शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की सात कविताएं.....

 



(1) गाँव : एक शब्द चित्र  

      

एक अजब वीरानगी है 

इन दिनों चौपाल में 


न इधर सरपंच आते 

न ही कोई फ़रियादी

हुक्का कहीं लुढ़का पड़ा है 

और कहीं चौपड़ गिरा दी 

अब ठहाके को तरसती 

सामने वाली बूढ़ी काकी 

एक अरसे से ढिबरी वहाँ 

है पड़ी  बिन तेल बाती 


जानना यह है ज़रूरी

गाँव क्यों इस हाल में 


बंट गए हैं लोग फ़िरक़ों में 

छोटी छोटी बात में 

और ज़हर फैला हुआ है 

नफ़रतों का बेबात में 

जो गले मिल के रहा करते थे 

गला काटने की फ़िराक़ में 

किसान से मुवक्किल बने और लुट गए 

बस वकील हैं ठाठ में 


है दुखद पर सच यही है 

गाँव अब इस हाल में 


न रोपाई समय पर 

न ही अब  चले है हल 

दिन कट रहे कचहरी में 

रात को पहरे का शग़ल 

कुछ इधर के साथ में हैं 

कुछ उधर के संग निकल 

स्थिति आदर्श है यह 

काटने वोटों की फसल 


और युवा करके पलायन शहर में 

फँस चुके  मजूरी के जंजाल में


(2) कठपुतली सा हमें नचाएँ 

कठपुतली सा हमें नचाएँ 

जो कुछ चाहें वही कराएँ


एक पटकथा लिख के रक्खी

जिसके नित दिन नए प्रसंग 

झूठ सत्य सा बाँच रहे हैं 

जैसे छिड़ी हुई हो जंग 

पढ़ना लिखना अब अतीत है 

जिएँ आभासी दुनिया के संग 

भ्रमित लोग अब और भ्रमित हैं 

झूठ बिखेरें  कितने रंग 


नेपथ्य से जाल बिछाएँ 

हम से जो चाहें करवाएँ 


मेरे सच और तेरे सच में 

झूठ झूठ जंजाल बिछे  हैं 

घर घर में उन्माद भरा है 

तर्कों के हथियार बड़े हैं 

उल्टे कदम सही ठहराने 

देखो कितने लोग खड़े हैं 

डोरें उनके पास हमारी 

हम सारे रोबोट बने हैं 


जतन करो आँखें खुल जाएँ 

कठपुतली फिर मानव बन जाएँ


(3) ज़िंदगी : एक शब्द चित्र ………

हरदम लड़ती रहती हो 

मुँह में जो आता कह देती हो . 

मैं भी सब चुप सुनता रहता हूँ 

साथ साथ अख़बार की सुर्ख़ियों को 

पढ़ता रहता हूँ 

इस सब के बीच मेज़ पे चाय आ जाती है 

हाँ, स्वरों की हलचल और बढ़ जाती है 

आलू के बदले अरबी ले आ जाना 

मुद्दा बन जाता है 

दूध वाला ज्यादा पानी मिला रहा है 

मसला आ जाता है 

कई बार लगता है भूमण्डल की 

सारी गड़बड़ मेरे कारण हैं 

और इधर मेरा दुनिया में होना अकारण है 

अख़बार से झांकता हूँ 

मेज पे नया कुछ पाता हूँ 

खमण , फ़ाफडा की ख़ुश्बू से 

भरी प्लेट पाता हूँ 

इसी बीच ऊँचे स्वर 

अचानक सुप्त हो जाते हैं 

पूजा घर से प्रार्थना के स्वर 

घंटी के साथ  गूंजित हो जाते हैं

इस सब के बीच नहाने 

और बाज़ार जाने के 

आदेश जारी हो जाते हैं 

अख़बार अधूरा छोड़ हम भी 

नए मोर्चे पर बढ़ जाते हैं 

बाज़ार में इक इक तरकारी 

चुन चुन के रखवाते हैं 

फिर भी कोई गड़बड़ न रह जाए

 सोच के थोड़ा घबराते है 

हर सामान को कई बार 

लिस्ट से जंचवाते हैं 

कुछ छूट नहीं गया हो 

इस लिए बार बार गिनवाते हैं 

यह किसी एक दिन का नहीं 

रोज़ का क़िस्सा है 

ऐसा लगता है अब व्यक्तित्व का 

अटूट हिस्सा है 

कभी सोचता हूँ कि उसकी

वाणी का अंदाज मीठा हो जाए

और ज़िंदगी का अन्दाज़ ही बदल जाए 

पर इस पर मुद्दे पर ठहर सा जाता हूँ 

और ज़िंदगी के इन रसों का लुत्फ़ उठाता हूँ 

तुम जैसी हो वैसे ही आगे भी रहना 

इस रूप में भी सैकड़ों से अच्छी हो 

ऐसे ही जीवन भर रहना


(4) उम्र का असर ....

उम्र का असर अब दिखने लगा है 

थोड़ा चल के शरीर थकने लगा हैं 


मगर बहुत कुछ है जो मुझे आज भी 

बूढ़ा होने से रोकता है 

तेरी यादों का सिलसिला 

आ के अक्सर झकझोरता  है 

पुलकित हो जाता है रोम रोम 

अजब सी ऊर्जा भर जाती है 

मायूसी पल भर में तेरी यादों से 

वाष्प बन कर उड़ जाती है


पहले उड़ता था उन्मुक्त पंछी जैसा 

अब अपने आप ही टिकने लगा है 


चंद दोस्त जब दूर से दिख जाते हैं 

कदम अपने आप उधर मुड़ जाते हैं 

वही उन्मुक्त अट्टहास वही शोख़ी 

उनके पुराने प्रहसन भी गुदगुदाते हैं 

मेरे ये दोस्त  टानिक से कम नहीं 

थके शरीर को नए उत्साह से भर देते हैं 

अजीब रिश्ता है मेरा उनके साथ 

बिना कहे वो मुझको समझ लेते हैं 


पर देख पता हूँ उन दोस्तों का दर्द 

अब उनके चेहरे पे  छलकने लगा है 


टीवी मोबाइल  से ऊब होती है 

तो जा के किताबों में गुम जाता हूँ 

हर किताब से नया रिश्ता बनता है 

उसके साथ सफ़र पे निकल जाता हूँ 

कई बार जब कविताएँ पढ़ता हूँ 

उनके कई अंश मुझ पे ताने मारते हैं 

कई कहानियों में अपना अक्स लगता है 

बहुत से उपन्यास हालत के रोजनामचे हैं 


किताबों की दुनिया मैं तैरते तैरते 

एक नया सा शख़्स मुझमें बसने लगा है


(5) मशक़्क़त करनी पड़ती है ………

बहुत मशक़्क़त करनी पड़ती है 

तब कहीं जा के किसी के लबों पे मुस्कान आ पाती है 


कभी जोकरों जैसा लबादा ओढ़ना होता है 

सुनाने पड़ते है समिष या फिर निरामिष जोक 

कभी बौद्धिकता का आवरण उतार देना होता है 

तो कई बार ज़रूरी हो जाती है थोड़ी नोक झोक 

भले ही दिल में चल रही हों ज़बरदस्त उलझनें 

अपने सारे उद्वेगों को ठंडे बस्ते में लेते हैं रोक 

ताकि आपके सामने वाला बस यही सोच ले 

आप से ज़्यादा ख़ुश मिज़ाज नहीं है कोई और 

 

सच तो यह है कि बहुत कोशिश के बावजूद 

आसानी से यह कला हर किसी को नहीं आ पाती है 


कर के देखिए न एक बार,  अगर आपके प्रयास से 

कोई सचमुच मुस्कुरा देता है 

यक़ीन मानिए आपका दिन बन जाएगा 

इस तरह दिल तक पहुँचने का रास्ता खुल जाता है 

इसे  हल्की फ़ुल्की उपलब्धि  मत समझ लेना 

अच्छे अच्छों को यह हुनर नहीं आ पाता  है 

दिल का रास्ता खोजने में बरस लग जाते हैं 

किसी का मुस्कुराना सम्बन्धों  का पासवर्ड बन जाता है 


मुस्कुराहट फैलाने का सिलसिला जारी रखें

किसी की मुस्कुराहट से दुनिया और हसीन हो जाती है . 



(6) सफ़र .….

बताया जो मैंने अपना सफ़र 

मेरे साथ चाँद तारे हो लिए 


कहाँ ये सफ़र जा के होगा ख़त्म 

कोई जीपीएस नहीं मेरे हाथ में 

रास्ता कहाँ से कहाँ जा मिले 

भूल जाऊँ दिशा बात ही बात में 

है ये लम्बा सफ़र कोई  साथी नहीं 

ना कोई सयाना मेरे साथ में 

ना कोई टिकट ना मासिक पास 

ना कोई आरक्षण मेरे पास में 


मगर देखे मेरे पैरों के ज़ख्म 

साथ में कुछ दोस्त भी हो लिए 


मजहबों के बारे में जम के पढ़ा 

ऋषियों  की वाणी को भी सुना 

मंत्रों को तसबीह पे फेर के 

ध्यान की मुद्राओं को भी चुना

संगतें साधुओं की अक्सर करीं

उनके सुभाषितों को भी गुना 

समाधि , मज़ारों पे चादर चढ़ा 

इक तिलिस्म रूहानियत का बुना 


यह सब कुछ कुछ अधूरा लगा 

इसलिए रस्ते अलग चुन लिए



(7) कविता ....

कविताओं को लेकर जोश ओ जुनून कहीं नहीं दिखता 

वजह साफ़ है अधिकांश मामलों में गहराई नहीं होती 

जो कविता महज लिखने के लिए लिखी जाती हैं 

उनमें उत्कृष्ट शब्द शिल्प रहता है स्पंदन नहीं मिलता 

कुछ कविताएँ तो ख़ास पुरस्कारों के लिए गढ़ी जाती हैं 

इसीलिए आम लोगों की ज़बान तक नहीं चढ़ पाती हैं 

कविता सच में कविता होगी तो पढ़ के मुरीद हो जाएँगे  

इनमें दर्द के साये तो कहीं झूमते गाते शब्द दिख जाएँगे 

ऐसी कविता में वंचित के दुःख दर्द भी मिल जाते हैं 

हताश इंसान को इनमें सम्बल भी नज़र आते हैं 

राह भटके को आशा का झरोखा  भी दिख जाता है 

कहीं समाज के हालत बदलने का जुनून छुपा रहता  है 

कई में तो कवि की ज़िंदगी का पूरा निचोड़ रहता है 

ऐसी कविता को सत्ता के गलियारे की दरकार नहीं 

घूमती रहती है ज़िंदगी की गलियों में कहीं विश्राम नहीं 

इसमें जीवन रंग रहते हैं कोई पूर्वाग्रह नहीं बोती हैं 

तभी तो ये किसी प्रचार तंत्र का कट पेस्ट नहीं होती हैं 

जब कभी लोग अपनी तकलीफ़ से आजिज़ आ जाते हैं 

इन्हीं कविताओं को परचम की तरह लहराते हैं 

इसी लिए ये आगे जाके इतिहास का हिस्सा बन जाती हैं 

और ये लोक गाथाओं में स्थायी रूप से बस जाती हैं 

कविता सही में कविता हो तो उसे हलके में मत लेना 

इसमें बसते हैं प्राण, काग़ज़ का पुर्ज़ा न समझ लेना


✍️ प्रदीप गुप्ता 

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065    

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