गुरुवार, 23 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.... पराजय

     


सरस्वती माध्यमिक विद्यालय का परीक्षा परिणाम गतवर्षों की भांति इस वर्ष भी शत-प्रतिशत ही रहा था। प्रदेश में सर्वोच्च स्थान भी इसी विद्यालय के छात्र ने पाया था। तथा अन्य कई छात्र विशेष उच्चांक सूची में भी आये थे।इस अप्रतिम सफलता का श्रेय विद्यालय के प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अद्भुत कार्यशैली, कठोर परिश्रम व शिक्षण के प्रति समर्पण भाव को जाता था। प्रदेश भर में उनका नाम समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गया। उनके सचित्र समाचार तो छपे ही, साक्षात्कार भी प्रकाशित हुए। अनेकों सामाजिक संस्थाओं द्वारा उनका अभिनंदन किया गया। सात्विक वृत्ति और सरल हृदयी नवीनचंद्र पांडे ऐसा भावभीना सम्मान पाकर भी कभी दम्भ अथवा लोभ से ग्रस्त नहीं हो पाये।

     पतली सी कदकाठी,सपाट चेहरा, आंखों पर चश्मा,देह पर खादी का लंबा कुरता व किनारीदार धोती,हाथ में पतली सी छड़ी…विद्यालय में जिधर को भी निकल जाते,सब उनकी तेजोद्दीप्त आंखों के संकेत मात्र से ही अनुशासन की सीमा में बंध जाते। कठोर अनुशासन,अत्युत्तम शिक्षा व शुद्ध आचरण उनके मुख्य सिद्धांत थे।उनका कथन था कि पांडे वह लोहस्तंभ है जो टूट तो सकता है किंतु झुक नहीं सकता…और न ही सिद्धांतों के परिपालन में कभी किसी से पराजित हो सकता।

     प्रदेश के नवमनोनीत शिक्षा मंत्री अनुज प्रताप सिंह के संज्ञान में पांडे जैसे उत्प्रेरक व आदर्श प्रधानाचार्य का व्यक्तित्व आया तो उन्होंने भी उन्हें पुरस्कृत करने की घोषणा करके अपने विद्वताप्रेमी व शिक्षाप्रेमी होने का संदेश प्रचारित कर डाला।

     अभिनंदन की तिथि घोषित करने से पूर्व प्रधानाचार्य जी को मंत्री जी के सचिव की ओर से अनेक दिशा निर्देश दिए गए…जैसे – सभास्थल पर भारी भीड़ जुटाई जाए, छात्राओं द्वारा उनका प्रशस्ति गान कराया जाए, गणमान्य नागरिकों द्वारा उनका अधिकाधिक माल्यार्पण कराया जाए, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया जाए, पुरस्कार में प्रदत्त धनराशि का आधा भाग मंत्री जी की संस्था को सहयोग रूप में दिया जाए,मंच ऊंचा व पुष्पसज्जित देवोपम सुंदर होना चाहिए,निरामिष भोजन व मदिरापान की व्यवस्था अत्युत्तम होनी चाहिए…आदि-आदि।

     नवीनचंद्र पांडे के हृदय में वितृष्णा की लहर दौड़ गई…मंत्री जी अभिनंदन करने आ रहे हैं या कराने आ रहे हैं?... कदाचित इस ओट में वे स्वयं का महिमामंडन कराना चाह रहे हों…उनका उत्साह तो शून्य में विलीन हो ही गया, मंत्री जी के नाम पर मन में भी कड़वाहट घुल गई…नहीं चाहिए ऐसा पुरस्कार जिससे स्वाभिमान आहत होता हो…फिर भी वे ऊपर से शांत ही बने रहे।

     घोषित तिथि को निर्धारित समय से काफी विलम्ब के पश्चात् जिस समय मंत्री जी का आगमन हुआ, उस समय प्रधानाचार्य जी दर्शक दीर्घा की अग्रिम पंक्ति में आत्मलीन से बैठे थे। मंत्री जी के गाड़ी से उतरते ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें पुष्पमालाओं से लाद दिया। फिर वे कार्यकर्ताओं से घिरे धीर मंथर गति से करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में मंचासीन हुए।

      और ज्यों ही कंठ में पड़ी पुष्प मालाएं उतारकर उन्होंने मेज पर रखीं तो उस चेचक के दाग भरे खुरदुरे श्यामल चेहरे पर नवीनचंद्र पांडे का दृष्टिपात् होते ही यकायक उन्हें लगा जैसे गरम तवे पर पैर पड़ गया हो…बुरी तरह चौंक पड़े वे…मुंह से उच्छवास सा निकल गया –"अरे प्रताप तू?...तू मंत्री बन गया?... वह भी शिक्षा मंत्री?..."

     अनायास ही उनके अवचेतन मन ने आंधी में फड़फड़ाते ध्वज के समान वर्षों पूर्व के अतीत के गर्त में छलांग लगा दी……

     *कुंवर* राघवेंद्र सिंह पब्लिक इंटर कालेज में जब वे प्रथम बार प्रधानाचार्य बनकर पहुंचे थे तो अनुशासन शून्य विद्यालय कुव्यवस्थाओं का शिकार बना हुआ था। छात्र-छात्राएं दिनभर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं में व्यस्त रहते तो शिक्षक गण भी शिक्षक कक्ष में एकत्रित होकर हंसी-ठिठोली करते रहते। दायित्वबोधी शिक्षक विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करते तो उनका उपहास उड़ाया जाता, करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में उन्हें कुवाच्य बोले जाते।हर ओर अराजकता का कोलाहल व्याप्त…और प्रयोगशालाएं तो मानो कबाड़खाना बनकर रह गई थीं…प्रयोग करने में विद्यार्थियों की रुचि नहीं तो प्रयोग  कराए किसे जाएं?

     नवीनचंद्र पांडे ने पहले दिन ही प्रार्थना सभा में वज्रनाद् कर दिया –'अनुशासन,अध्यापन और अध्ययन आज से इस विद्यालय के मूलमंत्र रहेंगे।आज से इस विद्यालय में वही रह सकेगा जो इनका अनुसरण करेगा। अवहेलना करने वालों के लिए मुख्य द्वार हमेशा खुला रहेगा…नियम भंग करने वाला स्वेच्छापूर्वक यहां से विदा ले जाए ,अन्यथा हठधर्मिता से बाहर धकेल दिया जाएगा।'

     उन्होंने छात्र-छात्राओं के साथ-साथ शिक्षकों के पैरों में भी कठोर नियंत्रण की जंजीरें डाल दीं और स्वच्छंदता पर प्रतिबंध लगा दिया।हर बच्चे,हर शिक्षक पर वे पैनी निगाह रखते। उनकी कठोर विभेदक दृष्टि जिस पर भी पड़ जाती वह भय से थरथरा उठता।अतएव सभी अपने-अपने कर्तव्यबोध के प्रति सजग रहकर विद्यालय का वातावरण सुधारने हेतु सन्नद्ध रहने लगे।उनके अथक प्रयास और दृढ़ निश्चय से विद्याध्ययन का मलय पवन विद्यालय के वातावरण को सुवासित करने लगा।

     किंतु सत्तारूढ़ दल के नगराध्यक्ष के शरारती व उद्दंडी पुत्र प्रताप ने उनके नियंत्रण को स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। सीधे सरल छात्रों का उत्पीड़न करना उसका मुख्य स्वभाव था।उनका भोजन छीनकर खा जाना,जेब से पैसे निकाल लेना, उनकी नई-नई कापियों-पुस्तकों पर अपना नाम लिखकर अधिपत्य जमा लेना, किसी से शिकायत करने पर उनके साथ मारपीट करना उसकी प्रवृत्ति में सम्मिलित था। और शिक्षकों पर उपहासात्मक कटाक्ष करने में तो उसे विचित्र सी आनन्दानुभूति होती थी।

     लेकिन एक दिन विद्यालय परिधि के बाहर प्रताप कुछ छात्रों को कुक्कुट बनाकर उत्पीड़न करते हुए प्रधानाचार्य जी की सजग दृष्टि में कैद हो गया। तत्काल उन्होंने उसे व उसके नगराध्यक्ष पिता को अपने कार्यालय में बुलाकर पहले तो स्नेहसिक्त वाणी में समझाया और फिर कठोर शब्दों में चेतावनी भी दे डाली –'विद्यालय का अनुशासन भंग करने का परिणाम होगा विद्यालय से निष्कासन…इसलिए अच्छी तरह समझ लीजिए कि आज के बाद कोई भी अनुशासनहीनता स्वीकार नहीं होगी। और यह भी आप लोगों को पता होना चाहिए कि नवीनचंद्र पांडे पर किसी भी तरह का कोई दबाव प्रभावी नहीं होता…अब आप लोग जा सकते हैं।'

     पिता ने तो हाथ जोड़कर पुत्र के कुकृत्यों की क्षमा उनसे विनम्र स्वर में मांग भी ली किंतु प्रताप गर्दन झुकाए बिना कुछ बोले, बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए शांत भाव से बाहर निकल गया।मानो प्रधानाचार्य जी की चेतावनी का उस पर लेशमात्र भी प्रभाव न पड़ा हो।

    और फिर अगले दिन से ही वह सहपाठियों का पीछा छोड़कर प्रधानाचार्य जी के पीछे हाथ धोकर पड़ गया…

     निरीक्षण के उद्देश्य से प्रधानाचार्य जी नियमित रूप से किसी न किसी कक्षा की कोई न कोई बेला स्वयं निर्देषित करते थे। प्रताप उसी बेला में उनके साथ कोई न कोई हास्यास्पद् कृत्य कर देता था…कभी कागज की गेंद बनाकर उनकी दृष्टि बचाकर उनके सिर पर दे मारता, कभी उनकी कुर्सी पर कोलतार चिपका देता…वे बैठते तो चिपके रह जाते, कभी उनकी कुर्सी के पाये तले पटाखा रख देता…वे बैठते तो तड़ाक से फूट पड़ता।कभी उनकी पीठ पर धूर्त मक्कार लिखा कागज चिपका देता…वे जिधर को भी निकलते हंसी के फव्वारे फूट पड़ते। शरारती का नाम उजागर करने के लिए पूरी कक्षा की पिटाई होती। पर प्रताप के आतंक से कोई भी उसका नाम बताकर नहीं देता। सबके होंठ ऐसे सिल जाते जैसे कभी खुलेंगे ही नहीं।

     किंतु उस दिन प्रताप उनकी सतर्क निगाहों से बचा न रह सका,जब उसने प्रार्थना सभा में सोडियम के टुकड़े उछाल दिए।वायु का संपर्क होते ही वे जलकर छात्रों पर गिरे तो पूरी सभा में भगदड़ मच गई। प्रधानाचार्य जी ने तत्काल उसे विद्यालय से निष्कासित कर निष्कासन पत्र उसके पिता को भेज दिया।

     परंतु पता नहीं वह किस मिट्टी का बना था कि निष्कासन से भी लेशमात्र भयभीत नहीं हुआ। अपितु विद्यालय के अनुसूचित व दलित छात्रों को एकजुट कर उकसाने लगा –'अनुसूचित जाति का कमजोर व कुचला हुआ समझकर यह अत्याचार मुझ पर किया जा रहा है। अरे आज मुझे इस विद्यालय से निकाला जा रहा है,कल तुम सब दलितों को भी एक-एक कर बाहर कर दिया जाएगा। ताकि इस विद्यालय पर सवर्णों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो सके। लेकिन यदि आप सब मेरा साथ दोगे तो दबे कुचले लोगों के प्रति यह तानाशाही मैं कभी चलने नहीं दूंगा।सारे दलितों की फीस माफ कराकर रहूंगा। और आप सभी को परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराना भी मेरा दायित्व रहेगा। यह एक अकेले प्रताप की लड़ाई नहीं अपितु दलितों व सवर्णों के बीच की लड़ाई का आरंभ है।'

     फिर क्या था, फिर तो सभी ने समवेत स्वर में क्रांति का बिगुल बजा दिया –'प्रताप भैया! तुम संघर्ष करो!हम तुम्हारे साथ हैं…हमारा नेता कैसा हो?... प्रताप भैया जैसा हो!...जो हमसे टकराएगा!...चूर चूर हो जाएगा!'

     और अगले दिन ही विद्यालय के मुख्य द्वार पर प्रताप के नेतृत्व में धरना प्रदर्शन आरंभ कर दिया गया। प्रधानाचार्य जी के विरोध में दलितों का स्वर मुखर हो गया –'नवीनचंद्र पांडे हाय-हाय!...हाय-हाय।… प्रधानाचार्य! मुर्दाबाद…मुर्दाबाद!'

     प्रधानाचार्य जी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो मानो उनमें तो प्रबल ऊर्जा का संचार हो गया –'पहले निष्कासन वापस, फिर कोई और बात!' कई छात्र तो उनके साथ अभद्रता पर उतारू हो गए।विवश होकर उन्हें पुलिस की सहायता लेनी पड़ी। पुलिस की फटकार से समस्त आंदोलनरत छात्र मधुमक्खियों की तरह तितर- बितर हो गये।

     हर कूल कंगारे को झिंझोड़ता हुआ यह समाचार नगर में हर ओर फैल गया कि जिस शिक्षा के मंदिर में कभी पुलिस के सिपाही की छाया तक नहीं पड़ी थी वहां की व्यवस्था में पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।

     विद्यालय प्रबंधन समिति की आपात सभा बुलाई गई। और उसमें प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अकर्मण्यता, विवेकहीनता, अकुशलता व विद्यालय परिसर में पुलिस बल के कदमों की घोर भर्त्सना की गई। तथा उन्हें   अपमानित व लांछित भी किया गया। इस अपमानदंश पर नवीनचंद्र पांडे बुरी तरह तिलमिलाकर रह गये…लगा जैसे संपूर्ण व्यक्तित्व सुलग रहा हो।

     उधर प्रताप की अनुशासनहीनता को दंडित करने के उद्देश्य से अगली प्रार्थना सभा में प्रबंधक द्वारा उससे प्रधानाचार्य जी के चरण स्पर्श कराकर क्षमायाचना कराई गई तथा दंडस्वरूप उसके हाथों पर प्रधानाचार्य जी द्वारा बेंत प्रहार भी कराया गया।

     और फिर अप्रत्याशित व अकल्पित रूप से वह घटित हो गया था जिसने उनकी समूची संयम शक्ति को पूर्ण वेग से झिंझोड़ डाला था…उनके व्यक्तित्व को झकझोरकर रख दिया था।…विद्यालय के अवकाश के उपरांत ज्यों ही वे मुख्य द्वार से बाहर निकले, प्रताप कहीं से घात लगाए चीते की तरह चपल गति से प्रकट हुआ और उनका कालर पकड़कर एक झन्नाटेदार तमाचा उनके गाल पर मारता हुआ बोला –'पांडे! प्रताप आज तक किसी के सामने नहीं झुका तो तुझसे कैसे पराजित हो सकता है?आज से ध्यान रखना! मुझसे टकराने की कोशिश मत करना कभी वरना तेरे लिए परिणाम अच्छा नहीं होगा।'

     पलार्द्ध भर को अवसन्न रह गया नवीनचंद्र पांडे का भावप्रधान मस्तिष्क…किंतु अगले ही पल उनमें न जाने कहां से ऐसी शक्ति ऐसा साहस उत्पन्न हो गया कि विद्युत गति से उन्होंने उसे लात घूंसो से बुरी तरह धुन दिया। हांफते हुए से बोले–'प्रताप याद रखना!मेरा नाम नवीनचंद्र पांडे है। सिद्धांतों का धनी हूं इसलिए कभी किसी से पराजित नहीं होता। तुम जैसे गुंडों को सुधारना मेरा बांए हाथ का खेल है। लेकिन जो कुछ आज हुआ वह मैं करना नहीं चाहता था। इससे विद्यालय की भी गरिमा धूमिल हुई तथा मेरी भी …और यदि तूने अपना यह धृष्टाचरण नहीं सुधारा तो जिंदगी में तू कभी कुछ नहीं बन सकता।…मेरा क्या है मुझे तो यह नहीं तो कोई और विद्यालय अपना ही लेगा। इसलिए मैं स्वयं इस विद्यालय को त्यागकर जा रहा हूं।यह निर्णय कल ही मैंने उस समय ले लिया था जब प्रबंधनतंत्र ने मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने की चेष्टा की थी…लेकिन यह तुझे भविष्य बताएगा कि पराजय मेरी हुई या तेरी?'

     और उसी समय उन्होंने प्रबंधनतंत्र को अपना त्यागपत्र भिजवाया तथा वहां से विदा ली।

     चूंकि उनकी सुघड़ कार्य शैली की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थी अतएव उपप्रधानाचार्य के अवलंबन पर चल रहे सरस्वती माध्यमिक विद्यालय धर्मपुर ने तत्काल उन्हें प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त कर विद्यालय की डोर पूर्णतया इस अनुबंध के साथ उनके हाथों में सौंप दी कि परिणाम शत-प्रतिशत मिलना चाहिए, शैक्षिक स्तर शिखर को स्पर्श करना चाहिए, विद्यालय की दुंदुभी चहुंओर बजनी चाहिए।

     सर्वप्रथम आत्ममंथन, फिर व्यवस्थाओं का अवलोकन और तत्पश्चात् तदनुरूप क्रियान्वयन शैली अपनाते हुए उन्होंने विभेदक दृष्टि से विद्यार्थियों का निरीक्षण किया, उनकी नसों पर हाथ रखा, अभिभावकों की सभा आयोजित कर उन्हें विश्वास में लिया, अपने उद्देश्य, लक्ष्य व कार्यप्रणाली के विषय में विस्तार से चर्चा की, शिक्षकों से बंधुत्व भाव बनाए रखने का आग्रह किया, छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदान कर विद्यालय में पारिवारिक वातावरण उत्पन्न किया, छात्रों व शिक्षकों को उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया।…

     और मनोयोगपूर्वक किये गये अथक परिश्रम, ध्येय के प्रति अटूट निष्ठा,लगन, सुनियोजित क्रियात्मक योग, त्यागी वृत्ति, स्नेहिल आचरण, विलक्षण कार्यक्षमता व अनुपम शैली ने अपना रंग दिखाया तो विद्यालय का नाम प्रदेश भर में विख्यात् होने के साथ-साथ ही प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे का अद्भुत प्रेरणास्पद् व्यक्तित्व शिक्षा जगत में एक किंवदंती बन गया।……

     *शिक्षामंत्री* अनुज प्रताप सिंह!... जिंदाबाद… जिंदाबाद!...समूचा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजा तो अतीत का वह तिक्त कषाय कालखंड वायु के पत्तों पर आरूढ़ हो अनंत में कहीं जाकर शून्य में विलीन हो गया। चैतन्य होकर उन्होंने चहुंओर दृष्टिपात् किया तो मंच पर ध्वनि विस्तारक के समक्ष खड़े मंत्री जी उन्हें ही लक्ष्य कर संबोधित कर रहे थे –"देखिए!समय का चक्र किस प्रकार घूमता और सबको घुमाता है…आज मैं जिन नवीनचंद्र पांडे को पुरस्कृत करने आया हूं वे कभी मेरे कालेज में प्रधानाचार्य हुआ करते थे। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था कि तू जिंदगी में कभी कुछ नहीं बन सकता,न कभी मुझसे जीत सकता है। लेकिन आज आप देख ही रहे हैं कि उनके कालेज का वह आवारा गुंडा, अनुसूचित जाति का दबा कुचला छात्र,जिसे पांडे ने छोटी सी बात पर विद्यालय से निष्कासित कर दिया था आज आपके सामने एक लोकप्रिय मंत्री के रूप में खड़ा है। जबकि पांडे पहले भी प्रधानाचार्य थे और आज भी प्रधानाचार्य हैं। उन्नति के सोपान पर एक कदम भी तो नहीं चढ़ सके…काल विडंबना का इससे सशक्त उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिन हाथों पर उन्होंने कभी बेंत प्रहार किए थे,वही आज उन्हें पुरस्कृत करने जा रहे हैं।"                                                                                        पलांशभर को ठिठके मंत्री जी और फिर खुरदरे स्याह होंठों पर कुटिल मुस्कान लाते हुए बोले–" तो मैं प्रधानाचार्य पांडे को अपने हाथों से पुरस्कार देने के लिए मंच पर बुलाना चाहूंगा…शीघ्र आ जाएं क्योंकि अभी मुझे कार्यकर्ताओं की मीटिंग भी लेनी है।"

     भारी और बोझिल कदमों से नवीनचंद्र पांडे मंच पर चढ़े और माइक के सामने बिना किसी औपचारिकता के प्रारंभ हो गये–"ऐसा प्रतीत होता है कि माननीय मंत्री जी मुझे पुरस्कृत करने की ओट में अपने हृदय में बरसों से बंधी हुई ग्रंथि खोलने आये हैं…लेकिन वे बहुत बड़े भ्रम का शिकार हैं।या तो वे अभी तक नवीनचंद्र पांडे को समझ नहीं पाए हैं या फिर न समझने का अभिनय कर रहे हैं। पांडे मंत्री जी जैसा वृहदाकार अस्तित्व नहीं है। वह ऐसा लघुतर अस्तित्व वाला दीपक है जिसकी प्रज्वलित की हुई ज्योति में अब तक अगणित चिकित्सक, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश व शिक्षाविद् प्रकाशित हो चुके हैं। और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकाश फैला रहे हैं। इस अस्तित्व विहीन पांडे के शिक्षा मंदिर से अनेक प्रतिभाएं उदित हुई हैं। लेकिन क्या हमारे सम्मानित मंत्री जी बता सकते हैं कि उनके कौशल से कितनी प्रतिभाओं का विकास हो सका है?...रही बात पुरस्कार की, तो स्वाभिमान आहत करके जो पुरस्कार दिया जाता है उसकी कोई महत्ता नहीं रह जाती। ऐसे पुरस्कार की कोई गुणवत्ता नहीं होती। आज राजनीति में पुरस्कार तो रह गया है परंतु सम्मान व वास्तविक कार्यक्षेत्र नहीं रह गया है। पुरस्कार देना राजनीतिज्ञों के लिए बहुत सरल है। इससे उनकी सदाशयता प्रदर्शित होती है, लोकप्रियता बढ़ती है, क्षेत्र में महत्ता बढ़ती है।"…

     निमेषभर को रुककर उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर बोले–"मेरे विद्यार्थियों ने, शिक्षकों ने, अभिभावकों ने व इस क्षेत्र की जनता ने अपने प्रेम, प्यार, सम्मान व शुभकामनाओं से मुझे एक बार नहीं अनेक बार पुरस्कृत किया है।आजन्म ऋणी रहूंगा मैं उनके इस भावनात्मक अभिनंदन का।अतएव मुझे माननीय मंत्री जी के पुरस्कार की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उनका पुरस्कार अस्वीकार करता हूं। माननीय मंत्री महोदय का बहुत-बहुत धन्यवाद।"

     प्रधानाचार्य जी मंच से उतरकर सभागार से भी बाहर निकल गये। जबकि हाथों में प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, धनराशि का अनुदेश पत्र व शाल थामें मंत्री जी पाषाण प्रतिमा बने उनके जाने की दिशा में एकटक निहारते -निहारते न जाने किस लोक का विचरण करने निकल गये।

     शायद यह एहसास उन्हें कहीं भीतर तक कचोट गया था कि प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे ने उन्हें एक बार पुनः पराजित कर दिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

मो.9411012039

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