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गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की व्यंग्य कविता --


 मूर्खों ने मूर्खों

से कहा, हम में

विद्वान कौन..?

जो समझता है

अपने को मूर्ख

वो सामने आइए

वरना यहाँ नहीं

दिल्ली जाइये।


सबसे बड़ा मूर्ख

सामने आया

अजीब उपाय बताया

आँखों पर चढ़ा लो

चश्मा, लोग समझेंगे

अंधा

अपना चल जाएगा 

धंधा।।


यह फार्मूला पुराना था

बीते कल का फसाना था

एक सिपाही आया

पेपर चेक किये

बोला ठीक है

जाओ

घर पहुंचे

चालान आ गया।


फिर डॉक्टर आया

चेकअप किया

बोला, रोग ही रोग

महामारी में वियोग

पांच लाख का पैकेज है

ठीक हो जाओगे...?

हमने पैकेज ले लिया

रोग ने क़फ़न ओढ लिया।


सब मूर्खों की बातें

नेता सुन रहा था

भाषणों से ज़मीन

आसमान एक कर रहा था

उसने लुभाया/ भरमाया

मूर्खों को पेंशन घोषित कर दी

उसी का ब्याज़ आज हम यारों

खा रहे हैं...

हर साल मूर्ख दिवस 

मना रहे हैं....!


वरना हम

तो रोज मूर्ख बनते हैं

घर में बीबी/ आज के बच्चे

दफ्तर में बॉस/ बाजार में 

व्यापारी/ सियासत में नेता

घर-परिवार-यार-दोस्त

सब मूर्ख समझते हैं

क्यों कि

हम 

फूलों में नहीं

अप्रैल के फूल 

में विश्वास करते हैं।

विद्वान होकर भी

मूर्ख का स्वांग भरते हैं।।

✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल(वर्तमान में मेरठ निवासी) साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी

 


लेते- देते शुभ कामना

वर्ष कितने ही बीत गये

रही अंजुरी प्यासी प्यासी

हाथ आये, सब छिटक गये

जब भी जोड़े कर जीवन में

वर्ष कितने ही रीझ गये।। 

है बैसाखी पर समर्पण 

शून्य भाव, सजल तर्पण

ढोनी है परम्परा सबको

वर्ष कितने ही मीत गये।। 

पर आशा क्यों हार माने

नभ में सूर्य, शशि शेष है

हुई भोर, उड़े है पंछी

वर्ष कितने ही जीत गये।। 

सोया कब क्षितिज सवेरा

कुछ पल ही तिमिर बसेरा

पंख रंग, उड़ती है तितली

वर्ष कितने ही शीत गये।।

लेते- देते शुभ कामना

वर्ष कितने ही बीत गये।। 

✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी, मेरठ

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ )निवासी साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ----रथ स्वर्णिम रुक गया खींच ली किसने डोर


 रथ स्वर्णिम रुक गया

खींच ली किसने डोर

आह! हस्ताक्षर भूला

वो, थी अरुणिम भोर


हुई मुद्दत, देखा नहीं 

मन का हमने क्षितिज

यूँ लिखे गीत अनगिन

भावना के कटु रचित


कोई तो सागर गिना दो

ला दो खो गया जो सीप

अगस्त्य जल पी गये हैं

बुझ गये आशा के दीप


अपनी सब कह रहे हैं

सुनने वाला कोई नहीं

व्यर्थ संजय कह रहे हो

महाभारत तो है ही नहीं।


छोड़ दें जब आंखें हया

और न हो मन में व्यथा

द्रोपदी की लाज ख़ातिर

सुने कौन कौरव कथा।।


निष्प्राण प्राण रण में पड़े

और कायर निज वीर कहें

क्या कहूँ मैं गीता अर्जुन ! 

कहे कलयुग सब वेद पढ़े।। 


सभी यहाँ पर संत ज्ञानी

कहना सुनना सब बेमानी

निर्लिप्त निर्जल ओ ! धरा

सोख ले,आंखों का पानी।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

शनिवार, 12 सितंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ) निवासी साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की कविता ---पिता....क्या उत्तर दे


उत्तरदायित्व/ ज़िम्मेदारी
फ़र्ज़ और बोझ के बीच
एक इंसान रहता है...
उत्तर दे नहीं पाता..
जो जिम्मे है उसके,
उसे उतार नहीं सकता
फ़र्ज़ से डिगता नहीं...
बोझ समझता नहीं...
उसे ही भगवान, यानी
पिता कहते हैं...!!

पिता की सामर्थ्य
उसकी सम्पूर्णता
सूरज में नहीं है
चाँद में भी नहीं
सितारों में...नहीं
न धरती/ न आसमान
बस, सपनों का मचान।।

पुत्र को गगन पर देखना
पुत्री को दिल में रखना..
एक छत/एक रट/ रत
ज्यूँ उंगली में कोई नग।।

लड़ता है खुद से/ जग से
अपेक्षा/ उपेक्षा/ तिरस्कार
दुत्कार/ अपमान/ ग्रहों से
और हँसते हुये/ निगाहें नभ
से मिलाते / दम्भ से/ खम से
कहता है... मैं हूँ न अभी..!!

उसकी पूर्णता पूछते हो..
सोलह कलाओं से/ गर्वित
पूर्णिमा जब उसके आँगन
इठलाती/ झूमती उतरती
वह शशि मुख को नहीं...
अपनी बेटी को देखता है।
यही है पिता/
हाँ.. संपूर्णता ।।

तुम ही बताओ, कैसे
वह उत्तरदायित्व को
उत्तर दे दे.......?
जिम्मेदारियों का जिम्मा
दार से उतार दे...
फ़र्ज़ का कर्ज़ अदा कर दे
बोझ को अपने कंधों से
उल्कापिंड की मानिंद
हल्का कर दे...!!

बाप रे!!
यह शब्द ही उस पर गढ़ा है
हज़ार रहस्यों पर पिता बड़ा है।।

✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
मेरठ

शनिवार, 8 अगस्त 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की रचना


प्राथमिकता घर की प्रभु
क्या बताऊँ, क्या गिनाऊँ

तोड़ तारे मैं जो लाया
सीमित अपनी आय से
लगे कहन मेरे सुखनवर
लो फूट गये  भाग रे 

प्राथमिकता घर की प्रभु
क्या बताऊँ, क्या गिनाऊँ

चाँद आँगन जब जब उतरा
मनचाही घनश्याम रे
पूर्णिमा अमावस्या लागी
चढ़ती बढ़ती सांझ से

प्राथमिकता घर की प्रभु..

आरती का थाल सजाके
फूल इच्छाओं के रखे
घी जला जितने थे साधन
भोग छप्पन न आ सके..

प्राथमिकता घर की प्रभु..

चढ़ रही जवानी देहरी
छम छम बिछुए पाँव में
एक अदद पेंशन बची है
आशाओं के गाँव में।।

प्राथमिकता घर की प्रभु..
क्या बताऊँ क्या गिनाऊँ

रही रोती विवशता और
सपनों का संजाल प्रिय
बंद आँखों में फिर तैरा
कौन पराया, कौन हिय।।

प्राथमिकता घर की प्रभु
क्या बताऊँ, क्या गिनाऊँ

सूर्यकान्त

मंगलवार, 12 मई 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की कविता--- मां


सबकी आंखों में
सबकी रातों में
आज माँ होगी
सामने हक़ीक़त..
कलम- कागज़ पर
उसकी इबारत होगी।।
कवि उपमाओं में
कोई तुलिकाओं में
तोलेंगें/ सजायेंगे..।।

माँ
शब्द सागर में
हिलोरें भरेगी
मुन्ने की कॉपी
में टास्क बनेगी
प्रतियोगिता होगी
माँ.. माँ ...माँ
किसकी माँ
सर्वश्रेष्ठ...!!

आज अल्फाजों में
अश्क ओ रश्क होंगे
भीगी हुई आँखों से
भीगी कलम होगी।

*जानती हो माँ...*
आज तुम्हारी
आरती होगी
महिमा होगी
जयकार होगी।
शंखनाद होगा
यशोगान होगा।।

*चित्र-1*
तुम एक कमरे में..
तन्हा खाट पर होगी
कविता आसमान से
पृष्ठ उतर रही होगी।।

*चित्र 2*
तुम अब नहीं हो मगर..
आज आओगी..पता है
सूरज/ चंदा/ तारे बन
मुझे जिताने आओगी।।

*चित्र-3*
लिखने के बाद मैं
आश्रम गया था.. याद है
तुमको कविताएं सुनाई थी
तुम देखती रहीं थीं मुझ को
अपलक..अनवरत..अनथक।

मैं कुछ देकर घर लौट आया
माँ सोचती रह गई.. अरे यह
कौन सा त्यौहार आ गया..??

इतना बड़ा हो गया.....
बचपना नहीं गया.... !!

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की कविता


टूट गया भ्रम
हम सरताज थे
वक़्त के हाथों
सब मोहताज थे।।
***
अमावस्या के घर पर
पूर्णमासी मेहमान थी
सूरज की हथेली पर
तितली मेहरबान थी।।
**
खुश्क थे गले
अधर भी मौन
आत्मा में आज
श्रीराम आ गए।।
****
पागल थी हवा
जज़्बात सो गये
बताये कोई उसे
हम क्या हो गये।।
****
जो हाथों में झूले
वो ही ठिठक गये
मोक्ष धाम में नटवर
कंधे भी बिदक गये।।

✍️  सूर्यकान्त द्विवेदी

रविवार, 19 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की कविता ---


इस पीड़ा के पीछे
भी कई पीड़ाएँ हैं
हटाकर परदा देख
कितनी शिलाएं हैं।।

अनगिन आवरण
अनगिन आहरण
अनगिन आचरण
ज्यूँ किसी वृक्ष में
पंछी का पदार्पण।।

खो गई एक शिला
राम के इंतज़ार में
तैर गई दूजी शिला
राम के ही प्यार में।।

तन लपेटे भागीरथी
मन समेटे मृगतृष्णा
भोर में लो कैद हुई
पग-पग-पग ये तृष्णा।।

शबरी के जूठे बेर
केवट सम वो भाव
चलो लक्ष्मण चलें
देखें सीता के पाँव।।

किंचित इस घड़ी में
हैं अपावन कुछ दृश्य
किन्तु कुंती कौन यहाँ
मांगे दुःख जो अदृश्य।।

अनजान साया स्याह
तन और मन भेद का
अत्र कुशलम तत्रास्तु
आरोग्य मंत्र वेद का।।

   ✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल ( वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की रचना --- हम सब हैं सूरज के वंशज


हम सब हैं सूरज के वंशज
तम से कैसे हार मान लें
अभी ऊंचाई छुई कहाँ रे
कैसे तेरी बात मान लें।।

हम सब हैं सूरज के वंशज ....

आँखें जब से खोलीं हमने
अंधकार भयभीत हुआ है
लक्ष्य उजालों को फैलाना
कैसे मन निराश मान लें ।

हम सब हैं सूरज के वंशज ....

बढ़ते जाना ठान लिया है
नहीं रुकेंगे मान लिया है।
जीवन तो है बहती नदिया
कैसे फिर ठहराव मान लें ।

हम सब हैं सूरज के वंशज ....

चादर तम की हटेगी प्यारे
बस थोड़ा विश्वास चाहिये।
रश्मिपथ पर पग बढ़े अब
समग्र बस, उल्लास मान लें ।।

हम सब हैं सूरज के वंशज .....

सूर्यकांत द्विवेदी