उत्तरदायित्व/ ज़िम्मेदारी
फ़र्ज़ और बोझ के बीच
एक इंसान रहता है...
उत्तर दे नहीं पाता..
जो जिम्मे है उसके,
उसे उतार नहीं सकता
फ़र्ज़ से डिगता नहीं...
बोझ समझता नहीं...
उसे ही भगवान, यानी
पिता कहते हैं...!!
पिता की सामर्थ्य
उसकी सम्पूर्णता
सूरज में नहीं है
चाँद में भी नहीं
सितारों में...नहीं
न धरती/ न आसमान
बस, सपनों का मचान।।
पुत्र को गगन पर देखना
पुत्री को दिल में रखना..
एक छत/एक रट/ रत
ज्यूँ उंगली में कोई नग।।
लड़ता है खुद से/ जग से
अपेक्षा/ उपेक्षा/ तिरस्कार
दुत्कार/ अपमान/ ग्रहों से
और हँसते हुये/ निगाहें नभ
से मिलाते / दम्भ से/ खम से
कहता है... मैं हूँ न अभी..!!
उसकी पूर्णता पूछते हो..
सोलह कलाओं से/ गर्वित
पूर्णिमा जब उसके आँगन
इठलाती/ झूमती उतरती
वह शशि मुख को नहीं...
अपनी बेटी को देखता है।
यही है पिता/
हाँ.. संपूर्णता ।।
तुम ही बताओ, कैसे
वह उत्तरदायित्व को
उत्तर दे दे.......?
जिम्मेदारियों का जिम्मा
दार से उतार दे...
फ़र्ज़ का कर्ज़ अदा कर दे
बोझ को अपने कंधों से
उल्कापिंड की मानिंद
हल्का कर दे...!!
बाप रे!!
यह शब्द ही उस पर गढ़ा है
हज़ार रहस्यों पर पिता बड़ा है।।
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
मेरठ
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