इससे आतंकित थे......मैंने भी ठान लिया था इसके गिरोह का सफाया मेरे ही हाथ से होगा......रात में जैसे ही मैं उसके गढ़ में पहुंची है वहाँ गोलियों की बौछार होने लगी एनकाउंटर शुरू हो गया थोडी़ ही देर में एक सब इंसपेक्टर और एक सिपाही को गोली लगी....यह देख कर मेरे सभी साथी छोड़ भागे पर मैंने साहस नहीं छोड़ा और एक-एक कर 15 डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया अंत में बचा खुद गुलाब सिंह उसमें बहुत बल था लात घूँसों  से उसने मुझे अधमरा कर दिया.....मेरे शरीर के अंदर पांच गोलियां लगी थीं फिर भी मैंने अंतिम क्षण तक साहस नहीं छोड़ा मैंने छुपे हुए खंजर से उसके सीने पर बार किया उसने हाथ से बड़ी मजबूती से मेरा गला पकड़ रखा था जिसका दबाव लगातार मेरे गले पर बढ़ता जा रहा था ,  मेरी सांस उखड़ रही थी जिंदगी और मौत के बीच एक बारीक सी लाइन बची थी....फिर मैंने खंजर से कई बार उसके ऊपर किये...अज्ञात शक्ति मेरा साथ दे रही थी ....मरने से पहले  मैंने एक गोली उसके सर पर दागी जिससे उसके हाथ का दबाव मेरे गले पर अचानक कम हुआ और गुलाब सिंह जमीन पर गिर कर ढेर हो गया, मेरी चेतना मुझसे कह रही थी जब मैं पहले न  मरी तो अब क्या मरूंगी.........

    ......प्रशासन की ओर से मुझे देखने वालों का तांता लग गया, सभी लोग मेरे जीवन की सलामती की दुआ कर रहे थे परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो कि सोच रहे थे  अब  बचेगी नहीं ...जाने कितने सीनियर अफसर मन ही मन खुश हो रहे थे क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा यह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी कि किसी महिला  आईपीएस को इतना मान सम्मान मिले देखिए क्या होता है,. ....मैं, अब होश खोती जा रही हूं ईश्वर मेरी रक्षा करें...... 

* 3 दिन बाद*

 ......कई बार सर्जरी हुई एक एक करके पांच गोलियां निकाली गयीं... ...  मेरे  घाव काफी भर चुके थे... 

...एक बड़े समारोह में पुलिस की ओर से मुझे बीस लाख का इनाम और मेडल मिलने वाला था....

मैं मंच से अपने दादाजी  सुल्तान सिंह को पुकारती हूँ मेरे दादाजी कृपया मंच पर आएं ..मैं उनके हाथ से ही ये सम्मान लेना चाहती हूं.......!

. ...... दादा दादी आज बहुत भावुक हो रहे थे.....अश्रुधारा कब से झुर्रियों को भिगोये जा रही थी.....किंकर्तव्यविमूढ़ से बस एक टक मुझे ही देखे जा रहे थे परन्तु आज ये आंसू पश्चाताप और खुशी के थे मानो कह रहे हों बेटी विजेत्री तूने हमारे सारे सपने साकार कर दिये......हमें इस बुढ़ापे में गौरव के पल देकर निहाल कर दिया ......

.....तेरे जैसी बिटिया पर  कितने ही बेटे कुर्बान!.....

  ... ...उन्हें पकड़ कर मंच पर लाया गया दादा जी ने कांपते हाथों से माइक पकड़ा बोलना शुरू किया बेटी विजेत्री! बेटी बिजेत्री! हमने कभी तुम्हारी कद्र नहीं की....!अरे हम तो तुझसे जीने का अधिकार ही छीने ले रहे थे भगवान हमें क्षमा करें..... ्..

.....आज तूने साबित कर दिया.हम गलत थे....... और हम गलत साबित होकर  बहुत खुश हैं... 

........बेटी विजेत्री हमें तुम पर गर्व है भगवान सब को तुम्हारे जैसी बेटी दे लोगों को बेटियों की रक्षा करनी चाहिए ,, बेटे बेटी में बिल्कुल भेद नहीं करना चाहिए......आज विजेत्री न होती तो क्या हमें यह गौरव प्राप्त हो सकता था....... ?... 

✍️ अशोक विद्रोही 

412, प्रकाश नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 8218825541

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी.....'तिरस्कार' ​


नेहा सजी सँवरी अपनी भाभी के कमरे में बैठी हुई थी आज पापाजी ने सख्ती से कह दिया था कि नेहा आज ऐसे रंग की साड़ी पहने जिसमें उसका रंग निखरा सा लगे क्योंकि पिछली बार जब लड़के वाले आए थे तब उसको सलवार सूट में ही दिखा दिया था जिसमें लड़के ने साफ मना कर दिया कि नेहा मोटी लग रही है .

"​नेहा ...आ गए ?"भाभी चहकते हुए कमरे में आईं .सुनकर नेहा के दिल की धड़कन और चेहरे की उदासी बढ़ गई , क्योंकि यह तीसरी दफा है उसको इस तरह से सजाकर लड़के वालों के सामने ले जाने की .

​सबका हाल बुरा था दादी ने तो गणेश जी से मन्नत मांगी थी कि आज अगर उनकी पोती पास हो गई तो सवा कुन्तल लड्डुओं का प्रसाद बांटेंगी ...और माँ ने तो साईं बाबा का उपवास भी रखना प्रारम्भ कर दिया साथ ही पिछले सोमवार से नेहा से भी सोलह सोमवार का व्रत रखवाना शुरू कर दिया था दादी ने तो .

​लड़का भी देखने आया अच्छा मोटा काला सा था लेकिन अच्छा कमा रहा था .जब फोटो देखकर माँ और नेहा की छोटी बहन ने मूँह बिगाड़ा तो दादी ने फटकार लगाई कि लड़के तो जैसे भी हों काले गोरे मोटे पतले कोई फर्क नहीं पड़ता बस संस्कारी और कमाऊ हों .

​सुनकर नेहा के मन में सवाल आया कि वह भी तो पढ़ी लिखी संस्कारी लड़की है क्या वह अच्छी नहीं है क्यों समाज द्वारा दोहरे मापदंड बनाए गए है लड़कियों और लड़कों के लिए ?

​लड़के की माँ और बहन भी आईं थीं जो बातचीत से होशियार मगर देखने में तो ठीकठाक ही थीं ,उनको देखकर पूरे घर की जान में जान आ गई कि चलो ये ज्यादा खूबसूरत नहीं तो नेहा को भी पास कर ही देंगी . पानी पीने के बाद सभी ने भर पेट नाश्ता किया मिठाई शहर के नामी हलवाई के यहां से मंगाई .

​नेहा को भीतर ही भीतर बहुत बुरा लग रहा था .दादी पापा से कह रहीं थीं कि" जैसे भी हो वैसे रिश्ता कर ही देना अपने सिक्के में ही दोष है तो भला परखने वाले का क्या दोष ?"

​खुद को खोटा सिक्का  सुनना नेहा को भीतर तक उसके अस्तित्व को झकझोर गया .

​"दादी ऐसे क्यों बोल रही हो ...दीदी में क्या कमी है ..हर काम में तो परफेक्ट हैं फिर भी ?"छोटे भाई रजत ने गुस्सा करते हुए कहा .

​"अरे चुप हो जा तू क्या किसी मोटी काली लड़की से विवाह कर लेगा ?"

​"अगर दीदी जैसी हुई तो ज़रूर l"रजत ने गुस्से से कहा l

​'"अरे जा यहां से ....l"दादी ने रजत को फटकार दिया वह बुदबुदाता चला गया गया दादी ने अपनी छड़ी दीवार से टेक दी और पापा से कहा कि यह रिश्ता होना जरूरी है बड़ी मुश्किल से उनकी भतीजी जोकि लड़के वालों के शहर में ही रहतीं हैं और लड़के की दूर की मामी हैं उन्होने कराया है l

​"हाँ अम्मा ...मगर किसी से जबरदस्ती तो नहीं कर सकते ...लड़के वालों के पता नहीं कितने भाव बड़े हुए हुए हैं ...सबके रेट फिक्स हैं पता नहीं ...पता नहीं क्या होगा इस दुनियाँ का ?"पापा ने परेशान होते हुए कहा .

​"आज कर रहा है तू बड़ी बड़ी बातें मगर योगेश की शादी के वक्त तो तूने भी खूब नखरे दिखाए थे बहु के मायके वालों को ...भूल गया क्या ..वह तो खूबसूरत भी थी ...l"

​"अरे माँ आप भी गडे  मुर्दे उखेडने बैठ गई ....l"

​"गड़े  मुर्दों से डर लगता है तो ऐसे काम ही क्यों करते हो ?"गायत्री देवी ने गुस्से से कहा l

​"गायत्री यार तुम भी ....मैं तो बड़ा परेशान हूँ l"

​"हाँ हाँ सबको अपनी परेशानी ही बड़ी लगती है .....लड़की का बाप बनते ही लाचारी और लड़के का नंबरदारी ...वाह रे वाह समाज l"

​दादी अब ज्यादा आक्रमक हो चलीं थीं .

​फिर गायत्री देवी ने दोनों को चुप कराया .

​"देख ...लड़के वालों को लालच दे दे ...एक दो लाख रुपए उनकी हैसियत से ज्यादा का तभी बात बनेगी ...l"दादी ने फुसफुसाते हुए कहा .

​"हाँ , रजत की शादी में वसूल कर लेना l"गायत्री देवी ने पति पर व्यंग तीर छोड़ा .सुनकर उनकी त्यौरियां चढ़ गयीं l

​"पापा वो लोग नेहा को बुला रहे हैं  l"योगेश ने भीतर आकर कहा l

​"अगर इस बार नेहा को फेल कर गए तो बड़ी जग हँसाई होगी l"दादी ने चिंता जाहिर की l

​नेहा की धुकधुकी दोगुनी हो गई थी .वह बहुत ही घबरा रही थी .भाभी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा ..."दीदी आप घबरा रही हो ...मुझे भी बहुत डर लगा था जब आप सब लोग ....l"

​"हाँ हाँ अब आप बीती मत सुनाओ जाओ भी इसको लेकर l"दादी ने भाभी की बात को बीच में ही काट दिया l

​नेहा सिर झुकाकर चुपचाप जाकर बैठ गई थी सर्दी के मौसम में भी उसके माथे पर पसीना आ गया था , सभी उसकी ओर घूर रहे थे और आपस में

​ इशारेबाजी भी .

​देखने आई तमाम महिलाएं अध्यापक या यूँ कही हस्ताक्षर कर्ता  बन चुकीं थी उन्होने सबसे पहले चूल्हे चौके के बारे में बात की ....कौन सी डिश बना लेती है ....सिलाई कढ़ाई बुनाई से लेकर कम्पूटर तक ...ढोलक से लेकर डांस हारमोनियम और तबला तक सबके बारे में पूँछ लिया कि आता है या नहीं .

​लग रहा था मानो उनको बहु नहीं चलता फिरता रोबोट या कामवाली चाहिए थी .

​लड़के का मूँह थोड़ा सिकुड़ा हुआ था , पहले से ही भालू जैसा था अब तो लंगूर को और लपेट लिया .अरे भई मिठाई खिलाइए आनंद जी नेहा पसंद है दादी की भतीजी ने हंसकर सबकी ओर देखते हुए कहा l

​"देखिए इन्हौने कहा था कि आप बहुत अच्छे इंसान हैं इसलिए रिश्ता तो कर रहे हैं हम मगर जो तय हुआ है उसमें थोड़ी बढ़ोत्तरी कर दीजिएगा ...वो क्या है न हमारे बेटे के बहुत अच्छे अच्छे रिश्ते आ रहे हैं ...अरे भई बैंक में बाबू है बाबू l"लड़के के पिता ने बेशर्मी से कहा l

​"हाँ हाँ ....आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा l"पापा ने खुश होते हुए कहा l आखिरकार नेहा की शादी हो ही गई . पापा ने पानी की तरह पैसा बहाया .कुछ लोग कह रहे थे कि लड़की ज्यादा खूबसूरत नहीं है इसलिए इतना दिखावा किया जा रहा है .

"​भाभी बाहर आ जाइए ....आपको कोई देखने आया है ...भैया के दोस्त विमल और उनकी पत्नी रंजना l"छोटी ननद पाखी ने भीतर आकर कहा तो नेहा की तंद्रा भंग हुई वह एकदम उठी और उठकर साड़ी ठीक करने लगी .

​"भाभी जी जरा अच्छे से मेकअप कर लेना रंजना भाभी बहुत खूबसूरत हैं l"पाखी ने थोड़ा नाक सिकोड़ते हुए कहा .सुनकर नेहा को अजीब सा लगा .पूरा घर दहेज के सामान से भरा हुआ था देखकर नेहा को बुरा भी लगा कि उसके पापा ने अपनी मेहनत से कमाई जमा पूंजी से इन लोगों का घर भर दिया और और यहां का माहौल बहुत ही भारी है ...ऐसा लग रहा था कि कोई खुश नहीं है ...अभी पिछले महीने ही तो बैंक का एग्जाम दिया है उसने अभी रिजल्ट आना बाकी है .सोच रही थी कि पता नहीं आगे क्या होगा ?खैर वह तैयार होकर ड्राइंग रूम में आ गई .उसकी सास ने पहले से ही सफाई देना शुरू कर दिया .

​"भई हमारी बहु तो सांवली है ....पाखी तो कहती थी कि रंजना भाभी जैसी भाभी लाना मगर कहीं बात जमी ही नहीं, इन्ही को आना था यहां ?"सास ने नेहा कि तरफ इशारा करते हुए कहा .

​"अरे सुचित्रा तू ....?"रंजना ने आश्चर्य से नेहा का हाथ पकड़ते हुए कहा .नेहा भी खुश होकर उससे लिपट गई , सभी आश्चर्य में पड़ गए .

​"तुम जानती हो इनको ?"विमल ने पत्नी से आश्चर्य से पूँछा  .

​"हाँ भई ....एमकॉम मैने और सुचित्रा ने एक ही कॉलेज से तो किया है ...मगर ...l"

​"मगर क्या ?"सब एक साथ बोले 

​"यह टॉपर और मैं ....पासिंग मार्क्स लाने वाली ही रही ....और देखो इतना अच्छा नाम बदलकर सुचित्रा क्यों रख लिया ?"रंजना ने ठहाका लगाते हुए कहा .नेहा मुस्करा भर दी .यह ससुराल वालों की मर्जी थी कि सुचित्रा ओल्ड फैशन्ड नेम है इसलिए .कई बार तो नेहा को जब कोई आवाज देता है तो वह भूल जाती है जवाब देना .

​तभी घर पर लगा लैंड लाइन फोन घनघना उठा l

​"हाँ ...भाभी आपका फोन है l"पाखी ने नेहा को बुलाया .

​"हाँ भैया नमस्ते .....क्या ...सच ....मैं बहुत खुश हूँ भैया l"नेहा चिल्ला पड़ी वह भूल गई कि वह ससुराल में आई है .सब चौंक गए .

​"क्या हुआ ...कोई सलीका नहीं है क्या ससुराल में रहने का l"उनकी बात सुनकर रंजना भी सकपका गई .

​"वो ....मम्मी जी मेरा बैंक में नंबर आ गया है ....भैया कह रहे थे l"

​"अच्छी बात है ....इसमें इतना कूदने की क्या आवश्यकता है ....यहीं ज्वाइनिंग करवा लेना ...सुबह को काम निपटाकर चली जाया करना ."सास ने फिर मूँह बिगाड़ा .

​"जी ...जी l"

​"मुबारक हो नेहा ही ही ही सुचित्रा  ....आखिर तुमको तुम्हारी मंजिल मिल ही गई l"रंजना ने नेहा को गले से लगाते हुए कहा .

​सुबह से कमरे में न झांकने वाला सुलभ यानि उसका पति भी पास आकर बैठ गया ...दोनों हाथों में लड्डू जो थे इतना सारा दहेज और ऊपर से कमाऊ घर के कामों में दक्ष बीवी .ताना मारने को उसकी साँवली सूरत .

​लेकिन नेहा अब मन में निश्चय कर चुकी थी ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए कि इतनी ही बुरी थी तो लालचियो शादी ही क्यों की ?उसके चेहरे की चमक बढ़ चुकी थी अब वह आत्मविश्वास के साथ सबके सवालों का जवाब दे रही थी मगर उसका दिल अब तक लोगों द्वारा किए तिरस्कार से भर उठा था .

​✍️ राशि सिंह 

​मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़( जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ......आकाश बेल


                                                       

 " पापा हमें छोड़कर चले गये... हमेशा हमेशा के लिए।" यह हृदय विघातक समाचार कानों में पड़ा तो मैं अवसन्न रह गयी...अब मां का क्या होगा?... वह तो जीते-जी मर जाएगी। मां तो जीवित ही पापा के सहारे थी... जैसे आकाश बेल हो; जो परजीवी के रूप में वृक्ष का आश्रय लेकर ही जिन्दा रह सकती है...वृक्ष का अस्तित्व मिटते ही स्वयं उसका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर वह ऐसी शुष्क लता में परिणत हो जाती है जिसका जीवनीय तत्व किसी ने सोख लिया हो... और जीवनहीन कर डाला हो।

     पापा जी भी मां के लिए वृक्ष समान ही थे जो उसे जीवनीय तत्वों की ऊर्जा प्रदान कर रहे थे, प्राणों का संचार कर रहे थे, सांसों को ऊष्मा दे रहे थे, शिराओं में रक्त बनकर बह रहे थे और धमनियों में रक्त प्रवाह को गतिवान बना रहे थे।

     न जाने कितने-कितने रूप थे पापा के; जो मेरे अवचेतन में रच बस गये थे। उनके सहसा चले जाने का आकस्मिक समाचार सुना तो यकायक ही वे रूप मेरे नेत्रपटलों पर जीवंत होकर किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……


     *स्नातकोत्तर* महाविद्यालय में प्राचार्य पद को सुशोभित कर रहे थे वे उन दिनों जब मैं किशोर वय: की दहलीज को कुलांचे भरकर पार कर रही थी। अनुशासन व स्वच्छता प्रिय पापा की नासिका के अग्रभाग पर क्रोध ऐसे रखा रहता था जैसे चश्मा हो। महाविद्यालय में क्या दु:साहस किसी का कि उनके बनाए सिद्धांतों के परिपालन में लेशमात्र भी चूक हो सके। विद्यालय के सुविस्तृत परिसर में उनके आने की आहट मात्र से उद्दंडी विद्यार्थियों के समूह ऐसे तितर-बितर हो जाते जैसे शेर के आने से हिरणों का समूह पलांश भर में ही सुरक्षित स्थानों पर जाकर छिप जाता है। आंखों पर जंजीर वाला चश्मा लगाए तथा हाथ में पीतल के मूठ वाली छड़ी झुलाते हुए परिसर में प्रवेश करते ही वे सरसरा सा दृष्टिपात चारों ओर करते और कर्मचारियों पर बरस पड़ते... वह कागज़ का टुकड़ा बाहर क्यों पड़ा है?...वो पीले गुलाब वाला गमला पंक्ति से बाहर क्यों?...उस मयूरपंखी की छंटाई क्यों नहीं हुई?... उस टोंटी से पानी क्यों टपक रहा है?...जल के मूल्य को नहीं पहचानते क्या?... और वो उधर देखिए! उस बरामदे में बल्ब दिन के उजाले में भी जल रहा है?... आखिर राष्ट्रहित में ऊर्जा संरक्षण तुम किस दिन सीखोगे?... और वह कौन छात्र है जो निर्धारित समय से पांच मिनट विलंब से विद्यालय आने की धृष्टता कर रहा है? उसे मुख्य द्वार पर ही क्यों नहीं रोका गया? यदि सभी छात्र इसी तरह से दस-पांच मिनट विलंब से आने लगे तो अनुशासन की सारी ही व्यवस्था बिगड़ नहीं जाएगी क्या?...

     सारे कर्मचारी भृकुटि मात्र के संकेत पर इधर से उधर दौड़ जाते और उनका मन्तव्य पूर्ण करके ही चैन की सांस लेते।

     किंतु घर में घुसते ही पापा वह शीतल बयार बन जाते जो हल्के झोंके से ही घर का कोना-कोना महका देती है... 'हमारी प्यारी प्यारी बिटिया कहां गयी? अभी कालेज से नहीं लौटी क्या?...और वह हमारा प्यारा बेटा, खेलने निकल गया या स्टडी रूम में घुसा है?' उनके मृदुल स्नेह की गंध पाते ही बेटी-बेटा दोनों दौड़कर उनसे लिपट पड़ते--'पापा हमारे लिए क्या लाये हैं? मैंने लैदर वाली फाइल लाने को कहा था; और भैया कई दिनों से रिस्टवाच की मांग कर रहा है। कब लाएंगे?'

     'ओह! आयम सॉरी! आज बिल्कुल भी वक्त नहीं मिला। कल जरूर ले आऊंगा।' वे दोनों के कपोलों पर एक-एक प्यार भरा स्पर्श कर मां की ओर बढ़ जाते। मां आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरते हुए स्वागत सत्कार को तत्पर रहती-- 'इन्हें घर के लोगों के लिए वक्त कहां है। कालेज के चमचों से फुरसत मिले तभी तो घर के कुछ काम करें। कितनी बार कह दिया कि जल्दी घर आया करो। कुछ काम भी निपटें। पर ये तो देर से ही इतनी आएंगे कि मेरे साथ कहीं जाना न पड़ जाए; या घर के किसी कामकाज को हाथ न लगाना पड़ जाए। महीने भर से कह रही हूं कि सामने वाली जाटनी गले में जैसा नैकलेश पहन रही है वैसा मैं भी लाऊंगी। पर इन्हें तो मेरे लिए कभी वक्त मिलेगा नहीं। भाग फूट गये मेरे जो ऐसे आदमी के साथ बांध दी गयी जिसने कभी औरत के अरमानों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की।'

     पल भर बाद ही उन आग्नेय नेत्रों से जलधार प्रवाहित होने लगती जैसे पति के उपेक्षित आचरण से उसे कितनी पीड़ा पंहुची हो...गरज-बरस के छींटों से घर में तूफान सा आ जाता।

     पापा शीतल, सुगंधित समीर थे तो मां दहकता अंगार थी। जो शीतल समीर के हल्के झोंके से भी अग्नि की लपलपाती लपटों में परिणत हो जाता था। पापा बड़ा संभल-संभलकर आचरण करते, संतुलित वाणी का प्रयोग करते, मां के मर्मवेधक विषाक्त तंजों को भी मुस्कराकर परिहास भाव में उड़ा देते। तब तो अग्नि की लपटें और भी तीव्रता से भड़क उठतीं-- 'हर बात को ऐसे हंसी में उड़ाकर काम नहीं चलने वाला। पर तुम्हें किसी के दुःख दर्द से क्या, तुम्हें तो हर समय मजाक उड़ाना ही सूझता है। जिस दिन न रहूंगी सब आटे दाल का भाव पता चल जाएगा। अभी तो सब करा कराया मिल रहा है न। तभी तो कुछ महसूस नहीं हो रहा।'

     'और यदि मैं ही न रहा तब?' मुंह मोड़कर वे हंस पड़ते।

     'तो धीरज धर लूंगी। किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता।' अग्नि की लपटें किसी भी तरह बुझने को तैयार न होतीं।

     पापा की नसों में एक ऐसा सांस्कृतिक तत्व दौड़ता था जो हर किसी को अपना बना लेने की क्षमता रखता था। हर किसी के सहयोग के लिए वे हमेशा तत्पर रहते। परोपकार और धर्मार्थ कार्यों से उनके चित्त को अद्भुत शान्ति मिलती थी।

     मां उनकी इस सात्विक वृत्ति की भी घोर विरोधी थी। जब भी मां को उनके किसी का भी कार्य निपटाकर लौटने की भनक लगती; वह उन पर भड़क पड़ती-- 'घर के काम काज निपटाने को तो तुम्हें वक्त मिलता नहीं; बाहर वालों के लिए कहां से निकल आता है? वे ही तुम्हारे सगे हैं तो उन्हीं के पास जाकर रहो। घर लौटने की जरूरत ही क्या है? मैं होती ही कौन हूं तुमसे किसी काम को कहने वाली? पहले पता होता कि ऐसे निष्ठुर आदमी के साथ ब्याही जा रही हूं तो कभी साथ न आती। मेरे तो भाग फूट गये…मेरे माता-पिता ने घोर अन्याय किया मेरे साथ।'

     सिद्धांत धनी व व्यवस्था प्रेमी पापा घर में अस्त व्यस्तता देखकर शान्त नहीं रह पाते थे-- 'ये गन्दे पात्र डाइनिंग टेबल पर क्यों रखे हैं? इन्हें तो किचन के सिंक में होना चाहिए था... और इन कुर्सियों पर धूल क्यों जमी है? आज घर में सफाई नहीं हुई क्या?...इस बिस्तर की चादर पर सिलवटें क्यों?...आंगन में चिड़िया विष्ठा कर गयी है तो उसे साफ नहीं किया जा सकता था क्या?... यह घर गन्दा कितना रहने लगा जैसे इसमें कोई रहता ही न हो... जैसे सारे लोग आलसी हो गये हों।'

     मां भी भला क्यों चुप रहने वाली थी-- 'सफाई का इतना ही शौक है तो खुद कर लिया करो! या फिर नौकरानी रख लो! देखूंगी कितनी सफाई होती है? दिन भर मरते-खपते भी रहो और जली कटी भी सुनते रहो। कालेज में तो कहीं कुछ वश चलता नहीं; घर में गुस्सा उतारना शुरू कर देंगे। यह तो पूछने की जरूरत है नहीं कि तबीयत कैसी है? सुबह से दर्द के कारण सिर फटा जा रहा है। घर में घुसते ही चीखना चिल्लाना शुरू, जैसे कंजर हों। साफ-साफ बताए देती हूं कि न तो मैं घर की सफाई करुंगी, न ही बरतनों को हाथ लगाऊंगी। या तो खुद करो या नौकर रखो!…'

     मां का सतत प्रवाहमान ओजस्वी भाषण समाप्त नहीं होता तो वे चुपके से बाहर निकल जाते...न घर में रहेंगे, न कानों में मिर्ची जैसे तीक्ष्ण शब्द पड़ेंगे।

     अगले ही दिन से एक महिला बरतन मांजने व पूरे घर की स्वच्छता करने आने लगी थी।

     मां ने उस महिला को लेकर भी संग्राम किया था कि इन कार्यों के लिए वैतनिक महिला को रखने की क्या जरूरत थी? कालेज के चपरासियों से काम नहीं लिया जा सकता क्या? पैसे कहीं किसी पेड़ से तो टपक नहीं रहे कि कहीं भी बांट दो।

     सात्विक प्रवृत्ति के पापा को सात्विक आहार ही प्रिय था। जबकि मां को तीक्ष्ण मिर्च मसालेदार, तैलीय, चटपटा स्वादिष्ट भोजन व भांति-भांति के तामसिक व्यंजन पसंद थे। मां की दिन-प्रतिदिन थुलथुली काया को देखकर वे कुढ़ते भी रहते और चिंतित भी रहते। तभी तो जब भी कभी वे मां को आलू की टिकिया, गोलगप्पे व समोसे जैसी बाजारू चीजें चटखारे ले-लेकर खाते देखते तो कटाक्ष किए बिना नहीं रह पाते-- 'क्यों इस छोटी सी जीभ के लोभ में तुम अनेकों बीमारियों को आमंत्रण देने पर तुली बैठी हो? प्रतिदिन शरीर पर चरबी की परतें चढ़ती चली जा रही हैं। ब्लड प्रेशर भी ज्यादा रहने लगा है।'

     'हां-हां तुम तो चाहते ही हो कि मेरा शरीर रोगों की खान बन जाए।' बस संग्राम शुरू-- 'ताकि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। इतने दिनों से कहती आ रही हूं कि किसी अच्छे से डाक्टर से मेरा चैकप करा दो! हर वक्त मेरी सांस फूली रहती है और सिर में भी तनाव बना रहता है। पर तुम्हें मेरे लिए तो वक्त तब मिले जब बाहर वालों की जी हुजूरी से फुरसत मिले। क्योंकि काम तो बाहर वाले ही आएंगे। मैं तो फालतू की चीज हूं। जबसे इस घर में आयी हूं तब से कभी दो पल चैन के नसीब न हुए। मेरे तो भाग फूट गये।'

     वे मां को डाक्टर के पास ले गये। तमाम सारे परीक्षण हुए तो उनकी देह में छिपी बैठीं मधुमेह, उच्च रक्तचाप, वातरक्त जैसी कुछ असाध्य बीमारियों का पता चला। डाक्टर द्वारा प्रातः-सायं के भ्रमण के साथ-साथ सामान्य उबले भोजन का कठोर निर्देश देते हुए चेतावनी भी दे दी गयी कि यदि सावधानी न बरती गयी तो कुछ भी हो सकता है।

     किंतु मां ने डाक्टर के निर्देशों का कभी गम्भीरता से पालन नहीं किया। देर से सोकर उठना, उठते ही कड़क चाय लेना, फिर देर तक शौचालय में बैठे रहना उसकी दिनचर्या में था। पथ्य का भोजन भी मां ने कभी नहीं लिया। पापा भृकुटि वक्र करते तो उनके मुंह खोलने से पहले ही मां प्रारंभ हो जाती-- 'आंखें लाल-पीली करने की कोई जरूरत नहीं। मुझे मरना स्वीकार है पर मैं अपने स्वाद की चीजें नहीं छोड़ सकती।'

     इस प्रकार गृह संग्राम को न रुकना था न रुक सका। पापा के सारे प्रयास निष्फल निष्प्रयोज्य सिद्ध होते चले गये। वे कसमसाकर रह गये और भीतर ही भीतर तिलमिलाकर भी। कुछ भी न कर सक पाने का असामर्थ्यबोध उन्हें व्यग्र और व्यथित कर गया।

     आखिर वही हुआ जिसकी उन्हें पहले से सम्भावना थी... एक शाम को मां किसी जन्मदिवस की पार्टी से छोले भटूरे और जलेबी खाकर लौटी तो सिर को कसकर पकड़े थी। उसके हृत्प्रदेश में भी भारीपन महसूस हो रहा था। न लेटकर चैन मिल पा रहा था न बैठकर।

     देर रात को पापा कालेज की व्यवस्था संबंधी किसी मीटिंग से घर लौटे तो मां की स्थिति देख बहुत परेशान हुए। मां सिर की वेदना से छटपटा रही थी। और नासारंध्रों से रक्त स्राव होकर वस्त्रों को भिगो रहा था।

     'बचाना है तो बचा लो मुझे!' मां ने बस इतना कहा और संज्ञा शून्य हो गयी।

     हतचित्त पापा समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें क्या न करें? कभी नब्ज टटोलते, कभी नासिका के सामने हथेली रखकर अनुमान लगाने का प्रयास करते कि सांस चल भी रही है अथवा नहीं? कभी हृत्प्रदेश पर हथेली रखकर धड़कनों का अनुमान लगाने लगते। उनकी आंखें भर आयी थीं...अश्रु तटबंध तोड़कर बाहर छलकने को आतुर... जिन्हें उन्होंने बलात सोख लिया और मां के दोनों हाथ पकड़कर झिंझोड़ दिया-- 'उठो ना! बताओ क्या परेशानी है?...उठती क्यों नहीं हो?... कुछ बोलो तो!... कुछ बोलती क्यों नहीं हो?'

     किंतु मां नहीं उठी, न ही बोली। उठती बोलती तो तभी जब उसमें संज्ञा होती... वह तो जैसे प्रगाढ़ निद्रा में सोयी पड़ी थी... वेदना शून्य सी...निश्चल नि:स्पंद सी।

     कभी कोई भार न उठाने वाले पापा में यकायक न जाने कहां से इतनी शक्ति आ समायी कि उन्होंने भारी वजन वाली मां को दोनों बाहों में उठाया और घर के बाहर खड़ी गाड़ी में लिटाकर रात में ही अस्पताल ले गये।

     'आपने बहुत अच्छा किया जो रात में ही अस्पताल ले आये, नहीं तो कुछ भी अनिष्ट हो सकता था।' डाक्टर ने निरीक्षण परीक्षण के उपरांत पापा के प्रयास की सराहना की तो उन्होंने डाक्टर के पैर पकड़ लिये-- 'डाक्साब! चाहे मेरे शरीर से रक्त की एक-एक बूंद निचोड़ लीजिए! पर इसे बचा लीजिए! यह मेरी सांस है, मेरी जिंदगी है, मेरा प्राण है। यूं समझ लीजिए कि इसके बिना मैं बिखरकर रह जाऊंगा।'

     मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ था; उसी का थक्का कहीं जम गया था। शल्य चिकित्सकों की टीम ने रातोंरात शल्य क्रिया करके रक्त के थक्के को बाहर निकाल रक्त प्रवाह व आक्सीजन के संचार को सुचारु किया।

     संज्ञाशून्यता की स्थिति से उबरने में मां को पूरे पांच दिन लगे थे। तब तक पापा के कण्ठ में न तो एक ग्रास अन्न का उतरा और न ही कोई पेय पदार्थ। न ही वे वहां से एक पल के लिए भी दूर हुए। जब देखो तब मां के हाथ पैरों का मर्दन करते रहते। कभी भी उसकी देह को झिंझोड़ देते-- 'उठो ना! आंखें खोलो! देखो तुम कहां हो?' कभी भी समाधि की मुद्रा में नेत्रोन्मीलित हो हाथ जोड़कर बुदबुदाने लगते-- 'रक्षा करो प्रभु! मेरे जीवनाधार की रक्षा करो!'

     डाक्टर आते तो उनके पैर पकड़ लेते-- 'बच तो जाएगी न?... कितने प्रतिशत आशा है?'

     एक बार तो वरिष्ठ चिकित्सक ने शिष्ट भाषा में उन्हें झिड़क ही दिया था-- 'गुरुजी आप इतने बड़े कालेज के प्राचार्य हैं कि हजारों छात्र आपके पैर छूते हैं, हमारे पैर छूकर हमें शर्मिंदा मत कीजिए! हम पूर्ण प्रयास कर रहे हैं बचाने का। आशा भी पूरी-पूरी है। पर दायां हाथ पैर निष्क्रिय बने रहने की  पूरी-पूरी संभावना है।'

     अश्रुओं से डबडबाई आंखों में हल्की सी चमक दौड़ गयी थी-- 'कोई बात नहीं डाक्साब! इसका हाथ भी मैं बन जाऊंगा और पैर की बैशाखी भी।'

     और जिस दिन मां ने आंखें खोलीं; पापा खुशी से ऐसे उछल पड़े थे मानों कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त हो गयी हो-- 'बेटी निरुपमा! देखो तुम्हारी मां ने आंखें खोल दी हैं। और अभिषेक को भी बता दो कि वह होश में आ गयी है। शायद अब हम जल्दी घर लौट सकें।'

     घर लौटने तक पापा इतने कृशकाय हो गये थे जैसे बीमार मां न होकर स्वयं वही हों... आंखें सूजकर लाल; मानों एकांत मिलने पर रोते रहे हों। आहार इतना अल्प मानों केवल जीने भर के लिए खा रहे हों।

     घर आते ही मां की संपूर्ण व्यवस्थाएं उन्होंने अपने कमजोर कन्धों पर लाद ली थीं। मां तो आकाश बेल की तरह पूर्णतया परजीवी होकर रह गयी थी। उसके अपने वश में तो कुछ रह ही नहीं गया था। मल-मूत्र तक पापा कराते थे। किसी यान्त्रिक मशीन की तरह पापा सुबह से देर रात तक मां की सेवा सुश्रुषा में लगे रहते। मधुमेहग्रस्त होने के कारण मां को प्यास ज्यादा लगती तो हर घण्टे पानी पिलाते, समय पर औषधियां खिलाते, थोड़ी-थोड़ी देर में दूध, चाय, उबली दाल,                   दलिया,सूप,पनीर,फलरस आदि पिलाते। निष्क्रिय हाथ पैर पर अभ्यंग करते, फिर पूरी देह का उष्ण जल से प्रक्षालन करते, शैया व्रणों की ड्रेसिंग करते, अपने कन्धों पर लादकर चलाने का प्रयास करते। 

     इन्हीं व्यस्तताओं के मध्य समय निकालकर दौड़ते भागते कालेज की औपचारिकताएं पूर्ण करके आते। पर अपने लिए समय तब भी नहीं निकाल पाते। कब सोते; कब उठते किसी को कुछ पता नहीं चल पाता? रात को जब मां की झपकी लगती तब वे अपने कक्ष में पहुंचते। और भीतर से कपाट बंद कर न जाने किस उधेड़बुन में लग जाते? पता नहीं क्यों उस कक्ष का ताला लगा चाबी हर समय अपने नाड़े में बांधकर रखते?

     मां की जरा सी आहट पर दौड़कर वे उसके समीप पहुंचते और हाथ पैर मलने लगते। फिर बैठे-बैठे वहीं सो जाते।

     जब कभी मां ज्यादा भावाभिभूत हो जाती तो बायें हाथ से उनका पैर स्पर्श कर कहती-- 'मेरे भगवान तो तुम्हीं हो!'

     पापा हैरत के साथ हंस पड़ते-- 'यह मैं क्या देख रहा हूं? दहकता अंगार बुझे कोयले में परिणत हो रहा है? आज पैर छूने की कैसे याद आ गयी? जिंदगी भर तो कभी छुए नहीं; हमेशा मुझसे लड़ती रहीं और आज मैं भगवान हो गया?'

     मां भी पहले तो तिरछे मुंह से हल्की सी मुस्कराती, फिर गंभीर हो जाती-- 'अब तक तुम्हें पहचान न पायी थी। अब जाकर पहचानी हूं कि मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई नहीं। मैं तो जिन्दा ही तुम्हारे सहारे हूं।'

     कैसी साधना थी वह पापा की, जिसमें अपने सुख के लिए कोई स्थान नहीं था। दिन रात मां के लिए जुटे रहना... बस किसी तरह वह रोग से मुक्ति पा जाए… जैसे दीपक दूसरों के जीवनांगन में उजियारा करने के लिए स्वयं तिल-तिल जलता रहता है; वैसे ही पापा भी मां के लिए तिल-तिल जल रहे थे।

     उनकी साधना के प्रतिफल स्वरूप मां शनै:-शनै: आरोग्यता की ओर बढ़ने लगी थी।

     शरीर स्वस्थ हुआ तो बुझे कोयले फिर से दहकने लगे। मां का बुझा स्वर फिर से उग्र होने लगा। पापा से वह बात-बात पर फिर झगड़ने लगी-- 'मुझे चैन से जीने मत देना, भूखा मार डालो मुझे! ये उबली दाल सब्जियां मेरे गले से नीचे नहीं उतरतीं। पर तुमने तो हमेशा यही चाहा है कि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। मुझे कुछ खाने दोगे या नहीं?'

     बात आगे न बढ़े इसलिए वे बिना कोई प्रत्युत्तर दिये अपने कक्ष में जाकर लेट जाते।

     परंतु उसे इतने पर भी चैन कहां था, जोर से आवाज लगाती-- 'इधर सुनों! ऐसा करो! पनीर का पकोड़ा मुझे नुकसान देगा तो नमक मिर्च मिलाकर पनीर का परांठा ही बनाकर ले आओ!... और एक कड़क पत्ती की चाय...पेट तो किसी तरह भरना ही है, भूखे पेट मेरी अन्तड़ियां कुलबुलाने लगती हैं।'

    मां के चेहरे की चमक दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। परंतु न जाने क्यों पापा निरंतर क्षीण होते जा रहे थे। चेहरे का तेज व लालिमा लुप्त होती जा रही थी। हड्डियों का मांस पता नहीं कहां गायब होता जा रहा था? न ढंग से भूख लगती, न नींद आती। मुंह से कभी भी कराह सी निकल पड़ती; जैसे शरीर में कहीं वेदना हो रही हो।

     मां तब भी तंज कसने से नहीं चूकती-- 'इतना सब खा पी रहे हो वह सब जा कहां रहा है? दिन प्रतिदिन सूखते चले जा रहे हो? किसी डाक्टर से चैकप क्यों नहीं करा लेते? पर उसमें पैसा खर्च होगा और वह तुम कर नहीं सकते।'

     वे सुनकर भी अनसुना कर देते। या फिर धीरे से कह देते कि समय मिलने पर करा लूंगा। अग्निदग्ध वाक् प्रहार असह्य हो जाते तो धीमें और अस्पष्ट स्वर में उन्हें कहना ही पड़ता-- 'मैंने अपना चैकप करा लिया तो मेरी साधना अधूरी रह जाएगी। तुम्हारा उपचार अधर में ही रुक जाएगा।'

     उनकी ऊर्जा चुकने लगी थी। हल्के से श्रम से ही वे थककर गिर पड़ते थे। मां के पैर दबाते-दबाते वे उसी पर झुक पड़ते थे। तब मां उन्हें चेताती-- 'नाटक मत करो! दबाना है तो ढंग से दबाओ! मेरे पैर दर्द से फटे जा रहे हैं और तुम्हें नाटक सूझ रहा है...।' अगले ही पलों में मां की जिह्वा अंगार उगलने लगती, पर वे तब भी शांत बने रहते। गजब का धैर्य था उनमें।

     उस रात को भी जब वे मां के पैर दबा रहे थे तो उसकी झपकी लग गयी। और वे उसी के पैरों पर सिर रखकर सो गये।

     मां की नींद खुली तो बड़बड़ाना शुरू-- 'इन्हें तो पता नहीं नींद कितनी गहरी आती है कि कहीं भी सो जाते हैं...चलो उठो! मुझे एक गिलास गरम पानी से रात वाली गोली खिलाओ!'

     रात वाली गोली के प्रभाव से बहुत गहरी नींद आयी मां को। सुबह हड़बड़ाकर उठी तो आश्चर्यचकित... पापा उसी मुद्रा में पैरों पर सिर रखे प्रगाढ़ निद्रा में सो रहे थे। मां ने पहले तो उन्हें आवाजें लगायीं, फिर पूर्ण शक्ति से झिंझोड़ ही जो दिया-- 'अरे उठो तो! कब तक सोते रहोगे?...उठो! जल्दी उठो! गरम पानी में दो चम्मच शहद डालकर पिलाओ मुझे, मेरा पेट तभी साफ होता है।'

     पर पापा तभी तो उठते जब वहां होते। वहां तो मात्र नश्वर देह पड़ी थी। वे तो न जाने कब पिंजरा खाली कर नीलांबर की अनंत यात्रा पर निकल गये थे?...सारी अनुभूतियों से दूर... फिर कभी वापस न लौटने के लिए।

     अपनी सहधर्मिणी के चरणों में शीश नवाए-नवाए ही प्राण तज दिये थे पापा ने।

     मेरे पहुंचते ही उनके कक्ष को खोला गया; जिसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। जिसमें किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी... जो हमेशा बंद रहता था... जिसके बारे में सबका अनुमान यही था कि उसमें वे अपना रुपया पैसा, स्वर्ण मुद्राएं, बैंकों की सावधि जमा की रसीदें आदि सभी से छिपाकर सहेजकर रखते होंगे।

     परंतु हैरत... वहां ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे गोपनीय रखना आवश्यक हो। कुछ साहित्य, आत्म कथ्य डायरियां, व्रण के उपचार की क्रीम, लोशन, रुई, पट्टियां, टेप आदि के साथ-साथ कुछ औषधियां खाने की भी संग्रहित थीं। शायद उनकी देह के किसी भाग में कोई कुटिल व्रण रहा होगा, जिसकी ड्रेसिंग वे कक्ष बन्द कर नित्यप्रति करते रहे होंगे।

     पर इन्हें छिपाना क्या इतना आवश्यक था? क्या व्रण को रहस्य बनाकर रखना जरूरी था?... किसी को उन्होंने क्यों अपने व्रण के बारे में नहीं बताया?...बताते तो किसी रोग विशेषज्ञ से समुचित उपचार कराया जा सकता था... मेरी उलझन निरंतर बढ़ती जा रही थी कि अपने बारे में क्यों वे सबसे गोपनीयता बरत रहे थे?

     तभी मेरी निगाह लोहे की बड़ी सी अल्मारी के भीतर रखी एक छोटी सी अटैची पर चली गयी...अटैची छोटी सी, पर उसमें झूल रहा ताला मोटा सा... और चाबी का कहीं कुछ अता पता नहीं... तत्काल ताला तोड़ अटैची को खोला गया तो डाक्टरों के उपचार पत्रों व विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के कागजों का पुलिंदा नीचे गिरकर बिखर गया।

     और यह जानकर तो मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी थी कि उनकी दायीं जंघा में एक बड़ा सा प्राणघातक, विषाक्त व्रण अपना रौद्र रूप दिखा रहा था जिसकी बायोप्सी रिपोर्ट में बिल्कुल स्पष्ट लिखा था-- वैल डिफरैंशिएटेड स्क्वेमश सैल कार्सिनोजेनिक ट्यूमर (अर्थात कैंसर) ।

     डाक्टर ने परामर्श भी दिया था-- तत्काल आपरेशन के साथ-साथ एक माह के लिए होस्पिटेलाइज्ड।

    ओह! अपनी सहधर्मिणी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी मेरे पापा ने। मां के उपचार व परिचर्या में कोई विघ्न बाधा न पड़े इसलिए उन्होंने अपने कैंसर की ओर से मुंह मोड़ लिया था। और अपनी साधना को खण्डित होने से बचा लिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर 

मो.9411012039/8077945148

     

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-छोटी सी आशा.......


"सुनो ! कल कमल को छुट्टी कह दूँ क्या"

"नहीं,बुला लो।"

"अरे छोड़ो न, एक दिन रेस्ट कर लेगा।"

"उसने कौनसा पहाड़ खोदना है?आराम ही तो है,बैठ कर गाड़ी ही तो चलानी है।"

"फिर भी, मुझे ठीक नहीं लग रहा कल बुलाना।कल मुझे कॉलेज जाना नहीं है और हम सब लोग मूवी देखने जा रहै हैं।वहाँ के लिए तो आप ही ड्राइव कर लोगे।"

"जब मैं कह रहा हूँ तो कह रहा हूँ।बस तू कह दे उसे।भले ही कल 2 बजे बुला ले क्योंकि तीन बजे का शो है" 

"ठीक है..." रमा ने बेमन से कहा।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वह नये साल के दिन खुद तो परिवार के साथ एंजॉय करे और अपने ड्राइवर को बेवजह थोड़ी दूरी की ड्राइव करने के लिए भी बुला ले।उसने सोचा था कि वह कमल को कल की छुट्टी देकर उसे नये साल का जश्न मनाने को कहेगी तो उस गरीब के चेहरे पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ जायेगी।

     'हम बड़ी चीजें न कर सकें पर अपने स्तर की छोटी छोटी खुशियां तो बाँट ही सकते हैं' रमा ने मन में बुदबदाया।उसे राघव पर झुंझलाहट आ रही थी,पर अपने पति की बात भी वह नहीं टाल सकती थी।

     कमल गैराज में गाड़ी पार्क कर चुका था और अंदर लॉबी में की-स्टेंड पर गाड़ी की चाभी टाँगने आया था।उसने रोज की तरह रमा से पूछा,

     "मैंने गाड़ी पार्क कर दी है,मैम।अब मैं जाऊँ....?और वो ...कल की तो छुट्टी रहेगी न मैम।आप कह रहे थे न कि कल कॉलेज नहीं जाना है।"

     "हाँ,कल कॉलेज तो नहीं जाना है पर सर बुला रहे हैं कल किसी काम से।तुम कल दो बजे आ जाना।" रमा ने सेन्टर टेबल पर फैली पड़ी मैग्जीन्स समेटने का उपक्रम करते हुए कहा।वह असहज महसूस कर रही थी क्योंकि उसने जो सोचा था वह हो नहीं पाया था।उसने चोर निगाह से कमल की ओर देखा।

     "ठीक है,मैम" कहकर कमल रोज की तरह गम्भीरता ओढ़े गर्दन झुका कर मेन गेट के पास खड़ी अपनी टीवीएस तरफ बढ़ गया।रमा के सिर पर उस उदास चेहरे का बोझ चढ़ गया था,वह जाकर अपने कमरे में लेट गयी।

        अगले दिन ठीक दो बजे कमल अपनी ड्यूटी पर था।

        "नमस्ते मैम,नमस्ते सर।आपको नये साल की बहुत बहुत मुबारकबाद।"

        "नमस्ते कमल,तुमको भी नया साल मुबारक।" राघव ने गर्मजोशी से कहा।

        रमा ने फीकी मुस्कान फैंकी।उसे राघव का कमल को छुट्टी के दिन भी काम पर बुलाना गलत लग रहा था।हालांकि महीने में चार-पाँच छुट्टियाँ कमल को आराम से मिल जाती थी क्योंकि सन्डे को तो रमा कॉलेज नहीं जाती थी।पर आज नया साल था और यही बात उसे खटक रही थी।

        रमा के दो बेटे थे जो युवा कमल से कुछ ही वर्ष छोटे किशोर वय के थे।वे दोनों भी तैयार होकर बाहर आ गये थे।कमल ने गैराज से गाड़ी बाहर निकाली और उसे साफ किया।राघव ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठा और रमा दोनों बेटों सहित पीछे की सीट पर।

        गाड़ी शहर के सबसे शानदार मॉल कम मल्टीप्लेक्स के मेन गेट पर पहुँच चुकी थी।

        कार पार्किंग में ले जाने से पहले कमल ने मालिक के परिवार को कार से उतारते हुए मालिक से पूछा," सर,कितनी देर की मूवी है?मैं सोच रहा था कार पार्क कर के मैं भी थोड़ी देर पास में ही अपने रिश्तेदार के घर हो आता।जब मूवी ख़त्म हो आप मुझे कॉल कर देना,मैं तुरन्त आ जाऊँगा।"

        "नहीं,तुम कहीं नहीं जाओगे।कार पार्क कर के सीधे यहाँ आओ।"

        कमल चुपचाप कार पार्किंग की ओर बढ़ गया।अब तो रमा को बहुत ही गुस्सा आया पर सार्वजनिक स्थान पर और वह भी जवान बेटों के सामने वह अपने पति से क्या कहे।उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राघव ऐसा क्यों कर रहे हैं?राघव ने मुस्कुराकर रमा की ओर देखा लेकिन उसने गुस्से से मुंह फेर लिया।

        थोड़ी देर में कमल कार पार्क कर के लौटा तो राघव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और पूछा, "मूवी वगैरह देख लेते हो या नहीं।आज तुम्हें हमारे साथ मूवी देखना है,ठीक है।" कमल का चेहरा कमल की तरह खिल गया।रमा के दोनों बेटे भी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे और रमा.... वह तो हक्की बक्की रह गयी थी।राघव ने प्यार से जब रमा की तरफ देखा तो वह मुस्कुरा उठी।रमा के बेटों ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ आगे बढ़ाया तो राघव ने रमा का हाथ पकड़ा।पाँच टिकट ऑनलाइन बुक कराये गये थे,थ्री डी मूवी थी जो रेटिंग्स में धूम मचाये हुए थी।ढाई घण्टे की मूवी देखकर हंसते खिलखिलाते सब हॉल से बाहर निकले।

        राघव पिज्जा कॉर्नर की तरफ बढ़ा और सबके लिए पिज्जा आर्डर किया।कमल के चेहरे पर संकोच मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।पाँच जगह पिज्जा सर्व  हुए।सबने खाना शुरू किया।लेकिन ये क्या कमल की आँखों में आंसू थे।राघव ने मज़ाक करते हुए पूछा,"क्या बात मूवी अच्छी नहीं लगी, कमल।"

"नहीं,सर नहीं,ऐसी बात नहीं है।बहुत अच्छी मूवी थी।पर.... मैंने अपने जीवन में आज तक कभी मल्टीप्लेक्स में मूवी नहीं देखी और थ्री डी मूवी भी पहली बार देखी।एक बात बताऊं ,सर।दो साल पहले मैंने इस पिज्जा कॉर्नर पर काम किया है।लेकिन मैंने कभी पिज्जा नहीं खाया।मैं बता नहीं सकता कि मैं आज कितना खुश हूँ।आप सचमुच बहुत बड़े दिल वाले हैं।वरना एक ड्राइवर को अपने साथ कौन बैठाता है,एक ड्राइवर के लिए इतना कौन सोचता है?" राघव ने कमल को गले से लगा लिया।

       रमा खुद पर शर्मिन्दा थी कि वह अपने ही पति की भलमनसाहत को आखिर क्यों नहीं पहचान पायी।पर उसे हल्का गुस्सा भी आया कि आखिर राघव ने उसे ये सब पहले क्यों नहीं बताया।? पर अगले ही पल उसने मन ही मन ढेर सारा प्यार राघव पर उड़ेला।दोनों बेटे बहुत खुश थे कि वे अपने व्यस्ततम माता पिता के साथ नये साल पर मूवी देखने आए।लौटते समय गाड़ी में बैठी सवारियों के भाव बिल्कुल बदले हुए थे।इस नये साल पर सबकी छोटी छोटी आशाएं जो पूरी हुई थीं।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 23 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.... पराजय

     


सरस्वती माध्यमिक विद्यालय का परीक्षा परिणाम गतवर्षों की भांति इस वर्ष भी शत-प्रतिशत ही रहा था। प्रदेश में सर्वोच्च स्थान भी इसी विद्यालय के छात्र ने पाया था। तथा अन्य कई छात्र विशेष उच्चांक सूची में भी आये थे।इस अप्रतिम सफलता का श्रेय विद्यालय के प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अद्भुत कार्यशैली, कठोर परिश्रम व शिक्षण के प्रति समर्पण भाव को जाता था। प्रदेश भर में उनका नाम समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गया। उनके सचित्र समाचार तो छपे ही, साक्षात्कार भी प्रकाशित हुए। अनेकों सामाजिक संस्थाओं द्वारा उनका अभिनंदन किया गया। सात्विक वृत्ति और सरल हृदयी नवीनचंद्र पांडे ऐसा भावभीना सम्मान पाकर भी कभी दम्भ अथवा लोभ से ग्रस्त नहीं हो पाये।

     पतली सी कदकाठी,सपाट चेहरा, आंखों पर चश्मा,देह पर खादी का लंबा कुरता व किनारीदार धोती,हाथ में पतली सी छड़ी…विद्यालय में जिधर को भी निकल जाते,सब उनकी तेजोद्दीप्त आंखों के संकेत मात्र से ही अनुशासन की सीमा में बंध जाते। कठोर अनुशासन,अत्युत्तम शिक्षा व शुद्ध आचरण उनके मुख्य सिद्धांत थे।उनका कथन था कि पांडे वह लोहस्तंभ है जो टूट तो सकता है किंतु झुक नहीं सकता…और न ही सिद्धांतों के परिपालन में कभी किसी से पराजित हो सकता।

     प्रदेश के नवमनोनीत शिक्षा मंत्री अनुज प्रताप सिंह के संज्ञान में पांडे जैसे उत्प्रेरक व आदर्श प्रधानाचार्य का व्यक्तित्व आया तो उन्होंने भी उन्हें पुरस्कृत करने की घोषणा करके अपने विद्वताप्रेमी व शिक्षाप्रेमी होने का संदेश प्रचारित कर डाला।

     अभिनंदन की तिथि घोषित करने से पूर्व प्रधानाचार्य जी को मंत्री जी के सचिव की ओर से अनेक दिशा निर्देश दिए गए…जैसे – सभास्थल पर भारी भीड़ जुटाई जाए, छात्राओं द्वारा उनका प्रशस्ति गान कराया जाए, गणमान्य नागरिकों द्वारा उनका अधिकाधिक माल्यार्पण कराया जाए, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया जाए, पुरस्कार में प्रदत्त धनराशि का आधा भाग मंत्री जी की संस्था को सहयोग रूप में दिया जाए,मंच ऊंचा व पुष्पसज्जित देवोपम सुंदर होना चाहिए,निरामिष भोजन व मदिरापान की व्यवस्था अत्युत्तम होनी चाहिए…आदि-आदि।

     नवीनचंद्र पांडे के हृदय में वितृष्णा की लहर दौड़ गई…मंत्री जी अभिनंदन करने आ रहे हैं या कराने आ रहे हैं?... कदाचित इस ओट में वे स्वयं का महिमामंडन कराना चाह रहे हों…उनका उत्साह तो शून्य में विलीन हो ही गया, मंत्री जी के नाम पर मन में भी कड़वाहट घुल गई…नहीं चाहिए ऐसा पुरस्कार जिससे स्वाभिमान आहत होता हो…फिर भी वे ऊपर से शांत ही बने रहे।

     घोषित तिथि को निर्धारित समय से काफी विलम्ब के पश्चात् जिस समय मंत्री जी का आगमन हुआ, उस समय प्रधानाचार्य जी दर्शक दीर्घा की अग्रिम पंक्ति में आत्मलीन से बैठे थे। मंत्री जी के गाड़ी से उतरते ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें पुष्पमालाओं से लाद दिया। फिर वे कार्यकर्ताओं से घिरे धीर मंथर गति से करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में मंचासीन हुए।

      और ज्यों ही कंठ में पड़ी पुष्प मालाएं उतारकर उन्होंने मेज पर रखीं तो उस चेचक के दाग भरे खुरदुरे श्यामल चेहरे पर नवीनचंद्र पांडे का दृष्टिपात् होते ही यकायक उन्हें लगा जैसे गरम तवे पर पैर पड़ गया हो…बुरी तरह चौंक पड़े वे…मुंह से उच्छवास सा निकल गया –"अरे प्रताप तू?...तू मंत्री बन गया?... वह भी शिक्षा मंत्री?..."

     अनायास ही उनके अवचेतन मन ने आंधी में फड़फड़ाते ध्वज के समान वर्षों पूर्व के अतीत के गर्त में छलांग लगा दी……

     *कुंवर* राघवेंद्र सिंह पब्लिक इंटर कालेज में जब वे प्रथम बार प्रधानाचार्य बनकर पहुंचे थे तो अनुशासन शून्य विद्यालय कुव्यवस्थाओं का शिकार बना हुआ था। छात्र-छात्राएं दिनभर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं में व्यस्त रहते तो शिक्षक गण भी शिक्षक कक्ष में एकत्रित होकर हंसी-ठिठोली करते रहते। दायित्वबोधी शिक्षक विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करते तो उनका उपहास उड़ाया जाता, करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में उन्हें कुवाच्य बोले जाते।हर ओर अराजकता का कोलाहल व्याप्त…और प्रयोगशालाएं तो मानो कबाड़खाना बनकर रह गई थीं…प्रयोग करने में विद्यार्थियों की रुचि नहीं तो प्रयोग  कराए किसे जाएं?

     नवीनचंद्र पांडे ने पहले दिन ही प्रार्थना सभा में वज्रनाद् कर दिया –'अनुशासन,अध्यापन और अध्ययन आज से इस विद्यालय के मूलमंत्र रहेंगे।आज से इस विद्यालय में वही रह सकेगा जो इनका अनुसरण करेगा। अवहेलना करने वालों के लिए मुख्य द्वार हमेशा खुला रहेगा…नियम भंग करने वाला स्वेच्छापूर्वक यहां से विदा ले जाए ,अन्यथा हठधर्मिता से बाहर धकेल दिया जाएगा।'

     उन्होंने छात्र-छात्राओं के साथ-साथ शिक्षकों के पैरों में भी कठोर नियंत्रण की जंजीरें डाल दीं और स्वच्छंदता पर प्रतिबंध लगा दिया।हर बच्चे,हर शिक्षक पर वे पैनी निगाह रखते। उनकी कठोर विभेदक दृष्टि जिस पर भी पड़ जाती वह भय से थरथरा उठता।अतएव सभी अपने-अपने कर्तव्यबोध के प्रति सजग रहकर विद्यालय का वातावरण सुधारने हेतु सन्नद्ध रहने लगे।उनके अथक प्रयास और दृढ़ निश्चय से विद्याध्ययन का मलय पवन विद्यालय के वातावरण को सुवासित करने लगा।

     किंतु सत्तारूढ़ दल के नगराध्यक्ष के शरारती व उद्दंडी पुत्र प्रताप ने उनके नियंत्रण को स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। सीधे सरल छात्रों का उत्पीड़न करना उसका मुख्य स्वभाव था।उनका भोजन छीनकर खा जाना,जेब से पैसे निकाल लेना, उनकी नई-नई कापियों-पुस्तकों पर अपना नाम लिखकर अधिपत्य जमा लेना, किसी से शिकायत करने पर उनके साथ मारपीट करना उसकी प्रवृत्ति में सम्मिलित था। और शिक्षकों पर उपहासात्मक कटाक्ष करने में तो उसे विचित्र सी आनन्दानुभूति होती थी।

     लेकिन एक दिन विद्यालय परिधि के बाहर प्रताप कुछ छात्रों को कुक्कुट बनाकर उत्पीड़न करते हुए प्रधानाचार्य जी की सजग दृष्टि में कैद हो गया। तत्काल उन्होंने उसे व उसके नगराध्यक्ष पिता को अपने कार्यालय में बुलाकर पहले तो स्नेहसिक्त वाणी में समझाया और फिर कठोर शब्दों में चेतावनी भी दे डाली –'विद्यालय का अनुशासन भंग करने का परिणाम होगा विद्यालय से निष्कासन…इसलिए अच्छी तरह समझ लीजिए कि आज के बाद कोई भी अनुशासनहीनता स्वीकार नहीं होगी। और यह भी आप लोगों को पता होना चाहिए कि नवीनचंद्र पांडे पर किसी भी तरह का कोई दबाव प्रभावी नहीं होता…अब आप लोग जा सकते हैं।'

     पिता ने तो हाथ जोड़कर पुत्र के कुकृत्यों की क्षमा उनसे विनम्र स्वर में मांग भी ली किंतु प्रताप गर्दन झुकाए बिना कुछ बोले, बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए शांत भाव से बाहर निकल गया।मानो प्रधानाचार्य जी की चेतावनी का उस पर लेशमात्र भी प्रभाव न पड़ा हो।

    और फिर अगले दिन से ही वह सहपाठियों का पीछा छोड़कर प्रधानाचार्य जी के पीछे हाथ धोकर पड़ गया…

     निरीक्षण के उद्देश्य से प्रधानाचार्य जी नियमित रूप से किसी न किसी कक्षा की कोई न कोई बेला स्वयं निर्देषित करते थे। प्रताप उसी बेला में उनके साथ कोई न कोई हास्यास्पद् कृत्य कर देता था…कभी कागज की गेंद बनाकर उनकी दृष्टि बचाकर उनके सिर पर दे मारता, कभी उनकी कुर्सी पर कोलतार चिपका देता…वे बैठते तो चिपके रह जाते, कभी उनकी कुर्सी के पाये तले पटाखा रख देता…वे बैठते तो तड़ाक से फूट पड़ता।कभी उनकी पीठ पर धूर्त मक्कार लिखा कागज चिपका देता…वे जिधर को भी निकलते हंसी के फव्वारे फूट पड़ते। शरारती का नाम उजागर करने के लिए पूरी कक्षा की पिटाई होती। पर प्रताप के आतंक से कोई भी उसका नाम बताकर नहीं देता। सबके होंठ ऐसे सिल जाते जैसे कभी खुलेंगे ही नहीं।

     किंतु उस दिन प्रताप उनकी सतर्क निगाहों से बचा न रह सका,जब उसने प्रार्थना सभा में सोडियम के टुकड़े उछाल दिए।वायु का संपर्क होते ही वे जलकर छात्रों पर गिरे तो पूरी सभा में भगदड़ मच गई। प्रधानाचार्य जी ने तत्काल उसे विद्यालय से निष्कासित कर निष्कासन पत्र उसके पिता को भेज दिया।

     परंतु पता नहीं वह किस मिट्टी का बना था कि निष्कासन से भी लेशमात्र भयभीत नहीं हुआ। अपितु विद्यालय के अनुसूचित व दलित छात्रों को एकजुट कर उकसाने लगा –'अनुसूचित जाति का कमजोर व कुचला हुआ समझकर यह अत्याचार मुझ पर किया जा रहा है। अरे आज मुझे इस विद्यालय से निकाला जा रहा है,कल तुम सब दलितों को भी एक-एक कर बाहर कर दिया जाएगा। ताकि इस विद्यालय पर सवर्णों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो सके। लेकिन यदि आप सब मेरा साथ दोगे तो दबे कुचले लोगों के प्रति यह तानाशाही मैं कभी चलने नहीं दूंगा।सारे दलितों की फीस माफ कराकर रहूंगा। और आप सभी को परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराना भी मेरा दायित्व रहेगा। यह एक अकेले प्रताप की लड़ाई नहीं अपितु दलितों व सवर्णों के बीच की लड़ाई का आरंभ है।'

     फिर क्या था, फिर तो सभी ने समवेत स्वर में क्रांति का बिगुल बजा दिया –'प्रताप भैया! तुम संघर्ष करो!हम तुम्हारे साथ हैं…हमारा नेता कैसा हो?... प्रताप भैया जैसा हो!...जो हमसे टकराएगा!...चूर चूर हो जाएगा!'

     और अगले दिन ही विद्यालय के मुख्य द्वार पर प्रताप के नेतृत्व में धरना प्रदर्शन आरंभ कर दिया गया। प्रधानाचार्य जी के विरोध में दलितों का स्वर मुखर हो गया –'नवीनचंद्र पांडे हाय-हाय!...हाय-हाय।… प्रधानाचार्य! मुर्दाबाद…मुर्दाबाद!'

     प्रधानाचार्य जी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो मानो उनमें तो प्रबल ऊर्जा का संचार हो गया –'पहले निष्कासन वापस, फिर कोई और बात!' कई छात्र तो उनके साथ अभद्रता पर उतारू हो गए।विवश होकर उन्हें पुलिस की सहायता लेनी पड़ी। पुलिस की फटकार से समस्त आंदोलनरत छात्र मधुमक्खियों की तरह तितर- बितर हो गये।

     हर कूल कंगारे को झिंझोड़ता हुआ यह समाचार नगर में हर ओर फैल गया कि जिस शिक्षा के मंदिर में कभी पुलिस के सिपाही की छाया तक नहीं पड़ी थी वहां की व्यवस्था में पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।

     विद्यालय प्रबंधन समिति की आपात सभा बुलाई गई। और उसमें प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अकर्मण्यता, विवेकहीनता, अकुशलता व विद्यालय परिसर में पुलिस बल के कदमों की घोर भर्त्सना की गई। तथा उन्हें   अपमानित व लांछित भी किया गया। इस अपमानदंश पर नवीनचंद्र पांडे बुरी तरह तिलमिलाकर रह गये…लगा जैसे संपूर्ण व्यक्तित्व सुलग रहा हो।

     उधर प्रताप की अनुशासनहीनता को दंडित करने के उद्देश्य से अगली प्रार्थना सभा में प्रबंधक द्वारा उससे प्रधानाचार्य जी के चरण स्पर्श कराकर क्षमायाचना कराई गई तथा दंडस्वरूप उसके हाथों पर प्रधानाचार्य जी द्वारा बेंत प्रहार भी कराया गया।

     और फिर अप्रत्याशित व अकल्पित रूप से वह घटित हो गया था जिसने उनकी समूची संयम शक्ति को पूर्ण वेग से झिंझोड़ डाला था…उनके व्यक्तित्व को झकझोरकर रख दिया था।…विद्यालय के अवकाश के उपरांत ज्यों ही वे मुख्य द्वार से बाहर निकले, प्रताप कहीं से घात लगाए चीते की तरह चपल गति से प्रकट हुआ और उनका कालर पकड़कर एक झन्नाटेदार तमाचा उनके गाल पर मारता हुआ बोला –'पांडे! प्रताप आज तक किसी के सामने नहीं झुका तो तुझसे कैसे पराजित हो सकता है?आज से ध्यान रखना! मुझसे टकराने की कोशिश मत करना कभी वरना तेरे लिए परिणाम अच्छा नहीं होगा।'

     पलार्द्ध भर को अवसन्न रह गया नवीनचंद्र पांडे का भावप्रधान मस्तिष्क…किंतु अगले ही पल उनमें न जाने कहां से ऐसी शक्ति ऐसा साहस उत्पन्न हो गया कि विद्युत गति से उन्होंने उसे लात घूंसो से बुरी तरह धुन दिया। हांफते हुए से बोले–'प्रताप याद रखना!मेरा नाम नवीनचंद्र पांडे है। सिद्धांतों का धनी हूं इसलिए कभी किसी से पराजित नहीं होता। तुम जैसे गुंडों को सुधारना मेरा बांए हाथ का खेल है। लेकिन जो कुछ आज हुआ वह मैं करना नहीं चाहता था। इससे विद्यालय की भी गरिमा धूमिल हुई तथा मेरी भी …और यदि तूने अपना यह धृष्टाचरण नहीं सुधारा तो जिंदगी में तू कभी कुछ नहीं बन सकता।…मेरा क्या है मुझे तो यह नहीं तो कोई और विद्यालय अपना ही लेगा। इसलिए मैं स्वयं इस विद्यालय को त्यागकर जा रहा हूं।यह निर्णय कल ही मैंने उस समय ले लिया था जब प्रबंधनतंत्र ने मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने की चेष्टा की थी…लेकिन यह तुझे भविष्य बताएगा कि पराजय मेरी हुई या तेरी?'

     और उसी समय उन्होंने प्रबंधनतंत्र को अपना त्यागपत्र भिजवाया तथा वहां से विदा ली।

     चूंकि उनकी सुघड़ कार्य शैली की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थी अतएव उपप्रधानाचार्य के अवलंबन पर चल रहे सरस्वती माध्यमिक विद्यालय धर्मपुर ने तत्काल उन्हें प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त कर विद्यालय की डोर पूर्णतया इस अनुबंध के साथ उनके हाथों में सौंप दी कि परिणाम शत-प्रतिशत मिलना चाहिए, शैक्षिक स्तर शिखर को स्पर्श करना चाहिए, विद्यालय की दुंदुभी चहुंओर बजनी चाहिए।

     सर्वप्रथम आत्ममंथन, फिर व्यवस्थाओं का अवलोकन और तत्पश्चात् तदनुरूप क्रियान्वयन शैली अपनाते हुए उन्होंने विभेदक दृष्टि से विद्यार्थियों का निरीक्षण किया, उनकी नसों पर हाथ रखा, अभिभावकों की सभा आयोजित कर उन्हें विश्वास में लिया, अपने उद्देश्य, लक्ष्य व कार्यप्रणाली के विषय में विस्तार से चर्चा की, शिक्षकों से बंधुत्व भाव बनाए रखने का आग्रह किया, छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदान कर विद्यालय में पारिवारिक वातावरण उत्पन्न किया, छात्रों व शिक्षकों को उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया।…

     और मनोयोगपूर्वक किये गये अथक परिश्रम, ध्येय के प्रति अटूट निष्ठा,लगन, सुनियोजित क्रियात्मक योग, त्यागी वृत्ति, स्नेहिल आचरण, विलक्षण कार्यक्षमता व अनुपम शैली ने अपना रंग दिखाया तो विद्यालय का नाम प्रदेश भर में विख्यात् होने के साथ-साथ ही प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे का अद्भुत प्रेरणास्पद् व्यक्तित्व शिक्षा जगत में एक किंवदंती बन गया।……

     *शिक्षामंत्री* अनुज प्रताप सिंह!... जिंदाबाद… जिंदाबाद!...समूचा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजा तो अतीत का वह तिक्त कषाय कालखंड वायु के पत्तों पर आरूढ़ हो अनंत में कहीं जाकर शून्य में विलीन हो गया। चैतन्य होकर उन्होंने चहुंओर दृष्टिपात् किया तो मंच पर ध्वनि विस्तारक के समक्ष खड़े मंत्री जी उन्हें ही लक्ष्य कर संबोधित कर रहे थे –"देखिए!समय का चक्र किस प्रकार घूमता और सबको घुमाता है…आज मैं जिन नवीनचंद्र पांडे को पुरस्कृत करने आया हूं वे कभी मेरे कालेज में प्रधानाचार्य हुआ करते थे। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था कि तू जिंदगी में कभी कुछ नहीं बन सकता,न कभी मुझसे जीत सकता है। लेकिन आज आप देख ही रहे हैं कि उनके कालेज का वह आवारा गुंडा, अनुसूचित जाति का दबा कुचला छात्र,जिसे पांडे ने छोटी सी बात पर विद्यालय से निष्कासित कर दिया था आज आपके सामने एक लोकप्रिय मंत्री के रूप में खड़ा है। जबकि पांडे पहले भी प्रधानाचार्य थे और आज भी प्रधानाचार्य हैं। उन्नति के सोपान पर एक कदम भी तो नहीं चढ़ सके…काल विडंबना का इससे सशक्त उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिन हाथों पर उन्होंने कभी बेंत प्रहार किए थे,वही आज उन्हें पुरस्कृत करने जा रहे हैं।"                                                                                        पलांशभर को ठिठके मंत्री जी और फिर खुरदरे स्याह होंठों पर कुटिल मुस्कान लाते हुए बोले–" तो मैं प्रधानाचार्य पांडे को अपने हाथों से पुरस्कार देने के लिए मंच पर बुलाना चाहूंगा…शीघ्र आ जाएं क्योंकि अभी मुझे कार्यकर्ताओं की मीटिंग भी लेनी है।"

     भारी और बोझिल कदमों से नवीनचंद्र पांडे मंच पर चढ़े और माइक के सामने बिना किसी औपचारिकता के प्रारंभ हो गये–"ऐसा प्रतीत होता है कि माननीय मंत्री जी मुझे पुरस्कृत करने की ओट में अपने हृदय में बरसों से बंधी हुई ग्रंथि खोलने आये हैं…लेकिन वे बहुत बड़े भ्रम का शिकार हैं।या तो वे अभी तक नवीनचंद्र पांडे को समझ नहीं पाए हैं या फिर न समझने का अभिनय कर रहे हैं। पांडे मंत्री जी जैसा वृहदाकार अस्तित्व नहीं है। वह ऐसा लघुतर अस्तित्व वाला दीपक है जिसकी प्रज्वलित की हुई ज्योति में अब तक अगणित चिकित्सक, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश व शिक्षाविद् प्रकाशित हो चुके हैं। और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकाश फैला रहे हैं। इस अस्तित्व विहीन पांडे के शिक्षा मंदिर से अनेक प्रतिभाएं उदित हुई हैं। लेकिन क्या हमारे सम्मानित मंत्री जी बता सकते हैं कि उनके कौशल से कितनी प्रतिभाओं का विकास हो सका है?...रही बात पुरस्कार की, तो स्वाभिमान आहत करके जो पुरस्कार दिया जाता है उसकी कोई महत्ता नहीं रह जाती। ऐसे पुरस्कार की कोई गुणवत्ता नहीं होती। आज राजनीति में पुरस्कार तो रह गया है परंतु सम्मान व वास्तविक कार्यक्षेत्र नहीं रह गया है। पुरस्कार देना राजनीतिज्ञों के लिए बहुत सरल है। इससे उनकी सदाशयता प्रदर्शित होती है, लोकप्रियता बढ़ती है, क्षेत्र में महत्ता बढ़ती है।"…

     निमेषभर को रुककर उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर बोले–"मेरे विद्यार्थियों ने, शिक्षकों ने, अभिभावकों ने व इस क्षेत्र की जनता ने अपने प्रेम, प्यार, सम्मान व शुभकामनाओं से मुझे एक बार नहीं अनेक बार पुरस्कृत किया है।आजन्म ऋणी रहूंगा मैं उनके इस भावनात्मक अभिनंदन का।अतएव मुझे माननीय मंत्री जी के पुरस्कार की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उनका पुरस्कार अस्वीकार करता हूं। माननीय मंत्री महोदय का बहुत-बहुत धन्यवाद।"

     प्रधानाचार्य जी मंच से उतरकर सभागार से भी बाहर निकल गये। जबकि हाथों में प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, धनराशि का अनुदेश पत्र व शाल थामें मंत्री जी पाषाण प्रतिमा बने उनके जाने की दिशा में एकटक निहारते -निहारते न जाने किस लोक का विचरण करने निकल गये।

     शायद यह एहसास उन्हें कहीं भीतर तक कचोट गया था कि प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे ने उन्हें एक बार पुनः पराजित कर दिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

मो.9411012039

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की कहानी ..... 'मेरी भी एक माँ थी'


सुनिधि हमेशा अपनी कक्षा के बच्चों को बहुत प्यार करती थी तथा बडे़ मनोयोग से पढा़ती थी। बच्चों के अभिभावक हमेशा उसकी प्रशंसा करते थे। उसका दुर्भाग्य था कि हिंदी और इतिहास विषय से प्रथम श्रेणी की स्नातकोत्तर होने और बीएड होने के बाबजूद वह एक निजी पब्लिक स्कूल में अल्प वेतन भोगी अध्यापिका थी।

       सुनिधि को आज उसकी सेवा समाप्ति के लिए  नोटिस मिला था। इसका उत्तर एक सप्ताह में उसे प्रधानाचार्या को देने के लिए निर्देशित किया गया था । वह हतप्रभ थी कि एकदम से उसके विरुद्ध इतना सख्त निर्णय कैसे लिया जा सकता है?  उसने जो काम किया था उसका वह परिणाम भुगतने को तैयार थी। अधिक से अधिक उससे क्लास छीनी जा सकती थी लेकिन उसकी सेवा समाप्त हो जायेगी यह तो उसके दिमाग में कभी आया ही नहीं था।

        सुनिधि की कक्षा में एक छात्रा पलक थी जो पढ़ने-लिखने में बहुत तेज थी। उसकी माँ का जबसे 'कोरोना' से अचानक निधन हुआ वह बहुत शांत हो चली थी। सुनिधि उसको बहुत प्यार से समझाती और पढा़ई लिखाई में मन लगाने पर जोर देती । उसका काम पूरा नहीं हो पाता तब वह किसी न किसी तरह पलक का काम पूरा कराती रहती थी। पेरेन्टस डे में पहले माँ आया करती थी अब उसके पापा कभी आ जाते तो हाथ बांधे खडे़ सुनते रहते थे। माँ की मृत्यु के बाद पलक को सब काम अपने आप ही करना पड़ता था। पिता का पर्याप्त समय न दे पाना उनकी भी मजबूरी थी।

         पलक की हिंदी की परीक्षा में उसे अपने "सर्वप्रिय व्यक्ति" पर निबंध लिखना था। उसने पहली लाइन लिखी- 

      "मेरी भी एक माँ थी जो दुनिया भर में मुझे सबसे प्यारी थी... "

       उसकी आंखों से आंसुओं की झडी लग गई। आंसू टप-टप उस की कापी में गिरते गए। उसने जो कुछ लिखा था और जो वह आगे लिखने का प्रयास कर रही थी वह सब आंसूओं से गीला होकर खराब होता जा रहा था। उससे लिखा नहीं जा रहा था। जैसे तैसे उसने अपनी परीक्षा दी।  पलक की कापी जब सुनिधि के पास जांचने को आई तो वह पलक की कापी देख कर विचलित हो उठी। कापी में सुनिधि पलक की मनोदशा को अच्छे से पड पा रही थी। 'मां' के विषय में कापी पर कुछ भी स्पष्ट नहीं लिखा होने पर सुनिधि ने जैसे मानो पूरा निबंध पढ़ लिया था। आखिर उसे पलक से विशेष लगाव था। उसकी आंखें नम हो चलीं थीं। उसने पलक को 10 में 10 नम्बर देकर कापी बंद कर दी।

      यही एक दुस्साहस उसने किया था। यह उसका खाली पीरियड था। काफी परेशान सी क्लास में अकेली सुनिधि अपनी ऊंगलियां चटखाती। कभी अपने बालों पर हाथ फेरती। कभी उठ कर इधर-उधर चहल कदमी करती। उसे निर्णय करने में अधिक समय नहीं लगा। एक झटके से अपने पर्स  से  कागज और पेन निकाला और अपना त्यागपत्र लिख कर चपरासी के द्वारा प्रिंसपल को भेज कर वह सीधे अपने घर चली आई।

✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र '

श्रीकृष्ण कालोनी, चन्द्र नगर, 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी .....खुतरी नाशपाती

 


   "..... आप सब लोगों ने  अगर यह देख लिया है तो मैं अब ब्लैक बोर्ड साफ कर दूं?"डाॅ लवानिया सर ने पूछा.

   "हा हा हा हा हा हा" पूरी क्लास हंसी के ठहाकों से गूंज गई....कुछ लोगों ने कहा "हां सर पढ़ लिया है बिगाड़ दीजिए! "

       "तो आओ अब पढ़ाई शुरू करें! " और बाॅटनी की पढ़ाई शुरू हूई बीच-बीच में शरारती लड़के हमेशा की तरह व्यवधान उत्पन्न करते रहे.... परंतु डाॅ लवानिया सर पूरे मनोयोग से पढ़ाने में लगे रहे ..... 

     ....डाॅ लवानिया सर देखने में सांवले खुदरा चेहरा परन्तु आत्मविश्वास से भरे हुए एकदम सरल स्वभाव वाले थे परंतु पढ़ाते बहुत अच्छा थे! गोल्ड मेडलिस्ट थे तो जो पढ़ने वाले बच्चे थे उन्हें बहुत पसंद करते थे और जो आवारागर्दी करने आते थे वे एक गढढों वाली नाशपाती का चेहरा बनाते और उस पर डाॅ यू सी लवानिया लिख देते ऐसा करके वह प्रोफ़ेसर का उपहास करते थे.....! खुराफात करने में सतीश त्यागी और रामप्रसाद मुख्य थे ये दोनों शरारत और गुंडागर्दी करते ही रहते थे दूसरे प्रोफ़ेसर तो प्रिंसिपल से शिकायत कर देते थे घरवालों तक को लेटर लिखवा देते थे यहां तक कि नाम भी कटवा देते थे परंतु डाॅ यूसी लवानिया उनमें से नहीं थे! 

.......एक दिन किसी केस के सिलसिले में सतीश त्यागी और रामप्रसाद को तलाशती हुई पुलिस क्लास में आ पहुँची तब डाॅ यूसी लवानिया क्लास ले रहे थे  परमिशन लेकर पुलिस वाले अंदर आए और पूछा सतीश त्यागी और रामप्रसाद  किस तरह के लड़के हैं गुंडागर्दी करने वाले हैं या शरीफ..!यह बात उन्होंने क्लास में सबके सामने पूछी...... 

सभी सोच रहे थे कि डाॅ यूसी लवानिया आज अपने मन की भड़ास निकाल कर ही दम लेगें..और इन दोनों को फंसा  ही दम लेंगे उन दोनों के चेहरे भी पूरी तरह उतर गए थे कि आज बचने वाले नहीं जेल जाना ही पड़ेगा परंतु ये क्या?....ऐसा नहीं हुआ डाॅ यूसी लवानिया ने कहा " ये दोनों बच्चे मेरी क्लास के सबसे शरीफ छात्र हैं अपना काम हमेशा मन लगाकर करते हैं यह सुनकर पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगाई रिपोर्ट लगाई और लौट गई अगले दिनों में कई दिनों तक सतीश त्यागी और रामप्रसाद क्लास में नहीं आए....परंतु इस बीच ऐसा हुआ की डाॅ यूसी लवानिया को जापान की किसी यूनिवर्सिटी ने अपने यहां सलेक्ट कर लिया और उनके जाने की खबर पूरे कॉलेज में फैल गई अंतिम दिन डाॅ यूसी लवानिया क्लास में आए रोज की तरह ही क्लास ली और अंत में उन्होंने स्टूडेंट्स से विदा लेते हुए कहा आप लोगो के साथ बहुत सुन्दर समय गुजरा,अब मेरी जाॅब  विदेश में लग गयी है बच्चों मेरा पूरा प्रयास रहा कि मैं अपने प्रत्येक छात्र को ठीक से पढ़ा सकूं परंतु पढ़ाते समय शिक्षक को थोड़ा  सख्त भी होना पड़ता है इस लिए पढाने के दौरान मुझसे जो भी गलती हुई हो उसे क्षमा करना! और आगे भी अपनी पढाई ऐसे ही मन लगा करना....!और जीवन में अपने साथ ही अपने माता पिता का नाम ऊंचा करना! 

    उनका ये कहना था कि सतीश त्यागी एवं राम प्रसाद उनके चरण छूकर फूट फूट कर रो पड़े कक्षा में सभी की आंखे भीगी थीं..... 

✍️ अशोक विद्रोही 

412 प्रकाश नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 8218825542

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में देहरादून निवासी) नरेश वर्मा की कहानी ..... सुभद्रा विला । हमने यह कहानी ली है उनके वर्ष 2022 में प्रकाशित कहानी संग्रह " सदाबहार" से .....


सुभद्रा विला नाम है इस घर का । बाहर बरामदे में कुछ गमले रखे हैं जिनमें मौसमी फूलों के अतिरिक्त एक तुलसी का और एक एलोवेरा का पौधा भी है। उपर छत की रेलिंग पर बेगोनिया बेवस्टा की बेल बेतरतीबी से काफ़ी धनी होकर फैल आई है। घर में दो प्राणी रहते हैं, एक गृहस्वामी शिव नारायण सिंह चौहान, जिनकी उम्र 72 साल है और वे डीज़ल इंजन कारखाने से मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। दूसरी हैं पत्नी सुभद्रा चौहान, जिनकी उम्र 70 साल है। वह 50 साल से हाउस वाइफ़ के पद पर कार्य कर रही हैं। इस नौकरी में सेवानिवृत्ति की कोई उम्र सीमा नहीं होती है। जीवन से निवृत्त होने पर ही रिटायरमेंट मिलता है। आइए सुभद्रा विला में चलते हैं और देखते हैं कि अंदर क्या चल रहा है........

सुबह की चाय, दैनिक क्रिया आदि सब हो चुके हैं। दोनों बाहर बरामदे में बैठे हैं। सुबह का पेपर आ गया है।

"आज कौन सा वार है ?", चौहान जी ने पत्नी से पूछा, "अरे आपको इतना भी याद नहीं है कि आज रविवार है, आज रात को रवि का फ़ोन आयेगा।”, पत्नी ने उलाहना दी।

"भई जब तुम जैसी याद दिलाने वाली पी. ए. साथ हो तो मैं याद करके क्या करूँगा ? मैं तो सोचता हूँ कि यदि तुम न होती तो मेरी उम्र का बड़ा हिस्सा तो चश्मा ढूँढने में ही बीत जाता ।”

    पति की बात से मुस्करा कर सुभद्रा चाय के कप-प्लेट समेटकर अंदर 'चली गई। वह अपने पुत्र रवि के विषय में सोचने लगे। रवि उनका पुत्र, अमेरिका के कैसास सिटी में इन्जीनियर है, उसका फ़ोन प्रत्येक रविवार को रात के नौ बजे के आस-पास आता है। बेटे का फोन ही जीवन की एकरसता में "कुछ रस का संचार कर जाता है। इस फ़ोन पर किया गया वार्तालाप दोनों पति-पत्नी के बीच पूरे सप्ताह चर्चा का मनपसंद विषय रहता है।

        रविवार को सुभद्रा सारे काम जल्दी निपटाकर फ़ोन के पास बैठ जाती है। फ़ोन पर माँ-बेटे में लंबी वार्ता चलती है। सुबह नाश्ते में क्या बना है ? इस वीक-एन्ड का क्या प्रोग्राम है ? हेमंत (पौत्र) क्या कर रहा है ? छोटी-छोटी बातों का लंबा सिलसिला।

       उन्हें तो सुझता ही नहीं कि फ़ोन पर क्या बात करें। मौसम का हाल पूछ लेते हैं, सबकी कुशल पूछ लेते हैं, इसके बाद क्या...? और यदि कुछ पूछने का सोचा हुआ भी हो तो ठीक फ़ोन के टाइम पर भूल जायेंगे। 

            पिछले वर्ष बेटे के बहुत आग्रह पर दोनों पति-पत्नी,20-22 घंटे की थका देने वाली हवाई उड़ान के बाद समृद्धि के देश अमेरिका गए थे। बेटे ने वहाँ खूब सैर करवाई... नियाग्रा फॉल्स, लॉस वेगास, बड़े- बड़े मॉल्स, एक चकाचौंध वाली दुनिया। इन सब आकर्षणों के बीच दो महीनों के बाद ही उन्हें अपने सुभद्रा विला की याद सताने लगी थी। पता नहीं क्या आकर्षण होता है अपनी मिट्टी की ख़ुशबू में कि वह मन ही मन घर वापसी के दिन गिनने लगे थे।

        बेटे ने कितनी बार प्रस्ताव रखा था कि अब वह दोनों, बेटे के साथ अमेरिका में ही रहें किंतु बुढ़ापे में इस उम्र का क्या भरोसा। वह नहीं चाहते कि उनकी मिट्टी उस अनजाने पराये देश की मिट्टी में मिले। कहाँ हैं वहाँ गंगा के घाट ? कहाँ हैं वहाँ आम के बौर से आती भीनी ख़ुशबू ? कहाँ मिलेंगी वहाँ गायें जिनके लिए सुभद्रा रोज़ गाय की रोटी सेंकती है। सुभद्रा बिला की चहारदीवारी के बीच का सूनापन भी उनका अपना है। यहाँ की ईंट ईंट पर यादों के अनेक पल जुड़े हैं।

“आज नाश्ते में क्या बनाऊँ ?”, सुभद्रा की आवाज़ से उनकी तन्द्रा भंग हुई।

   "हज़म ही कहाँ होता है और सब, वही दलिया बना लो।”

सुभद्रा रसोई घर में चली गई थी। यादों का सिलसिला फिर चल निकला। कहाँ छूट गए वो पहले जैसे भरे-पूरे परिवार जिसमें दादी-नानी के क़िस्से होते थे, त्योहारों की धूम होती थी, ढोलक की थाप होती थी। अब तो जीवन की इस दूसरी पारी में होता है एक अंतहीन सूनापन। उन्हें याद आते हैं अपने बाबू जी और उनकी चिट्ठियों में झलकता उनका सूनापन। एक बार बाबू जी ने उन्हें चिट्ठी में लिखा था, "सामने बरामदे की बुर्जी में चिड़िया घोंसला बना रही है। तिनका-तिनका जोड़ रही है। घोंसले में अंडे देगी, फिर बच्चे बड़े होंगे, चोंच में दाना ला ला कर उन्हें खिलायेगी। बच्चे बड़े होंगे और जब उनके पर आ जायेंगे तो सब उड़ जायेंगे अपनी-अपनी दुनिया में।"

आज उम्र की इस दहलीज़ पर उन्हें अपने बाबू जी के पत्रों में झलकते उस सूनेपन का अहसास होता है। अब तो ऐसे मकान ही नहीं होते जहाँ गौरेया घुसकर घोंसला बना सके और न ही ऐसे खुले आँगन होते हैं, जहाँ अम्मा चिड़ियाँ को दाना डाला करती थी। कहाँ गए वे दिन ? अब जो दिन बीत रहे हैं वे बस पिछले दिनों की कार्बन कॉपी है।

       ऐसे ही एक दिन जब चौहान जी बरामदे में बैठे ताजे खिले पिटूनिया के फूलों को निहार रहे थे तो उन्होंने देखा कि किचन की बैक डोर से होकर सुभद्रा गैराज के पीछे बने स्टोर की तरफ़ कुछ लेकर तेज़-तेज़ जा रही है। इसके बाद वह पुनः किचन के रास्ते घर में गई और इस बार कोई पुरानी चादर लेकर गैरेज स्टोर की तरफ़ गई। बरामदे में बैठे हुए गैरेज से लगा स्टोर नज़र नहीं आता था। अत: वह कुछ भी नहीं देख पा रहे थे कि वहाँ क्या चल रहा

है। असमंजस की स्थिति में जब वह कुछ भी अनुमान नहीं लगा पा रहे थे, तो उसी क्षण उल्लासित सी सुभद्रा प्रगट हुई। इससे पहले कि वह कुछ पूछत सुभद्रा ने स्वयं मुस्कराते हुए कहा, “घर में कुछ नए मेहमान आए हैं।"

    "नये मेहमान ?" वह कुछ समझे नहीं।

"उठिए चलिए आपको मिलवाती हूं नये मेहमानों से", सुभद्रा ने चहकते हुए कहा। जिज्ञासा और कौतुहल से वह सुभद्रा के पीछे-पीछे चल दिए। स्टोर के पास पहुंचकर सुभद्रा ने स्टोर के फ़र्श की ओर इंगित करते हुए कहा, “लीजिए मिलिए नये मेहमानों से।” उन्होंने आश्चर्य से देखा कि स्टोर के फ़र्श पर एक सफ़ेद- भूरी बिल्ली अपने तीन नवजात बच्चों को जीभ से सहला रही है। रुई के फाहों की तरह नवजात कोमल बच्चे अपनी मिचमिचाती कन्जी आँखों से नये संसार से सामंजस्य बैठाने का प्रयास कर रहे थे।

“कितने प्यारे बच्चे हैं।”, सुभद्रा ने हुलसते हुए कहा। स्त्री के अंदर की माँ उसकी आँखों में तैर आई थी। बिल्ली के बच्चों के आगमन से सुभद्रा विला में म्यूंss...म्यूंss... की आवाज़ का संगीत गूंजने लगा था। बिल्ली और उसके नन्हे-नन्हे बच्चों के कारण सुभद्रा को जीने का एक सम्बल मिल गया था। सुबह-शाम बिल्ली परिवार को दूध और ब्रेड का लंच-डिनर कराया जा रहा था। बिल्ली भी सुभद्रा के आगे-पीछे मँडराती रहती थी। बच्चों की उछल-कूद एवं नई-नई शरारतों के कौतुक को देखकर सुभद्रा की हँसी छूट जाती थी। चौहान जी भी मुस्करा मुस्कराकर इस नये रिश्ते की मिठास का आनंद लेने लगे थे।

    सुभद्रा विला में प्रेम की सरिता बह निकली थी। जीवन में यदि प्रेम नहीं है तो जीवन उस वाटिका के समान है जिसमें न फूल हो और न चहचहाते पक्षियों और गुनगुनाते भँवरों का गुंजन । झुर्रियाँ हमारे चेहरे पर पड़ती हैं उन्हें ह्रदय में मत पड़ने दो।

    एक सुबह सुभद्रा परेशान और व्यग्रता में पूरे घर, बगीचा, गैराज के आस-पास कुछ ढूँढ रही थी। चौहान जी ने जब सुभद्रा की हताशा देखी तो पूछा, "सुबह-सुबह क्या खोज रही हो ?"

  एक बच्चा नहीं मिल रहा। रात तक तो तीनों उछल-कूद कर रहे थे किंतु आज वहाँ दो ही बच्चे हैं। एक पता नहीं कहाँ चला गया ?", सुभद्रा ने उत्तर दिया। खोजी अभियान में अब चौहान जी भी शामिल हो गए थे। घर का चप्पा-चप्पा ढूँढ मारा पर तीसरे बच्चे का कोई अता-पता नहीं था। सुभद्रा रुआँसी होकर हर उस कोने और झाड़ी में खोज रही थी जहाँ उसके होने की कोई संभावना नहीं बनती थी किंतु बच्चा नहीं मिला।

   सुभद्रा थक-हार कर बरामदे की कुर्सी पर निढाल होकर धप्प से बैठ गई। उन्हें कुर्सी के कोने में कुछ गुदगुदा सा लगा। उन्होंने कुर्सी की गद्दी सरकाई तो देखा गद्दी के नीचे छिपा तीसरा बच्चा शरारत से टुकुर-टुकुर देख रहा है।

   "हट बदमाश! मैंने, तुझे कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा और तू यहाँ छिपा बैठा है।" सुभद्रा ने उल्लासित हो पति को सूचना देते हुए कहा, "सुनते हो जी, बग़ल में छोरा, नगर में ढिंढोरा। तीसरा शरारती मिल गया है।" यही है जीवन का फ़लसफ़ा - थोड़े ग़म-थोड़ी खुशियाँ। सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं। सुख की पहचान, सुख के रूप में नहीं होती यदि दुःख न भोगा हो। इसी तरह दुःख भी अपनी • पीड़ा खो देगा यदि हमने सुख अनुभव न किया हो।

      आज रविवार है। रात के नौ बज रहे हैं। फ़ोन घनघना रहा है। अमेरिका से रवि का फ़ोन है। आज की फ़ोन वार्ता का मुख्य एपिसोड है सुभद्रा विला में बिल्ली और उसके बच्चों का आगमन। सुभद्रा ने बतलाया कि कैसे एक बच्चा गुम हो गया था। उनका तो दिल ही बैठ गया था पर शुक्र है भगवान का कि बच्चा मिल गया था। बच्चा मिलने की ख़ुशी में उन्होंने नाश्ते में हलुआ बनाया था जिसका रसास्वादन बिल्ली परिवार ने भी किया।

      उधर रवि ने लक्ष्य किया कि आज की वार्ता से शुगर, ब्लड प्रेशर आदि के विषय गायब थे। चर्चा का मुख्य केन्द्र बिन्दु बिल्ली उसके तीन बच्चे और उनके प्रति माँ का स्नेहिल उत्साह। जब बिल्ली-पुराण चर्चा को थोड़ा विराम लगा तो रवि ने फोन पर बताया, "मम्मी मेरे पास भी आपके लिए एक शुभ समाचार है।" “कैसा शुभ समाचार ?, सुभद्रा ने जिज्ञासा से पूछा।

      रवि ने कहा, "मैं जिस अमेरिकन कम्पनी में काम करता हूँ वो कम्पनी अपनी इंडियन ब्रांच में मुझे परिवार सहित एक साल के डेपुटेशन पर इंडिया भेज रही है, मैं जल्दी........ रवि की पूरी बात सुने बिना ही सुभद्रा ने प्रसन्नता से पति को पुकार कर कहा, “सुनते हो जी ! अपना रवि इंडिया आ रहा है.... मैं पहले ही जानती थी बिल्ली के बच्चों का आगमन शुभ है।" चश्में से ढकी अश्रुपूरित आँखों और भर आए गले से उन्होंने हाथ जोड़कर ईश्वर को नमन की मुद्रा में कहा, "आज बिल्ली का खोया बच्चा मिला और अब इतने वर्षों बाद अपना बच्चा घर आ रहा है।"

    उस दिन देर रात तक सुभद्रा विला की लाइटस् जलती रही थी। खिड़कियों से छनकर आते प्रकाश से लॉन में खिले पिटूनिया के पुष्प जैसे मुस्करा रहे थे।

✍️ नरेश वर्मा

 बी- 13,  रक्षापुरम, रायपुर रोड 

 देहरादून 248008 

 मोबाइल फोन नंबर 99978 79975



बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ....गिद्ध


       

 ‌"पापा!कुछ करो ना! मेरा दम घुट रहा है, और  सांस भी उखड़ रही है।" एंबुलेंस की सीट पर लेटे कार्तिक ने ऑक्सीजन मास्क के पीछे से अटकते - अटकते बड़े दयनीय स्वर में कहा तो बराबर की सीट पर बैठे डॉ० राघव मल्होत्रा की मजबूर आंखों में जलकण झिलमिलाने लगे।

    कार्डियक अस्थमा से पीड़ित बेटा थोड़ी - थोड़ी देर में यही करुण पुकार करने लगता था और वे कसमसा कर रह जाते थे। ऑक्सीजन के सहारे ही सांसे चल रही थीं, और वह भी समाप्ति की ओर थी। एंबुलेंस में लिटाए - लिटाए कहाँ - कहाँ नहीं भटकते फिरे थे वे... कभी बोथम हॉस्पिटल तो कभी संजीव आरोग्य केंद्र, कभी सरस्वती अस्पताल तो कभी देवनंदिनी चिकित्सालय… सभी जगह रटारटाया सा प्रत्युत्तर मिलता - 'सॉरी! अस्पताल में भरती करने के लिए कोई बैड खाली नहीं है, न ही ऑक्सीजन उपलब्ध है। कहीं और प्रयास करें!'

    स्वयं भी महानगर के सुप्रतिष्ठित चिकित्सक होने के नाते अपने कई डॉक्टर मित्रों से वे फोन पर अनुरोध भरी भिक्षा मांग चुके थे - "बस एक सिलेंडर की भिक्षा दे दीजिए या फिर अपने अस्पताल में भरती कर लीजिए! मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, कोई भी, कितना भी मूल्य चुकाने को तैयार हूं।"

   पर सब जगह निराशा ही हाथ लगी - "इस समय बहुत बड़ी मजबूरी है। हॉस्पिटल में कोई भी बैड खाली नहीं है। और ऑक्सीजन भी कुछ ही घंटों की शेष है! जिलाधिकारी से गुहार लगाई है कि किसी भी तरह ऑक्सीजन की व्यवस्था कराएं! वरना हम रोगियों को बचा न सकेंगे!"

    वे गिड़गिड़ा भी पड़ते थे जैसे फोन पर ही पैर छूने को आतुर हों - "मेरा इकलौता बेटा है, ऑक्सीजन न मिली तो कुछ भी हो सकता है… बस थोड़ी सी गैस दे दीजिए! ताकि इस समय का काम चल सके, बाद में तो मैं कोई और भी व्यवस्था कर सकता हूं।"

   उनके अभिन्न मित्र डॉ० कुलकर्णी ने तो उन्हें झिड़क ही दिया था - "तुम्हारे लिए तुम्हारे बेटे की जान कीमती है तो हमारे लिए हमारे अस्पताल में भरती रोगियों की जान कीमती है। हम उनका जीवन कैसे दांव पर लगा दें? कई पेशेंट तो ऐसे हैं जो केवल ऑक्सीजन के आश्रय पर ही जिंदा हैं। इधर ऑक्सीजन समाप्त, उधर उनकी जिंदगी समाप्त।"

   "अर्थात् तुम्हारे लिए मेरे बेटे की जान कीमती नहीं है, वे अनजान बीमार कीमती हैं जिनसे तुम्हारा दूर-दूर तक कोई रिश्ता - नाता नहीं? कुछ पेशेंट काम में आ भी गए तो क्या हुआ? तुम पर क्या असर पड़ेगा उनका? पर मेरा बेटा तो बच जाएगा। मेरे बेटे से तो मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यूं समझिए कि मेरे बेटे के बचने से मुझे भी जिंदगी मिल जाएगी। वरना मैं भी जीते जी मर जाऊंगा।" डॉ मल्होत्रा करुण कटाक्ष करते - करते भावपूर्ण आवेश में आ गए थे।

   डॉ कुलकर्णी इस कटाक्ष पर तिलमिला गए थे - "डॉ० राघव मल्होत्रा! तुम अपने पेशे के प्रति कर्तव्य विहीन हो सकते हो परंतु मैं नहीं। मुझे सब पता है तुम्हारे अस्पताल में क्या-क्या होता है? मुझे आवेशित कर मेरा मुंह मत खुलवाओ!"

   "क्या कर लोगे मेरा तुम, अपना मुंह खोलकर? अरे मैं भी सब जानता हूं तुम्हारे अस्पताल में कितने - कितने काले कारनामें होते हैं? तुम तो मरे हुए पेशेंट की चमड़ी तक उधेड़ लेते हो। डैड बॉडी से भी पैसे बनाते रहते हो।" आवेश में वे भूल गए कि उनका बेटा गंभीर रूप से बीमार है और वह उसी के लिए एक यूनिट ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

   आक्रोश में तमतमा गए थे डॉ० कुलकर्णी - "अरे हम तो मरे हुए की ही चमड़ी उधेड़ते हैं, पर तुम तो वह गिद्ध हो जो जिंदा आदमी का मांस नोंच नोंचकर खा जाता है। बताओ! तुम्हारे हॉस्पिटल में सामान्य पेशेंट की भी कोविड टैस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है या नहीं? फिर उसे रेमडेसिविर इंजेक्शन लगा - लगाकर लाखों रुपए वसूलते रहते हो या नहीं? ऑक्सीजन खत्म हो जाने का नाटक रचकर ब्लैक में खरीदने के बहाने तुम कई गुना दाम वसूलते हो या नहीं? फिर उसकी डैड बॉडी ही तुम्हारे हॉस्पिटल से कई सतह वाले कफन में पैक होकर बाहर निकलती है या नहीं?... डॉ० राघव मल्होत्रा! सच पूछो तो यह तुम्हारे उन्हीं कुकृत्यों का परिणाम है कि महानगर में इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी तुम्हें एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए किसी भूखे भिखारी की तरह भीख मांगनी पड़ रही है।"

   बुरी तरह बौखला गए थे डॉ० राघव मल्होत्रा। कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा तो झुंझलाकर फोन ही डिस्कनेक्ट कर दिया था उन्होंने।

   डॉ० कुलकर्णी ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था... कठोर और कटु सत्य कह दिया था कुलकर्णी ने... उनकी आंखों में अपने ही अस्पताल के कुकृत्य किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……. 


   महानगर का सुप्रतिष्ठित 'आयुष्मान हॉस्पिटल'… संचालक डॉ० राघव मल्होत्रा… एक सिद्धहस्त कुशल सर्जन के रूप में दूर-दूर तक उनकी विशिष्ट पहचान थी। जटिल से जटिल सर्जरी के केस बड़ी सरलता से सुलझा लिए जाते थे उस हॉस्पिटल में। सर्जरी के कुशल प्रवक्ता के रूप में व्याख्यान देने भी वे देश - विदेश में जाते रहते थे... और मोटे शुल्क पर अन्य अस्पतालों की भी विजिट करते रहते थे... हर ओर से धन की बौछार... हर समय सिर पर धन कमाने का जुनून सवार...

   मानवीयोचित संवेदनाएं हृदय के किसी कोने में न थीं… जीवन का एक ही उद्देश्य, एक ही धर्म, एक ही कर्तव्य... मानव को जितना नोंचा - खसोटा जाए, कमी मत छोड़ो! चर्म तक उधेड़ लो... इस संसार में कोई किसी का नहीं, बस पैसा ही काम आता है।

   अर्थात् यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनके भीतर एक गिद्ध छिपा बैठा था, जो नोंचने - खसोटने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

   और जब एक नन्हें से वायरस कोरोना ने देश भर में महाप्रलय मचायी तो उनके प्रखर महत्त्वाकांक्षी मस्तिष्क ने आपदा में भी अवसर तलाशने में विलंब नहीं किया। प्रशासन के सहयोग से उन्होंने 'आयुष्मान हॉस्पिटल' को 'कोविड-19 उपचार केंद्र' में परिणत करने में सफलता अर्जित की तो वहां सर्जरी के स्थान पर कोरोना पीड़ित रोगियों का उपचार किया जाने लगा।

   फिर तो धन की घनघोर वर्षा होने लगी... कोई सर्जरी का रोगी भी आ जाता तो निराश उसे भी नहीं किया जाता... पहले उसे भरती किया जाता, फिर उसका कोरोना टैस्ट किया जाता। पॉजिटिव प्रदर्शित कर कोविड-19 का उपचार करने की ओट में लाखों रुपए वसूले जाते... कभी रेमडेसिविर का अभाव बताकर रोगी के परिचारकों को इधर-उधर भटकाया जाता, कभी ऑक्सीजन की कमी दर्शाकर नचाया जाता और इस ओट में मोटी कमाई की जाती।

   परंतु रोगी बचता तब भी नहीं था - 'सॉरी! बहुत कोशिश की हमने, पर पेशेंट को बचा नहीं सके! फेफड़े पूरी तरह गल गए थे।'

   कई सतह वाले कफन में पैक्ड डैड बॉडी ही बाहर निकलती थी। वह भी कोविड अस्पताल के प्रोटोकॉल के अनुसार परिजनों को नहीं दी जा सकती थी। मृत शरीर से भी धन वसूलने में पीछे नहीं रहा जाता था - 'श्मशान गृह में इंच भर भी जगह खाली नहीं है।' यह अभाव दर्शाकर किसी अन्य स्थान का भारी-भरकम शुल्क जमा कराया जाता था। और क्रियाकर्म का शुल्क तो अलग से था ही जो अस्पताल के कर्मचारियों की सदाशयता पर निर्भर करता था।

   परीक्षणशाला अपनी, मेडिकल स्टोर अपना, कर्मचारी अपने, समूची व्यवस्था अपनी... आयुष्मान हॉस्पिटल में आने वाला हर रोगी कोविड-19 वायरस पॉजिटिव ही निकलता था, चाहे वह सामान्य खांसी, जुकाम से ही पीड़ित क्यों न हो।

   और यह भी उसकी एक विशेषता ही थी कि शायद ही कोई रोगी उसमें से स्वस्थ होकर बाहर निकलता हो?... लोग स्वस्थ होने की आशा हृदय में पाले अपने रोगी को हॉस्पिटल में भरती करते और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कुछ दिन बाद ही लुटे - पिटे जुआरी की तरह खाली हाथ रोते - बिलखते घर वापस लौटते।


   किसी समाचार पत्र का पत्रकार था वह, जिसके पिता को उदरशूल की शिकायत पर वृक्काश्मरी के संदेह मे अल्ट्रासाउंड तथा अन्य परीक्षणों आदि के लिए भरती किया गया था।

   सर्वप्रथम कोविड टैस्ट किया गया… परिणाम आने तक कोई उपचार नहीं, कोई परिचार नहीं... एक गिलास पानी अथवा एक कप चाय के लिए रोगी तरसता रहा... वह दर्द से तड़पा तो चीखने - चिल्लाने पर डरा - धमकाकर शांत कर दिया गया...

   रिपोर्ट आयी - कोविड-19 वायरस : पॉजिटिव (हाइली सेंसेटिव)... यह तो सुनिश्चित था ही।

   पत्रकार को रोग की गंभीरता समझा दी गयी - 'वायरस का प्रभाव गुरदों पर हुआ है, गुरदे संक्रमित होकर सिकुड़ गए हैं, और निरंतर गलते जा रहे हैं। क्या परिणाम होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता? फिर भी हम पूरी कोशिश करेंगे। हमें विश्वास है कि हम रोगी को बचा लेंगे। किंतु खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। हालांकि हम कम से कम खर्च में ही काम चलाने की कोशिश करेंगे।'

   पत्रकार ने उनके पैर पकड़ लिए - 'मेरे पिता को बचा लीजिए डाक्साब! मैं खुद बिक जाऊंगा, पर अस्पताल का खर्च पूरा वहन करूंगा।'

   भीतर ही भीतर पुलकित हो उठे डॉ० मल्होत्रा… अच्छा मुर्गा फंसा है... उनके मस्तिष्क में बैठे गिद्ध ने तत्काल ही किसी योजना को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया...

   सुबह होते ही लाखों रुपए जमा करा लिए जाते... कभी परीक्षण के नाम पर, कभी दवाइयों के लिए, कभी रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर, कभी ब्लैक में खरीदी गई ऑक्सीजन के नाम पर, कभी वेंटिलेटर के लिए, कभी नेफ्रोलॉजिस्ट की विशेष विजिट के लिए, कभी विदेश से मंगाए गए कुछ विशेष उपकरणों के शुल्क के रूप में...

   पत्रकार ने बहुत बार पिता से मिलने का प्रयास किया। परंतु हर बार ही उसे रटा - रटाया सा आश्वासन देकर शांत कर दिया जाता - 'आप निश्चिंत होकर घर जाइए अथवा वेटिंग हॉल में जाकर बैठिए! जो कुछ भी नयी सूचना होगी, आपको फोन पर दे दी जाएगी।'

‌‌   सप्ताह भर बाद उसे सूचना दी गयी - 'वायरस ने लैफ्ट किडनी तो पूरी तरह डैमेज कर ही दिया है, लंग्स (फेफड़े) भी गल चुके हैं। फिर भी हम बचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम अमेरिकी नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ ऑस्टिन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, एक बार उन्होंने देख लिया तो आपके पिता निश्चित रूप से बच जाएंगे। परंतु उनकी फीस आपको भरनी होगी।'

   कुछ दिन बाद उसे पुनः आश्वस्त किया गया - 'अमेरिकी डॉ० ऑस्टिन की एडवाइस के अनुसार ही ट्रीटमेंट दिया जा रहा है। हमें विश्वास है कि सफलता अवश्य मिलेगी। हम उन्हें बचा लेंगे।'

   'क्या मैं एक झलक देख सकता हूं अपने पिता की?' उसने डरते डरते पूछा था।

   'बेवकूफ! क्या बक रहे हो? वह कोरोना पेशेंट हैं, उसे देखने की तुम सोच भी कैसे सकते हो?' डॉ० मल्होत्रा ने उसे इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था कि वह सहमकर रह गया था।

   पता नहीं उसे किसी नर्स अथवा वार्डबॉय ने कोई संकेत दिया था अथवा अंतर्चेतना में कोई झंकार हुई थी कि उसे डॉ० मल्होत्रा की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगा था। यह भी संभव हो सकता है कि अस्पताल से दिन - प्रतिदिन निकलने वाली लाशों ने उसे उद्विग्न किया हो।

   उसी रात्रि को जब समूचा अस्पताल निद्रा के आगोश में समाया पड़ा था वह पी पी ई किट पहनकर उस वार्ड में घुस गया जहां उसके पिता भरती थे... और वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कई लाशें रोगियों के रूप में पड़ी थीं... नासिका व मुख पर लगे मास्क मात्र प्रदर्शन भर के लिए... दोनों हाथों की नसों में ड्रिप की नलियां लगी हुईं...

   स्वयं उसके पिता भी मुर्दे के रूप में परिणत हो चुके थे... उदर पर टेप से चिपकायी गयी रुई पर रक्त स्राव के निशान... तो क्या पिता का पेट चीरा गया था? क्यों चीरा गया होगा?... क्या किसी अंग की चोरी की गयी है?... गुर्दा ही या कुछ और?

   'हे भगवान्! ये लोग डॉक्टर हैं या गिद्ध? जो इंसान के अंग नोंचकर खाने से भी नहीं चूकते।' उसकी आंखों में पीड़ा मिश्रित विस्मय का संसार उमड़ आया।

   डॉक्टर के सामने पड़ते ही उसने हंगामा मचा दिया - 'इंसानी खाल में छिपे गिद्ध हो आप! मेरे जीवित पिता को नोंच - नोंचकर खा गए? वरना तो बताइए! उनके पेट को क्यों चीरा गया? कौन सा अंग निकाला गया है उसमें से? मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करूंगा, उनका पोस्टमार्टम होगा, और आप जेल जाएंगे! अरे मैं तो अच्छे भले पिता को लेकर केवल इस परीक्षण के लिए यहां आया था कि बायीं कुक्षि में उठने वाला दर्द पथरी का है अथवा कुछ और?... और आपने लाखों रुपए बनाकर भी उन्हें जिंदा नहीं ‌छोड़ा।'

   बहुत शोर मचा, भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस भी आयी और पत्रकारों का दल भी आ विराजा।

   पुलिस को तो उन्होंने चढ़ावा चढ़ाकर शांत कर दिया, परंतु अखबारों को शांत न कर सके।

‌   बाद में उन्होंने अपने स्टाफ को बुरी तरह डांट - फटकार लगायी - 'वह भीतर घुसा कैसे? भीतर का सच लोगों के सामने उजागर हुआ तो क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी हॉस्पिटल की? कौन जिम्मेदार होगा गिरती साख के लिए? तुम लोगों को मासिक वेतन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दिया जाता है, कहां से निकलेगा वह?'

   वही हुआ... अगले दिन के समाचार पत्र उनके समाचारों से भरे पड़े थे - महानगर का सुप्रसिद्ध 'आयुष्मान हॉस्पिटल' बना गिद्धों का अड्डा। हॉस्पिटल में भर्ती छद्म कोरोना के रोगियों के अंगों की तस्करी चरम पर... पुलिस प्रशासन मौन।

   फिर तो आए दिन उन पर आरोपों की बौछार होने लगी... जिनमें कहीं न कहीं सत्यता भी थी... कभी कोविड रोगियों के लिए जीवन रक्षक माने जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का आरोप, कभी उसके स्थान पर डिस्टिल्ड वाटर लगाकर रोगियों को मार डालने का आरोप, कभी ऑक्सीजन का कृत्रिम अभाव प्रदर्शित कर कई गुना अधिक मूल्य वसूलने का आरोप, कभी हॉस्पिटल में 'बैड फुल' की तख्ती लगाकर बैक डोर से मोटी राशि लेने का आरोप, कभी गुरदा चोरी का आरोप, कभी रोगियों के स्वर्णाभूषण उतार लेने का आरोप…

   अर्थात् दिन - प्रतिदिन आयुष्मान हॉस्पिटल की प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई... जितना यश डॉ० मल्होत्रा ने अपने कौशल व मृदुलाचरण से अर्जित किया था वह सब उनकी गिद्धवृत्ति की भेंट चढ़ गया... वे डॉक्टर गिद्ध के नाम से चर्चित होते चले गए…….


   "मैं मर जाऊंगा पापा! कुछ करो! मुझे बचा लो! शहर के इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी आप कुछ नहीं कर रहे?" मलीन से, बिखरते से स्वर में कहा कार्तिक ने तो उनकी सोच की परत दरक गयी।

     चौंककर उन्होंने बेटे के चेहरे की ओर देखा... चेहरा निरंतर पीला पड़ता जा रहा था और स्याह आंखें बुझी - बुझी सी, होंठ पपड़ाए हुए, कपोल भीतर धंसे हुए... अपनी विवशता पर उनका अंतर्मन रो पड़ा।

   फिर भी बाहरी मन से उन्होंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया - "डोंट वरी माय लवली सन! बहुत जल्दी मैं कोई न कोई समाधान निकालता हूं। मैं अपने प्यारे बेटे को जरूर बचा लूंगा।"

   यकायक उन्हें राजकीय चिकित्सालय में नियुक्त कार्डियोलॉजिस्ट डॉ० गर्ग का ध्यान आ गया... उनसे उनके बहुत मधुर संबंध थे। डॉ गर्ग ने अनेकों रोगी उनके हॉस्पिटल में अग्रसरित किए थे, बदले में उन्होंने गर्ग को मोटा कमीशन दिया था।

   और उनकी एंबुलेंस राजकीय चिकित्सालय की ओर दौड़ पड़ी... डॉ० गर्ग से कुछ सहायता मिलने की आशा में...

‌   डॉ० गर्ग ने मधुर वाचन शैली में उनका उत्साहवर्धन किया - "चिंता मत करो माय डीयर फ्रेंड! इस अस्पताल में आपको बैड भी मिलेगा और ऑक्सीजन भी... और यदि वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो मैं वह भी उपलब्ध कराऊंगा…" क्षणिक ठिठककर वे मुख्य बिंदु पर भी आ ही गए - "किंतु दोस्त! अस्पताल के नियमानुसार सर्वप्रथम कोरोना टैस्ट अनिवार्य है।"

   कोरोना टैस्ट का नाम सुनते ही उनके हृदयाकाश में विचित्र - विचित्र सी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे... कोरोना टैस्ट का मतलब - कोविड-19 वायरस पॉजिटिव... जब उनके आयुष्मान हॉस्पिटल में आज तक कोई भी परीक्षण नेगेटिव नहीं दर्शाया गया तो इसी राजकीय अस्पताल का क्या विश्वास?... और यदि पॉजिटिव आया तो?...

   पॉजिटिव परिणाम की दिशा में सोचते ही उनकी पूरी देश स्वेद बिंदुओं से लथपथ हो गयी... उन्होंने आज तक किसी रोगी को अपने हॉस्पिटल से जिंदा नहीं लौटाया तो राजकीय व्यवस्थाओं पर भी कैसे विश्वास किया जा सकता है?... उन्हें लगा कि कोरोना के रूप में यमदूत तैयार खड़े हैं... एक - एक सांस से जंग जीतने को संघर्ष कर रहे इकलौते बेटे को ले जाने के लिए…

   इस हृदयाघाती कल्पना से तो उनका दिल धक्क से बैठ गया... उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया और किंकर्तव्यविमूढ़ से भयावह विचारों के अंधड़ में चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे।

   डॉ० गर्ग ने उन्हें उहापोह के दलदल में फंसे देखा तो बड़े ही स्निग्ध स्वर में उन्हें परामर्श देने लगे - "क्यों माय डीयर फ्रेंड! इसे तुम अपने ही अस्पताल में भरती क्यों नहीं कर लेते? एक पूरा वार्ड कोरोना पेशेंट से खाली कराओ और बेटे के लिए व्यवस्थाएं बनवा लो! मैं वहीं आकर विजिट कर लूंगा।"

‌‌   जैसे कोई जुआरी जुआ खेलकर हताश - निराश सा परिक्लांत और बोझिल कदमों से घर लौटने को मजबूर हो, वैसे ही उनकी एंबुलेंस भी अपने ही आयुष्मान हॉस्पिटल की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगी थी।

   अपने हॉस्पिटल पहुंचकर वे समूचे स्टाफ पर निर्देशात्मक कर्कश स्वर में बरस पड़े - "एक पूरा वार्ड मेरे बेटे के लिए खाली कराओ! पेशेंट को उठा - उठाकर बाहर फेंक दो!... भाड़ में जाएं, जिंदा बचें या मरें... उनकी किस्मत। किंतु मेरा बेटा हर हाल में बचना चाहिए!... पहले कोरोना टैस्ट कराओ बेटे का... और ध्यान रहे! वास्तविक रिजल्ट बताना है, केवल पॉजिटिव ही रिपोर्ट नहीं बतानी है... और तत्काल ही सारे पेशेंट की ऑक्सीजन रोककर बेटे को लगानी है... यह भी ध्यान रखना है कि केवल ऑक्सीजन मास्क ही लगाकर नहीं छोड़ देना है अपितु गैस भी सप्लाई करनी है।… और जरूरत पड़ी तो रेमडेसिविर इंजेक्शन भी लगाने होंगे... किंतु ध्यान रहे ओरिजिनल इंजेक्शन ही लगाने हैं, उनकी जगह डिस्टिल्ड वॉटर नहीं... ओरिजिनल इंजेक्शन मैं स्वयं लाकर दूंगा... बल्कि लगाऊंगा भी मैं ही स्वयं अपने हाथों से, मुझे तुम लोगों पर किंचित विश्वास नहीं।"

   कालचक्र की यह कैसी विडंबना थी कि उनके भीतर बैठे भूखे गिद्ध ने परिस्थितियों का कितना जटिल मकड़जाल बुन दिया था कि अपने ही हॉस्पिटल पर विश्वास डगमगा गया था, हॉस्पिटल से संबंधित हर व्यवस्था हर व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा था... उन्हें प्रतीत हो रहा था कि हॉस्पिटल का समूचा स्टाफ ही गिद्धों में परिणत हो गया है... डरावनी डरावनी सी आशंकाओं के कृमि कुलबुलाने लगे थे उनके भीतर कि कहीं ये गिद्ध उनके बेटे को भी नोंच - नोंच न खा जाएं...

   किंतु जब तक महानगर के उस सुविख्यात, सर्वसाधन संपन्न, दंभी व गिद्धवृत्ति शल्य चिकित्सक के लाड़ले बेटे को एंबुलेंस से उठाकर उस स्पेशल वार्ड में भर्ती किया जाता, तब तक एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए तरस रहे उस अभागे की सांसो की डोर टूट चुकी थी... न जाने कब एंबुलेंस में रखा ऑक्सीजन सिलेंडर खाली हो चुका था... एक-एक सांस के लिए व्यवस्था से जंग कर रहे बेटे की निश्चेतन पथराई आंखें शायद अब भी अपने पिता से करुण स्वर में याचनामयी गुहार लगा रही थीं - "पापा! कुछ करो ना!"


 ✍️डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़

बिजनौर, 

उत्तर प्रदेश, भारत

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