(1)
पंछी कब तक दुख झेलोगे!
भव- सागर की प्रखर ज्वाल से,
जल जलकर खेलोगे!
जर्जर तरनि जलधि अति गहरा,
तेरी साँस-साँस पर पहरा,
निज क्षमता तोलोगे!
पलछिन अणु-अणु से टकरायें,
धरा-गगन कम्पित भय खायें,
जय कैसे बोलोगे!
भ्रम से भरी कुटिल माया से,
जलनशील शीतल छाया से,
तुम कब तक खेलोगे!
इस परिव्याप्त नियति-शासन में
द्वन्द्व भरे मन के आँगन में,
रथ कैसे ठेलोगे!
करुण विभव सारी संसृति का,
मधुर वासना-बिम्व-प्रगति का,
क्या रहस्य खोलोगे!
(2)
गाँव को छोड़कर अब नगर की, भीड़ में हम कहीं खो गये हैं, कागजी फूल से हो गये हैं।
आपसी स्वस्थ रिश्ते पुराने, बालकों के खिलौने हुए हैं,
छू रहे जो कभी थे गगन को, आदमी आज बौने हुए हैं,
पत्थरों के नगर काँच के घर, हम बना चैन से सो रहे हैं।
अनमनी-सी, ठगी-सी, बुझी-सी, मौन अधरों हँसी पल रही है, खोजते-खोजते खो गये हम, आदमीयत नहीं मिल रही है,
एक हारी-थकी जिन्दगी का, बोझ बरबस सभी ढो रहे हैं।
जिन्दगी, जिन्दगी अब नहीं है, साँस हर एक हतभागिनी है,
मांग में फूल बनकर सजी जो, हाय! विधवा हुई चाँदनी है,
रास्ते रास्तों से झगड़कर, अब स्वतः ही अलग हो रहे हैं।
आदमी आदमी से विमुख है, और भयभीत परछाइयाँ हैं, डंक-सा मारतीं हर किसी की, देह में मीत अंगड़ाइयाँ हैं,
रिस रहे जो उरों में हमारे, घाव पर घाव हम धो रहे हैं।
तरु दुमों की हुई आज छोटी, घास से भव्य ऊँचाइयाँ हैं,
प्राण का दीप कम्पन भरा है, चल रहीं मौत की आँधियाँ हैं,
पाँव में शूल अपने चुभोकर, बीज दुख के यहाँ बो रहे हैं।
(3)
ओ सुरसरि की धार विमल तुम, धीरे-धीरे बहना,
दुर्लभ बहुत हो गया मन को, मन ही से कुछ कहना।
जिधर देखते उधर बह रहीं, हैं मुँह जोर हवायें,
पगली-पगली भटकी-भटकी, हैं खामोश दिशायें,
तुम घर की दीवार, न होकर ऐसे वैसे ढहना ।
थे जो भी जाने-पहचाने, सभी हुए अनजाने,
शूलों की क्या कहें, फूल भी ठाढ़े सीना ताने,
हर कोई सीमा लांघे, तुम सीमा ही में रहना
चाहे हो कितनी भी पीड़ा, कितनी भी मजबूरी,
सुलभ न हो पाये प्राणों को, प्राणों की कस्तूरी,
अन्तर्मन की व्यथा-कथा मत, भूल किसी से कहना।
चोट पंखुरी की कुछ ऐसी, पीर हुई कसकीली,
मलय गंध से डाल भाँवरें, आँख हुई हर गीली,
अपनों का हर वार विहँस कर, हो जैसे भी सहना
गंध न बिखरे जिसमें, ऐसी कोई भोर नहीं है,
मधुर प्यार वह सिंधु कि, जिसका कोई छोर नहीं है,
दृढ़ता की पतवार संभाले, पाल तानकर बहना।
(4)
सूर्य की रोशनी में घने, देखने को कुहासे रहे,
प्यार की फागुनी रात में, मन सभी के उदासे रहे।
रात के स्वप्न में तो यहाँ, उड़ रहीं रेशमी तितलियाँ,
आदमीयत रहे इसलिए, सज रहीं सैकड़ों बर्दियाँ,
पर सुबह आइना देखकर, साफ चेहरे रुआंसे रहे।
आज सड़ती हुई लाश पर, जल रही हैं अगरबत्तियाँ,
द्वार-आँगन खड़ी हो रहीं, सिर्फ अलगाव की भित्तियां,
आदमी का लहू चूसकर, आदमी हैं पियासे रहे।
अब मनुज की त्वचा में छिपे, भेड़िये दोगले हो गये,
पुस्तकों के नियम उपनियम, हाय! सब खोखले हो गये,
विष दिया चन्दनी साँस को, हाथ में पर बताशे रहे।
आज हर रोज है हो रहा, आस्था की सिया का हरण,
छप रहे पावनी भूमि पर, दानवों के घिनौने चरण,
आदमी की भली नस्ल को, आदमी हैं भुला से रहे।
स्नेह की क्यारियों में खिले, चन्द रिश्ते अमलतास से,
नेह के ही सहज रस बिना, मर रहे भूख से प्यास से,
भूल से जो बनीं दूरियाँ, भूल से हम बढ़ाते रहे।
(5)
आज हो गये इस दुनिया में कैसे-कैसे लोग,
बने भेड़िए जगह-जगह पर, घूम रहे हैं लोग।
हर मन की खुशियाँ हथियाकर, सत्ता पर आसीन,
जन-सेवा का तिलक लगाये, पाप कर्म में लीन,
चोरी कर सीनाजोरी से, घूम रहे हैं लोग।
पंख तितलियों के मधुपों के, नोंच-नोंच दिन रात,
करें जुगनुओं की हत्यायें, लगा लगा कर घात,
गर्म लहू से होंठ रंगाये, घूम रहे हैं लोग।
लूट रहे अनब्याही तुलसी, सुबह दुपहरी शाम,
भूल गये सब नाते-रिश्ते, हैं चर्चित बदनाम,
मानवता की चिता जलाते, घूम रहे हैं लोग।
साँस-साँस पर पहरे बिठला, प्राण-प्राण पर डर,
खेत-खेत खलिहान जलाकर, मिटा मिटाकर घर,
आँख दिखाते खुले खजाने, घूम रहे हैं लोग।
चूल्हे-चकिया दादी माँ के, बना बना ग़मगीन,
मिट्टी वाले तोड़ खिलौने, बच्चों के रंगीन,
सूरज को गालियां सुनाते, घूम रहे हैं लोग।
(6)
सरसिज-सी पलकों पर उतरी बुझी-बुझी सी शाम,
अधरों पर लिख गया कसकता एक दर्द का नाम
खिला गोलियां आज नींद की, हम बच्चे बहलाते,
बाँझ कामनाओं से, फल की इच्छा कर दुखियाते,
ढूँढ रहे हैं भरी सिसकियों में हम सुख अंजाम,
लगा हुआ है आज सोच को अपने पूर्ण विराम।
भरी जेठ की दुपहरिया की, जलन हमारी रोटी,
डूबी हुई दर्द में है, तकदीर हमारी खोटी,
नभ से धरती तक सूनापन भरा हुआ गुमनाम,
बीत रही है धीरे-धीरे अपनी उमर तमाम
घूम रहे हैं प्रेत हर जगह, सुन्दर कपड़ों वाले,
फूल तोड़ती जूही के, पाँवों पहनाकर ताले,
आज हो रही है दुनियां में मानवता बदनाम,
ठहर रहा है निर्मम पतझर घर-घर आठों याम
ले हाथों तूफान प्यार का, जब तक हम न उठेंगें,
हँसी चमेली की चम्पा की, हरगिज पा न सकेंगे,
लाना है इस वसुन्धरा पर जगमग भोर ललाम,
भरना है फूलों-सी खुशियों से जन-जन के धाम।
सुमनों के रंगों से आओ, मनहर चित्र बनायें,
ईर्ष्या वाले घाव प्रीति के, मरहम से दुलरायें,
सूनेपन में दे स्वर लहरी गीतों की अविराम,
यमुना तट पर बजे बाँसुरी नाचें राधे श्याम।
:::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
एक से बढ़कर एक रचनाये, बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आपका ।
हटाएंआज हो गए दुनिया में कैसे कैसे लोग......
जवाब देंहटाएंवाह वाह .. बहुत खूब लिखा
बहुत ही सुंदर
बहुत बहुत आभार आदरणीया
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