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रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की रचना ----पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया


नहीं चिंता रही कोई, न कोई डर सता पाया

पिताजी आपके आशीष.की हम पर रही छाया


हमारी प्रेरणा है आपका सादा सरल जीवन 

सदा हम पर रहे बस आपके व्यक्तित्व का साया.


नहीं सोचा कि कैसी है, पिता की जेब की सेहत।

रखी जिस चीज पर उंगली, उसी को हाथ में पाया।


जरूरत के समय अपना, न कोई काम रुकता था।

भुला अपनी जरूरत को, हमारा काम करवाया।


भले थी जेब खाली किंतु चिंता में नहीं देखा

अभावों का हमारे पर नहीं पड़ने दिया साया।


पिता खामोश रहकर हर, घड़ी चिंता करे सबकी,

पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG - 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का गीत --सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है-


सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।

और हमारा धरती के प्रति सोचो क्या क्या फर्ज है।


हमको धरती से ही जीवन के सब साधन मिलते हैं।

अन्न और जल, वायु आदि सब इसके आँगन मिलते हैं।

लेकिन फिर भी देखो मानव ये कितना खुदगर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।


हमने वृक्ष काटकर धरती माँ को कितने घाव दिये।

बाँध बनाकर नदियाँ रोकीं ताल तलैया पाट दिये।

अंधाधुंध गंदगी करके सोच रहे क्या हर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


घोर प्रदूषण करके हमने नदियां दूषित कर डालीं।

उद्योगों से धुंआ धुंआ कर वायु प्रदूषित कर डाली।

हम सबका व्यवहार वस्तुतः अब धरती का मर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


समय आ गया है धरती के जख्मों को भरना होगा।

वृक्ष लगाकर हरियाली से हरा भरा करना होगा।

वायु और जल स्वच्छ रखें अब यही हमारा फर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 

रविवार, 28 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की कविता --------कवि गोष्ठी और कोरोना ....


इस बार होली पर

पत्नी ने हमें चौंका दिया,

पहली बार हमें होली की 

कवि गोष्ठियों में सहर्ष जाने दिया,

हमने उत्सुकतावश पूछा,

प्रिये, इस उदारता का कोई विशेष कारण,

क्या अब हम स्थापित करेंगे 

परस्पर विश्वास का नया उदाहरण।

बोलीं, ज्यादा उछलो मत, 

बंद करो खुश होना।

क्या भूल गये चारों ओर 

छा रहा है कोरोना 

जानती हूँ, तुम्हें रंगों से एलर्जी है।

होली पर छींकों की झड़ी लगी रहती है।

सारी गोष्ठी तुमसे तीन फीट दूर रहेगी।

कोई कवियित्री तुम्हारे गले नहीं पड़ेगी।

हम भी आसानी से कहाँ मानने वाले थे।

आखिर बीरबल के खानदान वाले थे।

तुरंत कहा, तुम भी अधूरी जानकारी रखती हो।

अरे कोरोना का वायरस

अल्कोहल से मरता है, 

इतना भी नहीं जानती हो

वहाँ तो अद्धे पौए का भी इंतजाम होगा।

और दारू के आगे कोरोना क्या करेगा।

इतना सुनना था कि उन्होंने 

अपने तेवर बदल लिये।

और हम भी गोष्ठी के लिये 

चुपचाप सरक लिये।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG-69,

रामगंगा विहार,

मुरादाबाद।

मोबाइल नं 9456641400

शनिवार, 27 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का व्यंग्य ----अथ माला महात्म्य


आजकल प्रत्येक कार्यक्रम में माला की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कार्यक्रम का शुभारंभ भी सरस्वती जी को माला पहनाए बगैर नहीं होता। मंच पर बैठने वालों के गले में भी जब तक माला सुशोभित न हो तब तक कार्यक्रम की शुरुआत नहीं होती। यहाँ माला पहनने वाला ही नहीं माला पहनाने वाला भी खुद को कुछ विशेष समझने लगता है या यों कह लीजिए कि संतोष कर लेता है कि चलो पहनने वालों में नही तो पहनाने वालों में ही सही, नाम तो आया।  माला पहनाकर वह फोटू अवश्य खिंचवाता है ताकि सनद रहे।
जिन्हें माला पहनने पहनाने का सौभाग्य नहीं मिलता वह ऐसे ही नाराज नाराज से बैठे रहते हैं जैसे शादी वाले घर में फूफा रहता है। उनकी पैनी दृष्टि कार्यक्रम के संचालन व अन्य व्यवस्थाओं का छिद्रान्वेषण करने में लगी रहती है और संयोग से कुछ कमी रह गई तो उनकी आत्मा को परम संतोष की अनुभूति होती है। आखिर कार्यक्रम की निंदा का कुछ मसाला तो मिला।
कभी कभी माला पहनने वाले इतने अधिक हो जाते हैं कि कार्यक्रम के संचालक भी सभी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते, और असमंजस रहता है कि कहीं रामलाल की माला श्याम लाल के गले न पड़ जाये, असमंजस माला पहनाने वाले के चयन को लेकर भी रहता है कि कहीं माला पहनाने वाले और पहनने वाले में छत्तीस का आंकड़ा न हो, और यज्ञ की अग्नि में घी की आहुति पड़ जाए।
एक कार्यक्रम में ऐसी ही परिस्थिति से निपटने का संचालक महोदय ने बड़ा नायाब तरीका निकाला। उन्होंने  कहा माला पहनने वालों को ढूँढने में देर हो रही है इसलिये सबके नाम की मालाएं अध्क्षक्ष महोदय को पहना दी जायें और सभी माला पहनने वाले समझ लें कि उन्हें माला पहना दी गई।  भला ये भी कोई व्यवस्था हुई, हमारे नाम का माल्यार्पण भी हो गया, लेकिन जो दिखा ही नहीं वह कैसा माल्यार्पण।
आजकल एक परंपरा और चल पड़ी है। मंच पर काव्यपाठ करने वाले कवि जी की वाह वाह करने के साथ साथ बार बार आकर माला पहनाने वालों की होड़ लगी रहती है।  अब इतनी सारी मालाएं तो कोई मँगवाता नहीं है, अत: कविगणों की पहनी हुई मालाएं, जो परंपरानुसार कविगण गले से उतारकर सामने रख देते हैं, वही उठाकर काव्यपाठ करनेवाले कवि को पहना दी जाती है, वह भी बेचारा उस उतरी हुई माला को मजबूरी में पहन लेता है, और फिर उतारकर माइक पर लटका देता है, लेकिन माला भी इतनी ढीठ होती है कि थोड़ी देर बाद फिर गले पड़ जाती है। ऐसी मालाओं का कोई चरित्र नहीं होता। ये प्रत्येक माइक पर आनेवाले के गले पड़ जाती हैं।
इनके पास अपनी मूल गंध भी नहीं रहती हैं। विभिन्न गलों में पड़ते उतरते इनमें विभिन्न प्रकार के हेयर आयल, परफ्यूम, पान मसालों की गंध आने लगती है और जैसे जैसे कवि सम्मेलन आगे बढ़ता है, इनमें दारू से लेकर मुख से टपकी लार की भी गंध आने लगती है, कभी कभी माइक के स्टैंड पर लगा मोबिल आयल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
मुझे स्वयं ऐसी मालाओं से कई बार जूझना पड़ा है, जो जबरन गले पड़ती हैं। भला इनका भी कोई चरित्र है। लेकिन भाईसाहब ये सार्वजनिक रूप से गले पड़ती हैं, इनके साथ पहनाने वाले की आन बान और शान जुड़ी होती है, इसलिये इन्हें मजबूरी में पहनना भी पड़ता है। इन्हीं से कवि का स्टैंडर्ड भी पता चलता है। जितनी अधिक मालाएं गले में पड़ती हैं, उतना ही बड़ा कवि माना जाता है। कवि को भी यह भ्रांति रहती है कि संभवत: मालाओं की संख्या के अनुसार लिफाफे का आकार भी बढ़ जाये।
माला से जुड़ा हुआ ही एक और रोचक प्रसंग याद आ गया।
एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संयोजन में एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था।
उक्त कवि सम्मेलन के दौरान जब कविगण काव्यपाठ कर रहे थे तब एक सज्जन जो शायद आयोजन की व्यवस्था की निगरानी से जुड़े थे, माला लेकर धीरे धीरे सकुचाते मुस्कुराते हुए आते, और काव्य पाठ करते हुए कवि को माला पहनाकर चले जाते थे। 
इसी क्रम में जब एक कवियित्री काव्यपाठ कर रही थीं, तब भी वह माला लेकर मुस्कुराते हुए मंथर गति से आये और जब तक कवियित्री हाथ बढ़ाकर माला लेतीं, उन्होंनें माला उनके गले में डाल दी। कवियित्री जी भी थोड़ी असहज हुईं। इस अप्रत्याशित स्थिति को मंच से अध्यक्ष महोदय ने ये कहकर सम्हाला कि इन्हें शायद पता नहीं है कि महिलाओं को माला पहनायी नहीं जाती है बल्कि हाथ में सौंप दी जाती है।  आनंद तो तब आया जब उस के बाद स्वयं अध्यक्ष महोदय काव्यपाठ के लिये आये, जब वह काव्यपाठ कर रहे थे, तब वह फिर धीरे धीरे मुस्कुराते हुए आये और अध्यक्ष महोदय को माला पहनाने की बजाय उनके  हाथ में थमाकर चले गये।
यह देखकर दर्शकों में हँसी का फव्वारा छूट गया। वस्तुत: इतना हास्य तो हास्य कवियों की प्रस्तुति पर भी नहीं उपजा, जितना इस प्रकरण से उपजा।
वास्तव में माला आज के युग में प्रत्येक आयोजन की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। इसलिये भूलकर भी माला की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रही बात हमारी तो हमें तो आज तक एक ही माला अच्छी लगी, जो शादी के समय हमारी श्रीमती जी ने पहनायी थी और जो आज तक उन्होंने संदूक में संभालकर रखी हुई है।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
MMIG - 69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की लघुकथा ----चार बनाम एक

 


सांझ ढल चुकी थी, गहराते अँधेरे के बीच सुनसान सड़क पर सुधा तेज कदमों से चली जा रही थी। रोज की तरह कुछ लड़के गिद्ध दृष्टि लगाए मानों उसी का रास्ता देख रहे थे। थोड़ी दूरी बनाते हुए वह लड़के उसके पीछे पीछे चलने लगे। उसके कदमों की चाल और तेज हो गयी।

अचानक पीछे से एक कार आयी और उसके आगे आकर रुक गयी। 

कार में से एक अधेड़ सा चेहरा निकला और बोला: कहाॅं जाना है,आइए मैं छोड़ देता हूँ।

सुधा सोच में डूब गयी, अजनबी है, कार में अकेला है, न जाने इसके मन में क्या है; क्या जाने ये भी ; फिर पीछा करते चार लड़के पास आते दिखे; 

फिर सोचा ये तो अकेला है, अधेड़ है, इससे निपटना तो आसान है, अभी चार मुस्टंडों से तो बचूँ। तुरंत सुधा ने निर्णय कर लिया, और दरवाजा खोल कर कार में बैठ गयी।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG -69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की रचना -----कोरोना काल में शादी


कोरोना के कारण हर सूँ पाबंदी है।

गली मुहल्ले गाँव शहर तालाबंदी है।

मेले टेले आयोजन सब रद्द हुए हैं।

घर से बाहर जाने पर भी पाबंदी है।


जिनके घर शादी की बजनी थी शहनाई।

तालाबंदी ने उनकी भी बाट लगाई।।

कार्ड बँट चुके थे बुक थे नाई, हलवाई।

शादी वाले दिन ये कैसी आफत आई।

घोड़ी, बाजा, बैंड, बराती सजे खड़े थे।

तालाबंदी ने सबकी ही बैंड बजायी।।

घर से बाहर जाने पर भी पाबंदी है।

कैसे चढ़े बरात महाँ तालाबंदी है।


दूल्हा दुल्हन व्हाट्सएप पर उधर मस्त थे।

और निराशा में घरवाले इधर पस्त थे।

पंडित जी बोले ये अच्छा सगुन  नहीं है।

सात महीने से पहले अब लगन नहीं है।

घरवाले कोशिश में थे कि बात बन जाए।

जैसे भी हो किसी तरह शादी हो जाए।


जैसे तैसे शादी की परमीशन पायी।

किंतु पाँच लोगों की उसमें शर्त लगायी।

सामाजिक दूरी का भी पालन करना था।

बिन बाजा बारात, अजब शादी करवायी।


जीजा फूफा यारों का मुँह फूल गया था।

फोटोग्राफर भी उदास सा खड़ा हुआ था।

बिन बारात वीडियो अच्छा नहीं बनेगा।

बोतल थी खामोश कि ढक्कन नहीं खुलेगा।

जरा बताओ कैसे नागिन डाँस चलेगा।

नारीशक्ति उदास, कौन उनको देखेगा।


सच में लॉकडाउन की शादी बड़ी गजब थी।

बाजे वालों की चिंता भी बड़ी अजब थी।

सबकी बैंड बजाई, खुद की आज बजी है।

लॉकडाउन में अब तक, घोड़ी नहीं सजी है।

उधर पार्लर में दुल्हन भी अड़ी पड़ी.थी।

मैचिंग मास्क लगाओ उसने जिद पकड़ी थी।


बिन बरात बस पाँच जने मंडप में आये

दूल्हा दुल्हन सीधे फेरों पर ही आये।

गंगाजल की जगह सेनेटाइजर लाये।

पंडित जी ने उससे सबके हाथ धुलाए।

जयमाला के हार छड़ी से ही पड़वाये।

जैसे तैसे पंडित ने फेरे करवाये।

दूल्हा दुल्हन दो मीटर की दूरी पर थे।

और बराती बालकनी से देख रहे थे।


घंटे भर में रस्म निभाकर विदा कराई

निपटी शादी साँस चैन की सबको आई

दूल्हा दुल्हन की जोड़ी जब घर में आई।

अलग अलग खटिया दोनों की गयी बिछाई।

हनीमून की टिकटें बुक थीं रद्द करायी।

इस कोरोना ने शादी की बाट लगायी।


दादी बोलीं पूतों फलो दूध नहाओ।

अब जल्दी से मुझको पोते का मुँह दिखलाओ, 

क्या जाने किस रोज बुलावा आ जाएगा

सोने की सीढ़ी पे लल्ला मुझे चढ़ाओ।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की लघुकथा ---आस्तीन का साँप

 


नेता जी को साँप पालने का बहुत शौक था। एक से एक जहरीले साँप उनकी बगिया में पलते थे। नेताजी साँपों से बड़ा लाड़ करते थे, अपने हाथों से उन्हें दूध पिलाते थे। लेकिन इनमें से भी नागराज से उन्हें बड़ा लगाव था।

जब भी नेताजी कहीं जाते नागराज उनकी आस्तीन में छुपा रहता।

न जाने कितने मौकों पर नागराज ने चुपचाप नेताजी के दुश्मनों को निपटा दिया था। 

इसी बात का नागराज को घमंड हो गया था।

एक दिन नेताजी को अपनी आस्तीन में जरूरत से ज्यादा सरसराहट महसूस हुई तो उन्होंने नागराज को छिटक दिया। उस दिन उन्होंने उसे दूध भी नहीं पिलाया।

बस नागराज गुस्सा हो गया और उसने सोचा लिया मेरा इतना बड़ा  अपमान । अभी मालिक को निपटा देता हूं, और उसने मौका देखकर नेताजी को काट खाया।

लेकिन यह क्या, नेताजी को कुछ नहीं हुआ, उल्टे नागराज ही छटपटाता हुआ मर गया।


✍️ ,श्रीकृष्ण शुक्ल, 

MMIG 69, रामगंगा विहार,  मुरादाबाद 

मोबाइल नंबर 9456641400

रविवार, 1 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की रचना -----गरीबी की रेखा-


एक बार अकबर ने बीरबल से चुहुल की।

एक कागज पर एक रेखा खींच दी।

बोले: बीरबल, तुम बड़ी बड़ी बुद्धिमत्ता की बात करते हो।

बहुत चतुर होने का दम्भ भरते हो।

जरा इधर आओ।

बगैर छुए ही इस रेखा को बड़ी करके दिखाओ।

अब तो पूरे दरबार में शांति छा गयी।

विरोधी खेमे में खुशी की लहर दौड़ गयी।

आज तो बीरबल को हार माननी पड़ेगी।

सारी चतुराई धरी रहेगी।

लेकिन बीरबल तो बीरबल ही थे।

बुद्धि के मामले में वाकई धनी थे।

तुरन्त उस रेखा के पास एक छोटी रेखा खींच दी।

लीजिए हुजूर,  आपकी ही रेखा बड़ी की।

काश, बीरबल आज भी जीवित होते।

हमारी सरकार के बहुत काम आते।

कुछ ऐसा ही कौतुक दिखाते।

और सबको गरीबी की रेखा से ऊपर उठाते।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, 

MMIG - 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद ।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की लघुकथा -----बुढ़ापे का बचपन


शाम के आठ बजे गये थे। दीनानाथ की पत्नी ने रसोई से ही आवाज लगायी, खाना रख दिया है जल्दी आ जाओ। दीनानाथ तुरंत हाथ धोकर खाने की मेज पर आ गये। रोज की तरह पूछा;अम्मा को खाना खिला दिया। हाँ,  उन्हें खाना दे तो आयी हूं, कह रही थीं, भूख नहीं है।

अरे, ऐसे कैसे-भूख नहीं है, कहते हुए दीनानाथ उठे और अम्मा के कमरे में जाकर बोले, खाना खा लो अम्मा, खाना रखा है। 

ना लल्ला,  मुझे भूख नहीं लग रही, अम्मा तुरंत बोलीं।

अरे ऐसे कैसे भूख नहीं है। कुछ तो खाना पड़ेगा। 

नहीं बिल्कुल भूख नहीं है। 

अरे आपने अभी कुछ खाया थोड़े ही है, ऐसे तो कमजोरी आ जायेगी, बिस्तर से भी नहीं उठा पाओगी,  फिर बोतल चढ़वानी पड़ेगी।  थोड़ा थोड़ा खाओ,  भूख भी लगने लगेगी, कहते कहते दीनानाथ ने अम्मा को अपने हाथ से कौर दिया। बोतल चढ़ने के डर से अम्मा भी चुपचाप खाने लगीं।

उधर दीनानाथ अपने बचपन में पहुँच गया था, जब वह किसी न किसी बहाने खाना खाने से जी चुराता था, और अम्मा इसी तरह से बहला फुसला कर उसे खाना  खिलाती थीं। सोचते-सोचते वह बुदबुदा उठा, सच ही कहा है, बुढ़ापे में व्यक्ति फिर से बच्चा बन  जाता है।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल

MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद ।

मोबाइल नंबर 9456641400

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की रचना ----जगदम्बे का सज गया, घर घर में दरबार


जगदम्बे का सज गया, घर घर में दरबार । 

भक्ति भाव से शक्ति की, करिए जय जयकार ।।

आश्विन शुक्ला प्रतिपदा, शुभ तिथि दिन शनिवार।

शैलसुता मंगल करें, बाँटें सबमें प्यार ।।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की लघुकथा -----पोता बनाम पिता

 


रामनाथ और दमयंती आज दोनों बहुत खुश थे। आज उनका बेटा-बहू विदेश से आये थे। छह माह के पोते को दोनों ने पहली बार देखा था और दोनों पोते पर अपना लाड़ लुटा रहे थे।

पोते को प्यार से गोद में हिलाते हुए रामनाथ अभी उसे पुचकार ही रहे थे कि पोते ने धार छोड़ दी जो उनके चेहरे और कपड़ों को भिगो गयी। अरे रे रे वाह वाह, मजा आ गया, तालियां पीटते हुए सब हँसने लगे। रामनाथ बोले, अरे कुछ नहीं; ये तो प्रसाद है जो दादी बाबा को मिलता ही है।

तभी अंदर के कमरे से पिताजी की आवाज आयी: बेटा जरा मुझे सहारा दे दो, बाथरूम जाना है।

अभी आया पिताजी । लेकिन जब तक पिताजी को वह बाथरुम तक लेकर जाते तब तक उनका पाजामा गीला हो गया था। यह देखते ही रामनाथ झुंझला पड़े: ये क्या पिताजी, थोड़ी देर भी नहीं रुक सकते थे। फिर से पाजामा गीला कर दिया । ऊपर से पूरे कपड़ों में बदबू अलग से भर गयी। 

पिताजी लाचारी से नजरें झुकाये रहे।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद ।

मोबाइल नं• 9456641400