सुभद्रा विला नाम है इस घर का । बाहर बरामदे में कुछ गमले रखे हैं जिनमें मौसमी फूलों के अतिरिक्त एक तुलसी का और एक एलोवेरा का पौधा भी है। उपर छत की रेलिंग पर बेगोनिया बेवस्टा की बेल बेतरतीबी से काफ़ी धनी होकर फैल आई है। घर में दो प्राणी रहते हैं, एक गृहस्वामी शिव नारायण सिंह चौहान, जिनकी उम्र 72 साल है और वे डीज़ल इंजन कारखाने से मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। दूसरी हैं पत्नी सुभद्रा चौहान, जिनकी उम्र 70 साल है। वह 50 साल से हाउस वाइफ़ के पद पर कार्य कर रही हैं। इस नौकरी में सेवानिवृत्ति की कोई उम्र सीमा नहीं होती है। जीवन से निवृत्त होने पर ही रिटायरमेंट मिलता है। आइए सुभद्रा विला में चलते हैं और देखते हैं कि अंदर क्या चल रहा है........
सुबह की चाय, दैनिक क्रिया आदि सब हो चुके हैं। दोनों बाहर बरामदे में बैठे हैं। सुबह का पेपर आ गया है।
"आज कौन सा वार है ?", चौहान जी ने पत्नी से पूछा, "अरे आपको इतना भी याद नहीं है कि आज रविवार है, आज रात को रवि का फ़ोन आयेगा।”, पत्नी ने उलाहना दी।
"भई जब तुम जैसी याद दिलाने वाली पी. ए. साथ हो तो मैं याद करके क्या करूँगा ? मैं तो सोचता हूँ कि यदि तुम न होती तो मेरी उम्र का बड़ा हिस्सा तो चश्मा ढूँढने में ही बीत जाता ।”
पति की बात से मुस्करा कर सुभद्रा चाय के कप-प्लेट समेटकर अंदर 'चली गई। वह अपने पुत्र रवि के विषय में सोचने लगे। रवि उनका पुत्र, अमेरिका के कैसास सिटी में इन्जीनियर है, उसका फ़ोन प्रत्येक रविवार को रात के नौ बजे के आस-पास आता है। बेटे का फोन ही जीवन की एकरसता में "कुछ रस का संचार कर जाता है। इस फ़ोन पर किया गया वार्तालाप दोनों पति-पत्नी के बीच पूरे सप्ताह चर्चा का मनपसंद विषय रहता है।
रविवार को सुभद्रा सारे काम जल्दी निपटाकर फ़ोन के पास बैठ जाती है। फ़ोन पर माँ-बेटे में लंबी वार्ता चलती है। सुबह नाश्ते में क्या बना है ? इस वीक-एन्ड का क्या प्रोग्राम है ? हेमंत (पौत्र) क्या कर रहा है ? छोटी-छोटी बातों का लंबा सिलसिला।
उन्हें तो सुझता ही नहीं कि फ़ोन पर क्या बात करें। मौसम का हाल पूछ लेते हैं, सबकी कुशल पूछ लेते हैं, इसके बाद क्या...? और यदि कुछ पूछने का सोचा हुआ भी हो तो ठीक फ़ोन के टाइम पर भूल जायेंगे।
पिछले वर्ष बेटे के बहुत आग्रह पर दोनों पति-पत्नी,20-22 घंटे की थका देने वाली हवाई उड़ान के बाद समृद्धि के देश अमेरिका गए थे। बेटे ने वहाँ खूब सैर करवाई... नियाग्रा फॉल्स, लॉस वेगास, बड़े- बड़े मॉल्स, एक चकाचौंध वाली दुनिया। इन सब आकर्षणों के बीच दो महीनों के बाद ही उन्हें अपने सुभद्रा विला की याद सताने लगी थी। पता नहीं क्या आकर्षण होता है अपनी मिट्टी की ख़ुशबू में कि वह मन ही मन घर वापसी के दिन गिनने लगे थे।
बेटे ने कितनी बार प्रस्ताव रखा था कि अब वह दोनों, बेटे के साथ अमेरिका में ही रहें किंतु बुढ़ापे में इस उम्र का क्या भरोसा। वह नहीं चाहते कि उनकी मिट्टी उस अनजाने पराये देश की मिट्टी में मिले। कहाँ हैं वहाँ गंगा के घाट ? कहाँ हैं वहाँ आम के बौर से आती भीनी ख़ुशबू ? कहाँ मिलेंगी वहाँ गायें जिनके लिए सुभद्रा रोज़ गाय की रोटी सेंकती है। सुभद्रा बिला की चहारदीवारी के बीच का सूनापन भी उनका अपना है। यहाँ की ईंट ईंट पर यादों के अनेक पल जुड़े हैं।
“आज नाश्ते में क्या बनाऊँ ?”, सुभद्रा की आवाज़ से उनकी तन्द्रा भंग हुई।
"हज़म ही कहाँ होता है और सब, वही दलिया बना लो।”
सुभद्रा रसोई घर में चली गई थी। यादों का सिलसिला फिर चल निकला। कहाँ छूट गए वो पहले जैसे भरे-पूरे परिवार जिसमें दादी-नानी के क़िस्से होते थे, त्योहारों की धूम होती थी, ढोलक की थाप होती थी। अब तो जीवन की इस दूसरी पारी में होता है एक अंतहीन सूनापन। उन्हें याद आते हैं अपने बाबू जी और उनकी चिट्ठियों में झलकता उनका सूनापन। एक बार बाबू जी ने उन्हें चिट्ठी में लिखा था, "सामने बरामदे की बुर्जी में चिड़िया घोंसला बना रही है। तिनका-तिनका जोड़ रही है। घोंसले में अंडे देगी, फिर बच्चे बड़े होंगे, चोंच में दाना ला ला कर उन्हें खिलायेगी। बच्चे बड़े होंगे और जब उनके पर आ जायेंगे तो सब उड़ जायेंगे अपनी-अपनी दुनिया में।"
आज उम्र की इस दहलीज़ पर उन्हें अपने बाबू जी के पत्रों में झलकते उस सूनेपन का अहसास होता है। अब तो ऐसे मकान ही नहीं होते जहाँ गौरेया घुसकर घोंसला बना सके और न ही ऐसे खुले आँगन होते हैं, जहाँ अम्मा चिड़ियाँ को दाना डाला करती थी। कहाँ गए वे दिन ? अब जो दिन बीत रहे हैं वे बस पिछले दिनों की कार्बन कॉपी है।
ऐसे ही एक दिन जब चौहान जी बरामदे में बैठे ताजे खिले पिटूनिया के फूलों को निहार रहे थे तो उन्होंने देखा कि किचन की बैक डोर से होकर सुभद्रा गैराज के पीछे बने स्टोर की तरफ़ कुछ लेकर तेज़-तेज़ जा रही है। इसके बाद वह पुनः किचन के रास्ते घर में गई और इस बार कोई पुरानी चादर लेकर गैरेज स्टोर की तरफ़ गई। बरामदे में बैठे हुए गैरेज से लगा स्टोर नज़र नहीं आता था। अत: वह कुछ भी नहीं देख पा रहे थे कि वहाँ क्या चल रहा
है। असमंजस की स्थिति में जब वह कुछ भी अनुमान नहीं लगा पा रहे थे, तो उसी क्षण उल्लासित सी सुभद्रा प्रगट हुई। इससे पहले कि वह कुछ पूछत सुभद्रा ने स्वयं मुस्कराते हुए कहा, “घर में कुछ नए मेहमान आए हैं।"
"नये मेहमान ?" वह कुछ समझे नहीं।
"उठिए चलिए आपको मिलवाती हूं नये मेहमानों से", सुभद्रा ने चहकते हुए कहा। जिज्ञासा और कौतुहल से वह सुभद्रा के पीछे-पीछे चल दिए। स्टोर के पास पहुंचकर सुभद्रा ने स्टोर के फ़र्श की ओर इंगित करते हुए कहा, “लीजिए मिलिए नये मेहमानों से।” उन्होंने आश्चर्य से देखा कि स्टोर के फ़र्श पर एक सफ़ेद- भूरी बिल्ली अपने तीन नवजात बच्चों को जीभ से सहला रही है। रुई के फाहों की तरह नवजात कोमल बच्चे अपनी मिचमिचाती कन्जी आँखों से नये संसार से सामंजस्य बैठाने का प्रयास कर रहे थे।
“कितने प्यारे बच्चे हैं।”, सुभद्रा ने हुलसते हुए कहा। स्त्री के अंदर की माँ उसकी आँखों में तैर आई थी। बिल्ली के बच्चों के आगमन से सुभद्रा विला में म्यूंss...म्यूंss... की आवाज़ का संगीत गूंजने लगा था। बिल्ली और उसके नन्हे-नन्हे बच्चों के कारण सुभद्रा को जीने का एक सम्बल मिल गया था। सुबह-शाम बिल्ली परिवार को दूध और ब्रेड का लंच-डिनर कराया जा रहा था। बिल्ली भी सुभद्रा के आगे-पीछे मँडराती रहती थी। बच्चों की उछल-कूद एवं नई-नई शरारतों के कौतुक को देखकर सुभद्रा की हँसी छूट जाती थी। चौहान जी भी मुस्करा मुस्कराकर इस नये रिश्ते की मिठास का आनंद लेने लगे थे।
सुभद्रा विला में प्रेम की सरिता बह निकली थी। जीवन में यदि प्रेम नहीं है तो जीवन उस वाटिका के समान है जिसमें न फूल हो और न चहचहाते पक्षियों और गुनगुनाते भँवरों का गुंजन । झुर्रियाँ हमारे चेहरे पर पड़ती हैं उन्हें ह्रदय में मत पड़ने दो।
एक सुबह सुभद्रा परेशान और व्यग्रता में पूरे घर, बगीचा, गैराज के आस-पास कुछ ढूँढ रही थी। चौहान जी ने जब सुभद्रा की हताशा देखी तो पूछा, "सुबह-सुबह क्या खोज रही हो ?"
एक बच्चा नहीं मिल रहा। रात तक तो तीनों उछल-कूद कर रहे थे किंतु आज वहाँ दो ही बच्चे हैं। एक पता नहीं कहाँ चला गया ?", सुभद्रा ने उत्तर दिया। खोजी अभियान में अब चौहान जी भी शामिल हो गए थे। घर का चप्पा-चप्पा ढूँढ मारा पर तीसरे बच्चे का कोई अता-पता नहीं था। सुभद्रा रुआँसी होकर हर उस कोने और झाड़ी में खोज रही थी जहाँ उसके होने की कोई संभावना नहीं बनती थी किंतु बच्चा नहीं मिला।
सुभद्रा थक-हार कर बरामदे की कुर्सी पर निढाल होकर धप्प से बैठ गई। उन्हें कुर्सी के कोने में कुछ गुदगुदा सा लगा। उन्होंने कुर्सी की गद्दी सरकाई तो देखा गद्दी के नीचे छिपा तीसरा बच्चा शरारत से टुकुर-टुकुर देख रहा है।
"हट बदमाश! मैंने, तुझे कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा और तू यहाँ छिपा बैठा है।" सुभद्रा ने उल्लासित हो पति को सूचना देते हुए कहा, "सुनते हो जी, बग़ल में छोरा, नगर में ढिंढोरा। तीसरा शरारती मिल गया है।" यही है जीवन का फ़लसफ़ा - थोड़े ग़म-थोड़ी खुशियाँ। सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं। सुख की पहचान, सुख के रूप में नहीं होती यदि दुःख न भोगा हो। इसी तरह दुःख भी अपनी • पीड़ा खो देगा यदि हमने सुख अनुभव न किया हो।
आज रविवार है। रात के नौ बज रहे हैं। फ़ोन घनघना रहा है। अमेरिका से रवि का फ़ोन है। आज की फ़ोन वार्ता का मुख्य एपिसोड है सुभद्रा विला में बिल्ली और उसके बच्चों का आगमन। सुभद्रा ने बतलाया कि कैसे एक बच्चा गुम हो गया था। उनका तो दिल ही बैठ गया था पर शुक्र है भगवान का कि बच्चा मिल गया था। बच्चा मिलने की ख़ुशी में उन्होंने नाश्ते में हलुआ बनाया था जिसका रसास्वादन बिल्ली परिवार ने भी किया।
उधर रवि ने लक्ष्य किया कि आज की वार्ता से शुगर, ब्लड प्रेशर आदि के विषय गायब थे। चर्चा का मुख्य केन्द्र बिन्दु बिल्ली उसके तीन बच्चे और उनके प्रति माँ का स्नेहिल उत्साह। जब बिल्ली-पुराण चर्चा को थोड़ा विराम लगा तो रवि ने फोन पर बताया, "मम्मी मेरे पास भी आपके लिए एक शुभ समाचार है।" “कैसा शुभ समाचार ?, सुभद्रा ने जिज्ञासा से पूछा।
रवि ने कहा, "मैं जिस अमेरिकन कम्पनी में काम करता हूँ वो कम्पनी अपनी इंडियन ब्रांच में मुझे परिवार सहित एक साल के डेपुटेशन पर इंडिया भेज रही है, मैं जल्दी........ रवि की पूरी बात सुने बिना ही सुभद्रा ने प्रसन्नता से पति को पुकार कर कहा, “सुनते हो जी ! अपना रवि इंडिया आ रहा है.... मैं पहले ही जानती थी बिल्ली के बच्चों का आगमन शुभ है।" चश्में से ढकी अश्रुपूरित आँखों और भर आए गले से उन्होंने हाथ जोड़कर ईश्वर को नमन की मुद्रा में कहा, "आज बिल्ली का खोया बच्चा मिला और अब इतने वर्षों बाद अपना बच्चा घर आ रहा है।"
उस दिन देर रात तक सुभद्रा विला की लाइटस् जलती रही थी। खिड़कियों से छनकर आते प्रकाश से लॉन में खिले पिटूनिया के पुष्प जैसे मुस्करा रहे थे।
✍️ नरेश वर्मा
बी- 13, रक्षापुरम, रायपुर रोड
देहरादून 248008
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