गौर वर्ण ,दमकता भाल, व्यक्तित्व की विराटता को समेटे प्रो. महेंद्र प्रताप यानि ' दद्दा ' का वात्सल्य भाव अकस्मात ही सबका मन मोह लेता था, धोती कुर्ता पहने ,मुँह में पान दबाये दद्दा बनारसी फक्कड़पन और मस्ती में सराबोर, सदाबहार साहित्य जगत के महान पुरोधा कहे जा सकते हैं ।पूरा का पूरा भाषा-विज्ञान या साहित्य की विराट अक्षय पुंजीभूत सितारे की तरह देदीव्यमान दद्दा अपने समकालीन साहित्यिक जगत के सरताज थे ,जितना ही अक्खड़ उनका व्यक्तित्व था, उतना ही पारदर्शी उनका वात्सल्यमय उनका हृदय था।सब पर अपना प्रेम बिखेरते ,मानव -मूल्यों और जन -जीवन से गहरा नाता रखते थे ,उनकी हंसी से पूरा वातायन जैसे खिलखिला उठता हो ।प्रेम और सौंदर्य के अनुपम चितेरे दद्दा विशद दार्शनिक विचारों से परिपूर्ण प्रो महेंद्र जी चलते फिरते अकादमी से कम न थे ।अपने शिक्षकीय दायित्वों का पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निर्वाहन करते हुए ,नैतिक आदर्शों और मानवीय मूल्यों को पूर्णता से निभाते हुए साधक की तरह थे ।मुरादाबाद महानगर के प्रतिष्ठित के.जी.के. महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक एवम प्राचार्य के दायित्वों को निभाते हुए साहित्यिक परिवेश में रचे बसे प्रो महेन्द्र जी एक युग को जीते रहें ।जीवन भर साहित्य-साधना करते हुए भी आत्म प्रदर्शन की भावना नहीं रखते थे --' मेरे गीत किसी के अनुचर हैं ' जैसे कवि किसी ऋण से उऋण होना चाहता है।
उनकी कविता उनका जीवन है ,प्रिय का आगमन कवि मन को खुशियों से भर देता है --
उतर पड़े मेरे आँगन में
तिमिर मिटा किरणें फूटी हैं
बन्द द्वार खुल गये चेतना
की दृढ़ कारायें टूटी
राह मिली है मिला तुम्हारे
करुण दृगों का मौन इशारा
प्रिय की पल -पल की प्रतीक्षा में विरहिणी मन की विकलता बढ़ती ही जा रही है --
दे रहें तुमको विदाई
आज आकुल चेतना है
व्यथा की बाढ़ आई
....गूँजता मधुमास स्वर था जहाँ,
पतकार आया
और फिर प्रिय उनके सपनों में आ उनकी चेतना को विकल कर रहा है --
स्वप्न में मैंने ऊषा की /रागिनी के गाल चूमे /और संध्या के सुनहरे /भव्य केश विशाल चूमे /
प्रिय के न आने पर मानों मन की विकलता पीड़ा बनकर कवि के अंतस से बह निकलती है --
गेय अगीत रहा /मैंने कितनी मनुहारे भेजी अगवानी में /कितनी प्रीत पिरो डाली/स्वागत की वाणी में /पर प्यार की परिधि पर/प्राणों का मीत रहा / गेय अगीत रहा
स्मृतियों के सुनेपन में जैसे प्रिय मन की मौन को तोड़ता गीत गा रहा हो ,उसकी मधुर रागिनी से मन का कोना -कोना झंकृत हो उठा हो --
मौन की पायल बजाता है / मौन में ही गुनगुनाता है / मैं कभी आवाज तो सुनता नहीं / पर मुझे कोई बुलाता है
प्रिय के मिलन को आतुर ,प्रेम पूरित हृदय लिए नायक प्रियमय होने लगा है --
मैं तुम्हारे लिए हूँ बना / स्नेह में हूँ तुम्हारे सना / प्राण में है पुलक प्यार की / और क्या मैं करूँ कामना / .......कामना अर्चना बन गयी / व्यंजना भावना बन गयी
अन्ततः कवि का प्रेमी मन प्रियमय को पाने की चरम आस लिए तड़प उठा है --
याचना की अबूझ प्यास हो / सांत्वना की सदय आस हो / तुम क्षितिज की तरह दूर हो / पर दरस के लिए पास हो
इस प्रकार प्रो महेंद्र जी की साहित्य साधना उनके हृदय की दासी की तरह उनकी अनुचरी हो ,जब चाहा ,जो चाहा ,जैसे भी चाहा सब कुछ अपने अनुसार ढालने की कृपा दृष्टि उन पर माँ वागेश्वरी की बनी रहती ।प्रकृति के सानिध्य में जैसे कवि सब कुछ भूल चुका है ,प्रकृति और प्रिय का सानिध्य ही उसके जीवन का पाथेय बन गया हो -- रात्रि कब की हो चुकी है / प्रकृति आधी सो चुकी है / किंतु मैं लघु दीप सन्मुख / तुम्हारे मधु स्मरण में /जागरण ही चाहता हूँ
औरअपने प्रिय के सन्निकट रहकर कवि का ऐसा पावन रिश्ता बंध गया है --
साथ तुम मेरे रही हो / और प्रिय एकांत में / संगीत लहरी बन बही हो / आज यौवन भार लेकर / छोड़ कर जाना न संगिनी / जी रहा तेरे सहारे /
पर प्रिय है कि आंखमिचौली खेलता ही रहता है ,उसकी प्रतीक्षा में थक चुका मन ,क्षण - क्षण पथ निहार रहा है ---
कितने दृग पंथ रहे निहार /स्वागत है अभ्यागत उदार / तुम आये बन वसंत वन में / भावों के सुमन खिले मन में / प्राणों का कलरव गूँज रहा / उल्लास भर गया जीवन में /
इस प्रकार प्रो महेंद्र जी के गीत श्रृंगार प्रधान होते हुए भी ,उनमें विरह -वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है ।उनके काव्य का भावपक्ष जितना प्रखर है उसका कलापक्ष उतना ही उत्कृष्ट है ।अपने जीवन में विविध रूपों को जीते हुए प्रो महेंद्र जी समकालीन कविता के निकट रहकर तत्कालीन कवियों और आलोचकों के प्रिय भी रहे ।जो लिखा ,जितना भी लिखा है उनका साहित्य अपने समय के धरोहर के रूप में संजोये जा सकते हैं --
सूखे जितना अधर हृदय की
धरती उतनी ही हो उर्वर
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विकल- करुणा - धार पर तुम
आज बन बरसात छाई ।
✍️ डॉ मीरा कश्यप
अध्यक्ष हिंदी विभाग
के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद
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