मैंने कहा : "बाबा ! मुझे खेद है कि मैं ३१ जुलाई को अपके बुलाने के बावजूद आपसे मिलने मुरादाबाद नहीं आ सका "
" इसीलिए तो मैंने तुम्हें दोबारा याद किया।" वह मुस्कराते हुए कह उठे। इतना सुनते ही मेरे मन में जमा हुआ वह तमाम अपराध-बोध पिघलकर बह गया, जो उनके द्वारा प्रथम बार स्वयं मिलने के लिए आमन्त्रित करने के बावजूद न जा पाने के कारण मुझमें लगातार बना हुआ था ।
"मैं तुम्हें बराबर रुचि पूर्वक पढ़ता रहा हूँ, सहकारी युग में तुम्हारी रचनाएं मुझे हमेशा प्रभावित करती रही हैं। तुमने जो अपनी कहानियों की किताब मुझे भेजी थी. मैं उस पर विस्तार से राय देना चाहता था मगर हुआ यह कि पंजाब के एक सज्जन जो कि प्रखर वामपंथी है, उस किताब को ही मुझसे मांगकर ले गए ! बहुत बढ़िया लिख रहे हो ।" -वह प्रेम की बिना रुकी सरिता बने अपना आशीष दिये जा रहे थे। और, मैं आश्चर्य चकित था कि क्या सचमुच भाग्य मुझ पर इतना मेहरबान है कि हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष और साहित्य साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन बाबा नागार्जुन मेरे प्रति ऐसा उदार और आत्मीयता भरा भाव रखते हैं।
मैं धन्य हो गया । हाँ ! यह नागार्जुन ही हैं। बाबा नागार्जुन ! अस्सी साल का एक नौजवान । पुराना पड़ गया पायजामा, अस्त-व्यस्त कुर्ता, बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी-मूँछे और सिर के सफेद पड़ चुके बाल । थकी हुई आंखों में जब-तब दौड़ जाने वाली एक चमक। प्रायः निढालपन मगर फुर्ती में फिर भी कोई कमी नहीं। वह शांत होकर बात करते हैं , मगर घोर आवेश में आने से भी अछूते नहीं रहते। जो निश्छल और दिल खोलकर पवित्र हँसी वह हँस पाते हैं, आज की औपचारिकताओं भरी महफिलों के खोखले ठहाकों में कहाँ है ? वह सादा जीवन उच्च विचार की साकार प्रतिमा हैं। वह भारत के आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं -अपनी वेशभूषा से ,अपने विचारों से, अपनी बहुजनपक्षीय प्रतिबद्धताओं से । "संदर्श" पत्रिका का हृदयेश विशेषांक अपने हाथ में लिए हुए जब वह मुझे ग्यारह अगस्त की सुबह साढ़े आठ बजे मुरादाबाद में सुकवि और साहित्यकार गिरिराज सिंह के जिला सहकारी बैंक स्थित निवास के सुसज्जित कक्ष में पहली-पहल मिले, तो मैं उस बोने कद में मनुष्यता की विराटता को मापने का प्रयास ही करता रह गया | अहम् उन्हें छू तक नहीं गया है। छोटों को प्रेम से गले लगाना और बांहों में भरकर उनके सिर को अपने अमृतमय स्पर्श से जड़वत बना देने का जादू क्या होता है ,यह मैं उसी दिन जान पाया।
बाबा नागार्जुन आजकल भ्रमण पर निकले हुए हैं। पांच सप्ताह बिहार रहे। फिर उत्तर प्रदेश में बनारस कुछ दिन रहे। इसी तरह नगर-नगर, गांव-गांव घूमना चल रहा है। वह इसी को शरीर की ऊर्जा का सार्थक उपयोग मानते हैं कि जब तक शरीर समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी है ,तभी तक उसका रहना सार्थक है।
इतनी उम्र में भी इस हद तक घूमना-फिरना क्या स्वास्थ्य के लिए उचित है ? -इम प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहते है कि लोग बुलाए बिना नहीं मानते और मेरा मन भी जाए बिना नहीं मानता। सच ही है कि बाबा नागार्जुन अपने जीवन की समस्त उर्जा को नई से नई पीढ़ी तक के रचनाकार से एकाकार करने के एक प्रकार के मिशन में लगे हुए हैं और जो स्वतंत्र, निर्भीक और सत्य-सम्मत अभिव्यक्ति उनके रचनाकार की विशेषता बन गई, उस रचनाधर्मी-ज्योति को वह सारे देश के असंख्य दिलों में धधकती हुई मशालों में बदलने के काम में लगे हुए हैं। इसके लिए वह अपने शरीर पर अत्याचार करने की हद तक आगे बढ़ चुके है। उनका मुरादाबाद आना और आसपास के रचनाकारों से सम्पर्क करके उन्हें प्रोत्साहित करने के साथ-साथ रचनाधर्मिता की एक नई ओजस्वी लहर उत्पन्न कर जाना इसी बात के प्रमाण हैं। अब उन्हें कानों से कम सुनाई पड़ता है। पढ़ने के लिए एक बड़ा-सा लेंस हाथ में रखते हैं। यूं उन्हें चश्मे से विरोध नहीं है। मगर कहने का अर्थ यह है कि आंखें कमजोर है, कान से कम सुनाई पड़ता है और दस- पन्द्रह मिनट बात करके ही जो व्यक्ति थोड़ी थकान महसूस करने लगता हो और जिसकी उम्र अस्सी के आस-पास हो गई हो, वह सिर्फ समाज के मानस को बदलने के शुद्ध साहित्यिक इरादे से स्थान-स्थान घूम रहा हो ,यह एक असाधारण बात है।
"कैसी रचनाएं आज लिखी जानी चाहिए ?" मैंने प्रश्न किया। बाबा गंभीर हो गए। कहने लगे : "जो समय के अनुरूप हों और हमारे मौजूदा समाज में अपेक्षित बदलाव ला सकें। आज साहित्यकार यदि देश की स्थिति को बदलने में सार्थक सिद्ध नहीं हो रहा है तो इसका कारण यह है कि वह कहीं चारण की भूमिका निभा रहा है तो कहीं भांड बना हुआ है। लेखनी का जब तक सही-सही और निःस्वार्थ भाव से जन-मन को आंदोलित करने के लिए प्रयोग नहीं होता ,तब तक वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं होती।
देश की राजनीतिक स्थिति को देखकर बाबा बहुत चिंतित हैं । यद्यपि वह स्वयं को आशावादी बताते हैं मगर निराशा की गहरी अंधेरी खाइयाँ उनकी आंखों में झलकती हुई कोई भी झांक सकता है । वह कहते हैं "देवीलाल धृतराष्ट्र हो गए हैं । वह पुत्र-मोह में फंस गए हैं। उनके लिए घोटाला ही सब कुछ हो गया है। सारी राजनीति ऐसी ही हो रही है। सब तरफ कुर्सी की खुजली मची हुई है। कोई नेता ऐसा नहीं जो बिना कुर्सी पर बैठे देश की सेवा करने का इच्छुक हो। जिसे देखो, देश सेवा की खातिर कुर्सी के लिए झगड़ रहा है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ।" वह कहते हैं- "मगर यह सब देख कर मैं क्रुद्ध हो उठता हूँ तो देश के युवा वर्ग के आक्रोश की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारे सारे स्वप्न व्यर्थ होते जा रहे हैं।"
"मन्दिर और मस्जिद के झगड़ों के कारण देश की बिगड़ती स्थिति पर आप अपना मत प्रकट करेंगे ?" ऐसा आग्रह करने पर बाबा ने आवेशित होकर कहा कि आज जरूरत गरीबी, बेकारी और भूख के खिलाफ सारी जनता को एकजुट करके जोरदार आंदोलन छेड़ने की है। हिन्दू और मुसलमानों को कन्धा से कन्धा मिलाकर देश के निर्माण में सहभागी बनाने का माहौल पैदा करने की है, धर्म के नाम पर बौना चिंतन रोकने की जरूरत है। हजारों मन्दिर गाँव-गाँव, शहर-शहर में उपेक्षित पड़े है । उन्हें नजरन्दाज करके कोई धर्म का हित नहीं कर रहा है क्या ?
बातों-बातों में बाबा कहीं एक बहुत गहरी बात कह गए। वह बोले: "विनोबा का अपन लोगों ने (हम लोगों ने) विरोध भी किया था, मगर जिस तरीके से उन्होंने अपने जीवन का अन्त किया वह मुझे बहुत प्रभावित करता है। जीवन के अन्तिम वर्षों में विनोबा का पवनार आश्रम पंडों का अड्डा बन गया था। यहाँ तक कि बिनोबा से भेंट करने के लिए आश्रम के पंडे दस-दस हजार रुपये की फीस मांगने लगे थे। यह स्थिति होती है कि जब किसी आदमी के नाम पर उसका दुरुपयोग होना शुरू हो जाता है और वह खुद कुछ नहीं कर पाता । ऐसे में जीवन का अंत ही एकमात्र विकल्प है ,जो विनोबा ने ठीक ही किया। इस तरह मेरा कहना यह है कि आदमी का जीना तभी तक सार्थक है ,जब तक उसके विवेक का जेनरेटर चालू है। जब उसका या उसके नाम का दुरुपयोग दूसरे लोग करने लगें, तो ऐसे में व्यर्थ जीते रहने का कोई औचित्य नहीं है।"
करीब आधे घन्टे की मुलाकात में मैंने बाबा को अक्सर थका हुआ पाया, हालांकि हर बार अपनी थकान को वह एक अपराजेय उत्साह से जीतने में सफल रहते थे। बातचीत के शुरू में ही उन्होंने कहा था कि मैं थोड़ी-थोड़ी देर में ही थक जाता हूँ और लघुशंका न भी लग रही हो तो बहाना करने उठ जाता हूँ। यह कहने के ठीक पन्द्रह मिनट बाद वह लघुशंका के लिए उठ गए. जिसका मतलब साफ था कि अब बाबा को अधिक कष्ट देना उचित नहीं है। मगर, लौटकर आने के बाद उन्होंने कहा कि "भाई ! मै वाकई लघुशंका के लिए गया था । बैठो।" और, इस तरह बातचीत विश्राम-बिन्दु पर नहीं रुक पाई।
बाबा नागार्जुन साहित्य की वह गंगा हैं ,जो स्वयं अपने भक्तों को आवाज देकर अवगाहन करने का सुख पहुंचाने की उदारता रखते हैं। उन जैसी सहजता अब दुर्लभ है।
मोबाइल 99976 15451
धन्यवाद डॉ मनोज रस्तोगी जी
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