"प्रीति है आराधना भगवान् की,
प्रीति का प्रत्येक क्षण अनमोल है !"
यह हैं साहित्य-मर्मज्ञ, उद्भट विद्वान् और हिन्दी के प्राणवन्त गीतिकार श्री कैलाश चन्द्र अग्रवाल की पंक्तियां। प्रीति-जैसा सुकोमल, भाव जैसा गम्भीर, मदुभाषी किन्तु स्वाभिमान का धनी, गेहुँआ रंग, अनुभव एवं आयु की प्रगाढ़ता को साफ दर्शाता झुरियों पड़ा चेहरा, ऊँची नाक, चौड़ा ललाट, एवं सिर के सफेद बाल ......व्यवहार, स्वभाव में सादगी किन्तु गाम्भीर्य की साक्षात् प्रति मूर्ति, बंद गले का कोट और पेंट, सिर पर टोपी, गले में मफलर, एक साधारण सभ्य नागरिक की छाप । यह था गीतिकार श्री कैलाश जी का व्यक्तित्व, जो हिन्दी-काव्य में अपनी अद्भुत विशेषता एवं महत्ता रखता है। वे मानव-हृदय- मर्मज्ञ, रससिद्ध, मधुर गायक, भावधनी एवं युग-प्रबुद्ध सन्देश-वाहक थे।
कैलाश जी का व्यक्तित्व 'प्रीति' के बिना कुछ भी नहीं है। यही प्रीति' उनके गीतों में व्यथा, दुःख, पीडा, दर्द, वेदना विकलता, टीस, छटपटाहट आदि विविध रूप
धारण कर आयी है,जिस प्रकार से पतित पावनी गंगा में आकर विविध नाले नालियां आत्मसात् हो जाते हैं और दृष्टिगोचर होती है केवल गंगा की पवित्रता, उसका मोहिनी रूप तथा कल-कल निनादिनी गंगा का छल-छल करता बहता निरन्तर निर्मल जल..... ठीक उसी प्रकार उनके गीतों में बहती प्रीति की गंगा, जो व्यथा दुःख, पीडा, दर्द, वेदना, विकलता, टीस, छटपटाहट आदि मानवीय अहसासों को स्वयं में आत्मसात् कर निरन्तर अपने पाठकों एवं श्रोताओं को स्वस्थ एवं पवित्र मनोरंजन-जल ही नही प्रदान करती है, अपितु उनके हृदय-पक्ष को भी प्रभावित करती है। पाठक हो, अथवा श्रोता उनके गीतों का रसास्वादन कर सब-कुछ भूल जाता है, और प्रेम-प्रेममय हो जाता है। उसे कुछ अन्य चाहना भी नहीं रहती है। उसके अन्दर का कल्याण कहीं दूर भागने लगता है। कैलाश जी के गीतों में प्रीति के गंगाजल का सा भाव है। 'कविता' सीधे उनके जीवन से फूटकर आयी है। यह उनके जीवन की अनिवार्यता थी, विवशता थी, यानी उनके जीने की शर्त, जो प्रीति का रूप धारण करके विविध रूपों में फूट पड़ी। वे स्वयं कहते हैं-
मैं ये गीत नहीं लिख पाता,
अगर न मिलता प्यार तुम्हारा !"
श्री कैलाश चन्द्र अग्रवाल का व्यक्तित्व और कृतित्व परस्पर असंपृक्त नहीं हैं । उनका व्यक्तित्व निष्कपट और निश्छल है । वे क्या सोचते हैं ? उनकी भावना क्या है? यह उनके गीतों से तो स्पष्ट है ही, साथ ही उनके चेहरे से भी स्पष्ट है । उनके पास किसी प्रकार का कोई आवरण भी नहीं है, इसीलिए वे लोकप्रिय न बन सके । उनके 'जीवन-परिचय' से यह बात स्पष्ट है । उन्होंने जो पथ चुना है, वह स्वतंत्र है, स्वाधीन है, किसी की क्षणिक चाटुकारिता से भी बहुत-बहुत दूर स्वाभिमान से आपूरित । इसी कारण उनका व्यक्तित्व अजेय बना हुआ है।
दुनिया चाहे जिधर जाये, चाहे कोई कुछ करे, पर कैलाश जी के कवि ने तो जैसे जीवन का सार ही प्राप्त कर लिया है
"युग-युगों से इस धरा पर प्यार जैसा,
सत्य, शिव, सुन्दर न कोई दूसरा है।"
कैलाश जी का कवि प्यार का कवि है । वह अपने कर्तव्य के प्रति निरन्तर सचेत और दूसरों से भी कहता है
"कर्म से अपने विमुख होना नहीं अच्छा ।
व्यर्थ ही अपना समय खोना नहीं अच्छा ।
व्यक्ति निज पुरुषार्थ से फूला- फला करता,
श्रम बिना जीवन सदा निस्सार होता है !"
इसी गीत में वे मानव से कहते हैं-
"लोक-सेवा-भावना का मूल्य है अपना ।
साधना की अग्नि में अनिवार्य है तपना ।
हर दुखी का दुख निवारण हो सके जिससे,
चाहिए वह मन्त्र ही निशिदिन हमें जपना ।
वास्तव में कैलाश चन्द्र जी का कवि-व्यक्तित्व अपने जीवन की सार्थकता उस में समझता है, जो लोक सेवा-भावना से अनुप्रेरित हो । "कर्म ही पूजा है, साध ईश्वर है-इसका साक्षात् प्रतीक है कवि कैलाश का व्यक्तित्व ।
वास्तव में वे जन-मन को सुरभित करने वाले तथा जीवन-संघर्ष में आस्था वाले कवि थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है
"मेरी पूजा के ये बोल अकिंचन,
सम्भव है बन जायें मीत तुम्हारे । "
कैलाश चन्द्र अग्रवाल के व्यक्तित्व में निरन्तर संघर्षशील अदम्य साहस था, जो भी उनके जीवन-परिचय को पढ़ेगा, वह उनकी इस विशेषता को सराहेगा स्वाभिमान, निश्छलता, कर्मठता, परोपकार एवं सहृदयता की साक्षात् प्रतिमा मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी निष्ठा थी । वे आत्मप्रशंसा से परे, अहंकारशून्य परोपकारी व्यक्ति थे । यही नहीं, मितभाषी और मितव्ययी थे । सब-कुछ होते हुए स्वयं को अकिंचन-सा मानने वाले और आत्मसन्तोषी थे । वे इशोपासक थे और भारतीय संस्कृति के आदर्श मूल्यों, परम्पराओं एवं मर्यादाओं में उनकी अखण्ड आस्था थी । व्यर्थ की मिथ्या, निराधार और अर्थहीन रूढ़ियों एवं कुरीतियों में उनका बिलकुल विश्वास नहीं था। कला की साधना और आराधना में उनका अटूट विश्वास था ।
मैं स्वयं को परम सौभाग्यशालिनी मानती हूँ कि हिन्दी साहित्य के एक सफल हस्ताक्षर व साहित्य जगत के सशक्त पुरोधा के साहित्य पर शोध करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस कवि हृदय के मुझे साक्षात दर्शन हुए हैं। उन पर लघु -शोध प्रबन्ध व शोध प्रबन्ध पर कार्य करने वाली मैं प्रथम शोध कर्त्री रही । शोधकार्य के दौरान मुझे उनसे समय समय पर साक्षात्कार का अनुभव हुआ है। अक्सर वे कहा करते थे- कहते हैं लक्ष्मी व सरस्वती जी एक साथ कृपा नहीं करतीं पर मुझ पर तो दोनों ही की कृपा है।