सोमवार, 2 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता ---अब तो शहरों में समा जाते हैं


बड़े  शहरों में समा गए हैं 

न जाने कितने अधूरे सपने 

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने 


गाँव क़स्बों के ज़्यादातर माँ बाप

बच्चों में बड़े बड़े सपने जगाते हैं 

अपनी पेंशन , बचत दांव पे रख के 

उन्हें उच्च तकनीकी  शिक्षा दिलाते हैं 

उनके  कौशल का इस्तेमाल 

अधिकांशतः गाँव क़स्बे में नहीं होता 

इसलिए वहाँ का प्रतिभाशाली युवा 

अब अपने पुश्तेनी घर में नहीं रहता 


उसका लक्ष्य बड़ी नौकरी पाना महानगरों में 

वहीं सच हो सकते हैं माँ बाप के सपने 

इस तरह महानगर  लील रहे हैं  

गाँव और क़स्बे कितने 


तभी तो गाँव क़स्बों के 

मध्यम वर्गीय घरों में या तो अब ताले है 

या फिर उन घरों में बच गए 

इक्का दुक्का बड़ी उम्र के  रखवाले हैं 

यही नहीं वहाँ की  पूरी अर्थ-व्यवस्था 

धीरे धीरे सिमट रही है 

दुकानों , व्यवसाय और खेतों में 

कार्यरत लोगों की संख्या घट रही है . 


यहाँ का दुःख दर्द समझने को 

बचे हैं बहुत कम अपने

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने  


शहरों में आकर जो युवा बस गए हैं 

उनका अलग  बुरा हाल है 

वे अपनी जड़ों से कट  चुके हैं 

नए परिवेश में जमना  बड़ा सवाल है 

उनके दिन ऑफ़िस में और सुबह शाम 

भीड़ में सफ़र करते हुए कट जाते हैं 

शहर की  संस्कृति से जुड़ाव चुनौती है 

यहाँ आ के  सभी रिश्ते सिमट जाते हैं 


पैसे से बेशक सम्पन्न हो गए हैं 

मगर पीछे  छूट गए हैं  बहुत से रिश्ते अपने 

हमारे महानगर  लील चुके  हैं  

गाँव और क़स्बे कितने

✍️ प्रदीप गुप्ता, मुम्बई


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