नेपाल जाते समय अपने घर से निकलने पर मुझे ऐसे लग रहा था जैसे कोई परीक्षा देने जाना है दिमाग में यही चल रहा था कि कोई जरूरी सामान छूट न जाए। दूर जगह और दूसरा देश। अपने देश की तस्वीर दूसरे देश में प्रस्तुत जो करनी थी चाहे कविता के रूप में, चाहे पहनावे के रूप में या फिर सभ्यता के रूप में। रास्ते में ही पता चला कि हमारा मुख्य हथियार यानि 'कलम' हमसे घर पर ही छूट चुका था, हालांकि यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी, कोई भी पैन पांच-दस रूपए का कहीं से भी खरीद सकता था लेकिन पता नहीं क्यों ,मन में निश्चय कर लिया कि यह पूरी यात्रा बिना कलम के ही करूंगा।
हमें अलीगढ़ से जोगबनी तक ट्रेन से जाना था और ट्रेन जाने का समय सुबह 9:30 था ,हम कहीं लेट न हो जाएं इसलिए रामपुर के वरिष्ठ गीतकार श्रद्धेय शिवकुमार चंदन जी को अपने घर पर रात्रि में ही बुला लिया था। 16मार्च की सुबह 6:00 बजे से पहले ही,हम लोगों ने बहजोई के ख्याति प्राप्त साहित्यकार श्री दीपक गोस्वामी चिराग जी का दरवाजा खटखटाया। हो सकता है उनकी श्रीमती जी ने कहा भी हो कि यह लोग न खुद सोएंगे, न हमें सोने देंगे, क्योंकि सुबह की नींद का तो आनन्द ही कुछ और होता है।
कुछ ही देर में साहित्य के हम तीनों सिपाही अलीगढ़ की बस में सवार हुए और समय से पहले स्टेशन पहुंच गए। 'भारतीय रेलवे लेटलतीफी व्यवस्था' का सम्मान करते हुए, ट्रेन निर्धारित समय से मात्र 20 मिनट लेट थी। रेंगती हुई ट्रेन में हम लोग सवार हो गए और ट्रेन झूंमती-झांमती जोगबनी को रवाना हुई। कहीं अंगड़ाई लेती नजर आती तो कहीं स्पीड पकड़ लेती और जहां उसे याद आ जाता कि उसका नाम एक्सप्रेस भी है तो अपने नाम का सम्मान करते हुए थोड़ा और तेज चल जाती। प्रयागराज ,पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन , मीरजापुर आदि होती हुई ट्रेन 25 घंटे की यात्रा पूरी करके जोगबनी स्टेशन पहुंच गई ।बॉर्डर पर ऊंचा तिरंगा देखकर हमारा सीना फूलता महसूस हुआ और फिर शीघ्र ही हमने नेपाल देश की सीमा में कदम रखा, रिक्शे से विराटनगर (महानगरपालिका) शहर पहुंचे।
हमें नेपाल भारत साहित्य महोत्सव में प्रतिभाग करना था, सीधे कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। श्री रामजानकी मंदिर के पास होटल में कमरा नंबर 13 में, हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। तरोताजा होने के बाद हम लोग, श्री रामजानकी मन्दिर में दर्शन करने के उपरान्त, कार्यक्रम में पहुंचे। प्रोफ़ेसर देवी पन्थी जी अपना उद्बोधन दे रहे थे, देखते ही हमारे नाम पुकारे और रुद्राक्ष माला पहना कर व तिलक लगाकर हम सबका स्वागत किया। इस उद्घाटन सत्र में "हिन्दी और नेपाली भाषा का जुड़ाव" विषय पर चर्चा चल रही थी, वक्ताओं ने अपने-अपने सारगर्भित विचार रखे। भारत के सिक्किम, मिजोरम, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के अतिरिक्त नेपाल के दूरदराज क्षेत्रों से भी साहित्यकार इस महोत्सव में पहुंचे हुए थे। वक्ताओं में कुछ जमकर नेपाली भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और भारतीय वक्ता अपने-अपने क्षेत्रों के इतिहास से जोड़कर, हिन्दी भाषा में धाराप्रवाह बोल रहे थे। हाॅल में सूनापन बिल्कुल नहीं था, क्योंकि जब नेपाली बोलते तो नेपाली भाषा के चहेते चहकने लगते, और जब कोई हिन्दी भाषी बोलते तो हिन्दी प्रेमी लोग तालियां बजाते। कुछ ऐसे भी थे जो दोनों भाषाओं पर अधिकार और ज्ञान रखते, तो वे करतल ध्वनि से दोनों ही भाषाओं का सम्मान बढ़ा देते।
प्रथम दिवस में ही काफी कलमकारों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं, अनूठा माहौल बना हुआ था, इतने में ही संचालक महोदय ने मेरे नाम को बोलते हुए, मंच पर अपना स्थान लेने की बात कही, लेकिन हमें अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि पूरा हॉल उच्च स्तर के वरिष्ठ कलमकारों से भरा हुआ था,न जाने किस दृष्टिकोण से उन्होंने मुझे मंचस्थ करने का फैसला लिया होगा? खैर हम मंच की ओर बढ़ चले और अपनी जगह ले ली। इतने में ही काठमांडू से आए त्रिभुवन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ गज़लकार डॉ घनश्याम परिश्रमी जी को मंच पर आमंत्रित किया गया, मैं उनसे पूर्व परिचित था, वे मेरे पास ही सटकर बैठ गए। अब उस सत्र में अपनी प्रस्तुति देने वालों को सम्मानित करने का जिम्मा, मंच पर मौजूद लोगों का ही था। अंत में मंच के लोगों के बोलने का क्रम शुरू हुआ, जिसमें हमने भी अपने कुछ मुक्तक और छोटी सी रचना प्रस्तुत की ,जिसमें भारतीय संस्कृति को पटल पर रखने की पूरी कोशिश की गई थी। सदन का भरपूर स्नेह मिला और फिर नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव के आयोजक मंडल ने अंगवस्त्र ,प्रमाण पत्र व स्मृति चिन्ह भेंट किए। तमाम वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपने गीत,गजल ,हास्य-व्यंग्य आदि पेश किए ,कुछ युवा कलमकार भी थे, ऐसे खुशनुमा माहौल में साहित्य की लहलहाती फसल देखकर, मेरा मन बहुत प्रफुल्लित था।
दूसरे दिन नाश्ते के बाद कार्यक्रम विधिवत प्रारंभ हुआ जिसमें बहजोई के वरिष्ठ साहित्यकार श्री दीपक गोस्वामी चिराग और रामपुर के जाने-माने गीतकार श्री शिवकुमार चंदन जी को पूरे मान-सम्मान से मंचस्थ किया गया था,मुझे लगा कि नेपाल में पहुंचकर मेरा भारत सिंहासन पर विराजमान है। चारु विधा के जनक प्रोफेसर देवी पन्थी जी संचालन कर रहे थे ,नेपाल और भारत के विभिन्न राज्यों से कुछ अतिथि साहित्यकारों को भी मंचित किया गया और फिर सुनने-सुनाने का क्रम चलता रहा, खूबसूरत माहौल का आनंद लेने के बाद दूसरे दिन के कार्यक्रम को संपन्न किया गया।
शाम को बाजार घूमने निकल पड़े क्योंकि मेरा एकादशी का व्रत था,ऊर्जा हेतु कुछ फल या मिठाई खरीदने थे। बाजार में हर जगह भारतीय और नेपाली मुद्रा के लिए दिमाग लगाना पड़ता और फिर वहां महंगाई सिर चढ़कर बोल रही थी, फलों के भाव सुनकर भूख अपने आप विदा हो गई फिर भी कुछ संतरे ,अंगूर और मिठाई खाकर व्रत पूर्ण किया। मैंने महसूस किया कि स्थानीय लोगों में कठोरता बिल्कुल नहीं थी और न ही कोई चालाकी। कई सरल-हृदय लोगों से संपर्क हुआ उनमें हमारे प्रति सम्मान की भावना झलकती, यानि वहां के अधिकांश लोग दिल के धनी थे। एक जगह जरूर ऐसा मौका आया, जहां रिक्शेवाले ने हमें बाहरी समझते हुए, चार सौ की जगह एक हजार रूपये भाड़ा मांगा, वहां हमने भी स्वयं को विदेशी स्वीकार करने में देर नहीं लगाई।
हिन्दी भाषा के चलन को लेकर वाकई नेपाल देश की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी होगी कि वहां पर आज भी मुद्रा पर हिन्दी अंकों का चलन है और वाहनों पर लगी नंबर प्लेट पर नम्बरों को, देवनागरी लिपि में ही लिखा जाता है,इस विषय पर मैं कहूंगा कि भारत सरकार को भी यह शिक्षा लेनी चाहिए ताकि हिन्दी को बढ़ावा दिया जा सके।
तीसरे दिवस नाश्ते में पतली-पतली करारी जलेबी और चने की दाल के साथ कचौड़ी का लुफ्त लेने के बाद कार्यक्रम हॉल में पहुंचे, आज समापन-सत्र था और हम "क्या खोया-क्या पाया" जैसे विषय पर , मन-मन ही मंथन कर रहे थे। देखा तो क्रान्तिकारी साहित्य अकादमी के संस्थापक व कार्यक्रम संयोजक डॉ विजय पंडित आज का संचालन कर रहे थे। सदन में, नेपाली और हिंदी भाषा में लिखी पुस्तकों का, एक-दूसरी भाषा में अनुवाद को लेकर चर्चा जारी थी। प्रश्नोत्तर चल रहे थे, समस्याओं के समाधान हेतु मंच पर डॉ घनश्याम परिश्रमी जी के साथ ही हिन्दी और नेपाली भाषा के विशेषज्ञ मौजूद थे। धीरे-धीरे कार्यक्रम समापन की ओर बढ़ता चल रहा था,अंत में सभी एक दूसरे को विदा करने और मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान करने में व्यस्त दिखाई पड़े।
हमने कार्यक्रम के उपरान्त शहर के निकट, राजा विराट के महल के भग्नावशेष देखने का निश्चय किया, जो उस स्थान से 8 किलोमीटर की दूरी पर, यादव जाति बाहुल्य गांव भेड़ियारी में था। गांव पहुंचने पर देखा कि चारदीवारी में खंडहरनुमा अस्त-व्यस्त टीला और पड़ोस में माता भुवनेश्वरी का मंदिर और विराटेश्वर महादेव का मंदिर बना था। इस स्थान के संरक्षक श्री कमल किशोर यादव जी से मुलाकात हुई जिन्होंने निजी स्तर पर कुछ पुराने अवशेष एकत्रित कर रखे थे, जैसे - नापतोल के बाट, प्राचीन शिलालेख, सिलौटा, मूर्तियां, हाथी दांत का पासा, तांबे व अन्य धातु के सिक्के, मूंगा रत्न आदि। सरकार की उदासीनता पर यादव जी खासे नाराज दिखे हालांकि कुछ समय पहले ही प्रशासन ने राजा विराट के नाम पर संग्रहालय और उसके सामने चौक में राजा विराट की प्रतिमा स्थापित की है।
बताया जाता है कि जोगबनी का प्राचीन नाम सुंदरवन था जिसमें ऋषियों के तपस्या करने के कारण इसका नाम बाद में योगमुनि, तत्पश्चात जोगबनी पड़ा। यहीं पर प्राचीन काल में एक शमी का वृक्ष था जिस पर पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपा दिए थे और दुर्योधन से छुपते हुए, मत्स्य देश के राजा विराट के महल में नाम परिवर्तन कर, अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था जिसमें युधिष्ठिर ने अपना नाम कंक रखा और एक ब्राह्मण सलाहकार एवं मंत्री की भूमिका में रहे, भीम ने अपना नाम बल्लभ रखकर रसोई का कार्य संभाला, अर्जुन ने बृहन्नला नाम रखकर राजा के यहां संगीत-नृत्य सिखाया, नकुल ने अपना नाम ग्रन्थीक रखते हुए अश्वसेवक के रूप में कार्य किया, सहदेव ने तंत्रिपाल नाम से चरवाहा बनकर गायों की जिम्मेदारी ली और द्रौपदी ने सैरन्द्री नाम रखकर रानी के श्रृंगार करने का काम किया।
इस तरह पांडवों ने एक वर्ष तक अपने को छुपाए रखा, वहीं के लोगों ने बताया कि भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र पर ही कीचक वध पोखर है जो कि आज भी अस्तित्व में है, जिनके संरक्षण हेतु प्रयासों की बहुत कमी है। खैर! इतिहास सहेजे रखने के लिए, ऐसे स्थलों को सुरक्षित रखना चाहिए।
अब हमारी ट्रेन का समय हो चला था हम लोग तुरन्त होटल पहुंचे और फिर "अलविदा नेपाल" कहने का समय आ गया। जैसे ही नेपाल बॉर्डर से निकलकर भारत की सीमा पर कदम रखे, दिल में कुछ अलग-सी खुशी और हलचल होने लगी। रात्रि में लहराता ऊंचा तिरंगा देखकर सीना चौड़ा हो गया और मन में अविस्मरणीय उत्साह। गाड़ी ठीक समय पर चल पड़ी, हम लोग पूरी रात और दिनभर सफर करने के बाद रात में एक बजे, इस यात्रा के परम सहयोगी कवि दीपक गोस्वामी जी के घर पहुंचकर, रात्रि विश्राम किया और सुबह दही-पराठे खाकर अपने घर को निकल पड़े।
घर पहुंचते-पहुंचते मैं भरपूर थक चुका था, हल्की झपकीं में भी रेलगाड़ी के झोंकें पीछा नहीं छोड़ रहे थे, फिर भी इतना अवश्य चाहुंगा कि साहित्य सेवा के लिए मैं कभी थकूं नहीं, रुकूं नहीं, और सतत् मेहनत करता रहूं, ऐसे पावन मौके मेरे जीवन में बार-बार आते रहें, ईश्वर से यही प्रार्थना है।
✍️ अतुल कुमार शर्मा
सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल-8273011742
बहुत ही सुंदर वर्णन किया। हार्दिक बधाई
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