:::::::;:प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
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डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
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::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
पीतम- अरी सुन रही है। यह टोपियां आज ही देनी हैं। मौसम का मिज़ाज समझ नहीं आ रहा है। टोपियां कमबख्त सूखने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं। जरा प्रेस से गरम करके सुखा दे इनको । मुझे अभी बहुत सारी टोपियां रंगनी है।
कमला - आप भी अजीब बात करते हो । भला प्रेस से मैं कब तक सुखाती रहुंगी, और भी कितने काम पडे़ हैं मुझे।
पीतम - मौसम है कमाने का। दल-बदलुओं का कुछ नहीं पता। रात को एक दल में तो सुबह दूसरे दल में होते हैं। आजकल यह धंधा खूब जोर पकड़ रहा है। (एक छुटभैया नेता हाथ में कुछ सफेद टोपियों के साथ प्रवेश करता है)
नेता- किसके धंधे की बात कर रहे हो पीतम ?
पीतम- नेताजी, चुनाव का मौसम है। सभी के धंधे की बात है। अब देखो न आप भी अब अपने धंधे में कितने ब्यस्त रहते है.
नेता- भई मैं तो मौहल्ले का एक छोटा अदना सा नेता हूं। मेरा धंधा बहुत छोटा है और रिस्की भी, जिस पार्टी ने अच्छा दाना डाला उसी की टोपी ओढ़ ली। अब अगले हफ्ते 20 तारीख में एक पार्टी की रैली में मुझे एक बस भर कर आदमी ले जाने हैं, मगर 200 रु में कोई जाने को तैयार नहीं। लोग 500रु से कम में राजी नहीं। रोटी पूडी़ दारु अलग से।
पीतम- महंगाई भी तो बढ़ गई है अब
नेता- अच्छा यह बताओ, मेरी टोपियां हो गई सब।
पीतम- आपकी नीले रंग वाली 100 टोपियों का आर्डर था, 50 हो चुकी हैं, बाकी 50 अभी सूख रहीं हैं। अगर मौसम सही हो गया तो कल ले जाना।
नेता- अरे अब इन्हें रहने दो, इनकी कोई पूछ नहीं। अब मुझे लाल रंग की 500 टोपियां चाहिए शाम तक, कल पहनानी हैं।
पीतम- पहले इन नीली टोपियों से तो काम चलाओ।
नेता- पीतम दद्दा तुम समझते नहीं। अब इन नीली टोपी का पत्ता साफ हो चुका है। कल लाल टोपियों की सख्त जरुरत है। एक बड़े नेता पार्टी बदल रहें हैं।
पीतम -फिर यह जो टोपियां तैयार हो गई अब इनका क्या होगा?
नेता- इन टोपियों की फिलहाल कोई जरुरत नहीं रही, जो बन गई उनके भी कुछ पैसे दे दूंगा। बाद में कभी काम आयेंगी सम्हाल कर रखना।
पीतम- मौसम कितना बदल गया है। टोपियां सूख नहीं पायेंगी।
नेता- मौसम सभी के लिए बदल चुका पीतम दद्दा। आजकल नेताओं ने भी बे-मौसम चाल बदलनी शुरू कर दी है। अब आदमी से ज्यादा टोपियों की डिमांड बढ़ गई है।
कमला- (रस्सी पर लाल सफेद टोपिया लटकाते हुए) सही कह रहे है नेता जी, हमारे इलाके में भी अब रंग-बिरंगी टोपियों बदल-बदल कर पहनने का फैशन चल पड़ा है।
पीतम- अरे चुप कर, बहुत बोलती है। यह नीली टोपियां हटा यहां से। यहां लाल टोपियां सुखानी हैं। कल ही नेता जी को देनी है।
कमला- कभी नीली, कभी लाल फालतू काम क्यों फैला रहे हो जी?
पीतम- यह खडे़ हैं नेता जी, इन्हीं से पूछ ले।
नेता- हर आदमी अपने धंधे को पहले देखता है। हमारे नेता भी जहां धंधा मद्दा हुआ तुरंत पार्टी बदल रहें हैं। आखिर उनको भी खाना कमाना है और बिना सत्ता के नेताजी मूंगफली थोडे ही छीलेंगे। सत्ता में रहने वाली पार्टी से दूर होकर नेता आगे कैसे जी पायेंगे? इसीलिए तो कल गांधी मैदान में एक बड़े नेता पार्टी बदलेंगे। गांधीजी की शपथ लेकर पहले टोपी का रंग बदलेगा तभी न पार्टी बदलेगी।
(बाहर शोर शराबे की आवाज जोर-जोर से होती है। तभी तेज आवाज के साथ एक मोटा दरोगा और 4-5 सिपाहियों के साथ घर में प्रवेश करता है )
पीतम- क्या हो गया साहब।
दरोगा - तो यहां हो रहा है यह लाल-पीला काला धंधा। गिरफ्तार कर लो इसे।
(नेता चुपचाप खिसकने लगता है। दरोगा नेता को पकड़ता है और कडक आवाज़ में पूछता है)
दरोगा- क्यों, कौन सी पार्टी के हो नेता जी ?
नेता- सर, हम किसी पार्टी के नेता नहीं हम तो छोटे कार्यकर्ता है।
दरोगा- यहां क्या कर रहे हो। भागो यहां से। (पीतम से) क्यों बे तू यहां टोपियां बदलने का धंधा करता है। जानता नहीं आचार संहिता लगी हुई है। टोपियां का रंग बदल कर दल-बदल को बढ़ावा देता है। पार्टियां बदलने का धंधा फैला रहा है। ले चलो इसे थाने। यह इस शहर की शांति भंग कर रहा है। इसकी सारी लाल, पीली काली नीली टोपियां जब्त कर लो। केवल एक टोपी छोड़ दो।
पीतम- हम गरीब आदमी है सरकार। हमारा धंधा चौपट हो जायेगा।
कमला- हजूर इनका कोई कसूर नहीं हम तो केवल टोपियों का रंग बदलें हैं। इस काम में भी बहुत टाईम लगता है, मेहनत लगती है। लोग तो रातों-रात अपना दल बदल रहें हैं। अपना ईमान- धर्म बदल ले रहें हैं। हम टोपियां सिलाई-रंगाई का काम करके बमुश्किल गुजारा करते हैं।
दरोगा - ऐ । बहुत ज्यादा बोलती है। नेतानी बनती है। जानती नहीं चुनाव आचार संहिता लगी है। अभी मिनटों में बंद कर दूंगा। जमानत भी नहीं होगी।
पीतम- दरोगा जी, इस पागल की बातों पर ध्यान मत दो। मौसम बदलने के साथ इसे भी एलर्जी हो जाती है।
दरोगा- ऐसा है तो इसका ईलाज क्यों नहीं कराता। पुलिस से कैसे बात की जाती है इसे सिखा दे वरना जेल में सडे़गी।
कमला- (हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहती है) देखो दरोगा जी, हम अभी मंत्री जी के घर जाकर यह टोपियां फेंक आतें हैं। बोल देंगे- हमें जेल नहीं जाना। अपनी टोपियां जहां चाहे वहां सिलवा लो- रंगवा लो।
दरोगा- (आश्चर्य में) मंत्रीजी से टोपियों का क्या मतलब ?
पीतम - यह सब उन्ही का आर्डर है। दो- एक दिन बाद एक बड़े कद्दावर नेता उनकी पार्टी को ज्वाइन कर रहें हैं। उनके और उनके कार्यकर्ताओं के लिए ही तैयार हो रहीं हैं यह टोपियां उन सबको ही पहनाई जायेंगी।
दरोगा - (तुरंत चेहरे का रंग बदलता है) अरे। यह बात है, तो पहले क्यों नहीं बताया। आप सब तो बड़ा नेक काम कर रहे हो । कड़ी मेहनत से टोपियों के रंग बदलो लेकिन टोपियों पर ज्यादा पक्का रंग मत चढ़ाना। पता नहीं कब कौन सा रंग बदलना पड जाय। हो सकता है पुलिस की नौकरी छोड़ कर जनता की सेवा करने के लिए मुझे भी यह टोपियां पहननी पडे.. और हां, इस नेक काम में अगर कोई परेशानी हो या अड़चन हो तो तुरंत बताना। चलो सिपाहियों ।
(दरोगा और सिपाही सब मंच से निकल जाते हैं।)
✍️ धन सिंह 'धनेन्द्र'
म.नं. 05 , लेन नं -01
श्रीकृष्ण कालोनी,
चन्द्रनगर , मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो०- 9412138808
हमने दो तीन साल
रोजगार कार्यालय के
चक्कर लगाए
सैकड़ों परीक्षाएं दीं
लेकिन कहीं से भी
सकारात्मक परिणाम
नहीं आए
किसी ने यह बात समझाई
आजकल राजनीति में है
बहुत अधिक कमाई
उसी में करो भाग्य आजमाई
हमने सोचा
चलो यह भी कर के
देख लिया जाए
इस विचार को अमली
जामा पहनाने के लिए
हमने राजनीतिक दलों के
द्वार खटखटाए,
दल नंबर एक को
अपना पूरा बायो डाटा दिखाया
बी ए, बी एड , एम ए, पी एचडी
देख उनका सिर चकराया
बोले
आप जरूरत से ज्यादा
लिखे पढ़े हैं
खानदानी माहौल में
पले बढ़े हैं
हमारी पार्टी का अध्यक्ष तक
हाई स्कूल फेल है
इसलिए हमारा तुम्हारा
रिश्ता बेमेल है
दल नंबर दो ने पूछा
अब तक कितनी बार
झूठ बोला है
कितनी बार पहना
मक्कारी का चोला है
हमारी पार्टी बेईमानी के
धरातल पर टिकी है
हमारे सदस्यों की निष्ठा
ना जाने कितनी बार बिकी है
गिरगिट की तरह
रंग बदल पाना
बात बात में
घड़ियाली आंसू बहाना
थूक कर चाटना
एक दूसरे की जड़ काटना
अगर इन सबकी
आपको आदत है
हमारी पार्टी में
आपका स्वागत है
हमने समझ लिया
यहां हमारी दाल
नही गल पाएगी
क्योंकि लाख
कोशिशों के बाद भी
हमारी आदत
नही बदल पाएगी
किसी ने कहा
पढ़े लिखे होने का
फायदा उठाओ
पार्टी नंबर तीन में
भाग्य आजमाओ
ये बुद्धिजीवियों की पार्टी है
बस थोड़ी सी
कट्टरता दर्शानी है
और एक धर्म को
दूसरे से लड़ाना है
अपनी कड़वी जुबान से
नफरत फैलाना है
धार्मिक उन्माद और दंगो को
जितना अधिक भड़काओगे
पार्टी के अंदर उतने
बड़े नेता कहलाओगे
हमने कहा, माफ कीजिए
हम इतना नही गिर पाएंगे
कहीं से आवाज आई
फिर आप राजनीति में
ऊंचा नहीं उठ पाएंगे
हमने उनसे विदा ली
और एक बिल्कुल
नई पार्टी ढूंढ निकाली
उसने हमको बिना शर्त अपनाया
अपने टिकट पर चुनाव लड़ाया
हमने भी अपना सबकुछ
दांव पर लगाया
लेकिन फैसला
हमारे विरोध में आया
अगली बार
हमारे भाग्य का कमल खिल गया
एक प्रतिष्ठित पार्टी में
गुटबाजी के चलते
हम जैसे निर्विवाद व्यक्ति को
मौका मिल गया
हम जैसे तैसे
चुनाव जीत गए
लेकिन धन के सारे कुएं
रीत गए
सिर पर कर्ज का
बोझ बढ़ता गया
हमारी चिंताओं का
ग्राफ चढ़ता गया
अनुभवी नेताओं ने समझाया
ईमानदार बन कर
राजनीति को बदनाम मत करो
छोटा मोटा घोटाला
करने की हिम्मत करो
हमने कोशिश करी
लेकिन पकड़े गए
विपक्ष की राजनीति में
जकड़े गए
हमको समझ आ गया
राजनीति हमारे
खून में नही है
इसलिए इससे
दूर रहना ही सही है
अब मैं
नेता ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट
चलाता हूं
खुद तो बन नही सका
दूसरों को
सफल नेता बनाता हूं।
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
M 9837189600
अखिल भारतीय साहित्य परिषद ,मुरादाबाद की ओर से देश के अमर शहीदों के सम्मान में गूगल मीट के माध्यम से एक ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी का आयोजन रविवार 30 जनवरी 2022 को किया गया। कवि राजीव 'प्रखर' द्वारा प्रस्तुत माँ सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवयित्री एवं मुरादाबाद इकाई की अध्यक्ष डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने राष्ट्रप्रेम की अलख जगाते हुए कहा -
"राष्ट्र की अर्चना, राष्ट्र आराधना, निशि दिवस हम करें ,राष्ट्र वंदन करें ।।
राष्ट्रहित जो मरे ,राष्ट्रहित जो जिये, उनके चरणों मे शत शत नमन हम करें ।।"
मुख्य अतिथि वरिष्ठ इतिहासकार तथा साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' ने मुक्तक प्रस्तुत किए-
"दर्पण की धूल हटाओ, देश हमारा है।
भीतर का सत्य जगाओ, देश हमारा है।
हर फूल, शूल अपना होता है, क्यारी में मिलकर,
उपवन विकसाओ, देश हमारा है।"
विशिष्ट अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने वर्तमान परिदृश्य का चित्र खींचते हुए अपने दोहों में कहा -
"राजनीति में देखकर, छलछंदों की रीत।
कुर्सी भी लिखने लगी, अवसरवादी गीत।।
आज़ादी के बाद का, बता रहा इतिहास।
सिर्फ़ चुनावों के समय, वोटर होता ख़ास।।"
विशिष्ट अतिथि कवयित्री सरिता लाल ने अपनी आस्था कुछ इस प्रकार व्यक्त की-
"शहीदों की आत्मायें भी शायद
अब तक मुक्त नहीं हो पायीं हैं,
बद्दुआ तो नहीं दे सकतीं अपने देश को,
लेकिन दुआओं के लिए भी हाथ नहीं उठा पायीं हैं।।"
विशिष्ट अतिथि डॉ. संगीता महेश ने मंगलकामना करते हुए
कहा -
"आकाश से पृथ्वी तक मेरा भारत सूर्य सम चमके,
रब से दुआ हम दिन रात करते हैं।
आओ अपने प्यारे भारत की बात करते हैं।"
संचालन करते हुए राजीव 'प्रखर' ने अपनी अभिव्यक्ति इस प्रकार की -
"निराशा ओढ़कर कोई, न वीरों को लजा देना।
नगाड़ा युद्ध का तुम भी, बढ़ाकर पग बजा देना।
तुम्हें सौगन्ध माटी की, अगर मैं काम आ जाऊँ,
बिना रोये प्रिये मुझको, तिरंगों से सजा देना।
कवि प्रशांत मिश्र ने अपनी आंदोलित करती रचना में कहा-
"शत्रु ह्रदय प्रति-साँस, भारत माता की जय-जय कार करें, आओ...! सिंहनाद करें।"
कवयित्री डाॅ. रीता सिंह ने वीरों का वंदन करते हुए सुनाया-
"वीरों का वंदन, माथे का चंदन।
आओ करें नमन, इनको करें नमन।"
कवि अशोक 'विद्रोही' ने शहीदों को नमन करते हुए कहा-
"मान माता तेरा हम बढ़ाएंगे, धूल माथे से तेरी लगाएंगे।
एक क्या सौ जन्म तुझ पे कुर्बान माँ, भेंट अपने सरों की चढ़ाएंगे।।"
कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट के उदगार थे -
"नेतृत्व चाहिए, नेतृत्व चाहिए।
हमें बोस भगत से व्यक्तित्व चाहिए।
नया सवेरा हमें लाना होगा।
विवेकानंद बन जाना होगा।।"
कवयित्री मोनिका 'मासूम' ने अपनी हृदयस्पर्शी ग़ज़ल में कहा -
"निहां है दर्द भी हँसती हुई आँखों में पढ़कर देखिए।
लगा कर मौत सीने से कभी सरहद पे लड़कर देखिए।
बहुत आसाँ है महलों को खङा करना खयालों में कभी,
हकीकत की ज़मी पे नींव की दो ईंट गढ़ कर देखिए।"
शायर व कवि मनोज 'मनु' ने अपने दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा -
"शब्द नहीं एक भाव है, आज़ादी की बात।
स्वाभिमान की राष्ट्र को, मिलने दें सौगात।।
नमन शहीदों आपको, मेरा शत शत बार।
बलिदानों से आपके , हर दिन अब त्यौहार।।"
कार्यक्रम में वरिष्ठ व्यंग्यकार अशोक विश्नोई एवं कवयित्री डॉ. सुगंधा अग्रवाल ने उपस्थित रहकर सभी का उत्साहवर्धन किया। मोनिका 'मासूम' द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुँचा।
चुनाव से पहले,
गठबंधन में बँध जाना,
इक्के, दुक्के, नहले, दहलों का!
जवान लड़के,
और लड़कियों की तरह,
एक दूसरे के गले में बाँहें डालना,
दुलारना, पुचकारना, रिझाना,पटाना
साथ जीने,
और मरने तक की कसमें खाना,
और,
चुनाव के ठीक बाद,
शुरू होता है तय करना,
सुख-सुविधाओं का बराबर प्रयोग,
अर्थात
बिलास भोग,
भोग-विलास की शर्तों पर,
पुत्र रत्न की तरह,
प्राप्त तो हो ही जाती है सत्ता!
आप सभी जानते हैं इसके बगैर,
हिलता नहीं है,
कहीं कोई भी पत्ता!
पत्ता खड़कता है,
धीरे-धीरे,
बंदा रड़कता है,
धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे, एक दूसरे के प्रति,
आकर्षण कम होता है,
कोई ज्यादा पा लेता है,
कोई सब कुछ खो देता है,
इस तरह,
जब एक करने लगता है,
दूसरे के साथ, बलात्कार!
तो
नाजायज, पेट की तरह,
समय से पहले ही गिर जाती है,
सुविधा भोगी गठबंधन वाली सरकार,
मेरा पहले भी था,
आपसे एक ही निवेदन,
और आज भी है एक ही दरकार!
इन तथाकथित,
प्रेमियों को,
बलात्कारियों को,
विलासी भोगियों को,
ठिकाने से लगा दो,
अबकी बार फिर एक ईमानदार,
सरकार बनवा दो
✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्
कुरकावली, संभल
उत्तर प्रदेश, भारत
प्रोजेक्टर अपनी छाया डालकर चुप हो जाता है। ये है मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यद्यपि उनका निवास अधिकतर जनपद की तहसील चन्दौसी में ही रहा है किन्तु उनकी पहचान मुख्यतया मुरादाबाद के प्रमुख हास्य-कवि के रूप में ही है और 'हुल्लड़' मुरादाबादी की तरह काव्य मंच पर मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व करते है।
किन्तु अपने सुदीर्घ रचनाकाल में मिश्र जी ने केवल हास्य-रस की कविताएं ही नहीं रची है, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे है। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप है। 'पवित्र पंवासा' शीर्षक ऐतिहासिक खण्ड-काव्य की भूमिका में प्रख्यात गीतकार शचीन्द्र भटनागर, मिश्र जी के बारे में लिखते है " श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के गीतकार, व्यंग्यकार, पुरातत्वविद, लेखक, नाटककार आदि रूपों से मेरा परिचय विगत तीस-पैतीस वर्षों में समय-समय पर होता रहा है उनकी समर्थ लेखनी जिधर मुड़ी उधर ही उसने नये प्रतिमान स्थापित कर दिए।" यूँ मिश्र जी की पहचान मुख्यतया एक व्यंग्य कवि के रूप में ही अधिक है किन्तु उनके अन्दर बैठा कवि वास्तव में तभी हमारे सामने अपनी पूरी ‘फार्म' में आता है जब वे 'पवित्र पंवासा' जैसे ऐतिहासिक खण्ड-काव्य में अपनी ओजपूर्ण भाषा में हुंकार लगाते हैं।
"है समर प्रयाण, वीर चल पड़े,
छोड़ के कमान तीर चल पड़े,
शत्रु- सैन्य थी जहाँ दहाड़ती,
रक्त पान को अधीर चल पड़े।
तेग चल पड़ीं, दुधार चल पड़े,
ढाल चल पड़ी, कुठार चल पड़े,
लौह के कवच, बदन सजे हुए,
राजपूत धारदार चल पड़े।
केसरी निशान हाथ में लिए,
आखिरी प्रयाण हाथ में लिए,
सिंह-पूत सिंह से निकल पड़े,
चंचला कृपाण हाथ में लिए । "
ऐसा कौन पाठक या श्रोता होगा जिसकी शिराओं में इन पंक्तियों के अवगाहन के बाद रक्त न खौल उठे। दरअसल, मिश्र जी जब वीर रस के काव्य की रचना कर रहे होते है तब वे जाने-अनजाने मध्ययुगीन चंदवरदाई, जगनिक या भूषण जैसे कवियों की परम्परा का अनुसरण ही नहीं कर रहे होते बल्कि उनके समीप खड़े दिखाई पड़ते है। मिश्र जी कथ्य की दृष्टि से ही नहीं बल्कि यति गति, लय या छन्द की दृष्टि से भी मध्ययुगीन कवियों से कमतर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो वे वीरगाथा काल के कवियों से भी ज्यादा मौलिक और विशिष्ट दिखाई पड़ते है। वीरगाथा काल के कवियों ने जहाँ अधिकांश काव्य रचना राज्याश्रय प्राप्त करने, आजीविका चलाने या अपने स्वामी शासक को प्रसन्न करने के लिए की है वही मिश्र जी ने ऐसी किसी बाध्यता के बिना निर्द्वन्द्व भाव से साहित्य रचना की है और उन्होंने स्थानीय इतिहास, लोक कथाओं या किवदंतियों को प्रश्नय दिया है।
मिश्र जी उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है। उनके 'चरित्र काव्य' का मुख्य आधार स्थानीय इतिहास रहा है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे महान साहित्यकारों ने जहाँ उपन्यासों के जरिये झांसी या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के इतिहास को उजागर किया है वहीं मिश्र जी ने गंगा या राम गंगा के तीर पर बसे प्राचीन नगरों के इतिहास को अपने साहित्य सृजन का आधार बनाया है। ऐतिहासिक कथाओं पर साहित्य रचने वाले अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से मिश्र जी इस दृष्टि से भी बिल्कुल अलग है कि उनमें से अधिकांश ने गद्य और पद्य दोनों में से किसी एक विधा में ही साहित्य रचना की है। किन्तु मिश्र जी ने गद्य-पद्य दोनों ही विधाओं में पर्याप्त मात्रा में साहित्य रचा है। एक ओर जहाँ उन्होंने 'पवित्र पंवासा' और 'मुरादाबाद अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी' जैसी पुस्तकें काव्य में रची है वहीं 'शहीद मोती सिंह' गद्य में रचा ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उन्होंने "इतिहास के झरोखे से संभल' और 'मुरादाबाद का स्वतंत्रता संग्राम' जैसी कृतियां भी रची है।
स्थानीय इतिहास या जनपदीय इतिहास को मिश्र जी के समग्र लेखन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दरअसल, स्थानीय इतिहास, लोककथाएं, किवंदंतियां मिश्र जी के साहित्य की 'लाइफलाइन' हैं और इनके बिना उनके साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थानीय इतिहास पर मिश्र जी का कार्य शोध के महत्व का है। अमर उजाला और दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों से न केवल रोचक ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती है बल्कि अतीत को खंगालने के मिश्र जी के एकल और भगीरथ प्रयासों और भीष्म संकल्प का भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।
यद्यपि मिश्र जी का इतिहास अधिकांशतया जनश्रुतियों पर आधारित है किन्तु उनका साहित्य असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है। पंवासा के राजा कमाल सिंह और राग केसरी, कैथल के बड़गूजर, संभल के रुस्तम खाँ और शहीद मोती सिंह कोई मिथकीय या काल्पनिक पात्र नहीं है बल्कि इतिहास है। हाँ, जब मिश्र जी इस इतिहास में कल्पना का समावेश कर देते हैं तब यह अतिरंजित भले ही लगता हो किन्तु यह उत्कृष्ट साहित्य का रूप अवश्य ले लेता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि मिश्र जी का रचा साहित्य अतिरंजना है। दरअसल, इतिहास और कल्पना दो ऐसे सूत्र है जो मिश्र जी के साहित्य में कुछ इस तरह गुँथे हुए है कि उन्हें पृथक चिह्नित किया जाना संभव नहीं है।
महान अंग्रेज साहित्यकार सर वाल्टर स्काट का नाम आज विश्व साहित्य में यदि आदर के साथ लिया जाता है तो वह इसलिए कि उन्होंने अपनी कृतियों में स्काटलैंड और इंग्लैण्ड के इतिहास, समकालीन जनजीवन, लोककथाओं, लोकपरम्पराओं, किवंदंतियों को पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ दर्ज़ कर प्रस्तुत किया है। ठीक यही काम मिश्र जी भी व्यापक स्तर पर न सही क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर करते रहे हैं। अब यदि ऐतिहासिक कथाओं और आख्यानों के गायन के लिए विलियम शेक्सपियर को 'वार्ड आफ एवन' और सर वाल्टर स्काट को 'विजर्ड आफ द नार्थ' कहा जा सकता है तो सुरेन्द्र मोहन मिश्र को भी 'गंगा का गायक' कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में गांगेय क्षेत्र का विशद वर्णन किया है।
तथ्य तो यह है कि लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी का सही आकलन आज तक नहीं किया गया है। लोग उन्हें एक हास्य कवि के रूप में ही जानते हैं। एक इतिहासकार और पुराशास्त्री के रूप में उनका आकलन किया जाना बाकी है। यह हिन्दी जगत का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े कद के रचनाकार का समुचित मूल्यांकन तक नहीं हुआ है। यदि मिश्र जी अंग्रेजी भाषा में साहित्य रच रहे होते तो निश्चित ही उनका स्थान टामस ग्रे सरीखे कवियों के समकक्ष होता और उन पर दर्जनों शोध हो गये होते। किन्तु मिश्र जी ने इन सब बातों की कभी परवाह नहीं की है। 'एकला चलो' की तर्ज पर वे निरन्तर सृजनरत हैं और नयी पीढ़ी को तकनीक के घटाटोप से बाहर लाकर एक बार अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों यानी अपने इतिहास से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।
( यह आलेख उस समय लिखा गया था जब श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य साधना में रत थे )
✍️ राजीव सक्सेनाप्रभारी सहायक निदेशक (बचत)
मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत
(1)
पंछी कब तक दुख झेलोगे!
भव- सागर की प्रखर ज्वाल से,
जल जलकर खेलोगे!
जर्जर तरनि जलधि अति गहरा,
तेरी साँस-साँस पर पहरा,
निज क्षमता तोलोगे!
पलछिन अणु-अणु से टकरायें,
धरा-गगन कम्पित भय खायें,
जय कैसे बोलोगे!
भ्रम से भरी कुटिल माया से,
जलनशील शीतल छाया से,
तुम कब तक खेलोगे!
इस परिव्याप्त नियति-शासन में
द्वन्द्व भरे मन के आँगन में,
रथ कैसे ठेलोगे!
करुण विभव सारी संसृति का,
मधुर वासना-बिम्व-प्रगति का,
क्या रहस्य खोलोगे!
(2)
गाँव को छोड़कर अब नगर की, भीड़ में हम कहीं खो गये हैं, कागजी फूल से हो गये हैं।
आपसी स्वस्थ रिश्ते पुराने, बालकों के खिलौने हुए हैं,
छू रहे जो कभी थे गगन को, आदमी आज बौने हुए हैं,
पत्थरों के नगर काँच के घर, हम बना चैन से सो रहे हैं।
अनमनी-सी, ठगी-सी, बुझी-सी, मौन अधरों हँसी पल रही है, खोजते-खोजते खो गये हम, आदमीयत नहीं मिल रही है,
एक हारी-थकी जिन्दगी का, बोझ बरबस सभी ढो रहे हैं।
जिन्दगी, जिन्दगी अब नहीं है, साँस हर एक हतभागिनी है,
मांग में फूल बनकर सजी जो, हाय! विधवा हुई चाँदनी है,
रास्ते रास्तों से झगड़कर, अब स्वतः ही अलग हो रहे हैं।
आदमी आदमी से विमुख है, और भयभीत परछाइयाँ हैं, डंक-सा मारतीं हर किसी की, देह में मीत अंगड़ाइयाँ हैं,
रिस रहे जो उरों में हमारे, घाव पर घाव हम धो रहे हैं।
तरु दुमों की हुई आज छोटी, घास से भव्य ऊँचाइयाँ हैं,
प्राण का दीप कम्पन भरा है, चल रहीं मौत की आँधियाँ हैं,
पाँव में शूल अपने चुभोकर, बीज दुख के यहाँ बो रहे हैं।
(3)
ओ सुरसरि की धार विमल तुम, धीरे-धीरे बहना,
दुर्लभ बहुत हो गया मन को, मन ही से कुछ कहना।
जिधर देखते उधर बह रहीं, हैं मुँह जोर हवायें,
पगली-पगली भटकी-भटकी, हैं खामोश दिशायें,
तुम घर की दीवार, न होकर ऐसे वैसे ढहना ।
थे जो भी जाने-पहचाने, सभी हुए अनजाने,
शूलों की क्या कहें, फूल भी ठाढ़े सीना ताने,
हर कोई सीमा लांघे, तुम सीमा ही में रहना
चाहे हो कितनी भी पीड़ा, कितनी भी मजबूरी,
सुलभ न हो पाये प्राणों को, प्राणों की कस्तूरी,
अन्तर्मन की व्यथा-कथा मत, भूल किसी से कहना।
चोट पंखुरी की कुछ ऐसी, पीर हुई कसकीली,
मलय गंध से डाल भाँवरें, आँख हुई हर गीली,
अपनों का हर वार विहँस कर, हो जैसे भी सहना
गंध न बिखरे जिसमें, ऐसी कोई भोर नहीं है,
मधुर प्यार वह सिंधु कि, जिसका कोई छोर नहीं है,
दृढ़ता की पतवार संभाले, पाल तानकर बहना।
(4)
सूर्य की रोशनी में घने, देखने को कुहासे रहे,
प्यार की फागुनी रात में, मन सभी के उदासे रहे।
रात के स्वप्न में तो यहाँ, उड़ रहीं रेशमी तितलियाँ,
आदमीयत रहे इसलिए, सज रहीं सैकड़ों बर्दियाँ,
पर सुबह आइना देखकर, साफ चेहरे रुआंसे रहे।
आज सड़ती हुई लाश पर, जल रही हैं अगरबत्तियाँ,
द्वार-आँगन खड़ी हो रहीं, सिर्फ अलगाव की भित्तियां,
आदमी का लहू चूसकर, आदमी हैं पियासे रहे।
अब मनुज की त्वचा में छिपे, भेड़िये दोगले हो गये,
पुस्तकों के नियम उपनियम, हाय! सब खोखले हो गये,
विष दिया चन्दनी साँस को, हाथ में पर बताशे रहे।
आज हर रोज है हो रहा, आस्था की सिया का हरण,
छप रहे पावनी भूमि पर, दानवों के घिनौने चरण,
आदमी की भली नस्ल को, आदमी हैं भुला से रहे।
स्नेह की क्यारियों में खिले, चन्द रिश्ते अमलतास से,
नेह के ही सहज रस बिना, मर रहे भूख से प्यास से,
भूल से जो बनीं दूरियाँ, भूल से हम बढ़ाते रहे।
(5)
आज हो गये इस दुनिया में कैसे-कैसे लोग,
बने भेड़िए जगह-जगह पर, घूम रहे हैं लोग।
हर मन की खुशियाँ हथियाकर, सत्ता पर आसीन,
जन-सेवा का तिलक लगाये, पाप कर्म में लीन,
चोरी कर सीनाजोरी से, घूम रहे हैं लोग।
पंख तितलियों के मधुपों के, नोंच-नोंच दिन रात,
करें जुगनुओं की हत्यायें, लगा लगा कर घात,
गर्म लहू से होंठ रंगाये, घूम रहे हैं लोग।
लूट रहे अनब्याही तुलसी, सुबह दुपहरी शाम,
भूल गये सब नाते-रिश्ते, हैं चर्चित बदनाम,
मानवता की चिता जलाते, घूम रहे हैं लोग।
साँस-साँस पर पहरे बिठला, प्राण-प्राण पर डर,
खेत-खेत खलिहान जलाकर, मिटा मिटाकर घर,
आँख दिखाते खुले खजाने, घूम रहे हैं लोग।
चूल्हे-चकिया दादी माँ के, बना बना ग़मगीन,
मिट्टी वाले तोड़ खिलौने, बच्चों के रंगीन,
सूरज को गालियां सुनाते, घूम रहे हैं लोग।
(6)
सरसिज-सी पलकों पर उतरी बुझी-बुझी सी शाम,
अधरों पर लिख गया कसकता एक दर्द का नाम
खिला गोलियां आज नींद की, हम बच्चे बहलाते,
बाँझ कामनाओं से, फल की इच्छा कर दुखियाते,
ढूँढ रहे हैं भरी सिसकियों में हम सुख अंजाम,
लगा हुआ है आज सोच को अपने पूर्ण विराम।
भरी जेठ की दुपहरिया की, जलन हमारी रोटी,
डूबी हुई दर्द में है, तकदीर हमारी खोटी,
नभ से धरती तक सूनापन भरा हुआ गुमनाम,
बीत रही है धीरे-धीरे अपनी उमर तमाम
घूम रहे हैं प्रेत हर जगह, सुन्दर कपड़ों वाले,
फूल तोड़ती जूही के, पाँवों पहनाकर ताले,
आज हो रही है दुनियां में मानवता बदनाम,
ठहर रहा है निर्मम पतझर घर-घर आठों याम
ले हाथों तूफान प्यार का, जब तक हम न उठेंगें,
हँसी चमेली की चम्पा की, हरगिज पा न सकेंगे,
लाना है इस वसुन्धरा पर जगमग भोर ललाम,
भरना है फूलों-सी खुशियों से जन-जन के धाम।
सुमनों के रंगों से आओ, मनहर चित्र बनायें,
ईर्ष्या वाले घाव प्रीति के, मरहम से दुलरायें,
सूनेपन में दे स्वर लहरी गीतों की अविराम,
यमुना तट पर बजे बाँसुरी नाचें राधे श्याम।
:::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
सब अपना अवदान करो,
चलो सभी मतदान करो,
आओ सभी मतदान करो,,
अल्प काल में ढह ना पाए,
अचल व्यवस्था चुननी है,
ऊपर उठकर जात-पात से ,
सबल व्यवस्था चुननी है,
छोटी छोटी सोच में फँसकर,
मत अपना नुकसान करो,
चलो सभी मतदान करो ।।..
प्रजातंत्र का मतलब जनमत,
इससे हटकर मत चूको ,
बहुत क़ीमती होता है 'मत'
ऐसा अवसर मत चूको,,
सूझ-बूझ से सोच समझ कर,
स्वयं राष्ट्र निर्माण करो,,
चलो सभी मतदान करो।।...
मान-मनौवल या लालच में,
पढ़कर धोखा मत खाना,
चिकने-चुपड़े बहलावों में,
कभी भूलकर मत आना,
नायक या खलनायक चेहरा,
इसकी भी पहचान करो,,
चलो सभी मतदान करो।।...
देश को जिस ने किया खोखला
उन्हें पनपने मत देना,
समझ रहे जो इसे बपौती
इसे हड़पने मत देना,
अब 'मत' का अधिकार है तुमपे
सच्चे का संधान करो,,
चलो सभी मतदान करो।।..
✍️ मनोज वर्मा 'मनु'
मुरादाबाद (उ. प्र. )भारत
मोबाइल फोन नम्बर 6397 093 523
::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
सर सर सर बहती है सरिता, मन के भाव जताने को
चंदा ने चुनरी फहराई, तारों का मस्तक चूमा
इठलाई बलखाई नदिया, देख नज़ारा मन झूमा
कौन सुने अब मन की बातें, घर सागर के जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
पोर-पोर में पीर समाई, सुबक- सुबक नैना रोये
जब जब बरसे मेघा पागल, बैठे बैठे दिल खोये
बड़ी है आकुल मन की कश्ती, खुद ही मर मिट जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
मेरा जीवन उसका जीवन, किसका जीवन क्या कहना
रास रंग की देख तरंगे, अद्भुत हैं दिल में रखना
लहर लहर फिर लहर लहर है, सागर गंगा जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
बूढ़े-बड़े सभी
हर घर में
अब केवल सामान हैं
बहू-पोतियाँ
पोते कहते
जीवन में व्यवधान हैं
खाँस रही है
दादी, दादा
अदरक चटा रहे हैं
अम्मा को
बापू बुखार का
सीरप पिला रहे हैं
वर्षों से जो
रखे-संवारे
चूर हुए अरमान हैं
हीरोहोंडा
मोटर साइकिल
एक्टिवा स्कूटर
पोते यारों के संग
घूमे
कार इनोवा लेकर
कमर दर्द से
बाबा पीड़ित
जो घर की पहिचान हैं
मात-पिता से
बतियाने का
बेटे समय न पाते
सारी दुनिया घूमे
उनके पास नहीं आ पाते
फिर भी
मात-पिता को बेटे
सचमुच प्राण समान है
आज आदमीयत
रोती है
फूट-फूट हर घर में
बूढ़ी छड़ी
हाथ में है बस
कोई नहीं सफर में
मौत सत्य है
सब कुछ झूठा
हम इससे अनजान हैं
(2)
कुनबे के अब अमन चैन पर
गिरती रोज़
बिजलियाँ
पच्छिम की
सभ्यता-संस्कृति
ओढ़े फिरें युवतियाँ
चकिया-चूल्हे
वासन-भाँडे
आपस में लड़ते हैं
आँगन-आँगन
देहरी-द्वारे
सुबह-साँझ भिड़ते हैं
कमरों में है हाथापाई
रोयें देख
खिड़कियां
भाई-भाई में अनबन है
पिता-पुत्र में झगड़े
माँ-बेटी
भाई-बहिना में
मनमुटाव हैं तगडे़
घर के धंधे चौपट
गायब सुख की
सभी तितलियाँ
उगीं नागफनियाँ
खेतों में
अरु खलियान धतूरे
बिटिया के
व्याहन के सपने
फिर रह गये अधूरे
ऐसी दशा देख
बरसातीं
आंसू स्याम बदलियाँ
(3)
सुबह दुपहरी साँझ रात है
चन्दा है दिनमान है
घर खलियान खेत चौपालें
गली-गली श्मशान है
लोकतंत्र है सब स्वतंत्र हैं
न्यायपालिका बूढ़ी
घर है एक कई चूल्हे हैं
आँगन-आँगन दूरी
जिधर देखते अंधकार है
डरावना सुनसान है
रक्षक ही भक्षक है अब तो
कैसे लाज बचेगी
तुलसी की अनछुई जिन्दगी
कैसे हाय! कटेगी!
सभी जगह अब पसर रही है
गिद्धों की मुस्कान है
अपने-अपने सूरज
अपने-अपने हाथों लेकर
हमने हैं तय किए रास्ते
खुद अपने ले देकर
गीता और बाइबिल के संग
झुठला दिया कुरान है
गिद्ध-भेडिए स्वान-सियार मिल
लाशें बाँट रहे हैं
खून सने लोथड़े माँस के
दाँतों काट रहे हैं
चिडियों के घोसलों बीच में
बाज बना मेहमान है
खरगोशों के भोले बच्चे
थर-थर काँप रहे हैं
रेशम के बिस्तर में
सोये काले साँप रहे हैं
बारूदी टीले पर सचमुच
बैठा हुआ जहान है
(4)
खून चाहिए
इन्हें किसी का
हो इनका या उनका
खूनी कुत्ते
छिपे हुए हैं
फूलों की हर क्यारी
हाथ लिए तेजाब
सुलगती ज्वाला
की चिन्गारी
निर्दयता से
रौंद रहे
बूटों से तिनका-तिनका
बच्चों के
हाथों में दें यह
बम्ब और हथगोले
जला रहे हैं
शहर-बस्तियाँ
धरती थर-थर डोले
इनका कोई
नहीं जहाँ में
कहें जिसे यह अपना
फगवा गाते
गेहूँ बालें
लिए मटर की कलियाँ
बध करते
उनको जिनके
हाथों फूलों की डलियाँ
मौत सामने
खड़ी देख
सूरज का माथा ठनका
मानव सूरज
बीच बनाते
हैं ये रोज सुरंगें
मनुज देह को
काट बिगाड़ें
जैसे लाल पतंगे
प्यार प्रीति की दुनिया
इनके बीच
हो गयी तिनका
(5)
गर्म ख़ून से
अपनी धरती
लाल हो रही है अब
स्नेह- प्यार के
झरने सूखे
कहीं नहीं है मंगल
साँसों की
चहुँ ओर बिछा
सन्नाटा काला जंगल
धरती माता
अपना धीरज
रोज खो रही है अब
किए मजहबों ने
पैदा हैं
ईश्वर अपने-अपने
दिखा रहे सारी जनता को
रंग-बिरंगे
सपने
लहुलुहान मानवता
यह सब देख
रो रही है अब
मजहब का परिधान पहिन
नर-गिद्ध भेड़िए आते
अपने को
मानवता का
सच्चा हमदर्द बताते
मानव-सम्बन्धों की हत्या
रोज हो रही है अब
(6)
मचा हुआ कोहराम तितलियों में
भोले अलियों में
रखी हुयी चिनगारी है अब
फूलों में कलियों में
धुवाँ धमाकों चीखों हल्लों
हंगामों से अपनी
भरा हुआ माहौल धरा का
फैल रही बद अमनी
त्राहि-त्राहि- सी मची हुयी है
धरा-गगन गलियों में
मरी तितलियों की लाशें
टकराकर तेज पवन में
रेत-रेत हो-हो गिरती
जंगल उपवन आँगन में
तैर रहे हैं जीवित मुर्दे
लाल-लाल नदियों में
शोर-शराबा आगजनी
होती निर्मम हत्यायें
चढ़ी हुयी आतंकी धनुषों
की है प्रत्यंचायें
ऐसा देखा गया नहीं है
अब तक तो सदियों में
(7)
मुझे न अब सूरज की किरनों से
बतियाना भाये
मेरे बाहर-भीतर कोई
तीखी अगनि जलाए
पीपल के पेड़ों पर उल्लू
और गिद्ध बैठे हैं
जीवित मुर्दे द्वारे-द्वारे
दस्तक दे लेटे हैं।
सरसों के खेतों से अब
कोई आवाज़ न आये
बदबूदार सड़ी मानव
लाशें तैरें नदियों में
मक्खी-मच्छर रहे भिनभिना
हैं संकरी गलियों में
उतर रही खामोशी है
झीना परिधान सजाये
मानवीय गुण स्नेह दया
करुणा दुलार बीते हैं
श्रद्धा प्यार मुहब्बत से
अब सबके मन रीते हैं
जहरीली चल रही हवायें
कली-फूल मुर्झाये
(8)
प्रजातंत्र में सभी घटक
सरकार बन गये हैं
शासन के अधिकारी तो
परिवार बन गये हैं
राम -खुदा बन्दी हैं अब तो
मन्दिर-मस्जिद में
जली जा रही सारी दुनिया
आतंकी जिद में
मानव के कर्तव्य सभी
अधिकार बन गये हैं
वर्ण–भेद का सूरज जग में
अब भी चमक रहा
मानवीय संदेश एक पर
निर्णय विमत रहा
धर्म सभी उपकार छोड़
हथियार बन गये हैं
गांधी और मंडेला दोनों
बैठे हैं गुमसुम
मानवता के दुश्मन फिर भी
नाच रहे छमछम
हृदय हमारे फूल नहीं
तलवार बन गए हैं
(9)
नील झील में जब जब सूरज
रो-रो डूबा है
धुँधलाये क्षितिजों पर हमने
रंग सजाए हैं
दुख को भुला सपन सतरंगी
जीवन में बोये
दहशतगर्त हवाओं के
काले चेहरे धोये
बारूदों की छाया में भी
फूल खिलाये हैं
वन-उपवन के फूल-फूल में
जब यौवन काँपा
गंध चन्दनी के घर में
विषधर ने आँगन नापा
काले सन्नाटे के हमने
पंख जलाए हैं
जब-जब भी बिगड़ैल मौत की
छायायें पसरें
आसमान में तड़प बिजलियाँ
धरती पर उतरें
सागर से मोती चुन-चुन
झोली भर लाये हैं
उदासीन गीले आँगन का
मन बहलाया है --
वीरानेपन की छत पर चढ़
शोर मचाया हैं
इन्द्रधनुष से गीत रंगीले
हमने गाये हैं
(10)
कदम-कदम खानापूरी
चहुँ ओर दिखावा है
सभी ओर मरुथल
पानी तो
सिर्फ छलावा है
पत्ते नुचे
टहनियाँ टूटी
कोपल बची नहीं
चैती कजरी के
स्वर मीठे
मिलते नहीं कहीं
कलियों की
मुस्कानों को
दहशत ने बाँधा है
बैसवारी की
घनी छाँव में
आँखें रोती हैं.
मिलते नहीं
गुलाबों की
पाँखों पर मोती हैं
नये भोर में
लम्हा-लम्हा
झरता लावा है।
पंख तितलियों के
चिड़ियों के
और पतंगों के
गली-गली
उड़ते हैं चिथड़े
मानव-अंगों के
फूलों की
लाशें ढो ढो कर
दुखता काँधा है
गर्म हवाओं ने
जब-जब भी
झुलसाये सावन
बाग-खेत
खलियान पोखरे
रेत हुए आँगन
हमने
औरों का दुःख अपने
सुख से साधा है
(11)
शब्द-शब्द टूटा-फूटा
अर्थ-अर्थ लंगड़ा लूला है
कैसे मन के
गीत सुनायें!
आंगन -आंगन द्वारे-द्वारे
नफरत का अंकुर फूटा है
नभ ऊचें उड़ते-उड़ते
गौरैया का पर टूटा है
सूना-सूना जीवन अपना
फिर कैसे
घर बार सजायें
बादल जैसी भीगी साँसे
भीतर चुभे दर्द की फाँसें
बदल-बदल मौसम हत्यारे
इस दुखिया जीवन में खांसें
चाट रही दीमक रिश्तों को
कैसे मन की
बिथा बतायें
छाती फटी ताल की नदिया
बार-बार हिलकी भरती है
धूल नहाते मरी चिरैया
सचमुच पानी से डरती है
चौखट-चौखट दहशत बैठी
कैसे
चैती-सावन गायें
पड़े रेत पर शंख चीखते
बार-बार पानी-पानी हैं
इन्द्रधनुष हो गये सयाने
रंग सबके सब बेमानी हैं
कण्ठ-कण्ठ सांपों की माला
कैसे
सोया बीन जगायें
::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822