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बुधवार, 21 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता के सम्मान में कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी)  प्रदीप गुप्ता के सम्मान में रविवार 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन किया गया। आयोजन में उपस्थित साहित्यकारों ने मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य पर चर्चा के साथ- साथ काव्य पाठ भी किया। 

   कांठ रोड स्थित कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में   प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के संरक्षण में आयोजित कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने किया । काव्य पाठ करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा-- 

साथ-साथ बढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

फ्रेमों में मढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

    प्रदीप गुप्ता का कहना था-- 

किनारे बैठ कर देख लिया बहुत हमने

मौज के साथ तनिक बह के भी देखा जाए 

हास्य व्यंग्य के वरिष्ठ रचनाकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा-- 

चोरी की कविताओं की 

हाय-हाय को लेकर

सवाल यह पैदा होकर सामने आया है

किसने किसका माल चुराया है

वरिष्ठ रचनाकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा -- 

द्वेष घृणा मिट सके दिलों से कुछ ऐसे अश्आर लिखो मानवता दम तोड़ रही है कुछ इसका उपचार लिखो    

    चर्चित नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम का कहना था --- 

रामचरितमानस जैसा हो

घर आनंद का अर्थ

मात-पिता पति पत्नी भाई 

गुरु शिष्य संबंध

पनपें बनकर अपनेपन के

अभिनव ललित निबंध 

     वरिष्ठ बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना ने कहा ....

प्राचीर के पीछे

सूरज निकल तो रहा है

पत्थरों के भीतर

कुछ पिघल तो रहा है

स्पंदन धीमे ही सही

जीवन चल तो रहा है

अंधेरा घना ही सही

दीपक जल तो रहा है

 मैं यूं ही डरा जा रहा हूं 

     युवा शायर ज़िया जमीर का कहना था... 

हकीकत था मगर अब तो फसाना हो गया है 

उसे देखे हुए कितना जमाना हो गया है  

युवा कवि मयंक शर्मा

मन ले चल अपने गांव यह शहर हुआ बेगाना

दुख का क्या है दुख से अपना पहले का याराना

      राजीव  प्रखर ने दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा ....

अब इतराना छोड़ दे, ओ निष्ठुर अंधियार

 झिलमिल दीपक फिर गया, तेरी मूंछ उतार  

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने नवगीत प्रस्तुत करते हुए कहा... 

उसके दम से मां की बिंदी, 

बिछिया कंगना हार 

नहीं पिता के हिस्से आया 

कभी कोई इतवार 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा ... 

सुंदरता नैसर्गिक हो सकती है

किंतु उसका स्थायित्व 

तुम्हें अर्जित करना पड़ता है 

फूल यूं ही फूल नहीं होता

उसे हर पल 

फूल रहना पड़ता है 

     डॉ मनोज रस्तोगी ने  कविता 'नई सदी की ओर' के माध्यम से युवा पीढ़ी के अपनी परंपराओं से विमुख होने पर चिंता व्यक्त की....

भेड़ियों के मुहल्ले में 

गूंजते हैं 

रात को स्वर 

आदमी आया ,आदमी आया 

 रंगकर्मी धन सिंह धनेंद्र ने मुरादाबाद के रंगमंच पर चर्चा की वहीं डॉ स्वीटी तलवार ने प्रदीप गुप्ता की कविता का पाठ किया ।अनिल कांत बंसल ने मुरादाबाद की साहित्यिक विरासत पर चर्चा की । आभार डॉ मनोज रस्तोगी ने व्यक्त किया ।










































सोमवार, 2 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता ---अब तो शहरों में समा जाते हैं


बड़े  शहरों में समा गए हैं 

न जाने कितने अधूरे सपने 

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने 


गाँव क़स्बों के ज़्यादातर माँ बाप

बच्चों में बड़े बड़े सपने जगाते हैं 

अपनी पेंशन , बचत दांव पे रख के 

उन्हें उच्च तकनीकी  शिक्षा दिलाते हैं 

उनके  कौशल का इस्तेमाल 

अधिकांशतः गाँव क़स्बे में नहीं होता 

इसलिए वहाँ का प्रतिभाशाली युवा 

अब अपने पुश्तेनी घर में नहीं रहता 


उसका लक्ष्य बड़ी नौकरी पाना महानगरों में 

वहीं सच हो सकते हैं माँ बाप के सपने 

इस तरह महानगर  लील रहे हैं  

गाँव और क़स्बे कितने 


तभी तो गाँव क़स्बों के 

मध्यम वर्गीय घरों में या तो अब ताले है 

या फिर उन घरों में बच गए 

इक्का दुक्का बड़ी उम्र के  रखवाले हैं 

यही नहीं वहाँ की  पूरी अर्थ-व्यवस्था 

धीरे धीरे सिमट रही है 

दुकानों , व्यवसाय और खेतों में 

कार्यरत लोगों की संख्या घट रही है . 


यहाँ का दुःख दर्द समझने को 

बचे हैं बहुत कम अपने

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने  


शहरों में आकर जो युवा बस गए हैं 

उनका अलग  बुरा हाल है 

वे अपनी जड़ों से कट  चुके हैं 

नए परिवेश में जमना  बड़ा सवाल है 

उनके दिन ऑफ़िस में और सुबह शाम 

भीड़ में सफ़र करते हुए कट जाते हैं 

शहर की  संस्कृति से जुड़ाव चुनौती है 

यहाँ आ के  सभी रिश्ते सिमट जाते हैं 


पैसे से बेशक सम्पन्न हो गए हैं 

मगर पीछे  छूट गए हैं  बहुत से रिश्ते अपने 

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने

✍️ प्रदीप गुप्ता, मुम्बई


सोमवार, 6 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता..... शोक गीत

 


शोक गीत महज  गीत नहीं होते 

उनमें अपने किसी बहुत ख़ास के लिए 

कोई उड़ेल देता है 

अपना ढेर सारा प्यार , सम्मान और आदर.

वे अमूमन गाए नहीं जाते 

वे पुष्पांजलि की तरह से 

हवा में तैरते रहते  हैं 

कभी भी आ के दिल के किसी कोने को छू कर

ख़लिश छोड़ देते हैं 

कई बार तो आप उनका स्पंदन

सुबह - शाम,  उठते - बैठते 

महसूस कर कर सकते हैं 

सालों साल तक . 

कोई शख़्स आज ही दुनिया छोड़  कर गया है 

मीडिया भरा पड़ा है उसके बारे में 

बहुत कुछ लिखा गया है 

लेकिन ज़्यादातर बनावटी है 

इशारों इशारों में बहुतों ने उसके साथ 

कोई न कोई सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश है

लेकिन साथ ही एक स्पष्टीकरण भी 

कि सत्ता के खिलाफ उसके बोलने को 

उन्होंने कभी पसंद नहीं किया 

यह सब इसलिए कि जब दूसरे मलाई के लिए 

रंग बदल कर सत्ता के साथ हो लिए 

वो डटा रहा सच दिखने के लिए

बेख़ौफ़ और बेझिझक

सत्ता ही नहीं अपनी बिरादरी को भी आइना दिखाता रहा 

इसीलिए उनके स्पष्टीकरण में  कुछ ऐसा भाव है कि 

अगर वो अपने मूल्यों से समझौता कर लेता 

अपने शब्दों में छुपे सच को चासनी में डुबो देता 

या फिर छुपा देता वाक् जाल में 

तो उसके इस तरह चले जाने पर 

वे भी एक शोक गीत लिख देते  .

आख़िर हम क्यों बाँट देते हैं  

व्यक्तियों को सर्वथा विपरीत दो  ध्रुवों में 

फिर एक ही रास्ता बचता है 

या तो हम उसके चाहने वाले हों 

या फिर धुर आलोचक . 

इस सब के बीच जो चला गया उसकी याद 

एक गीत बनके तैरती रहेगी 

उसके लिए कोई शोक गीत लिख कर 

जाने वाले के कद को छोटा मत करना .


✍️प्रदीप गुप्ता 

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065    

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की सात कविताएं.....

 



(1) गाँव : एक शब्द चित्र  

      

एक अजब वीरानगी है 

इन दिनों चौपाल में 


न इधर सरपंच आते 

न ही कोई फ़रियादी

हुक्का कहीं लुढ़का पड़ा है 

और कहीं चौपड़ गिरा दी 

अब ठहाके को तरसती 

सामने वाली बूढ़ी काकी 

एक अरसे से ढिबरी वहाँ 

है पड़ी  बिन तेल बाती 


जानना यह है ज़रूरी

गाँव क्यों इस हाल में 


बंट गए हैं लोग फ़िरक़ों में 

छोटी छोटी बात में 

और ज़हर फैला हुआ है 

नफ़रतों का बेबात में 

जो गले मिल के रहा करते थे 

गला काटने की फ़िराक़ में 

किसान से मुवक्किल बने और लुट गए 

बस वकील हैं ठाठ में 


है दुखद पर सच यही है 

गाँव अब इस हाल में 


न रोपाई समय पर 

न ही अब  चले है हल 

दिन कट रहे कचहरी में 

रात को पहरे का शग़ल 

कुछ इधर के साथ में हैं 

कुछ उधर के संग निकल 

स्थिति आदर्श है यह 

काटने वोटों की फसल 


और युवा करके पलायन शहर में 

फँस चुके  मजूरी के जंजाल में


(2) कठपुतली सा हमें नचाएँ 

कठपुतली सा हमें नचाएँ 

जो कुछ चाहें वही कराएँ


एक पटकथा लिख के रक्खी

जिसके नित दिन नए प्रसंग 

झूठ सत्य सा बाँच रहे हैं 

जैसे छिड़ी हुई हो जंग 

पढ़ना लिखना अब अतीत है 

जिएँ आभासी दुनिया के संग 

भ्रमित लोग अब और भ्रमित हैं 

झूठ बिखेरें  कितने रंग 


नेपथ्य से जाल बिछाएँ 

हम से जो चाहें करवाएँ 


मेरे सच और तेरे सच में 

झूठ झूठ जंजाल बिछे  हैं 

घर घर में उन्माद भरा है 

तर्कों के हथियार बड़े हैं 

उल्टे कदम सही ठहराने 

देखो कितने लोग खड़े हैं 

डोरें उनके पास हमारी 

हम सारे रोबोट बने हैं 


जतन करो आँखें खुल जाएँ 

कठपुतली फिर मानव बन जाएँ


(3) ज़िंदगी : एक शब्द चित्र ………

हरदम लड़ती रहती हो 

मुँह में जो आता कह देती हो . 

मैं भी सब चुप सुनता रहता हूँ 

साथ साथ अख़बार की सुर्ख़ियों को 

पढ़ता रहता हूँ 

इस सब के बीच मेज़ पे चाय आ जाती है 

हाँ, स्वरों की हलचल और बढ़ जाती है 

आलू के बदले अरबी ले आ जाना 

मुद्दा बन जाता है 

दूध वाला ज्यादा पानी मिला रहा है 

मसला आ जाता है 

कई बार लगता है भूमण्डल की 

सारी गड़बड़ मेरे कारण हैं 

और इधर मेरा दुनिया में होना अकारण है 

अख़बार से झांकता हूँ 

मेज पे नया कुछ पाता हूँ 

खमण , फ़ाफडा की ख़ुश्बू से 

भरी प्लेट पाता हूँ 

इसी बीच ऊँचे स्वर 

अचानक सुप्त हो जाते हैं 

पूजा घर से प्रार्थना के स्वर 

घंटी के साथ  गूंजित हो जाते हैं

इस सब के बीच नहाने 

और बाज़ार जाने के 

आदेश जारी हो जाते हैं 

अख़बार अधूरा छोड़ हम भी 

नए मोर्चे पर बढ़ जाते हैं 

बाज़ार में इक इक तरकारी 

चुन चुन के रखवाते हैं 

फिर भी कोई गड़बड़ न रह जाए

 सोच के थोड़ा घबराते है 

हर सामान को कई बार 

लिस्ट से जंचवाते हैं 

कुछ छूट नहीं गया हो 

इस लिए बार बार गिनवाते हैं 

यह किसी एक दिन का नहीं 

रोज़ का क़िस्सा है 

ऐसा लगता है अब व्यक्तित्व का 

अटूट हिस्सा है 

कभी सोचता हूँ कि उसकी

वाणी का अंदाज मीठा हो जाए

और ज़िंदगी का अन्दाज़ ही बदल जाए 

पर इस पर मुद्दे पर ठहर सा जाता हूँ 

और ज़िंदगी के इन रसों का लुत्फ़ उठाता हूँ 

तुम जैसी हो वैसे ही आगे भी रहना 

इस रूप में भी सैकड़ों से अच्छी हो 

ऐसे ही जीवन भर रहना


(4) उम्र का असर ....

उम्र का असर अब दिखने लगा है 

थोड़ा चल के शरीर थकने लगा हैं 


मगर बहुत कुछ है जो मुझे आज भी 

बूढ़ा होने से रोकता है 

तेरी यादों का सिलसिला 

आ के अक्सर झकझोरता  है 

पुलकित हो जाता है रोम रोम 

अजब सी ऊर्जा भर जाती है 

मायूसी पल भर में तेरी यादों से 

वाष्प बन कर उड़ जाती है


पहले उड़ता था उन्मुक्त पंछी जैसा 

अब अपने आप ही टिकने लगा है 


चंद दोस्त जब दूर से दिख जाते हैं 

कदम अपने आप उधर मुड़ जाते हैं 

वही उन्मुक्त अट्टहास वही शोख़ी 

उनके पुराने प्रहसन भी गुदगुदाते हैं 

मेरे ये दोस्त  टानिक से कम नहीं 

थके शरीर को नए उत्साह से भर देते हैं 

अजीब रिश्ता है मेरा उनके साथ 

बिना कहे वो मुझको समझ लेते हैं 


पर देख पता हूँ उन दोस्तों का दर्द 

अब उनके चेहरे पे  छलकने लगा है 


टीवी मोबाइल  से ऊब होती है 

तो जा के किताबों में गुम जाता हूँ 

हर किताब से नया रिश्ता बनता है 

उसके साथ सफ़र पे निकल जाता हूँ 

कई बार जब कविताएँ पढ़ता हूँ 

उनके कई अंश मुझ पे ताने मारते हैं 

कई कहानियों में अपना अक्स लगता है 

बहुत से उपन्यास हालत के रोजनामचे हैं 


किताबों की दुनिया मैं तैरते तैरते 

एक नया सा शख़्स मुझमें बसने लगा है


(5) मशक़्क़त करनी पड़ती है ………

बहुत मशक़्क़त करनी पड़ती है 

तब कहीं जा के किसी के लबों पे मुस्कान आ पाती है 


कभी जोकरों जैसा लबादा ओढ़ना होता है 

सुनाने पड़ते है समिष या फिर निरामिष जोक 

कभी बौद्धिकता का आवरण उतार देना होता है 

तो कई बार ज़रूरी हो जाती है थोड़ी नोक झोक 

भले ही दिल में चल रही हों ज़बरदस्त उलझनें 

अपने सारे उद्वेगों को ठंडे बस्ते में लेते हैं रोक 

ताकि आपके सामने वाला बस यही सोच ले 

आप से ज़्यादा ख़ुश मिज़ाज नहीं है कोई और 

 

सच तो यह है कि बहुत कोशिश के बावजूद 

आसानी से यह कला हर किसी को नहीं आ पाती है 


कर के देखिए न एक बार,  अगर आपके प्रयास से 

कोई सचमुच मुस्कुरा देता है 

यक़ीन मानिए आपका दिन बन जाएगा 

इस तरह दिल तक पहुँचने का रास्ता खुल जाता है 

इसे  हल्की फ़ुल्की उपलब्धि  मत समझ लेना 

अच्छे अच्छों को यह हुनर नहीं आ पाता  है 

दिल का रास्ता खोजने में बरस लग जाते हैं 

किसी का मुस्कुराना सम्बन्धों  का पासवर्ड बन जाता है 


मुस्कुराहट फैलाने का सिलसिला जारी रखें

किसी की मुस्कुराहट से दुनिया और हसीन हो जाती है . 



(6) सफ़र .….

बताया जो मैंने अपना सफ़र 

मेरे साथ चाँद तारे हो लिए 


कहाँ ये सफ़र जा के होगा ख़त्म 

कोई जीपीएस नहीं मेरे हाथ में 

रास्ता कहाँ से कहाँ जा मिले 

भूल जाऊँ दिशा बात ही बात में 

है ये लम्बा सफ़र कोई  साथी नहीं 

ना कोई सयाना मेरे साथ में 

ना कोई टिकट ना मासिक पास 

ना कोई आरक्षण मेरे पास में 


मगर देखे मेरे पैरों के ज़ख्म 

साथ में कुछ दोस्त भी हो लिए 


मजहबों के बारे में जम के पढ़ा 

ऋषियों  की वाणी को भी सुना 

मंत्रों को तसबीह पे फेर के 

ध्यान की मुद्राओं को भी चुना

संगतें साधुओं की अक्सर करीं

उनके सुभाषितों को भी गुना 

समाधि , मज़ारों पे चादर चढ़ा 

इक तिलिस्म रूहानियत का बुना 


यह सब कुछ कुछ अधूरा लगा 

इसलिए रस्ते अलग चुन लिए



(7) कविता ....

कविताओं को लेकर जोश ओ जुनून कहीं नहीं दिखता 

वजह साफ़ है अधिकांश मामलों में गहराई नहीं होती 

जो कविता महज लिखने के लिए लिखी जाती हैं 

उनमें उत्कृष्ट शब्द शिल्प रहता है स्पंदन नहीं मिलता 

कुछ कविताएँ तो ख़ास पुरस्कारों के लिए गढ़ी जाती हैं 

इसीलिए आम लोगों की ज़बान तक नहीं चढ़ पाती हैं 

कविता सच में कविता होगी तो पढ़ के मुरीद हो जाएँगे  

इनमें दर्द के साये तो कहीं झूमते गाते शब्द दिख जाएँगे 

ऐसी कविता में वंचित के दुःख दर्द भी मिल जाते हैं 

हताश इंसान को इनमें सम्बल भी नज़र आते हैं 

राह भटके को आशा का झरोखा  भी दिख जाता है 

कहीं समाज के हालत बदलने का जुनून छुपा रहता  है 

कई में तो कवि की ज़िंदगी का पूरा निचोड़ रहता है 

ऐसी कविता को सत्ता के गलियारे की दरकार नहीं 

घूमती रहती है ज़िंदगी की गलियों में कहीं विश्राम नहीं 

इसमें जीवन रंग रहते हैं कोई पूर्वाग्रह नहीं बोती हैं 

तभी तो ये किसी प्रचार तंत्र का कट पेस्ट नहीं होती हैं 

जब कभी लोग अपनी तकलीफ़ से आजिज़ आ जाते हैं 

इन्हीं कविताओं को परचम की तरह लहराते हैं 

इसी लिए ये आगे जाके इतिहास का हिस्सा बन जाती हैं 

और ये लोक गाथाओं में स्थायी रूप से बस जाती हैं 

कविता सही में कविता हो तो उसे हलके में मत लेना 

इसमें बसते हैं प्राण, काग़ज़ का पुर्ज़ा न समझ लेना


✍️ प्रदीप गुप्ता 

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065    

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता -- भूख

1

यह पेट की भूख भी अजीब है 

मंदिर मस्जिद , 

हिंदू मुसलमान , 

यहूदी ईसाई , 

क़ब्रिस्तान शमशान ,

सवर्ण और दलित 

के शोर गुल में इतनी दब जाती है 

ये ख़्याल ही नहीं रहता 

कई दिनों से पेट में 

भूख के हिसाब से 

अन्न का ग्रास नहीं पहुँचा है .

2

पैसे की भूख भी ख़ासी बड़ी है 

जितना खीसे में पैसा आता है 

यह उतनी ही और बढ़ती जाती है 

सच तो यह है अगर एक बार 

पैसे की भूख ज़ोर से लग गयी 

तो मनपसंद खाने के लिए 

चिकित्सक रोक लगा देता है 

इसके बढ़ते ही,

बढ़ते जाते हैं दवा दारू के खर्चे 

चश्मे के नम्बर बढ़ जाते हैं 

हृदय  से लेकर किडनी और दाँतों के 

प्रत्यारोपण की बारी आ जाती है 

3

एक और ग़ज़ब की भूख है 

जिसे शोहरत का नाम दिया जाता है  

जितनी इसे मिटाने की कोशिश की जाती है 

 उतनी और बढ़ जाती है 

अपने सम्मान में अपने पैसे से अभिनंदन ग्रंथ 

अपने नाम से साहित्य सम्मान 

अपने नाम से खेल स्पर्धा ,

मुशायरों , कवि सम्मेलनों की सदारत 

अपने नाम की कोई सड़क (गली भी चलेगी ) 

अपने पैसे से किसी चौराहे पर अपना बुत 

इतना सब कुछ करने के बाद भी 

कुछ तो रीतापन सा लगता है 

क्योंकि शोहरत की भूख 

अनादि-काल से जारी है 

और सारी भूख पर भारी है 

 ✍️ प्रदीप गुप्ता                                               B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065    

 

बुधवार, 21 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता की कविता---बुढ़ापे को नजदीक आने न दें , जवानी आसानी से जाने न दें


थोड़ी शोख़ियाँ 

थोड़ी मस्तियाँ 

थोड़ी तालियाँ 

थोड़ी गालियाँ 

थोड़ी शरारतें

थोड़ी शिकायतें 

थोड़ी अदावतें 

थोड़ी हरारतें 

बुढ़ापे को नजदीक आने न दें 

जवानी आसानी से जाने न दें 

सोलह शृंगार

नए से विचार 

थोड़ा नक़द 

थोड़ा उधार 

थोड़ा क़ायदा 

थोड़ा फ़ायदा 

थोड़ा वायदा

फैला रायता 

बुढ़ापे को हरदम कहें अलविदा 

जवानी की मस्ती रहेगी सदा 

थोड़ी आशिक़ी 

थोड़ी बेवफ़ाई 

थोड़ी दिलजोई

थोड़ी लड़ाई 

कभी घूमना 

कभी तान सोना 

कभी गपबाज़ी

कभी आँखें भिगोना 

करो ग़र बुढ़ापा फटकेगा नहीं 

सफ़र खूबसूरत अटकेगा नहीं 

कभी पेग अंग्रेज़ी 

कभी मीठी लस्सी 

कभी मस्त चखना 

कभी दारू कच्ची 

कभी खुल ठहाके 

कभी थोड़ी तन्हाई 

कभी महफ़िलें 

कभी प्रिय से जुदाई 

नकारात्मक सोच कभी आने न दें

दिल अपना किसी को दुखाने न दें 

कभी जंगलों में 

तो सागर किनारे 

कभी दोस्तों में 

कभी अपने सहारे 

कभी दोस्ती भी 

कभी दुश्मनी भी 

कभी आशनाई 

कभी दिल्लगी भी 

यह जज़्बा कभी कम होने न दें 

बुढ़ापे को हावी होने न दें

✍️ प्रदीप गुप्ता                                                    B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

शनिवार, 17 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य -- माँग

 


भारत में शताब्दियों से विवाह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण रस्म माँग भराई चली आ रही है . विवाह तब तक पूरा नहीं माना जाता है जब तक पति अपने सारे रिश्ते दारों और परिचितों के सामने अपनी पत्नी की माँग सिंदूर से न भर दे . 

जिस तरह से एक सिख होने के लिए पाँच पहचान  केश , कृपाण , कच्छा , कंघा, कड़ा होनी ज़रूरी हैं ठीक इसी तरह से विवाहिता स्त्री की मुख्य पहचान उसकी भरी हुई माँग है .

बॉलीवुड ने विवाहिता की इस पहचान को ‘माँग भरो सजना’से ले कर ‘खून भरी माँग’ तक ख़ूब दिखाया और भुनाया है. 

पति विवाह संस्कार के समय जो पत्नी की माँग भरता है उसके बाद यह माँग ससुरी  सुरसा की तरह बढ़ती जाती है पूरी होने का नाम ही नहीं लेती , पति नाम का निरीह प्राणी कमाता जाता है और ज़िंदगी भर पत्नी की माँग भरता रहता है . 

सिन्दूर से भरी माँग कुछ कुछ टायलेट के बाहर जलने वाले ऑक्युपायड संकेत जैसा प्रभाव भी पैदा करती है . यानि यह महिला किसी और की अमानत है बिना मतलब इधर अपना टाइम बर्बाद न करें . इसीलिए पुराने जमाने में शोहदों के घटिया रिमार्क्स और उनकी बुरी नज़र से बचने के लिए कुँवारी लड़कियाँ भी सड़क पर निकलते समय अपनी माताओं और बड़ी बहनों की तरह माँग में सिंदूर डाल के निकल पड़ती थीं और अपने आप को सुरक्षित महसूस करती थीं. पर पिछले कुछ बरसों में शोहदे लड़कों की क्वालिटी ज़बरदस्त तरीक़े से गिरी है , अब उन्हें माँग भरे होने या न होने से कोई ख़ास फ़रक नहीं पड़ता है , इसका अंदाज़ा आप सविता भाभी वाले कार्टूनों , इंटर्नेट की निचली परत में छिपे वीडियो क्लिप्स से भी लगा सकते हैं . 

मांग को लेकर एक और बड़ा संकट इन दिनों पैदा हो गया है . आधुनिकता की लहर के कारण कपड़ों के साथ ही साथ बाल भी संक्षिप्त होते गए हैं . इस कारण अब माँग निकालने और उसे भरने का स्कोप बचा ही नहीं है . फिर भी जिन महिलाओं को अपने पति और परम्परा में थोड़ी बहुत आस्था बची है वे होंठों पे लिपस्टिक लगाने के बाद थोड़ा सा लिपस्टिक माथे पर झूलने वाले बालों 

के आसपास लगा कर औपचारिकता पूरी कर लेती हैं . इस का एक उद्देश्य अपने पति को यह एहसास दिलाना भी रहता है कि उसे पत्नी की माँग पूरी करने के दायित्व का निर्वहन करते रहना है !

✍️ प्रदीप गुप्ता                                                    B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य ---- चारण और भाट के नए अवतार


हमारे देश में पुराने जमाने में राज दरबारों में राजा के इर्द गिर्द चारण और भाट रहा करते थे , जिनका बुनियादी काम राजा की स्तुति और चरण वंदना होता था . वे राजा को रोज़ नए नए विशेषणों से नवाजते थे . राजा की वीरता , दयानतदारी और शौर्य के ऐसे ऐसे क़िस्से बना कर प्रस्तुत करते थे कि पूरा  का पूरा दरबार तालियों  से गूंजने लगता था . देखा जाए तो इस क़वायद का यही मूल उद्देश्य भी होता था . 

एक नमूना देखिए ये चारण राजा को किस तरह खुश करते थे . एक दिन राजा लंच में बैंगन की सब्ज़ी खा कर आया था , पता नहीं ख़ानसामे ने बहुत ही घटिया तरीक़े से पकाई थी , राजा ने इस बारे में दरबार में चर्चा की . चारण फ़ौरन बोल उठा , साहब इसी लिए बैंगन  को हमारे तरफ़ के गावों में बैगुन बोलते हैं . और साहब प्रकृति ने इसे एक दम बदसूरत काला कलूटा बनाया है . तालियाँ बजीं और चारण का दिन बन गया. इस घटना के कुछ महीने बाद ख़ानसामे ने फिर से बैंगन की सब्ज़ी बनाई , इस बार राजा को बहुत पसंद आयी . राजा ने इस बारे में दरबार में ज़िक्र किया . चारण दरबार में मौजूद था , उसने राजा से कहा ,’बैंगन की बात ही कुछ अलग है , प्रकृति ने इसे सब्ज़ियों  का राजा बनाया है . हुज़ूर आपने गौर किया होगा कि इसके सिर पर सुंदर मुकुट भी होता है .’ इस बात पर दरबार में ख़ूब तालियाँ बजीं .

अचानक राजा को ख़्याल आया कि कुछ महीने तो यह बन्दा बैंगन  को काला कलूटा और बैगुन बता रहा था . राजा ने जम के चारण की क्लास ली . लेकिन चारण ठहरे चिकने घड़े , कहने लगा ,’ साहब हम तो आपके चाकर हैं बैंगन के नहीं !’

धीरे धीरे राजवंश ख़त्म होते गए , जिसके कारण चारण भाट के अस्तित्व को ही संकट खड़ा हो गया , इन्होंने अपने आप को रि-इंवेंट किया और इनके नए अवतार धन कुबेरों और साहूकारों  से जुड़ गए . अजेंडा वही का वही था बस लक्ष्य बदल गए .  अब वे सेठ साहूकारों को महिमामंडित करने के लिए छंद, दोहे और कविताएँ भी लिखने लगे . 

चलते चलते आपको एक नए गेम चेंजर के बारे बतायेंगे. जिस के कारण  चारणों की संख्या अब लाखों करोड़ों में पहुँच गयी है . ये लोग पूरे सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं . वाट्स एप, फ़ेसबुक आदि पर आजकल तीन क़िस्म के लोग हैं . एक तो वो हैं जो अपने सहकर्मियों , रिश्तेदारों और मित्रों से ज़रूरी बातचीत करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं . दूसरी श्रेणी उनकी है जो अपने अपने आकाओं के महिमामंडन और उनके विरोधियों के खिलाफ  ऐसी ऐसी पोस्ट तैयार करते हैं कि पढ़ के लगता है कि पुराने जमाने के चारण भाट अर्थहीन हैं , ये हिस्ट्री और जियोग्राफ़ी सभी कुछ बदलने की अकूत क्षमता रखते हैं . तीसरी श्रेणी ग़ज़ब की है , इनकी संख्या अब करोड़ों में है , इन लोगों के पास समय ही समय है दिमाग़ में काफ़ी सारा स्पेस ब्लैंक है , इनका काम सोशल मीडिया पर पहले से ही तैर रही तैयार पोस्ट अपने इष्ट मित्रों को उछालना है . यह सोशल मीडिया पोस्ट उछालना अब राष्ट्रीय खेल बन चुका है . कई बार तो पत्रकार भी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर समाचार लगा देते हैं और बाद में सही तथ्य की ओर ध्यान दिलाए जाने के  बाद माफ़ी माँग लेते हैं , कुछ तो इसकी ज़रूरत भी नहीं समझते हैं .

✍️ प्रदीप गुप्ता

 B-1006 Mantri Serene

 Mantri Park, Film City Road ,   Mumbai 400065

शनिवार, 5 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य -- संस्कारी दामाद

   


हमारे मित्र शर्मा जी के लिए उनके माता पिता उनके लिए एक अच्छा मैच तलाशने में जुटे हुए थे , लेकिन कभी कोई लड़की शर्मा जी को पसंद आती तो लड़की ना पसंद कर देती , कोई लड़की उन्हें पसंद करती तो शर्मा जी को पसंद नहीं आती . फिर अचानक एक ऐसा मैच सामने आया शर्मा जी को पहली नज़र में लड़की भा गयी और लड़की को शर्मा जी . लेकिन विवाह के आड़े एक छोटी सी चुनौती आ गयी , लड़की का परिवार बेहद संस्कारी था , वे ऐसे लड़के की तलाश में थे जो उन्ही की तरह संस्कारी हो , न मीट खाता हो न ही दारू पीता हो . शर्मा जी ने लड़की वालों के सामने ‘आई शपथ’ कह कर अपने आप को सौ टका संस्कारी बता दिया . बस लड़की के पक्ष के लोग उनकी इस अदा पर क़ुर्बान हो गए, आनन फ़ानन में मुहूर्त निकलवाया गया और शादी की तारीख़ पक्की हो गयी .

शर्मा जी के सभी  मित्र उन्हीं की तरह पूरी तरह ग़ैर-संस्कारी थे . इसलिए शर्मा जी ने अपनी शादी में एक भी मित्र आमंत्रित नहीं किया , हाँ , शादी की खबर को सेलिब्रेट करने के लिए हम सब को खंडाला के पास एक रिज़ॉर्ट में ज़बरदस्त पार्टी दी , जिसके लिए ख़ास एयरपोर्ट की ड्यूटी फ़्री शॉप से जुगाड़ करके स्कॉच की बारह बोतल मँगवाई थीं . इसलिए किसी भी मित्र को उनकी शादी का निमंत्रण न पा कर कोई दुःख नहीं हुआ , क्योंकि सब को शर्मा जी की होने वाली ससुराल की संस्कारी पृष्ठभूमि का पता चल चुका था, ऐसी ड्राई जगह वैसे भी भला कौन जाता. 

शर्मा जी की शादी का कुछ कुछ ऐसा शिड्यूल था कि बारात वापस आने के अगले दिन उनके यहाँ संस्कारी क़िस्म का रिसेप्शन रखा गया था , जिसके लिए बधु की बहनें और भाई सभी आए थे , वापसी में वे लोग वधू को विदा कर कर ले गए थे. अब बारी शर्मा जी की थी , शर्मा जी अपनी पत्नी को ससुराल लिवाने के लिए गए , साले सालियों का इसरार था कि शर्मा जी को छै दिन उधर रुकना होगा . दिन भर साले सालियों के बीच शर्मा जी घिरे रहते थे , सास जी चुन चुन कर बेहतरीन से बेहतरीन वेज डिशेज़ बनाने और जमाई को अपने सामने बैठ कर खिलाने में लगी रहतीं . न नान-वेज न सिगरेट ना ही दारू,  शर्मा जी उस क्षण को कोस रहे थे जब उन्होंने शादी की ख़ातिर अपने आप को संस्कारी घोषित किया था . ससुराल में उनका यह पाँचवाँ दिन हो चुका था , दारू , सिगरेट और नान-वेज की बड़ी तलब लग रही थी . एक आइडिया उनके दिमाग़ में ट्यूब लाइट की तरह कौंधा , बस उन्होंने अपनी सासु माँ को बताया कि पेट अपसेट है आज डिनर स्किप करेंगे और थोड़ा टहलने जाएँगे . सासु माँ सुनते ही नींबू, काला नमक , काला जीरा युक्त जलजीरा बना लाईं. शर्मा जी ने जलजीरा  पिया और चुपचाप बिना किसी से कहे सुने घूमने निकल लिए. ससुराल से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही उन्हें एक फ़ाइन डाइनिंग बार दिखायी दिया , शर्मा जी की बाछें खिल गयीं . आनन फ़ानन में बार में प्रवेश किया, मामला ससुराल के शहर का था इसलिए शर्मा जी ने तय किया सबसे आख़िर के स्मोकिंग ज़ोन वाले केबिन में बैठा जाए . सबसे पहले शर्मा जी ने लगातार दो सिगरेटें पी कर पाँच दिनों की बोरियत को दूर किया , पटियाला पेग स्कॉच का ऑर्डर दिया. साथ में साइड दोष में चिकेन ६९ और फ़िश फ़िंगर रोल मँगवाए. उस दिन पता लगा अगर कोई मनपसंद चीज़ कई दिनों के बाद मिले तो उसका क्या आनंद होता है . 

बस खाने पीने के इस अद्भुत सुख का आनंद उठा कर शर्मा जी केबिन के बाहर निकले तो सामने देख कर होश उड़ गए . सामने वाले केबिन से उनके ससुरश्री निकल रहे थे . काटो तो खून नहीं , ससुर जी की भी वही हालात थी पर बुजुर्ग तो बुजुर्ग होते हैं , पहल उन्ही को करनी पड़ती है आगे बढ़ कर दामाद को गले लगा लिया , उनके मुख से भी स्कॉच और फ़िश रोल की महक आ रही थी. गले मिलते ही दोनों के संस्कार भी मिल गए .

✍️  प्रदीप गुप्ता, B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

शुक्रवार, 28 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य --विशेषज्ञता की हद


 वो ज़माना गया जब हमारे घर में कोई  बीमार पड़ जाता था तो हम सीधे अपनी गली मोहल्ले के डाक्टर के पास जाये थे . इसे फ़ैमिली डाक्टर भी कहा जाता था. यह एक ऐसा बंदा होता था जिसे परिवार के हर सदस्य के स्वास्थ्य के बारे में बारीक से बारीक जानकारी होती थी , उसे यह भी पता होता था कि अम्मा जी  को शुगर रहती है , पापा जी के घुटनों में दर्द रहता है इसलिए वो इलाज के दौरान वही दवाई लिखता या देता था जिससे उनकी मेडिकल कंडिशन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न हो . 

अब तो हाल यह है कि मुहल्ले के नुक्कड़ पर केवल वही डाक्टर बचे हैं जिनके नाम के आगे एबीसीडी , फिर आरएमपी या फिर जीएमपी क़िस्म की डिग्रियाँ लगी होती हैं . बाक़ी लोग इलाज कराने के लिए या तो सीधे पाँच सितारा अस्पताल जाते हैं नहीं तो फिर किसी स्पेशलिस्ट के पास. इलाज शुरू होने से पहले ही ये डाक्टर कई सारे टेस्ट करवाने के लिए लिख देते हैं , उनका सीधा तर्क रहता है कि जब तक वे बीमारी के बारे में मुतमयीन नहीं हो जाएँगे तब तक दवा नहीं देंगे . डाक्टर की फ़ीस मात्र एक हज़ार और टेस्टों की लागत यही कोई दस हज़ार . मरीज इस बात से संतुष्ट हो जाता है  कि डाक्टर बेफ़जूल दवाई देने के पक्ष में नहीं है . लेकिन डाक्टर और टेस्टिंग लैब का सही सही रिश्ता क्या होता है यह मुझे कुछ महीने पहले ही पता लगा . मेरे पैर में दर्द था और पाँच सितारा अस्पताल के डाक्टर भास्कर ने मुझे हार्ट का कलर डापलर करने की पर्ची थमा दी थी. जिस लैब की पर्ची थी वह मेरे घर से काफ़ी दूर थी , मेरे घर के क़रीब एक नई लैब खुली थी मैंने  सोचा क्यों न वहीं से टेस्ट करवा लिया जाए , लैब में पहुँचा , मेरी पर्ची पढ़ कर कर काउंटर पर बैठी रिसेप्शनिस्ट सीधे  अपनी लैब के स्वामी के चेम्बर में पहुँच गयी  . वो बहुत ही इक्सायटेड लग रही थी . वहाँ का पूरा सेट-अप छोटा सा ही था, चेम्बर में हो रही उन दोनों की बात आराम से सुन पा रहा था , लैब स्वामी कह रहा था ,’ जूली , डाक्टर भास्कर को फ़ोन लगाओ , उनको बोलो सर आपका खाता खोल दिया है , हम अभी नए हैं हम  तीस परसेंट के साथ दस परसेंट बोनस भी दे रहे हैं. तब समझ  में आया कि स्पेशलिस्ट डाक्टर क्यों कई क़िस्म के टेस्ट की परची बना  कर देता है. मेरे एक जनरल फिज़िशियन मित्र तो उस पर्ची को देख कर कई मिनट तक पेट पकड़ कर हंसते रहे , कहने लगे मुझे आज ही पता चला कि पैर के दर्द के कारण का पता हार्ट के कलर डोपलर से चल सकता है. 

इन दिनों चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक़्क़ी हो गयी है कि शरीर के छोटे छोटे भागों के विशेषज्ञ बन चुके हैं मसलन दांत को ही लीजिए , दांत में इंप्लांट का विशेषज्ञ अलग है , रूट कैनाल का अलग. एक दिन तो हद  ही हो गई , मेरे एक मित्र एक सितारा हास्पिटल में ईएनटी विभाग में गए , वहाँ बैठे डाक्टर को कान देखने के लिए कहा , डाक्टर बोला ‘सॉरी मैं तो नाक का विशेषज्ञ हूँ ‘ हमारे मित्र उस सितारा अस्पताल में घूम घूम कर और विभाग में बैठे बैठे परेशान हो चुके थे डाक्टर से मुख़ातिब हुए कहने लगे, ‘ठीक है सर मेरा कान मत देखिए पर इतना बता दीजिए आप  नाक के बाएं छेद  के विशेषज्ञ हैं या फिर  दाएँ के ‘.

सच कहूँ तो ऐसे डाक्टर ज़्यादा ज़रूरी हैं जो आपके पूरे शरीर को समझ कर आप का निदान कर सकें .

✍️ प्रदीप गुप्ता

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

बुधवार, 26 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य --- टाइम हो तो पढ़ लेना : हम तो पेलेंगे

 


       शीर्षक से यह ग़लतफ़हमी मत पाल लीजियेगा कि आगे आप कोई  X - Rated  रचना पढ़ने जा रहे हैं. वैसे अगर ऐसा  भी होता तो भी अब  डरने की बात नहीं रह गयी है , इन दिनों तो  X - Rated फिल्मों के कलाकारों  (जी हाँ इशारा सही समझ रहे हैं )  को भी महिमामंडित किया जाने लगा है , सन्नी लियोन को बालीबुड के पत्रकार अब एडल्ट फिल्म एक्टर  कह कर सम्मानित करने लगे हैं.  

     पर हमारा मंतव्य तो  बिलकुल नई  विधा को लेकर है। यह विधा है  सोशल मीडिया  की,  जिस ने बिलकुल अपने छोटे कस्बों के पुराने दिनों की याद दिला दी है. उन दिनों  हमारे मोहल्ले में शर्मा चाचाजी के साले साहब की बला की खूबसूरत  बेटी किट्टी के आगमन से  मोहल्ले वालों का ईमान डिग गया  था।  हमारे पूरे फत्तू गैंग के मेम्बरान रोजाना उन पोशाकों में नज़र आने लगे थे जिसे पहन कर शादी व्याह या फिर कालेज की पिकनिक पर  जाया करते थे. हमारा दोस्त कल्लू जो महीने में कभी कभार नहाता था  रोजाना ख़ास फ़िल्मी सुंदरियों के पसंदीदा साबुन लक्स से नहा कर शर्माजी के  घर के सामने ही बैठा नज़र आता था।  हमारे एक और  दोस्त  रमणीक जिन्होने पैसे बचाने के लिए  सालों साल  तक  बाल न कटाने का संकल्प लिया था और जिनके  इस ऊलजलूल संकल्प के साये में जुओं ने उनके बालों को अभयारण्य बना लिया था, अचानक वे रातों रात ठीक जितेंदर शैली के हेयर स्टाइल में नज़र आने लगे थे। लौंडो की बात  छोड़ो , पके बालों वाले भी टिप टाप नज़र आने लगे थे. बस कुछ ही दिनों के बाद किट्टी की वर्चुअल मोहब्बत में दोस्तों के बीच चक्कू छुरियां चलने की नौबत आ निकली।  चढ्ढी बढ्ढी दोस्त अचानक एक दूसरे के खूंखार दुश्मन बन गए।

     तो भाई लोगों, जैसे ही फेस बुक और वाट्स एप शुरू हुए  हमने इन  पर अपना खाता बना लिया।  अतीत  में तो हमारे  छोटे से  मोहल्ले में  शर्मा  चाचाजी के साले साहब की बेटी किट्टी ने ही हलचल मचा दी थी , यहाँ वर्चुअल स्पेस  में  तो हलचल ही हलचल थी रोज नये  से नये  खूबसूरत परी चेहरों  से फ्रेंडशिप के  अनुरोध हमारे खाते में आने शुरू हो गए  , इन्हे देख कर सबसे पहले तो हमने शहर के बेहतरीन फोटोग्राफर कक्क्ड़ से अपनी तस्वीर खिंचवा ली। कक्क्ड़  खाली पीली फोटोग्राफर ही नहीं था फोटोशॉप विशेषज्ञ भी था. उसने हमें तस्वीर में फोटोशॉप  करके रणवीर कपूर से भी बेहतर बना  दिया था ।  धीरे धीरे हमारी  मित्र संख्या का ग्राफ तेजी से  ऊपर उठने लगा।  पहले सेंचुरी पूरी हुई, फिर डबल सेंचुरी , भाई लोग आठ महीने में यह आंकड़ा चार डिजिट को पार कर गया जब की  हकीकत की दुनिया में फत्तू गैंग , कलीग, बीबी की सहेलियों  और रिश्तेदारों को भी जोड़कर जान पहचान के लोगों की तादाद  बमुश्किल तमाम पैंतालीस से अधिक नहीं थी।  हमारा समय अब समाचार पत्र, मैगजीन पढ़ने  , टहलने , खेलने, दोस्तों से गप बाज़ी करने से भी ज्यादा डेस्क टाप, लैपटॉप, स्मर्टफ़ोन के फेसबुक आइकॉन को दबाने में लगने लगा। अपने नए वर्चुअल दोस्तों को प्रभावित करने के लिए  महापुरुषों, खिलाडियों, बिज़नेस टायकून, के हाई  फंडू किस्म के कोटेशन खोजता  , यही  नहीं फोटोशॉप विशेषज्ञ  कक्कड़  नियमित रूप से  मुझे अनेकों जानी अनजानी लोकेशन में चिपकाए मेरे चेहरे वाले फोटो बनाता, इन फोटो में  कभी मैं गोवा के बीच पे दिखाई देता तो कभी केरल के रेन फारेस्ट में दीखता।  और मैं इन सब को दनादन पेल रहा था।  उसके बाद मैं सांस रोक कर इंतजार करता गिनता कि मेरे वर्चुअल दोस्तों खास तौर पर परीशां चेहरों  में से कितनों  ने इन्हे लाइक किया , अगर मेरे पोस्ट को उनमें से कोई फॉरवर्ड करता तो मेरा दिन बन जाता। यह सिलसिला एक  खूबसूरत ख्वाब  की तरह से चलता ही रहता, लेकिन इसमें अचानक जबरदस्त ब्रेक लग गया।  हुआ कुछ यूँ कि हमारे सबसे बड़े सालारजंग साहब अपने टूर के सिलसिले में हमारे शहर में आये हुए थे जाहिर सी बात है हमारे घर ही रुके हुए थे , कसम से वे  बड़े संजीदा किस्म के इंसान थे घंटे भर बैठते तो मुश्किल से कोई बोल फूटता था. उसदिन मेरे कमरे में ही बैठे हुए थे , उन्हें जरा दो नम्बर की काल आयी हुई थी तो मेरे कमरे के वाश रूम में चले गए , इससे पहले उनकी उँगलियाँ ठक ठक उनके स्मार्टफोन पर चल रही थीं , ऐसे ही उत्सुकतावश मैंने उनका मोबाइल उठाया , देखा फेसबुक ऐप खुला हुआ था।  भाई लोग बारी मेरे गश खा कर गिरने की थी , जिस फेसबुक महिला मित्र से दिन में कम से कम चार पांच बार शब्द सन्देश, फोटो आदान प्रदान करता था, जिनकी तस्वीरों में मुझे परी   नज़र आती थीं  , वो आई डी हमारे इन्ही सालारजंग ने क्रिएट की थी ! जब उनकी फ्रेंडलिस्ट देखी  तो पाया 4950 मित्र थे जो ज्यादातर पुरुष थे।  अब तो अपना फेसबुक के महिला मित्रों की जात  से भरोसा ही उठ गया है , क्या पता मेरे कितने ही  बॉस लोग और अधीनस्थ भी ऐसी ही  फेक महिला आई डी के जरिए  मुझको उल्लू बना रहे होंगे !

      यही नहीं इन दिनों सोशल मीडिया पर रातों रात अनगिनित डाक्टर, वैद्य , हकीम , नैचुरोपैथ , योगगुरु उग आये हैं,  इनके पास कैंसर से ले के बबासीर और डायबिटीज की बीमारियों को  रातों रात ठीक करने का नुस्खा  मौजूद है।  जैसे ही ऐसा कोई नुस्खा अपने पेज पर दिखाई दिया , यार लोग दनादन पेलना शुरू कर देते हैं , इससे भी खतरनाक यह कि कई बार डाक्टर द्वारा दी गयी दवाई छोड़ कर इन नुस्खों पर अमल करना शुरू कर  देते हैं , बाद में बीमारी और घातक बन जाती है।  कल तो गज़ब हो गया घर के पास वाले बाजार में पाइनएप्पल बेचने वाला   भय्या  अपने  ठेले पर पाइनएप्पल छील छील कर बेचने की लिए रख रहा था , छिलके  एक बोरे में भर रहा था. मेरे पडोसी रंगनाथन वहीँ खड़े थे और बोरे में  से  थोड़े से छिलके निकाल कर अपने थैले में डाल रहे थे।  मेरी  प्रश्नवाचक मुद्रा को देख कर कहने लगे  मैंने  कल ही व्हाट्सप पर पढ़ा है कि अगर पाइनएप्पल के  छिलकों को रात भर पानी में भिगो कर गुदा पर रगड़ा जाय तो बबासीर ठीक हो जाती है अब आपसे क्या छिपाना मुझे बबासीर है।  आज सुबह सबेरे मेरे घर की घंटी बजी , देखा रंगनाथन खड़े हैं चेहरा ऐसा  जैसे किसी भूत ने निचोड़  लिया हो , कहने लगे ,' गुप्ताजी गाड़ी निकालो कोकिलाबेन हॉस्पिटल चलना है.' मैंने पूछा क्या हुआ ?  कहने लगे क्या  बताऊं अभी पाइनएप्पल के छिलके रगड़े थे बहुत गड़बड़  हो गया, रगड़ने से खून निकलने लगा बंद ही नहीं हो रहा है।

       इन दिनों सोशल मीडिया पर इस पेलम पेल वाले खेल का सबसे ज्यादा फायदा राजनीतिक दल उठा रहे हैं  , हर दल के अपने अपने आईटी सेल हैं , जिनके संचालक अब ज़मीन से जुड़े नेताओं  से भी ज़्यादा सम्मान पाते हैं, इन सेल में  बैठे हुए लोगों का काम इतिहास के गढ़े  मुर्दे उखाड कर  छीछालेदर करना या फिर अपने तरीके से राजनैतिक नैरेटिव गढ़ना होता है , हमारे सालारजंग साहब की तरह से  इन लोगों ने हज़ारों आईडी बना ली हैं उनसे लाखों लोगों को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजते रहते हैं , और तो और हमारी सोसाइटी जैसी बाक़ी सोसाइटियों में लाखों लोग ठलुआगिरी  करने वाले वैठे हुए हैं, जैसे ही कोई नया अधसच्चा  अधपक्का शिगूफा छोड़ा जाता है ये ठलुए लपक कर दनादन अपनी फ्रेंड लिस्ट में पेलना शुरू कर देते हैं। मजे की बात यह कि इससे अच्छे अच्छे दोस्तों की दोस्तियां खटाई में पड़  गयी हैं, उसकी वजह यह कि अगर कोई वास्तविक जगत का मित्र उन्हें उनके द्वारा पेली गयी पोस्ट की हकीकत के बारे में बताता है तो वे इसे सीधे सीधे दुश्मनी में बदल लेते हैं  राजनैतिक प्रचार या दुष्प्रचार का इतना सस्ता और कोई तरीका नहीं है। मजे की बात यह है कि इन्ही अधकचरे सच को कई बार समाचारपत्रों के आलसी रिपोर्टर भी उठा लेते हैं फिर जरा हमारे आपके जैसे अलर्ट पाठक के ध्यान दिलाये जाने पर समाचारपत्र  के किसी अंदर के पेज पर  मुश्किल से ढूंढी जाने वाली जगह में क्षमा याचना कर लेते हैं।

यह पेलम पेल का जो खेल सोशल मीडिया पर चालू है, अच्छे भले लोगों को बॉट (Bots) में बदल रहा है और हकीकी जिंदगी के दोस्तों को दुश्मनों में बदल रहा  है , हम तो यही कहेंगे कि यह और कुछ नहीं वरन बीमार होते समाज का लक्षण है।

✍️ प्रदीप गुप्ता

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065