" पापा हमें छोड़कर चले गये... हमेशा हमेशा के लिए।" यह हृदय विघातक समाचार कानों में पड़ा तो मैं अवसन्न रह गयी...अब मां का क्या होगा?... वह तो जीते-जी मर जाएगी। मां तो जीवित ही पापा के सहारे थी... जैसे आकाश बेल हो; जो परजीवी के रूप में वृक्ष का आश्रय लेकर ही जिन्दा रह सकती है...वृक्ष का अस्तित्व मिटते ही स्वयं उसका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर वह ऐसी शुष्क लता में परिणत हो जाती है जिसका जीवनीय तत्व किसी ने सोख लिया हो... और जीवनहीन कर डाला हो।
पापा जी भी मां के लिए वृक्ष समान ही थे जो उसे जीवनीय तत्वों की ऊर्जा प्रदान कर रहे थे, प्राणों का संचार कर रहे थे, सांसों को ऊष्मा दे रहे थे, शिराओं में रक्त बनकर बह रहे थे और धमनियों में रक्त प्रवाह को गतिवान बना रहे थे।
न जाने कितने-कितने रूप थे पापा के; जो मेरे अवचेतन में रच बस गये थे। उनके सहसा चले जाने का आकस्मिक समाचार सुना तो यकायक ही वे रूप मेरे नेत्रपटलों पर जीवंत होकर किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……
*स्नातकोत्तर* महाविद्यालय में प्राचार्य पद को सुशोभित कर रहे थे वे उन दिनों जब मैं किशोर वय: की दहलीज को कुलांचे भरकर पार कर रही थी। अनुशासन व स्वच्छता प्रिय पापा की नासिका के अग्रभाग पर क्रोध ऐसे रखा रहता था जैसे चश्मा हो। महाविद्यालय में क्या दु:साहस किसी का कि उनके बनाए सिद्धांतों के परिपालन में लेशमात्र भी चूक हो सके। विद्यालय के सुविस्तृत परिसर में उनके आने की आहट मात्र से उद्दंडी विद्यार्थियों के समूह ऐसे तितर-बितर हो जाते जैसे शेर के आने से हिरणों का समूह पलांश भर में ही सुरक्षित स्थानों पर जाकर छिप जाता है। आंखों पर जंजीर वाला चश्मा लगाए तथा हाथ में पीतल के मूठ वाली छड़ी झुलाते हुए परिसर में प्रवेश करते ही वे सरसरा सा दृष्टिपात चारों ओर करते और कर्मचारियों पर बरस पड़ते... वह कागज़ का टुकड़ा बाहर क्यों पड़ा है?...वो पीले गुलाब वाला गमला पंक्ति से बाहर क्यों?...उस मयूरपंखी की छंटाई क्यों नहीं हुई?... उस टोंटी से पानी क्यों टपक रहा है?...जल के मूल्य को नहीं पहचानते क्या?... और वो उधर देखिए! उस बरामदे में बल्ब दिन के उजाले में भी जल रहा है?... आखिर राष्ट्रहित में ऊर्जा संरक्षण तुम किस दिन सीखोगे?... और वह कौन छात्र है जो निर्धारित समय से पांच मिनट विलंब से विद्यालय आने की धृष्टता कर रहा है? उसे मुख्य द्वार पर ही क्यों नहीं रोका गया? यदि सभी छात्र इसी तरह से दस-पांच मिनट विलंब से आने लगे तो अनुशासन की सारी ही व्यवस्था बिगड़ नहीं जाएगी क्या?...
सारे कर्मचारी भृकुटि मात्र के संकेत पर इधर से उधर दौड़ जाते और उनका मन्तव्य पूर्ण करके ही चैन की सांस लेते।
किंतु घर में घुसते ही पापा वह शीतल बयार बन जाते जो हल्के झोंके से ही घर का कोना-कोना महका देती है... 'हमारी प्यारी प्यारी बिटिया कहां गयी? अभी कालेज से नहीं लौटी क्या?...और वह हमारा प्यारा बेटा, खेलने निकल गया या स्टडी रूम में घुसा है?' उनके मृदुल स्नेह की गंध पाते ही बेटी-बेटा दोनों दौड़कर उनसे लिपट पड़ते--'पापा हमारे लिए क्या लाये हैं? मैंने लैदर वाली फाइल लाने को कहा था; और भैया कई दिनों से रिस्टवाच की मांग कर रहा है। कब लाएंगे?'
'ओह! आयम सॉरी! आज बिल्कुल भी वक्त नहीं मिला। कल जरूर ले आऊंगा।' वे दोनों के कपोलों पर एक-एक प्यार भरा स्पर्श कर मां की ओर बढ़ जाते। मां आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरते हुए स्वागत सत्कार को तत्पर रहती-- 'इन्हें घर के लोगों के लिए वक्त कहां है। कालेज के चमचों से फुरसत मिले तभी तो घर के कुछ काम करें। कितनी बार कह दिया कि जल्दी घर आया करो। कुछ काम भी निपटें। पर ये तो देर से ही इतनी आएंगे कि मेरे साथ कहीं जाना न पड़ जाए; या घर के किसी कामकाज को हाथ न लगाना पड़ जाए। महीने भर से कह रही हूं कि सामने वाली जाटनी गले में जैसा नैकलेश पहन रही है वैसा मैं भी लाऊंगी। पर इन्हें तो मेरे लिए कभी वक्त मिलेगा नहीं। भाग फूट गये मेरे जो ऐसे आदमी के साथ बांध दी गयी जिसने कभी औरत के अरमानों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की।'
पल भर बाद ही उन आग्नेय नेत्रों से जलधार प्रवाहित होने लगती जैसे पति के उपेक्षित आचरण से उसे कितनी पीड़ा पंहुची हो...गरज-बरस के छींटों से घर में तूफान सा आ जाता।
पापा शीतल, सुगंधित समीर थे तो मां दहकता अंगार थी। जो शीतल समीर के हल्के झोंके से भी अग्नि की लपलपाती लपटों में परिणत हो जाता था। पापा बड़ा संभल-संभलकर आचरण करते, संतुलित वाणी का प्रयोग करते, मां के मर्मवेधक विषाक्त तंजों को भी मुस्कराकर परिहास भाव में उड़ा देते। तब तो अग्नि की लपटें और भी तीव्रता से भड़क उठतीं-- 'हर बात को ऐसे हंसी में उड़ाकर काम नहीं चलने वाला। पर तुम्हें किसी के दुःख दर्द से क्या, तुम्हें तो हर समय मजाक उड़ाना ही सूझता है। जिस दिन न रहूंगी सब आटे दाल का भाव पता चल जाएगा। अभी तो सब करा कराया मिल रहा है न। तभी तो कुछ महसूस नहीं हो रहा।'
'और यदि मैं ही न रहा तब?' मुंह मोड़कर वे हंस पड़ते।
'तो धीरज धर लूंगी। किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता।' अग्नि की लपटें किसी भी तरह बुझने को तैयार न होतीं।
पापा की नसों में एक ऐसा सांस्कृतिक तत्व दौड़ता था जो हर किसी को अपना बना लेने की क्षमता रखता था। हर किसी के सहयोग के लिए वे हमेशा तत्पर रहते। परोपकार और धर्मार्थ कार्यों से उनके चित्त को अद्भुत शान्ति मिलती थी।
मां उनकी इस सात्विक वृत्ति की भी घोर विरोधी थी। जब भी मां को उनके किसी का भी कार्य निपटाकर लौटने की भनक लगती; वह उन पर भड़क पड़ती-- 'घर के काम काज निपटाने को तो तुम्हें वक्त मिलता नहीं; बाहर वालों के लिए कहां से निकल आता है? वे ही तुम्हारे सगे हैं तो उन्हीं के पास जाकर रहो। घर लौटने की जरूरत ही क्या है? मैं होती ही कौन हूं तुमसे किसी काम को कहने वाली? पहले पता होता कि ऐसे निष्ठुर आदमी के साथ ब्याही जा रही हूं तो कभी साथ न आती। मेरे तो भाग फूट गये…मेरे माता-पिता ने घोर अन्याय किया मेरे साथ।'
सिद्धांत धनी व व्यवस्था प्रेमी पापा घर में अस्त व्यस्तता देखकर शान्त नहीं रह पाते थे-- 'ये गन्दे पात्र डाइनिंग टेबल पर क्यों रखे हैं? इन्हें तो किचन के सिंक में होना चाहिए था... और इन कुर्सियों पर धूल क्यों जमी है? आज घर में सफाई नहीं हुई क्या?...इस बिस्तर की चादर पर सिलवटें क्यों?...आंगन में चिड़िया विष्ठा कर गयी है तो उसे साफ नहीं किया जा सकता था क्या?... यह घर गन्दा कितना रहने लगा जैसे इसमें कोई रहता ही न हो... जैसे सारे लोग आलसी हो गये हों।'
मां भी भला क्यों चुप रहने वाली थी-- 'सफाई का इतना ही शौक है तो खुद कर लिया करो! या फिर नौकरानी रख लो! देखूंगी कितनी सफाई होती है? दिन भर मरते-खपते भी रहो और जली कटी भी सुनते रहो। कालेज में तो कहीं कुछ वश चलता नहीं; घर में गुस्सा उतारना शुरू कर देंगे। यह तो पूछने की जरूरत है नहीं कि तबीयत कैसी है? सुबह से दर्द के कारण सिर फटा जा रहा है। घर में घुसते ही चीखना चिल्लाना शुरू, जैसे कंजर हों। साफ-साफ बताए देती हूं कि न तो मैं घर की सफाई करुंगी, न ही बरतनों को हाथ लगाऊंगी। या तो खुद करो या नौकर रखो!…'
मां का सतत प्रवाहमान ओजस्वी भाषण समाप्त नहीं होता तो वे चुपके से बाहर निकल जाते...न घर में रहेंगे, न कानों में मिर्ची जैसे तीक्ष्ण शब्द पड़ेंगे।
अगले ही दिन से एक महिला बरतन मांजने व पूरे घर की स्वच्छता करने आने लगी थी।
मां ने उस महिला को लेकर भी संग्राम किया था कि इन कार्यों के लिए वैतनिक महिला को रखने की क्या जरूरत थी? कालेज के चपरासियों से काम नहीं लिया जा सकता क्या? पैसे कहीं किसी पेड़ से तो टपक नहीं रहे कि कहीं भी बांट दो।
सात्विक प्रवृत्ति के पापा को सात्विक आहार ही प्रिय था। जबकि मां को तीक्ष्ण मिर्च मसालेदार, तैलीय, चटपटा स्वादिष्ट भोजन व भांति-भांति के तामसिक व्यंजन पसंद थे। मां की दिन-प्रतिदिन थुलथुली काया को देखकर वे कुढ़ते भी रहते और चिंतित भी रहते। तभी तो जब भी कभी वे मां को आलू की टिकिया, गोलगप्पे व समोसे जैसी बाजारू चीजें चटखारे ले-लेकर खाते देखते तो कटाक्ष किए बिना नहीं रह पाते-- 'क्यों इस छोटी सी जीभ के लोभ में तुम अनेकों बीमारियों को आमंत्रण देने पर तुली बैठी हो? प्रतिदिन शरीर पर चरबी की परतें चढ़ती चली जा रही हैं। ब्लड प्रेशर भी ज्यादा रहने लगा है।'
'हां-हां तुम तो चाहते ही हो कि मेरा शरीर रोगों की खान बन जाए।' बस संग्राम शुरू-- 'ताकि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। इतने दिनों से कहती आ रही हूं कि किसी अच्छे से डाक्टर से मेरा चैकप करा दो! हर वक्त मेरी सांस फूली रहती है और सिर में भी तनाव बना रहता है। पर तुम्हें मेरे लिए तो वक्त तब मिले जब बाहर वालों की जी हुजूरी से फुरसत मिले। क्योंकि काम तो बाहर वाले ही आएंगे। मैं तो फालतू की चीज हूं। जबसे इस घर में आयी हूं तब से कभी दो पल चैन के नसीब न हुए। मेरे तो भाग फूट गये।'
वे मां को डाक्टर के पास ले गये। तमाम सारे परीक्षण हुए तो उनकी देह में छिपी बैठीं मधुमेह, उच्च रक्तचाप, वातरक्त जैसी कुछ असाध्य बीमारियों का पता चला। डाक्टर द्वारा प्रातः-सायं के भ्रमण के साथ-साथ सामान्य उबले भोजन का कठोर निर्देश देते हुए चेतावनी भी दे दी गयी कि यदि सावधानी न बरती गयी तो कुछ भी हो सकता है।
किंतु मां ने डाक्टर के निर्देशों का कभी गम्भीरता से पालन नहीं किया। देर से सोकर उठना, उठते ही कड़क चाय लेना, फिर देर तक शौचालय में बैठे रहना उसकी दिनचर्या में था। पथ्य का भोजन भी मां ने कभी नहीं लिया। पापा भृकुटि वक्र करते तो उनके मुंह खोलने से पहले ही मां प्रारंभ हो जाती-- 'आंखें लाल-पीली करने की कोई जरूरत नहीं। मुझे मरना स्वीकार है पर मैं अपने स्वाद की चीजें नहीं छोड़ सकती।'
इस प्रकार गृह संग्राम को न रुकना था न रुक सका। पापा के सारे प्रयास निष्फल निष्प्रयोज्य सिद्ध होते चले गये। वे कसमसाकर रह गये और भीतर ही भीतर तिलमिलाकर भी। कुछ भी न कर सक पाने का असामर्थ्यबोध उन्हें व्यग्र और व्यथित कर गया।
आखिर वही हुआ जिसकी उन्हें पहले से सम्भावना थी... एक शाम को मां किसी जन्मदिवस की पार्टी से छोले भटूरे और जलेबी खाकर लौटी तो सिर को कसकर पकड़े थी। उसके हृत्प्रदेश में भी भारीपन महसूस हो रहा था। न लेटकर चैन मिल पा रहा था न बैठकर।
देर रात को पापा कालेज की व्यवस्था संबंधी किसी मीटिंग से घर लौटे तो मां की स्थिति देख बहुत परेशान हुए। मां सिर की वेदना से छटपटा रही थी। और नासारंध्रों से रक्त स्राव होकर वस्त्रों को भिगो रहा था।
'बचाना है तो बचा लो मुझे!' मां ने बस इतना कहा और संज्ञा शून्य हो गयी।
हतचित्त पापा समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें क्या न करें? कभी नब्ज टटोलते, कभी नासिका के सामने हथेली रखकर अनुमान लगाने का प्रयास करते कि सांस चल भी रही है अथवा नहीं? कभी हृत्प्रदेश पर हथेली रखकर धड़कनों का अनुमान लगाने लगते। उनकी आंखें भर आयी थीं...अश्रु तटबंध तोड़कर बाहर छलकने को आतुर... जिन्हें उन्होंने बलात सोख लिया और मां के दोनों हाथ पकड़कर झिंझोड़ दिया-- 'उठो ना! बताओ क्या परेशानी है?...उठती क्यों नहीं हो?... कुछ बोलो तो!... कुछ बोलती क्यों नहीं हो?'
किंतु मां नहीं उठी, न ही बोली। उठती बोलती तो तभी जब उसमें संज्ञा होती... वह तो जैसे प्रगाढ़ निद्रा में सोयी पड़ी थी... वेदना शून्य सी...निश्चल नि:स्पंद सी।
कभी कोई भार न उठाने वाले पापा में यकायक न जाने कहां से इतनी शक्ति आ समायी कि उन्होंने भारी वजन वाली मां को दोनों बाहों में उठाया और घर के बाहर खड़ी गाड़ी में लिटाकर रात में ही अस्पताल ले गये।
'आपने बहुत अच्छा किया जो रात में ही अस्पताल ले आये, नहीं तो कुछ भी अनिष्ट हो सकता था।' डाक्टर ने निरीक्षण परीक्षण के उपरांत पापा के प्रयास की सराहना की तो उन्होंने डाक्टर के पैर पकड़ लिये-- 'डाक्साब! चाहे मेरे शरीर से रक्त की एक-एक बूंद निचोड़ लीजिए! पर इसे बचा लीजिए! यह मेरी सांस है, मेरी जिंदगी है, मेरा प्राण है। यूं समझ लीजिए कि इसके बिना मैं बिखरकर रह जाऊंगा।'
मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ था; उसी का थक्का कहीं जम गया था। शल्य चिकित्सकों की टीम ने रातोंरात शल्य क्रिया करके रक्त के थक्के को बाहर निकाल रक्त प्रवाह व आक्सीजन के संचार को सुचारु किया।
संज्ञाशून्यता की स्थिति से उबरने में मां को पूरे पांच दिन लगे थे। तब तक पापा के कण्ठ में न तो एक ग्रास अन्न का उतरा और न ही कोई पेय पदार्थ। न ही वे वहां से एक पल के लिए भी दूर हुए। जब देखो तब मां के हाथ पैरों का मर्दन करते रहते। कभी भी उसकी देह को झिंझोड़ देते-- 'उठो ना! आंखें खोलो! देखो तुम कहां हो?' कभी भी समाधि की मुद्रा में नेत्रोन्मीलित हो हाथ जोड़कर बुदबुदाने लगते-- 'रक्षा करो प्रभु! मेरे जीवनाधार की रक्षा करो!'
डाक्टर आते तो उनके पैर पकड़ लेते-- 'बच तो जाएगी न?... कितने प्रतिशत आशा है?'
एक बार तो वरिष्ठ चिकित्सक ने शिष्ट भाषा में उन्हें झिड़क ही दिया था-- 'गुरुजी आप इतने बड़े कालेज के प्राचार्य हैं कि हजारों छात्र आपके पैर छूते हैं, हमारे पैर छूकर हमें शर्मिंदा मत कीजिए! हम पूर्ण प्रयास कर रहे हैं बचाने का। आशा भी पूरी-पूरी है। पर दायां हाथ पैर निष्क्रिय बने रहने की पूरी-पूरी संभावना है।'
अश्रुओं से डबडबाई आंखों में हल्की सी चमक दौड़ गयी थी-- 'कोई बात नहीं डाक्साब! इसका हाथ भी मैं बन जाऊंगा और पैर की बैशाखी भी।'
और जिस दिन मां ने आंखें खोलीं; पापा खुशी से ऐसे उछल पड़े थे मानों कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त हो गयी हो-- 'बेटी निरुपमा! देखो तुम्हारी मां ने आंखें खोल दी हैं। और अभिषेक को भी बता दो कि वह होश में आ गयी है। शायद अब हम जल्दी घर लौट सकें।'
घर लौटने तक पापा इतने कृशकाय हो गये थे जैसे बीमार मां न होकर स्वयं वही हों... आंखें सूजकर लाल; मानों एकांत मिलने पर रोते रहे हों। आहार इतना अल्प मानों केवल जीने भर के लिए खा रहे हों।
घर आते ही मां की संपूर्ण व्यवस्थाएं उन्होंने अपने कमजोर कन्धों पर लाद ली थीं। मां तो आकाश बेल की तरह पूर्णतया परजीवी होकर रह गयी थी। उसके अपने वश में तो कुछ रह ही नहीं गया था। मल-मूत्र तक पापा कराते थे। किसी यान्त्रिक मशीन की तरह पापा सुबह से देर रात तक मां की सेवा सुश्रुषा में लगे रहते। मधुमेहग्रस्त होने के कारण मां को प्यास ज्यादा लगती तो हर घण्टे पानी पिलाते, समय पर औषधियां खिलाते, थोड़ी-थोड़ी देर में दूध, चाय, उबली दाल, दलिया,सूप,पनीर,फलरस आदि पिलाते। निष्क्रिय हाथ पैर पर अभ्यंग करते, फिर पूरी देह का उष्ण जल से प्रक्षालन करते, शैया व्रणों की ड्रेसिंग करते, अपने कन्धों पर लादकर चलाने का प्रयास करते।
इन्हीं व्यस्तताओं के मध्य समय निकालकर दौड़ते भागते कालेज की औपचारिकताएं पूर्ण करके आते। पर अपने लिए समय तब भी नहीं निकाल पाते। कब सोते; कब उठते किसी को कुछ पता नहीं चल पाता? रात को जब मां की झपकी लगती तब वे अपने कक्ष में पहुंचते। और भीतर से कपाट बंद कर न जाने किस उधेड़बुन में लग जाते? पता नहीं क्यों उस कक्ष का ताला लगा चाबी हर समय अपने नाड़े में बांधकर रखते?
मां की जरा सी आहट पर दौड़कर वे उसके समीप पहुंचते और हाथ पैर मलने लगते। फिर बैठे-बैठे वहीं सो जाते।
जब कभी मां ज्यादा भावाभिभूत हो जाती तो बायें हाथ से उनका पैर स्पर्श कर कहती-- 'मेरे भगवान तो तुम्हीं हो!'
पापा हैरत के साथ हंस पड़ते-- 'यह मैं क्या देख रहा हूं? दहकता अंगार बुझे कोयले में परिणत हो रहा है? आज पैर छूने की कैसे याद आ गयी? जिंदगी भर तो कभी छुए नहीं; हमेशा मुझसे लड़ती रहीं और आज मैं भगवान हो गया?'
मां भी पहले तो तिरछे मुंह से हल्की सी मुस्कराती, फिर गंभीर हो जाती-- 'अब तक तुम्हें पहचान न पायी थी। अब जाकर पहचानी हूं कि मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई नहीं। मैं तो जिन्दा ही तुम्हारे सहारे हूं।'
कैसी साधना थी वह पापा की, जिसमें अपने सुख के लिए कोई स्थान नहीं था। दिन रात मां के लिए जुटे रहना... बस किसी तरह वह रोग से मुक्ति पा जाए… जैसे दीपक दूसरों के जीवनांगन में उजियारा करने के लिए स्वयं तिल-तिल जलता रहता है; वैसे ही पापा भी मां के लिए तिल-तिल जल रहे थे।
उनकी साधना के प्रतिफल स्वरूप मां शनै:-शनै: आरोग्यता की ओर बढ़ने लगी थी।
शरीर स्वस्थ हुआ तो बुझे कोयले फिर से दहकने लगे। मां का बुझा स्वर फिर से उग्र होने लगा। पापा से वह बात-बात पर फिर झगड़ने लगी-- 'मुझे चैन से जीने मत देना, भूखा मार डालो मुझे! ये उबली दाल सब्जियां मेरे गले से नीचे नहीं उतरतीं। पर तुमने तो हमेशा यही चाहा है कि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। मुझे कुछ खाने दोगे या नहीं?'
बात आगे न बढ़े इसलिए वे बिना कोई प्रत्युत्तर दिये अपने कक्ष में जाकर लेट जाते।
परंतु उसे इतने पर भी चैन कहां था, जोर से आवाज लगाती-- 'इधर सुनों! ऐसा करो! पनीर का पकोड़ा मुझे नुकसान देगा तो नमक मिर्च मिलाकर पनीर का परांठा ही बनाकर ले आओ!... और एक कड़क पत्ती की चाय...पेट तो किसी तरह भरना ही है, भूखे पेट मेरी अन्तड़ियां कुलबुलाने लगती हैं।'
मां के चेहरे की चमक दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। परंतु न जाने क्यों पापा निरंतर क्षीण होते जा रहे थे। चेहरे का तेज व लालिमा लुप्त होती जा रही थी। हड्डियों का मांस पता नहीं कहां गायब होता जा रहा था? न ढंग से भूख लगती, न नींद आती। मुंह से कभी भी कराह सी निकल पड़ती; जैसे शरीर में कहीं वेदना हो रही हो।
मां तब भी तंज कसने से नहीं चूकती-- 'इतना सब खा पी रहे हो वह सब जा कहां रहा है? दिन प्रतिदिन सूखते चले जा रहे हो? किसी डाक्टर से चैकप क्यों नहीं करा लेते? पर उसमें पैसा खर्च होगा और वह तुम कर नहीं सकते।'
वे सुनकर भी अनसुना कर देते। या फिर धीरे से कह देते कि समय मिलने पर करा लूंगा। अग्निदग्ध वाक् प्रहार असह्य हो जाते तो धीमें और अस्पष्ट स्वर में उन्हें कहना ही पड़ता-- 'मैंने अपना चैकप करा लिया तो मेरी साधना अधूरी रह जाएगी। तुम्हारा उपचार अधर में ही रुक जाएगा।'
उनकी ऊर्जा चुकने लगी थी। हल्के से श्रम से ही वे थककर गिर पड़ते थे। मां के पैर दबाते-दबाते वे उसी पर झुक पड़ते थे। तब मां उन्हें चेताती-- 'नाटक मत करो! दबाना है तो ढंग से दबाओ! मेरे पैर दर्द से फटे जा रहे हैं और तुम्हें नाटक सूझ रहा है...।' अगले ही पलों में मां की जिह्वा अंगार उगलने लगती, पर वे तब भी शांत बने रहते। गजब का धैर्य था उनमें।
उस रात को भी जब वे मां के पैर दबा रहे थे तो उसकी झपकी लग गयी। और वे उसी के पैरों पर सिर रखकर सो गये।
मां की नींद खुली तो बड़बड़ाना शुरू-- 'इन्हें तो पता नहीं नींद कितनी गहरी आती है कि कहीं भी सो जाते हैं...चलो उठो! मुझे एक गिलास गरम पानी से रात वाली गोली खिलाओ!'
रात वाली गोली के प्रभाव से बहुत गहरी नींद आयी मां को। सुबह हड़बड़ाकर उठी तो आश्चर्यचकित... पापा उसी मुद्रा में पैरों पर सिर रखे प्रगाढ़ निद्रा में सो रहे थे। मां ने पहले तो उन्हें आवाजें लगायीं, फिर पूर्ण शक्ति से झिंझोड़ ही जो दिया-- 'अरे उठो तो! कब तक सोते रहोगे?...उठो! जल्दी उठो! गरम पानी में दो चम्मच शहद डालकर पिलाओ मुझे, मेरा पेट तभी साफ होता है।'
पर पापा तभी तो उठते जब वहां होते। वहां तो मात्र नश्वर देह पड़ी थी। वे तो न जाने कब पिंजरा खाली कर नीलांबर की अनंत यात्रा पर निकल गये थे?...सारी अनुभूतियों से दूर... फिर कभी वापस न लौटने के लिए।
अपनी सहधर्मिणी के चरणों में शीश नवाए-नवाए ही प्राण तज दिये थे पापा ने।
मेरे पहुंचते ही उनके कक्ष को खोला गया; जिसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। जिसमें किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी... जो हमेशा बंद रहता था... जिसके बारे में सबका अनुमान यही था कि उसमें वे अपना रुपया पैसा, स्वर्ण मुद्राएं, बैंकों की सावधि जमा की रसीदें आदि सभी से छिपाकर सहेजकर रखते होंगे।
परंतु हैरत... वहां ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे गोपनीय रखना आवश्यक हो। कुछ साहित्य, आत्म कथ्य डायरियां, व्रण के उपचार की क्रीम, लोशन, रुई, पट्टियां, टेप आदि के साथ-साथ कुछ औषधियां खाने की भी संग्रहित थीं। शायद उनकी देह के किसी भाग में कोई कुटिल व्रण रहा होगा, जिसकी ड्रेसिंग वे कक्ष बन्द कर नित्यप्रति करते रहे होंगे।
पर इन्हें छिपाना क्या इतना आवश्यक था? क्या व्रण को रहस्य बनाकर रखना जरूरी था?... किसी को उन्होंने क्यों अपने व्रण के बारे में नहीं बताया?...बताते तो किसी रोग विशेषज्ञ से समुचित उपचार कराया जा सकता था... मेरी उलझन निरंतर बढ़ती जा रही थी कि अपने बारे में क्यों वे सबसे गोपनीयता बरत रहे थे?
तभी मेरी निगाह लोहे की बड़ी सी अल्मारी के भीतर रखी एक छोटी सी अटैची पर चली गयी...अटैची छोटी सी, पर उसमें झूल रहा ताला मोटा सा... और चाबी का कहीं कुछ अता पता नहीं... तत्काल ताला तोड़ अटैची को खोला गया तो डाक्टरों के उपचार पत्रों व विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के कागजों का पुलिंदा नीचे गिरकर बिखर गया।
और यह जानकर तो मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी थी कि उनकी दायीं जंघा में एक बड़ा सा प्राणघातक, विषाक्त व्रण अपना रौद्र रूप दिखा रहा था जिसकी बायोप्सी रिपोर्ट में बिल्कुल स्पष्ट लिखा था-- वैल डिफरैंशिएटेड स्क्वेमश सैल कार्सिनोजेनिक ट्यूमर (अर्थात कैंसर) ।
डाक्टर ने परामर्श भी दिया था-- तत्काल आपरेशन के साथ-साथ एक माह के लिए होस्पिटेलाइज्ड।
ओह! अपनी सहधर्मिणी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी मेरे पापा ने। मां के उपचार व परिचर्या में कोई विघ्न बाधा न पड़े इसलिए उन्होंने अपने कैंसर की ओर से मुंह मोड़ लिया था। और अपनी साधना को खण्डित होने से बचा लिया था।
✍️ डॉ अशोक रस्तोगी
अफजलगढ़, बिजनौर
मो.9411012039/8077945148
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