::::::प्रस्तुति::::::::
हर दिशा से
आज कुछ ऐसी हवाएँ चल रही हैं
आदमी का आचरण बदला हुआ है.
इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर
बात मन से
मन नहीं करता यहाँ पर
हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है
कि जिसको देखकर
सागर स्वयं डरता यहाँ पर
कल्पना विध्वंस की करता यहाँ पर
एक भी निःश्वास
स्वाभाविक नहीं वातावरण में
इस क़दर वातावरण बदला हुआ है।
लोग कहते हैं नया परिधान पहना है समय ने
और सूरज
बहुत ऊपर चढ़ गया है
पर मुझे लगता कि सबको
स्वप्न धोखा दे रहा है
घोर दलदल बीच ही रथ अड़ गया है
आदमी भीषण भँवर में पड़ गया है
सभ्यता के ग्रंथ में
पन्ने पुराने ही भरे हैं
किंतु ऊपर आवरण बदला हुआ है
(2) कसबे का दर्द
मेरा दर्द कि मै न गाँव ही रह पाया
न शहर बन पाया
लुप्त हुई
कालीनों जैसी
खेत-खेत फैली हरियाली
बीच-बीच में
पगडंडी की शोभा
वह मन हरने वाली
अब न फूलती सरसों
डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं
तन-मन की जो थकन मिटा दे
वह शीतल-से ठौर नहीं हैं
सबको छाँह बाँटने वाला
मैं न सघन पाकर बन पाया
वह चूनर का छोर
होंठ के कोने में रखकर
शरमाना
देख कनखियों से
बिन बोले
मन का महाकाव्य कह जाना
ऐसे दृश्य सहज सुखदायक
हुए आज आँखों से ओझल
सूख गया नयनों का पानी
बढ़ता गया निरंतर मरुथल
कभी नहीं कल-कल जल वाला
वह निर्मल निर्झर बन पाया
बहुत बढ़े
देवालय मसजिद
रोज़ कथा कीर्तन होते हैं
होती
उपदेशों की वर्षा
नित जागरण हवन होते हैं
दुर्भावों की कीचड़ फिर भी
हृदय बीच बढ़ती ही जाती
जैसे गंगा बीच किसी पर
परत कलुष की चढ़ती जाती
पावन गंगारज कहलाता
मैं न वही पत्थर बन पाया
(3) शहर की खोज
खोज में शहर की मन का बौनापन पाया
कबिरा के ढाई आखर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव
उठते हैं ठीक सामने
रेत के बगूले
लगता है भटक गए हम
राह यहाँ भूले
कहीं नहीं जल है केवल मरुथल की छाया
घर वाले कल-कल निर्झर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव
कुछ भी तो यहाँ न पाया
अपनापन खोया
विश्वासी आँखें खोईं
भीगा मन खोया
इससे तो अच्छे हम थे श्याम के सँगाती
पगली मीरा के गिरधर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव
चलें अलावों के आगे
प्यार की तपन में
खेत-खेत आँगन-आँगन
खेलते पवन में
जहाँ नहीं नयनों में है संशय गहराता
पुरवइया के निश्छल स्वर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव
(4) निरपेक्ष
और किस-किससे अपेक्षा मैं करूँ
अब मुझे हर व्यक्ति परवश दीखता
है न कोई
जो तिमिर की भीड़ में
एक दीपक की
हिमायत कर सके
न्याय के जो पक्ष में
बाँहें उठा
बात कहने की
ललक से भर सके
जो अनय-अन्याय को ललकार दे
अब न ऐसा तीव्र तेजस दीखता
परत पर परतें
जमी हैं राख की
दिख न पाती उष्णता
अंगार में
बह रहे हैं सब
अवश असहाय से
क्षुद्र तिनकों-से
समय की धार में
चीर कर मझधार पहुँचे पार जो
अब कहीं ऐसा न ओजस् दीखता
शब्द की
संकल्प से दूरी बढ़ी
कर्म-चिंतन में नहीं है संतुलन
कर रही है
शांत मन के मूल पर
भोगवादी दृष्टि
भीषण आक्रमण
एक-सा हो आचरण-वाणी जहाँ
एक भी ऐसा न वर्चस दीखता
(5) असुरक्षा
अब नहीं सुरक्षित है
कोई भी साँस
करें किस पर विश्वास हम
एक समय था
जब हर घर-देहरी के सुख में
अपनापन होता था
हर आँगन का दुःख
हर नयन को भिगोता था
किसी गेह कन्या की
सजल विदा-बेला में
गाँव की हरेक आँख
सहज डबडबाती थी
हर युवा पड़ोसी के
हाथ की कलाई जब
राखी में बँधने को
पल-पल अकुलाती थी
दो कच्चे धागे
अनमोल हुआ करते थे
घर-बाहर प्रीतपगे
बोल हुआ करते थे
अब तो हर दृष्टि हुई
भीतर की फाँस
करें किस पर विश्वास हम
एक समय था
जब हर खेत, वृक्ष, नीड़ों में
भोर चहचहाती थी
वंदना सुनाती थी
सांझ घर बुलाती थी
मन में होती उमंग
सुबह खेत जाने की
शाम ललक होती थी
गेह लौट आने की
किलकारी शैशव की
स्वप्नबिंधे वैभव की
अनुभव के आशीषों की फुहार पाने की
अब वह सब कहाँ गया,
ममता का नाम नहीं
अँगड़ाती सुबह नहीं,
बतियाती शाम नहीं
दिन सूने-सूने हैं
यामिनी उदास करें
किस पर विश्वास हम
खेत गली चौबारे
जगह रह न पाई अब
कोई अनबींधी है
लगता है नहीं रही
दृष्टि सरल सीधी है
कुछ दिन ही बीते जब
घर-आँगन में उसकी
कोने से कोने तक किलकारी गूँजी थी
जहाँ चौक पूरे थे
होलिका जलाई थी
दीप जगमगाए थे, दीवाली पूजी थी
अब उसे डराती है गेह की अटारी भी
अपने ही घर की वह आँगन-तिदवारी भी
घर में ही
कसे कई क्रूर बाहुपाश करें
किस पर विश्वास हम
(6) छद्मवेश
ओसभरी अँजुरी का
हो क्यों आभास यहाँ
दहक रहे हों जब अंगारे सिरहाने
कौन छद्मवेषों में सगा या पराया है
नहीं जान पाते हम
अपनी धरती की हत्या के षड्यंत्रों की
योजना बनाते हम
एक-से मुखौटे सब
पहने हैं फिर बोलो
भले-बुरे को कोई कैसे पहचाने
कौन भला दुहराएगा साहस- शौर्य भरे
उत्तम इतिहासों को
देवालय के भीतर प्राण गँवाते देखा
हमने अरदासों को
लगता है ईंट ईंट
रक्त में भिगोकर हम
आए हैं एक अनोखा भवन बनाने
सहचर होने का सुख अलग हुआ करता
जब लक्ष्य एक होता है
फिर न सोचता कोई, किसकी उपलब्धि हुई
कौन यहाँ खोता है
कोई बेमोल भी
न अपनाएगा हमको
बिखर गए जिस दिन इस माला के दाने
:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
सावन से ही आशा।
बरस बरस कर शायद भर दे
बर्तन खाली सारे।
मोर नाच कर पंख पसारे
अपने न्यारे न्यारे।।
आप स्वयं टल जाए शायद
घर में रुकी निराशा।
बरस-बरस कर कहीं-कहीं तो
ला दो घनी तबाही।
कहीं बरसने के आवेदन
चुसकें शुष्क कड़ाही।।
भेदभाव का ऐसा भी तो
अच्छा नहीं तमाशा।
रहो बरसते नियम धरम से
निश्चित ही हल बरसे।
तुम पर निर्भर जो कुछ भी है
उसका भी कल सरसे।।
झुलसे मुरझे त्रासद मन की
शायद मिटे दुराशा।
इधर उधर की ठहर हवाएँ
मिलें खूब बरसाएँ।
झींगुर अपना स्वर आलापें
दादुर मिल टर्राएँ।
पानी में खुद घुलमिल लेगी
पसरी हुई हताशा।
नहीं बरस कर रत्ती भर भी
बरखा धर्म बखाने।
डींग मारकर गाती फिरना
समरसता के गाने।।
हाहाकार मचे पर सुनना
कारण,बूँद बताशा।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद
मोबाइल:9319086769
कवि तुम कहाँ आ गए भाई
यह तो है बाजार
यहाँ पर क़दम क़दम बिखरी चतुराई
यहाँ न काम करेंगे शब्द,
अर्थ या टटके बिंब तुम्हारे
भीतर उतर नहीं पाएँगे
गीतों वाले सहज इशारे
गोताख़ोर नहीं हैं
नापें जो उन भावों की गहराई
सबके बाड़े अलग
सभी के अपने-अपने अलग अखाड़े
मंचों की है अलग सियासत
अलग वहाँ राजे-रजवाड़े
पूरा दल दौड़ा आता है
सिर्फ़ एक आवाज़ लगाई
सस्ती चीज़ों पर
ऊपर से चढ़े मुलम्मे हैं चमकीले
चटखारे भरते हैं
उनको देख-देखकर रंग रँगीले
जितना घटिया माल भरा है
उतनी ही दूकान सजाई
(2) सहज नही
चलते-चलते जीवन गुज़रा
मंजिल मिलती कैसे
जबकि उधर की पगडंडी से हटे हुए हैं लोग
पकड़ न पाए पथ
जो बिल्कुल जाना-पहचाना था
भीड़ संग चल दिए उधर ही
जो पथ अनजाना था
भटकन का अहसास हुआ
फिर भी विस्मय है भारी
उसी भीड़ के संग आज भी डटे हुए हैं लोग
अड़ी हुई हैं पथ में आकर
कुछ मज़बूत शिलाएँ
अलग-अलग सब शक्ति लगाते
कैसे उन्हें हटाएँ
जीवन-धारा का प्रवाह
फिर क्यों अजस्र रह पाता
जब अपने उद्गम स्रोतों से कटे हुए हैं लोग
सभ्य कहाने के प्रयास में
सब संकीर्ण हुए हैं
नींव सुदृढ़ थी
फिर भी कितने जर्जर जीर्ण हुए हैं
कुछ भी सहज नहीं रह पाया है
अब शिष्टाचारों में
भाव-शब्द-संबोधन सारे रटे हुए हैं लोग
(3) भीतर की बात
बंधु!
आज कुछ अपने भीतर की बात करें
क्या रक्खा मात्र इन विमर्शो में
होती है जब कोई
दुर्घटना नई-नई
भीड़ घरों से बाहर खूब जुटा करती है।
किसी दामिनी के प्रति
रोषभरी करुणा तब
गली-गली लोगों के हृदय में उभरती है
लगता है
लोग सभी मिलकर जुट जाएँगे
अब अनीतियों से संघर्षों में
क्या रक्खा मात्र इन विमर्शो में
हर अनीति के विरुद्ध
चर्चा-परिचर्चा में
शब्दों के बड़े-बड़े व्यूह गढ़े जाते हैं
सड़कों पर शांतिमार्च होते हैं
मंचों से
ज़ोरदार भाषण, वक्तव्य पढ़े जाते हैं
सोच में न लेकिन
कुछ परिवर्तन आता है
बीतते महीनों में वर्षों में
क्या रक्खा मात्र इन विमशों में
रोज ख़बर छपती है
समाचार-पत्रों में
मन नहीं बदलते हैं भाषणों सभाओं से
केवल भय और दमन
संभव हो पाता है.
बड़े-बड़े नियमों से, दंड संहिताओं से
अपने मन का भी
हम चोर स्वयं पहचानें
एक व्यावहारिकता दीखे निष्कर्षो में
क्या रक्खा मात्र इन विमर्शों में
सारी ओषधियों के
नाम गिनाने-भर से
रोग-दोष का कुछ उपचार नहीं होता है
भीमकाय उपदेशों
सम्मोहक भजनों से
पथभूले मन का प्रतिकार नहीं होता है।
बात प्रभावी होती
स्वयंसिद्ध सूत्रों से
अपनी हो निष्ठा जब ऊँचे आदर्शों में
क्या रक्खा मात्र इन विमर्शों में
(4) नया घर
इस नए घर में बहुत कुछ है.
खुला आँगन नहीं है
खिल रहे चेहरे
गुलाबों से सभी के
हर नयन से छलछलाता हर्ष भी है
टिक न पाए धूल जिस पर
इस तरह का
टाइलों का चमचमाता फ़र्श भी है
बाहरी दीवार
मेकअप में खिले चेहरे नए-से
पर न है आभास पुरवा का
सजल सावन नहीं है
खिड़कियों पर
आधुनिक शीशे जड़े हैं
धूप भी सीधी न आ सकती उतरकर
अब करुण वातास का
आना कठिन है
क्योंकि बहता है पवन अभिजात भीतर
है कमी कुछ भी न ए०सी०
कूलरों की, गीजरों की
किंतु अमराई तले की
अनछुई सिहरन नहीं है
शीशियों से
खुशबुएँ बाहर निकलकर
बंद कमरों को बहुत गमका रही हैं।
क्यारियों की
रात-रानी, मोगरे की
गंध को आतंक से हड़का रही हैं
पर धरा के छोर तक जाती
हवाओं में घुले जो
वह सहजतासिक्त
संवेदन नहीं है
वह खुला आँगन
जहाँ से सूक्ष्म स्वर में ही
निरभ्राकाश से संवाद होता
स्थूल से
उस अनदिखी निस्सीमता तक
एक आरोही अखंडित नाद होता
शोर मल्टीमीडिया के
साधनों से भर गया घर
किंतु वह आह्लाद से भरपूर
अपनापन नहीं है।
(5) नियति
इस आयातित भीड़-भाड़ में
अब एकाकी ही चलना है नियति हमारी
मन की कौन सुनेगा
नहीं किसी को फ़ुरसत
सब करते हैं सिर्फ़ दिखावा
बाहर हैं ठंडी खुशबुएँ
डियो की लेकिन
भीतर खौल रहा है लावा
होंठों पर मुस्कान रँगी है
पर भीतर-भीतर जलना है नियति हमारी
धारा से विपरीत दिशा में
अगर किसी ने
अलग-अलग बहने की ठानी
उसे नकार दिया जाता है
सबके द्वारा
कहकर उसकी सोच पुरानी
इच्छा से या विवश
समय के विकृत साँचे में ढलना है नियति हमारी
(6) विस्मरण
भागदौड़ का जीवन
भा गया हमें
सर्पिल सड़कों में हम अपना घर भूलें
औरों से
कैसे हम निकल सकें आगे
इसलिए सुबह से
हम संध्या तक भागे
हाँफते रहे
रुके नहीं लेकिन पल-छिन
बीतती रहीं
जगमग रातें, सूने दिन
निमिष-निमिष
शोर सघन इस क़दर हुआ
हम निर्मल नदिया का कल-कल स्वर भूले
कौंध-कौंध जाती है
एक कल्पना-सी
अंतरिक्ष के कैसे
हम बनें निवासी
ध्यान में रहा करते
चंद्र और मंगल
अपनों के लिए नहीं
शेष एक भी पल
अमरबेल फैली है
अमराई पर
हम अमृतवाणी का हर अक्षर भूले हैं
भेड़ों से हम
चलते रहे आँख मींचे
देखा तक नहीं किसी पल
ऊपर-नीचे
केवल कुछ शब्द रटे
सीख ली प्रथाएँ
याद नहीं रहीं
हमें प्रेरणा कथाएँ
स्वयं सभ्य कहलाएँ
इस प्रयास में
न्यू ईयर याद रहा, संवत्सर भूले
(7) पुश्तैनी हवेली
ऊँचे परकोटे के भीतर
एक हवेली है पुश्तैनी
पक्की सड़क आज भी जाती है
विशाल फाटक से घर तक
घर की दीवारें दरवाज़े
कल चमका करते थे लकदक
आज द्वार, आँगन, कमरों के
इतने अधिक हुए बँटवारे
हर कोने में धूल जमी है
इनकी मिट्टी कौन बुहारे
रोज़ नई दीवारें उठतीं
रुकती नहीं हथौड़ी-छैनी
परकोटे के भीतर
रहते लोगों के मन बँटे हुए हैं
दूज, तीज, होली, दीवाली
रक्षाबंधन बँटे हुए हैं
खेत बँट गए
और बँट गए उनमें उगे अन्न के दाने
एक भवन में रहकर भी सब
रहते आपस में अनजाने
किंतु अलग रहकर भी
मन में रहती है हरदम बेचैनी
यहाँ रहेंगे सभी एकजुट
यह सोचा होगा पुरखों ने
नहीं कल्पना होगी
ये परिणाम कभी होंगे अनहोने
इन्हें हुए बेअसर सूर के पद
या तुलसी की चौपाई
अथवा प्रेमदीवानी मीरा ने
जो थी रसधार बहाई
इन्हें न समझा पाएगी
कबिरा की साखी, सबद, रमैनी
:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
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:::::::::::::प्रस्तुति::::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
हो जाएगी आपकी, हर मुश्किल आसान।। 1।।
ग़ालिब, तुलसी, मीर के, शब्दों की ताज़ीम।
करते मेरे दौर में, बेकल, निदा वसीम।। 2।।
हिंदी रानी देश की, उर्दू जिसका ताज।
खुसरो जी की शायरी, इन दोनों की लाज।। 3।।
तनहाई में रात की, भरता है 'मंसूर'।
सन्नाटो की माँग में, यादों का सिंदूर।। 4।।
ख़ुदा और भगवान में, नहीं ज़रा भी फ़र्क़।
जो माने वो पार है, ना माने तो ग़र्क़।। 5।।
जब थे पैसे जेब में, रिश्तों की थी फ़ौज।
बहा सभी को ले गयी, निर्धनता की मौज।। 6।।
मन में कुंठा पालकर, घूमे चारों धाम।
आये जब घर लौटकर, माया मिली न राम।। 7।।
दस्तक दी भगवान ने, खुले न मन के द्वार।
ऐसे लोगों का भला, कौन करे उद्धार।। 8।।
पुरखों की पहचान था, पुश्तैनी संदूक।
बेटा जिसको बेचकर, ले आया बंदूक।। 9।।
अपनी पलकों ले लिया, जब निर्धन का नीर।
मेरे आशिक़ हो गये, सारे संत-फ़क़ीर।। 10।।
✍️ मंसूर उस्मानी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
यह वही स्थान है जहां 8फरवरी 1872के सायं 7बजे वायसराय लॉर्ड मेयो , एक सजायाफ्ता कैदी शेर अली खान के हमले के शिकार हुए। इस हमले में उनकी मृत्यु हो गई। शेर अली खान को 11मार्च 1872को वाइपर आइलैंड में फांसी दे दी गई।
पार्श्व स्वर : एक गुमनाम क्रांतिकारी... जिसके बलिदान की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई।न देश ने उसे याद रखा और न ही स्वाधीनता समर का इतिहास लिखने वालों के दृष्टिपथ में वह आ सका। वायसराय लॉर्ड मेयो से जुड़ी अनेकों निशानियां कई शहरों में अब भी मिल जाएंगी। अकेले प्रयागराज में ही उसके नाम पर मेयो रोड, मेयो हाल, मेयो होस्टल जैसे कई स्थान हैं। किंतु इस शहीद के स्मृति चिन्ह मात्र अण्डमान में ही मिलेंगे, वह भी खण्डहरों के रुप में…
पात्र परिचय :
मनोहर लाल : 30 वर्ष , क्रांतिकारी
मांगेराम : 35 ,, , , ,
हीरा सिंह : 25 ,, , , ,
शेर अली खान : 29,, ,, ,, खैबर दर्रे के जमरूद गांव का निवासी... पंजाब माउंटेड पुलिस का पठान सिपाही अण्डमान जेल का कैदी न.15557
लार्ड मेयो : ब्रितानिया शासन का चतुर्थ वायसराय
जनरल स्टुवर्ड : सुपरिटेंडेंट अण्डमान
इडेन : ब्रितानिया अधिकारी
रणविजय सिंह: ठाकुर
कमलनयन देवी: रणविजय सिंह की पुत्र वधु
परिदृश्य क्रमांक 1 :
अमृतसर में मुख्य मार्ग से कुछ हटकर एक बहुत लंबी व संकरी गली के अंतिम छोर पर बनी एक विशालाकार हवेली में एक छोटा सा कक्ष... जिसमें खाद्य सामग्री सहित कुछ पात्र अल्मारी में रखे हैं।दीवार पर सीसे के आवरण में कैद भारत माता का चित्र लगा है। उस पर ताजे पुष्पों की माला टंगी है। एक तख्त बिछा है। तख्त पर अधलेटा एक क्रांतिकारी मनोहर लाल 'दि पायोनियर' नामक समाचार पत्र पढ़ रहा है। तभी बंद कपाटों को खोलकर एक दूसरा क्रांतिकारी जिसकी आंखें क्रोधाधिकता में दहक रही हैं, हड़बड़ाया हुआ सा उस कक्ष में प्रविष्ट होता है…
मांगेराम-- जय भारत माता भाई!
मनोहर लाल-- जय भारत माता भाई! पर तुम इतना हड़बड़ा क्यों रहे हो? और तुम्हारी सांस भी फूल रही है? आखिर हुआ क्या है?
मांगेराम-- ये मुसलमान भी ना...कभी देशभक्त नहीं हो सकते। जिस धरती का अन्न जल ग्रहण कर ये सांसें लेते हैं उसी धरती माता को गाली देते इन्हें शर्म नहीं आती?
मनोहर लाल-- ये पहेलियां सी क्यों बुझा रहे हो? साफ - साफ क्यों नहीं बताते कि हुआ क्या है?
मांगेराम-- आज मैं और हीरा सिंह छद्मवेश में थाने की गतिविधियों की टोह ले रहे थे। क्योंकि अन्य दिनों की अपेक्षा आज थाने में सरगर्मियां कुछ अधिक थीं। शायद कोई अधिकारी थाने का निरीक्षण करने आ रहा था। थाने के आसपास सड़कों को स्वच्छ कर पानी का छिड़काव किया गया था, मुख्य द्वार को पुष्प श्रृंखलाओं से सज्जित किया गया था और भीतर अनेक सिपाही सावधान की मुद्रा में खड़े थे…
मनोहर लाल-- फिर क्या हुआ? शीघ्र बताओ न? उत्सुकता क्यों बढ़ा रहे हो?
मांगेराम-- जरा सांस तो ले लूं... थोड़ा धैर्य रखिए, सब बताता हूं।
मनोहर लाल-- चलो- चलो बहुत रख लिया धैर्य...अब जल्दी से पुनः शुरू हो जाइए!
मांगेराम-- हमारे देखते ही देखते वहां कई चमचमाती गाड़ियों का काफिला आकर रुका। जल्दी ही हमें पता चल गया कि हमारे देश में कार्यरत ब्रिटिश इक्कीस वायसराय में से चतुर्थ श्रेणी का वायसराय लॉर्ड मेयो थाने का निरीक्षण करने आया है। थाने का सारा अमला उसके चारों ओर नाचने लगा था।
मनोहर लाल-- तो इसमें नयी कौन सी बात हुई? ऐसा तो अक्सर होता ही है कि जब भी कहीं कोई अधिकारी दौरे पर पहुंचता है तो अधीनस्थ लोग उसकी जी हुजूरी में उसके चारों ओर नाचने लगते हैं।
मांगेराम-- भाई थोड़ा धैर्य तो रखिए, ऐसी नयी बात बताऊंगा कि तुम चौंक पड़ोगे।
मनोहर लाल-- ऐसा क्या हुआ? पहेलियां ही बुझाते रहोगे या कुछ आगे भी बताओगे?
मांगेराम-- मैंने अक्सर देखा है कि ये स्साले ब्रिटिश अधिकारी न तो अंग्रेज सिपाहियों को कुछ कहते हैैं और न ही मुसलमान कर्मचारियों को डांट- फटकार लगाते हैं। लेकिन मैंने उस थाने में अजीब ही मंजर देखा... एक मुस्लिम दीवान व अंग्रेज दारोगा ने एक पठान सिपाही को इंगित करते हुए न जाने वायसराय के कानों में धीरे से क्या कहा कि वह उस पठान सिपाही पर बरस पड़ा...सबके सामने उस बेचारे को ब्लडी फूल कहकर बुरी तरह अपमानित किया और बुरी तरह फटकारा भी जबकि वह बेचारा भीगी बिल्ली की तरह सब कुछ चुपचाप सहता रहा।
मनोहर लाल-- ये लोग हैं भी इसी दुत्कार फटकार के लायक। इन लोगों के रक्त में देशप्रेम की धारा तो बिल्कुल भी नहीं बहती। अंग्रेजों के पिट्ठू बने रहते हैं और हिंदुओं को अपना दुश्मन समझते हैं। आज हम भारतीयों की इन अंग्रेजों और मुसलमानों के कारण ऐसी दुर्दशा हो रही है कि देख- देखकर भी रोना आता है और ये अंग्रेज तो जैसा उत्पीड़न भारतीयों का करते हैं कि मन करता है इन सबको गोलियों से भून दिया जाए न तो हमारा धन -माल सुरक्षित है और न ही घरों में बहू बेटियों का मान सम्मान सुरक्षित रह गया है। हम हिन्दू दिन रात खून के आंसू रोया करते हैं, परंतु इन मुसलमानों के चेहरों पर लेशमात्र भी शिकन नहीं दिखाई देती... जैसे यह देश उनका हो ही न, जैसे इस मातृभूमि के प्रति उनका कोई कर्तव्य हो ही न। तुमने देखा है कभी किसी मुसलमान को इस धरती माता को शीश झुकाते?... जिसकी सोंधी मिट्टी में पल्लवित पोषित होकर वे निरंतर फल-फूल रहे हैं, जिस देश की पावन वायु में वे श्वासें ले रहे हैं क्या उसके प्रति वे कोई उपकार प्रकट करते हैं? जिस धरती माता का अन्न -जल ग्रहण कर वे अपने जीवन का अस्तित्व बनाए हुए हैं क्या उस धरती माता के प्रति उनका कोई कर्तव्य नहीं?
(बोलते -बोलते उसका चेहरा तमतमाने लगता है, होंठ सूखने से लगते हैं। मांगेराम उसके सामने पानी का गिलास कर देता है)
मांगेराम-- लो भाई थोड़ा पानी पी लो ! तुम्हारा गला सूख रहा है।
मनोहर लाल (पानी पीकर गिलास एक ओर रखते हुए)-- हां तो आगे बताओ फिर क्या हुआ?
मांगेराम-- आगे के वृत्तांत के लिए मैं हीरा सिंह को वहीं छोड़ आया हूं। वह पता लगाकर ही आएगा कि वायसराय उस पठान पर क्यों आग बबूला हो रहा था? आखिर हमारा लक्ष्य भी तो तभी सिद्ध होगा जब हमें थाने के भीतर की गतिविधियों का पता चलेगा।
मनोहर लाल-- कौन सा लक्ष्य भाई?
( मांगेराम मुंह पर अंगुली रखकर धीरे बोलने का संकेत करता है)
मांगेराम-- धीरे बोलिए भाई! दीवारों के भी कान होते हैं। हीरा सिंह के आते ही लक्ष्य का भी पता चल जाएगा। संक्षेप में यह समझ लीजिए कि हमें अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को सुचारू रखने के लिए हथियारों की भी आवश्यकता होगी और धन-माल की भी।
मनोहर लाल-- समझ गया...सब कुछ समझ गया।
(फिर दोनों उसी तख्त पर लेट जाते हैं और धीमें -धीमें न जाने क्या फुसफुसाते रहते हैं?)
परिदृश्य क्रमांक 2 :
रात्रि का झुरमुटा घिरने लगा है। कक्ष में मिट्टी के तेल की डिबिया जला दी गई है। और एक शुद्ध घृत के दीपक से मनोहर लाल व मांगेराम दोनों भारत माता के चित्र के सामने खड़े होकर आरती गा रहे हैं…
जय भारत माता...तेरी जय भारत माता !!
कोटि-कोटि पुत्रों की जननी , सुख समृद्धि की दाता !
जो भी तेरा अर्चन करता , अमृत का वर्षण पाता !
जय भारत माता...तेरी जय भारत माता !!
(तभी हीरा सिंह के साथ एक लम्बे -चौड़े व्यक्तित्व व लम्बी दाढ़ी वाला सलवार कमीज पहने पठान जैसा व्यक्ति वहां प्रवेश करता है)
हीरा सिंह-- जय भारत माता की भाइयों!
मांगेराम व मनोहर लाल-- जय भारत माता की!
(दोनों अनजान पठान व्यक्ति को देखकर चौंक पड़ते हैं। पठान उनसे दृष्टि विनिमय होते ही अभिवादन की मुद्रा में दायां हाथ माथे से लगा लेता है)
हीरा सिंह (पठान का परिचय कराते हुए)-- भाई का नाम शेर अली खान है भाइयों! पंजाब माउंटेड पुलिस का सिपाही है। देशप्रेम की ज्वाला रगों में हिलोरे मार रही है। इसीलिए भारत माता को कोई अपशब्द कहे तो इससे सहन नहीं हो पाता।इसकी आंखों में क्रोधाग्नि धधकने लगती है और यह मरने मारने पर उतारू हो जाता है। इसकी इसी मानसिकता के कारण थाने के अन्य मुसलमान सिपाही इससे ईर्ष्या रखते हैं और अधिकारियों से इसकी चुगली करते रहते हैं।आज भी इस बेचारे को वायसराय ने जमकर लताड़ लगाई।
मनोहर लाल (विस्मय से उसे निहारते हुए)-- एक मुसलमान होकर भी... देशभक्ति?
शेर अली खान-- सारे ही मुसलमान एक जैसे नहीं होते भाईजान! कुछ फरेबी , मक्कार और दगाबाज होते हैं तो कुछ निहायत ही ईमानदार व भरोसेमंद भी होते हैं। सबको एक ही तराजू पर तोलना या फिर शक की निगाहों से देखना सरासर ग़लत है।
मनोहर लाल-- खैर छोड़ो इन बातों को ! यह बताओ कि आज थाने में क्या हुआ था?
शेर अली खान-- थाने के खास हाल में विक्टोरिया महारानी की एक बड़ी सी तस्वीर लगी है। सारे फसाद की जड़ वही है। अफसरों की ओर से फरमान जारी किया गया है कि हर किसी को उसके सामने सिर झुकाना जरूरी है। यूं समझिए कि थाने के कायदे-कानून का वह एक जरूरी हिस्सा है जबकि मैंने उसे मानने से इंकार करते हुए साफ-साफ कह दिया कि मेरा सिर या तो अल्लाह पाक के सामने झुकता है या फिर अपनी मादरे वतन के सामने। और सच बात तो यह है कि एक दिन मुझसे विक्टोरिया की शान के खिलाफ गुस्ताखी भी हो गई थी। मेरे अपने एक मुसलमान दोस्त दीवान दिलबाग के सामने मेरी जुबान से विक्टोरिया के लिए गाली निकल गई थी …
( एकाएक चुप होकर कुछ सोचने लगता है कि इन लोगों के सामने सब कुछ सच-सच बताना चाहिए अथवा नहीं?)
मनोहर लाल-- फिर क्या हुआ जल्दी से बताइए न? क्यों अधीरता बढ़ा रहे हो खान भाई?
शेर अली खान-- होना क्या था... दिलबाग ने मेरी चुगली कोतवाल अल्बर्ट से कर दी। कोतवाल ने पहले तो खुद ही मुझे डांट-फटकार लगाई... मुझे भी गालियां दीं और मेरी भारत माता को भी नहीं बख्शा... भारत माता को भी गाली दे दी। और जब आज वायसराय दौरे पर थाने में आया तो उस हरामजादे कोतवाल ने उसके भी कान भर दिये। उसने मुझसे सबके सामने बेइज्जत करते हुए पूछा--टुम ओनरेबिल विक्टोरिया क्वीन को अपना हैड क्यों नहीं झुकाटा? जबकि यह सब फुलिश के रुल्स एंड रैगुलेशन का एक नैसेसरी पार्ट है।
मैने जवाब दिया-- मी लार्ड ! मैं भारत माता का सच्चा सपूत हूं।मेरा सिर या तो अल्लाह पाक के सामने झुकता है या फिर अपनी मादरे वतन के आगे। रही नौकरी की बात तो जितनी तनख्वाह पाता हूं उतना काम भी करता हूं। फिर मैं किसी और के सामने क्यों झुकूं?
गुस्से में लार्ड मेयो बहुत जोर से चिल्लाया-- साइलैंट इंडियन बिच के बास्टर्ड...यू ब्लडी फूल...योर इंडियन मदर की तो…
मैं भी उसकी आंखों में आंखें डालकर गुर्राया-- सर आप मुझे चाहे जितनी गाली दे लीजिए ! पर मेरी भारत माता को कोई गंदा लफ्ज़ जुबान से मत निकालिए!
उसकी भूरी आंखों से चिंगारियां झरने लगीं-- क्या कर लेगा टू इंडियन डर्टी बिच के डर्टी पप्पी? हम बार-बार कहेगा योर इंडियन मदर इज लाइक डर्टी बिच।
मेरा गुस्सा काबू से बाहर होने लगा-- मी लार्ड! यदि आपने आगे कुछ कहा तो मुझसे आपकी शान में गुस्ताख़ी हो जाएगी। आपके मुंह से जुबान खींच लूंगा मैं।
'ओ ब्लडी फूल टेरी इटनी हिम्मट?' वह बहुत जोर से गरजा। फिर वह कोतवाल की ओर घूम गया-- सस्पेंड करो इसे! वरडी उतार लो और जेल में बंद कर डो ! स्साले इंडियन , नमकहराम, हमारा ही नमक खाटा और हम पर ही गुर्राटा।
(बोलते-बोलते आवेश में थरथराने लगता है शेर अली खान , और प्रतिक्रिया जानने के लिए मनोहर लाल और मांगेराम के चेहरों को निहारने लगता है कि वे उसकी बात को ध्यान से सुन भी रहे हैं अथवा नहीं?)
मनोहर लाल व मांगेराम (एक साथ)-- फिर …? फिर क्या हुआ ? कैसे बचाव किया तुमने अपना ?
शेर अली खान-- कोतवाल व कुछ सिपाही मेरी ओर बढ़े तो मैंने अपनी बंदूक चारों ओर घुमाकर उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया और अपनी बंदूक उनके ऊपर फेंककर थाने की चहारदीवारी लांघकर फरार हो गया।
मनोहर लाल-- बहुत हिम्मती हो तुम तो! किसी ने पीछा नहीं किया तुम्हारा? पुलिस की वर्दी में तो बहुत आसानी से पहचानने में आ रहे होंगे तुम?
शेर अली खान-- बहुत दूर तक पीछा किया गया मेरा , परंतु मैं एक संकरी गली में घुसा तो यह हीरा सिंह फरिश्ता बनकर मेरे सामने चला आया। इसने अपने सिर पर लपेटी चादर मुझे उढ़ाई और फिर तंग गलियों की भूल-भुलैया में अंग्रेज़ सिपाहियों को चकमा देकर एक गुप्त स्थान पर पहुंचने में कामयाब रहे। वहां से कपड़े बदल कर आपके पास चले आए।
मनोहर लाल-- तो यहां क्यों चले आए तुम? पुलिस तुम्हारा पीछा करती हुई यहां तक पंहुच गई तो?
शेर अली खान-- मैं खुद यहां नहीं आया भाईजान बल्कि आपके साथी हीरा सिंह द्वारा यहां लाया गया हूं। हीरा सिंह ने मुझसे कहा है कि हमारे संगठन में शामिल होकर हमारे साथ काम करो तुम।हम भी तुम्हारा सहयोग करेंगे।
मनोहर लाल-- हमसे क्या सहयोग चाहते हो तुम?
शेर अली खान-- पनाह... अंग्रेज सिपाहियों से बचाव... मंजिल तक पहुंचने में मदद।
मनोहर लाल-- क्या है तुम्हारी मंजिल?
शेर अली खान-- इन्तकाम...बदला... जिन्होंने मेरी भारत माता को गाली दी है उनसे इन्तकाम…
मनोहर लाल-- तुम्हारा विश्वास कैसे किया जाए कि तुम हमारे साथ छल-प्रपंच नहीं करोगे?
शेर अली खान-- एक सच्चा पठान कभी झूठ नहीं बोलता। फिर भी आप जैसे भरोसा करना चाहें वैसे कर सकते हैं। कोई भी इम्तिहान जैसे चाहे वैसे ले सकते हैं।
मनोहर लाल-- तो फिर खाओ कसम इस दीपक की लौ पर हथेली रखकर कि आज से अपना हर कदम भारत माता की रक्षा के लिए उठाओगे! भारत माता की लाज बचाने के लिए प्राण भी न्योछावर करने पड़ें तो पीछे नहीं हटोगे!
( शेर अली खान दीपक की लौ पर अपनी हथेली रखकर संकल्प दोहराता है। यहां तक कि उसकी हथेली जलने लगती है तब भी वह हाथ पीछे नहीं हटाता)
मनोहर लाल (चीखते हुए)-- बस बस हो गया विश्वास। हथेली हटा लो वरना जल जाएगी।
(शेर अली खान हथेली हटा लेता है। हथेली का एक भाग जलकर काला पड़ने लगा है जिसमें भयंकर टीस व जलन मचने लगी है। शेर अली दांत भींचकर पीड़ा सहन करने की कोशिश कर रहा है।)
कुछ देर सबके मध्य एक सन्नाटा सा पसर जाता है, जैसे वहां कोई उपस्थित ही न हो। फिर…
मनोहर लाल-- अच्छा शेर अली यह बताओ कि अपना प्रतिशोध पूर्ण करने के लिए तुम्हारे पास क्या योजना है?
शेर अली खान-- हर महीने की अंतिम तारीख को पूरे थाने की तनख्वाह के लिए लोहे के एक ताला लगे संदूक में जिला कोषागार से धन लाया जाता है । जो कि चार सिपाहियों व कोतवाल की सुरक्षा में आता है। उस मार्ग में घना जंगल भी पड़ता है।
मनोहर लाल-- क्या उनके हाथों में अच्छी तरह के हथियार होते हैं?
शेर अली खान-- बहुत अच्छी किस्म के भाई!... बहुत दूर तक मार करने वाली बंदूकें…
मनोहर लाल-- तो फिर खान भाई! मिलाओ हाथ से हाथ... कोतवाल तुम्हारा और हथियार हमारे... हथियारों की बहुत सख्त जरूरत है हमें।
मांगेराम और हीरा सिंह (खुशी से उछलते हुए)-- और वो लोहे का संदूक हमारा... धन-माल की भी तो बहुत जरूरत है हमें।
(चारों परस्पर मिलकर मन्त्रणा करने लगते हैं… )
फिर वे रातों रात उस स्थान का परित्याग कर देते हैं। क्योंकि पुलिस शेर अली को बहुत सरगर्मी से तलाश करती फिर रही है।
परिदृश्य क्रमांक 3 :
घनघोर जंगल के मध्य एक ऊंची समतल पहाड़ी पर चार डंडों को खड़ा कर ऊपर फूस का छप्पर डालकर एक झोंपड़ी बनाई गई है। झोंपड़ी में चटाइयां बिछी हैं तथा ओढ़ने की चादरें रखीं हैं। जग में पानी तथा एक गिलास भी रखा है। चारों ओर चार साधु बैठे हैं। उनके मध्य धूनी रमी हुई है। दूर से देखने पर प्रतीत होता है कि वे कोई पूजा पाठ कर रहे हैं। जबकि वास्तव में वे पूजा पाठ न कर किसी विषय पर विचार मंथन कर रहे हैं।उनकी चौंकन्नी निगाहें बार-बार अपने चारों ओर की टोह लेने लगती हैं। विशेषतया उनकी निगाह उस सड़क पर जाकर स्थिर हो जाती है जो इस पहाड़ी से नीचे बलखाती नागिन की तरह लहराती हुई कभी इधर कभी उधर, कभी नीचे कभी ऊपर घूमती चली गई है।
तभी उनमें से एक लम्बे-चौड़े डील डौल व लम्बी दाढ़ी वाला साधु पहाड़ी से नीचे उतरकर घने जंगल में कहीं गुम हो जाता है। अन्य तीनों साधु शंकित निगाहों से बड़ी अधीरता से उसकी प्रतीक्षा करने लगते हैं।
उन तीनों में से एक साधु-- कहीं यह हमें फंसाने का कोई षड्यंत्र तो नहीं कर रहा?
दूसरा साधु-- लगता तो मुझे भी ऐसा ही है। वरना यह हमें बताए बिना बार-बार कहां जाता है? और फिर लौटता भी बहुत -बहुत देर बाद है।पूछो तो कुछ भी बताता नहीं।
तीसरा साधु-- भई देखो! मुझे तो मुसलमानों पर बिल्कुल भी भरोसा है नहीं। ये लोग चाहे कितनी ही कसमें-धरमें खाएं,कितने ही वादे करें, कितना भी विश्वास दिलाएं ...पर मुझे तो इन पर लेशमात्र भी यकीन नहीं होता।
पहला साधु-- हां भाई! अब तो मेरा विश्वास भी डगमगाने लगा है। कई दिन हो गए नगर बस्ती से दूर इस घने जंगल में डेरा डाले हुए। कभी बेर खाकर पेट भरना पड़ता है तो कभी बिस्कुटों से ही काम चलाना पड़ता है। और कभी-कभी तो पानी पर ही संतोष करना पड़ रहा है। हरपल निगाहें टकटकी बांधे उस सड़क को निहारती रहती हैं जिस पर शिकार के गुजरने की आशंका है... पर अभी तो शिकार का कुछ पता ठिकाना है नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कहीं यह अपने शिकार की ओट में हमारा ही शिकार करने की चाल चल रहा हो?
दूसरा-- इसकी तो ऐसी की तैसी। आने तो दो जरा इसे। इसकी लंबी दाढ़ी खींचकर पेट का सारा भेद न उगलवा लिया तो मेरा भी नाम मांगेराम नहीं।
तीसरा-- और यदि इसके विश्वासघात पर मैंने इसे इसी मिट्टी में दफन न कर दिया तो मेरा भी नाम हीरा सिंह नहीं। तुम दोनों पर तो मैं रत्तीभर भी आंच आने नहीं दे सकता। आखिर तुम्हारे पास उसे लेकर भी तो मैं ही आया था। वरना क्या तो वह तुम दोनों को पहचानता और क्या तुम दोनों उसे जान पाते?
(तीनों हृदय पटल पर उमड़ -घुमड़ रहे आशंकाओं के बादलों के बीच इधर से उधर डोल ही रहे थे कि उस पहाड़ी से नीचे दूर कहीं लंबे-लंबे डग भरता हुआ वह लंबी दाढ़ी वाला पठान आता हुआ दिखाई देने लगा।)
मांगेराम-- आ तो रहा है... शायद इस बार कोई सूचना लाए ?
हीरा सिंह-- मैं तो साफ-साफ बता रहा हूं कि यदि इस बार उसने अपने शिकार की कोई खैर-खबर नहीं दी तो मैं वापस लौट जाऊंगा।जिसे मेरे साथ चलना हो चले, वरना मैं अकेला ही चला जाऊंगा। यहां इस बियाबान जंगल में भूखे प्यासे रहकर उस शिकार की प्रतीक्षा में वक्त बरबाद करना बेवकूफी है जिसका न तो कोई अता-पता है और न ही कोई ओर-छोर।
मनोहर लाल-- धैर्य भाइयों धैर्य... मातृभूमि की रक्षा का संकल्प लिया है तो धैर्य रखना ही होगा। ज्यादा अधीर बनोगे तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पंहुच सकोगे। खुद तो डूबोगे ही मुझे भी साथ लेकर डूबोगे। हड़बड़ी में उठाया गया कोई भी कदम कभी सार्थक परिणाम नहीं दे सकता।
(तभी हांफता हुआ पठान उनके समीप आ पंहुचता है)
शेर अली खान (हड़बड़ाया हुआ स्वर)-- भाइयों इंतजार के लम्हे खत्म हुए। शिकार नजर आ गया है।
मनोहर लाल-- कहां? कहां ? ... कैसे?... कहां नजर आ गया शिकार? हमें तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा?
शेर अली खान-- भाईजान! यहां से दाईं ओर कुछ नीचे उतरने पर एक पतली सी पगडंडी के पार काफी नीचे वह नदिया दिखाई दे जाती है जिसके किनारे बनी सड़क से गुजरकर वह मोटर हमारी ओर धीरे-धीरे बढ़ती चली आ रही है जिसमें हमारा शिकार है।
मनोहर लाल-- फिर कैसे उसका शिकार करना है? जल्दी बताओ कहीं शिकार हाथ से निकल न जाए?
शेर अली खान-- भाईजान! बौखलाइए मत! अभी हमारे शिकार को हमारे जाल तक पहुंचने में एक घंटे से ज्यादा लगेगा। क्योंकि टेढ़े-मेढ़े, ऊंचे-नीचे पहाड़ी रास्तों पर चलने में काफी वक्त लगता है।
मनोहर लाल-- फिर भी यह योजना तो बना ही लीजिए कि हममें से किसे क्या- क्या करना है? ताकि समय पर कोई चूक न होने पाए।
शेर अली खान-- यहां से नीचे उतरकर उस सड़क का वह मोड़ दिखाई देने लगता है जहां से हमारे शिकार की मोटर गुजरेगी। बस उसी मोड़ पर हमारा जाल तैयार रहेगा...हम उस मोड़ पर बड़े-बड़े पत्थर रख देंगे जिससे वह मोटर रुकने को मजबूर हो जाए। हम सब इधर - उधर छिप जाएंगे। मोटर के रुकते ही हम सब फूर्ति से उन पर हमला कर देंगे। ध्यान रहे गोरा कोतवाल मेरा शिकार है... केवल मेरा शिकार। उसने सबके सामने मेरी भारत माता को गाली देकर मुझे भी बेइज्जत किया है और मेरी भारत मां को भी लांछित किया है, इसलिए उससे इन्तकाम मैं लूंगा। और चारों सिपाहियों व धन-माल के बक्से पर आपका हक...आप जैसे चाहें वैसे करें!
(शेर अली एक बार फिर अपनी जेब में छिपाए सब्जी काटने वाले चाकू की धार पत्थर पर घिसकर पैनी करता है)
शेर अली खान-- देखो भाईजान! अब तो यह हथियार हमें धोखा नहीं देगा न ?
मनोहर लाल-- नहीं-नहीं ... बस वार अचूक होना चाहिए!...और हीरा सिंह तुम?
(हीरा सिंह को चारों ओर खोजते हुए)
अरे यह हीरा सिंह कहां गया?
मांगेराम-- नीचे सड़क की टोह लेने गया था, वह देखो!... आ रहा है।
हीरा सिंह-- (नीचे से ही)-- भाइयों जल्दी करो! समय ज्यादा नहीं है। शिकार आने वाला है।
(सभी जल्दी- जल्दी नीचे उतर कर सड़क के मोड़ पर बड़े-बड़े पत्थर रखकर रास्ता अवरूद्ध कर देते हैं। और स्वयं वृक्षों व झाड़ियों की ओट में छिप जाते हैं।)
( कुछ देर बाद गोरे कोतवाल की मोटर गाड़ी वहां आती है। और रास्ता अवरूद्ध देख रुक जाती है।)
गोरा कोतवाल-- सोल्जर्स डेखो ! रास्टा बिग स्टोन्स से बन्ड है। जल्डी से हटाओ !...बी क्विक !
(चारों सिपाही बंदूकें गाड़ी में रखकर पत्थर हटाने में जुट जाते हैं। कोतवाल गाड़ी में अकेला रह जाता है। तभी विद्युत्गति से शेर अली उछलकर उसके सामने आ खड़ा होता है और तेज धार वाला चाकू उसके वक्ष में घोंप देता है। मनोहर लाल व मांगेराम सिपाहियों की बंदूकें उठाकर उन्हीं पर आक्रमण कर देते हैं। दो सिपाही तत्काल धराशायी हो जाते हैं तथा दो खाई में कूदकर भाग जाते हैं।
हीरा सिंह धन-माल का संदूक सिर पर रखकर भाग लेता है। जबकि मनोहर लाल व मांगेराम बंदूकें संभालकर घने जंगल में कहीं गुम हो जाते हैं। शेर अली अकेला रह जाता है।
कुछ देर बाद शेर अली सड़क-सड़क, जंगल-जंगल दौड़ता -भागता नीचे बह रही नदी तक आता है। तथा नदी पार कर ब्रितानिया पुलिस की पकड़ से बहुत दूर निकल जाता है।)
परिदृश्य क्रमांक 4 :
ठाकुर रण विजय सिंह की विशालाकार हवेली... सूर्योदय की स्वर्णिम रश्मियां हवेली के भीतर प्रविष्ट होना ही चाहती हैं... हवेली में जागरण प्रारंभ हो चुका है... हवेली के बाहर हवेली से सटा इष्ट महादेव का बहुत सुंदर देवालय है। देवालय की स्वच्छता तथा अन्य व्यवस्थाओं का दायित्व ठाकुर साहब की पच्चीस वर्षीय विधवा पुत्रवधू कमलनयन देवी का है। निद्रा देवी के आगोश से बाहर निकलते ही सर्वप्रथम वह अपने इष्टदेव के दायित्व ही निपटाती है।
आज भी अन्य दिनों की भांति वह हवेली से निकलकर देवालय में प्रविष्ट हुई तो यह देखकर चौंक पड़ती है कि प्रांगण में एक गेरुआ किंतु मैले-कुचैले से वस्त्र पहने व्यक्ति सोया पड़ा है।
कमलनयन देवी-- आप कौन हैं भाई? और यहां कैसे?
व्यक्ति (अलसाई और उनींदी आंखें मसलते हुए)-- देवी! मैं एक राह भटका हुआ साधु हूं। चलते-चलते थक गया था। मंदिर दिखाई पड़ा तो दीवार फांदकर यहीं आ गया और यहीं लेट रहा। सोचा... यह तो भगवान का मंदिर है यहां तो हर किसी को पनाह मिलती है… यदि मैंने गलत सोचकर गलत किया तो चला जाता हूं, कहीं और आसरा ढूंढ़ लूंगा।
कमलनयन देवी-- नहीं-नहीं भाई! ऐसी बात नहीं है। यह भगवान का घर है यहां हर किसी को आश्रय मिलता है। आप भी जब तक जी चाहे तब तक रहिए! किंतु अपना नाम तो बता दीजिए?
व्यक्ति-- साधु का कोई नाम नहीं होता देवी ! फिर भी आप मुझे साधु सिंह कहकर बुला सकती हैं।
कमलनयन देवी-- कहां के रहने वाले हैं आप?
साधु सिंह-- साधु का कोई एक स्थान नहीं होता , कल कहीं और था ,आज यहां हूं, कल का क्या पता कहां जाना पड़े? वैसे यदि आप अनुमति दें तो इस मंदिर की व्यवस्था का दायित्व मैं स्वयं संभाल सकता हूं। आपको भी कुछ राहत मिल जाएगी। इतनी सुबह-सुबह इतना सारा कार्य करना पड़ता है आपको।... और मुझे भी कुछ समय के लिए सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा।
कमलनयन देवी (निगाह झुकाए पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदते हुए)-- यह अनुमति तो ठाकुर साहब अर्थात मेरे ससुर जी ही दे सकते हैं। वैसे मैं उन्हें बता दूंगी आपकी नेकनीयत के बारे में।
(कहकर हवेली के भीतर चली जाती है। और कुछ देर बाद लौटती है तो ठाकुर साहब के साथ)
ठाकुर साहब (बिज्जू जैसी चमकीली आंखों से साधु को घूरते हुए)-- साधु! ठाकुर रणविजय सिंह नाम है हमारा। इलाके के बड़े-बड़े लोग हमारे नाम से कांपते हैं। अंग्रेज अधिकारी तक हमारी हवेली में बिना हमारी परमिशन के प्रवेश की हिम्मत नहीं कर सकते। इसलिए ध्यान रहे हमारे साथ कोई छल न हो, कोई प्रपंच न हो, कोई धोखा न हो। सब कुछ सच-सच बताना। कोई गड़बड़ी हुई तो हम सफाई का अवसर नहीं देंगे, सीधे तुम्हारी खाल उधेड़कर भुस भर देंगे।
(साधु सिंह कृतज्ञ भाव से सिर झुकाए हाथ जोड़ लेता है)
साधु सिंह-- मुझ पर भरोसा रखें ठाकुर साहब।
ठाकुर साहब-- ठीक है जब तक जी चाहे मंदिर की सेवा करो! और जब जाना चाहो तो हमें बता देना, हम जाने की व्यवस्था कर देंगे। और तब तक का जो भी वेतन बनता होगा एक साथ दे देंगे।
साधु सिंह बड़ी श्रद्धा, बड़ी लगन, बड़ी निष्ठा से देव स्थान की सेवा करने लगता है। उसके माथे पर चंदन का मोटा सा लेप पुता रहता है। और नासिका के अग्रभाग से मस्तक के ऊपर तक रक्तिम रोली का लंबा सा तिलक खिंचा रहता है। एक भगवा चादर से वह अपनी देह तथा चेहरे को ढके रहता है। वह बहुत कम किंतु बहुत मधुर बोलता है। अधिकांश प्रत्युत्तर तो वह हाथ के संकेतों से ही निपटाता है। दूर-दूरस्थ क्षेत्रों से लोग पूजा पाठ करने आते हैं तो वह सभी को प्रसाद स्वरूप कुछ न कुछ भेंटकर ही वापस भेजता है।
खाली समय में वह नेत्र मूंदे साधना की मुद्रा में सिद्धासन में बैठा रहता है। अंधभक्त लोग उसे अपनी हस्तरेखाएं दिखाकर अपना भविष्य पूछ्ते हैं तो वह पहले तो हस्तरेखाएं परखता है फिर मस्तक को पढ़ने का अभिनय करता है और आंखें बन्द कर कुछ भी बता देता है।
अब इसे ईश्वरीय संयोग माना जाए या कुछ और कि उसकी अधिकांश भविष्य वाणियां सत्य सी ही प्रतीत होती हैं।
अतएव उसकी सिद्धि व मधुराचरण की चर्चा दूर -दूर तक फैलने लगी है। पता नहीं कहां -कहां से लोग उसकी शरण में आते रहते हैं। और मोटी दक्षिणा से उसकी झोली भरते रहते हैं।
कुछ दिन बाद शिवरात्रि का पर्व आता है तो देवालय में जलार्चन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। साधु सिंह बड़ी श्रद्धा व उल्लास से उन्हें जलाभिषेक कराने में व्यस्त है कि उसी भीड़ में एक श्रद्धालु का फुसफुसाहट भरा स्वर सुनकर चौंक पड़ता है-- साधु सिंह तुम्हारा वास्तविक नाम क्या है?
साधु सिंह कनखियों से उसे पहचानते ही बौखला जाता है। उसके माथे पर स्वेदबिंदु झिलमिलाने लगते हैं। किंतु शीघ्र ही संभलकर वह अपना चेहरा चादर से ढक लेता है।
साधु सिंह (अत्यधिक धीमें किंतु तिलमिलाहट भरे स्वर में)-- आपको नाम से क्या लेना-देना? जिस कार्य के लिए आए हैं शीघ्र कीजिए और जाइए! और भी बहुत सारे लोग आपके पीछे खड़े हैं।
(और वह फिर से जलाभिषेक का संकल्प कराने में व्यस्त हो जाता है)
पार्श्व स्वर :
अगले दिन की सुबह भानु महाराज की सुनहरी रश्मियां उस इष्ट महादेव के देवालय में उतरीं तो अपने साथ एक भूकम्प भी लेती आईं... तमाम लोगों के हाथों में पायनियर समाचार पत्र की अनेक प्रतियां लहरा रही थीं। और उनमें एक प्रमुख समाचार सभी को झकझोर रहा था--
ठाकुर रणविजय सिंह के मंदिर में कई माह से पुजारी के रूप में नियुक्त साधु सिंह निकला कोतवाल अल्बर्ट सहित दो सिपाहियों का हत्यारा पंजाब माउंटेड पुलिस का पठान सिपाही 'शेर अली खान' … मंदिर से रात्रि में किया गया गिरफ्तार... उसके ही थाने के एक मुस्लिम दीवान दिलबाग ने दिया सुराग…
परिदृश्य क्रमांक 5 :
मई 1871… चतुर्थ वायसराय लॉर्ड मेयो का कलकत्ता स्थित कार्यालय :
लार्ड मेयो (एक विशेष अधिकारी जनरल स्टुवर्ड के कन्धे पर हाथ रखकर)-- माई डीयर आफिसर स्टुवर्ड! यू आर माई वैरी बिलिवेबिल एंड इंटेलिजेंट आफिसर।आई एम वैरी हैप्पी बाइ योर वर्क कैपेसिटी।सो आई वांट टू गिव ए वैरी इंपोर्टेंट चार्ज ओफ अंडमान जेल।
जनरल स्टुवर्ड (सैल्यूट की मुद्रा में)-- एज योर आर्डर सर!
लार्ड मेयो-- नाउ यू आर दि सुपरिटेंडेंट ओफ अंडमान!
जनरल स्टुवर्ड-- ओ के सर ! माई प्लीजर सर!
लार्ड मेयो-- मैं चाहटा हूं कि अंडमान में खटरनाक राजनीटिक अपराढियों को कैड करने के उड्डेश्य से पारंपरिक जेल जैसी व्यवस्थाएं बनाई जाएं। टाकि इन इंडियन कैडियों को भयानक से भयानक पनिशमेंट डिया जा सके... ऐसा भयानक पनिशमेंट कि ये जिंडा वापस न लौट सकें... ऐसा पनिशमेंट कि वे ब्रिटिश अढिकारियों का विरोढ करने का विचार भी मन में न ला सकें... ऐसा कठोर पनिशमेंट कि ये इंडियन क्रांटिकारी हमारे विरोढ में सिर उठाना भूल जाएं। विरोढ में उठते ही इनके सिर कुचल दिए जाने चाहिए।
जनरल स्टुवर्ड-- ओ के सर! ऐसा ही होगा। मैं आपकी उम्मीडों पर खरा उटरने का प्रयास करुंगा।
लार्ड मेयो-- एक बाट और जनरल स्टुवर्ड! वहां एक खटरनाक कैडी शेर अली खान भी है। वह हमारे एक आफिसर कोटवाल अल्बर्ट तथा डो कांस्टेबल्स का काटिल है। इसी जुर्म में वह उमर कैड की सजा काट रहा है। उसे बिल्कुल छूट न डी जाए! उस पर बहुट ज्याडा सख्टी बरटी जाए! ओ के?
जनरल स्टुवर्ड-- ओ के सर !...सर! ओनली वन रिक्वेस्ट?
लार्ड मेयो-- वाट जनरल? जल्डी बोलो ?
जनरल स्टुवर्ड-- सर एक बार आप भी वहां आकर अंडमान की भयावह कंडीशंस का इंस्पेक्शन जरुर करें!
लार्ड मेयो-- ओ के जनरल! बहुट जल्डी मैं भी वहां का इंस्पेक्शन करुंगा।
जनरल स्टुवर्ड-- थैंक यू सर!
सैल्यूट कर अण्डमान के लिए प्रस्थान कर देता है…
परिदृश्य क्रमांक 6 :
अण्डमान द्वीप समूह में शेर अली खान ने स्वयं को जेल अधिकारियों की दृष्टि में एक शान्त,सरल व व्यवहार कुशल कैदी के रूप में स्थापित कर लिया है। अपने मृदुल आचरण व विनोदी स्वभाव से वह सबको हंसा-हंसा कर लोट-पोट करता रहता है। खुश होकर जेल प्रशासन ने उसे नाई अर्थात बाल काटने व दाढ़ी बनाने का कार्य सौंप दिया है। जिससे वह अण्डमान द्वीप समूह के किसी भी द्वीप पर सरलता से आ जा सकता है।
24जनवरी 1872 :
वायसराय लॉर्ड मेयो के दो स्टीमर 'ग्लासगो' व 'ढाका' कोलकाता बंदरगाह से रंगून प्रस्थान करते हैं। वापसी में 8फरवरी 1872 को सुबह 9.30बजे जैसे ही दोनों स्टीमर पोर्ट ब्लेयर बंदरगाह पर लगते हैं तो शाही बिगुल बज उठता है। और तोपों की सलामी दी जाती है।
यह आवाज समीपवर्ती टापू 'होपटाउन' पर शेर अली खान के कानों में भी पड़ती है। अनायास उसके मुंह से निकल पड़ता है-- आ गया मेरा शिकार! मेरी भारत माता को गाली देने वाले कुत्ते तुझसे इंतकाम लेने का वक्त आ गया है।
वह सब्जी काटने वाला चाकू जेब से निकालता है और पत्थर पर घिसकर उसकी धार तेज करने लगता है।
उधर हथियारबंद पुलिस दस्तों से घिरा लार्ड मेयो पैदल ही रौश, वाइपर और चैथम द्वीपों का दौरा करता है।
और फिर सायं काल 5 बजे--
लार्ड मेयो-- जनरल स्टुवर्ड! अभी टो केवल फाइव पी एम हुए हैं। कम से कम एक घंटा डिन बाकी है। क्यों न होपटाउन ड्वीप स्थित माउंट हैरियट पहाड़ी पर चढ़कर सन सैट (सूर्यास्त) का आनंद उठाया जाए।
जनरल स्टुवर्ड-- किंतु सर! सुरक्षा कारणों से मैं आपको इस समय वहां ले जाना उचित नहीं समझटा।
लार्ड मेयो-- कोई बाट नहीं, मैं नहीं समझटा कि सुरक्षा टुकड़ियों के होटे हुए मुझे वहां कोई खटरा होगा।
जनरल स्टुवर्ड-- ओ के सर! एज योर विश सर! आपके लिए खच्चर की व्यवस्था की जा रही है।
और फिर सुरक्षा टुकड़ियों से घिरा लार्ड मेयो खच्चर की पीठ पर बैठकर माउंट हैरियट पहाड़ी की चोटी पर पहुंच जाता है। और सूर्यास्त के नयनाभिराम दृश्य का बड़ी तन्मयता से अवलोकन करने लगता है। आनंदातिरेक में बार बार उसके मुंह से अनायास निकल पड़ता है-- ओह माई गॉड!किटना सुंडर,किटना मनमोहक, किटना अड्भुट नजारा नेचर का!
पहाड़ी की चोटी से नीचे उतरने तक 7बज चुके हैं। और अंधकार का स्याह झुरमुटा भी पहाड़ियों को अपनी चादर में लपेट चुका है। जनरल स्टुवर्ड सुरक्षा टुकड़ियों के साथ तीव्र गति से आगे बढ़कर समुद्र में खड़ी लांच की व्यवस्था देखने लगता है।उसकी कोशिश लार्ड मेयो को शीघ्रतातिशीघ्र वहां से सुरक्षित निकाल ले जाने की है। इसी कसमकस में लार्ड मेयो पीछे रह जाता है।
तभी अंधकार का आश्रय लेकर कोई साया विद्युत्स्फूर्ति से उसके समीप पहुंचता है और तीव्र गति से चाकू का अचूक वार उसके वक्ष पर करके गायब हो जाता है।
लार्ड मेयो नीचे गिर जाता है और जोर से चिल्लाता है--
लार्ड मेयो-- डेखो! डेखो! किसी ने मुझ पर नाइफ का वार किया है। लेकिन कोई चिन्टा की बाट नहीं, ज्याडा चोट नहीं है। सिंपल ड्रेसिंग से ठीक हो जाएगी।
जनरल स्टुवर्ड (भागकर आते हुए)-- हम आपको कुछ नहीं होने डेंगे सर! हमारे डाक्टर अभी आपको ट्रीटमेंट डेंगे।
लार्ड मेयो-- मेरा सिर घूम रहा है और आंखों के आगे अन्ढेरा छाटा जा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मेरी आंखें कोई जबरडस्टी बन्ड किए दे रहा हो।
लार्ड मेयो को तत्काल स्टीम लांच पर लाकर लिटा दिया जाता है। डाक्टर्स निरीक्षण परीक्षण करते हैं। और मृत घोषित कर देते हैं।
उधर सुरक्षा अधिकारी स्फूर्ति से हत्यारे को पकड़ लेते हैं। और पहचानते ही चौंक पड़ते हैं... क्योंकि वह सीधा सादा और सच्चा दिखाई देने वाला पठान शेर अली खान है।
9फरवरी 1872 :
लार्ड मेयो के शव को उसके स्टीमर 'ग्लासगो' पर लाया जाता है। वहीं रस्सियों से बंधे शेर अली खान को भी लाया जाता है। और वहीं ब्रिटिश मजिस्ट्रेट इडेन उस पर मुकदमे की कार्यवाही करता है--
ब्रिटिश मजिस्ट्रेट इडेन-- शेर अली खान! टुमने हमारे वायसराय की हट्या क्यों की?
शेर अली खान-- क्योंकि इसने मेरी भारत माता को गाली दी थी।
इडेन-- कब डी ठी गाली?
शेर अली-- तीन साल पहले जब मैं अमृतसर के थाने में सिपाही था, यह वहां मुआयने के लिए आया था। तब कोतवाल ने भी गाली दी थी मुझे। उसे तो मैंने तभी कुछ दिन बाद ही निपटा दिया था। तभी इसने भी मेरी भारत माता को बेइज्जत किया था। मैंने तभी कसम खाई थी कि मौका मिलते ही इसे भी मार डालूंगा।
इडेन-- क्या टुम्हें ओनरेबिल वायसराय का मर्डर करटे डर नहीं लगा?
शेर अली-- अल्लाह का नेक बन्दा नेक काम करते हुए कभी किसी से नहीं डरता।
इडेन-- इस अपराढ का पनिशमेंट जानटे हो?
शेर अली-- जानता हूं... फांसी से अधिक कुछ नहीं।
इडेन-- कोई अन्टिम इच्छा?
शेर अली-- मैंने भारतीयों के दुश्मन को मार डाला...तो मुझे इसी दुश्मन लार्ड मेयो के हत्यारे के रूप में अखबारों में जगह मिले।
इडेन-- मैं इस खटरनाक अपराढी शेर अली खान को फांसी की सजा मुकर्रर करटा हूं।
जनरल स्टुवर्ड-- और मैं इस सजा का अनुमोडन करटा हूं कि जल्डी से जल्डी इस खटरनाक मुजरिम शेर अली खान को फांसी पर लटका दिया जाए!
और फिर 11मार्च 1872 को शेर अली खान को वाइपर द्वीप पर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया।
पार्श्व स्वर--
अण्डमान द्वीप समूह के 'वाइपर द्वीप' पर वह जर्जर भवन आज भी खण्डहर के रूप में स्थित है जहां इस गुमनाम क्रांतिकारी शेर अली खान को चतुर्थ वायसराय लॉर्ड मेयो की हत्या के आरोप में उसी दिन हत्या का मुकदमा चलाकर सायंकाल तक फांसी का दंड निर्धारित कर दिया गया। और फिर हत्या अभियोग के एक माह उपरांत ही उसे फांसी पर लटका दिया गया।
लेकिन उस भवन में जहां उसे फांसी पर लटकाया गया था, भीतर तक पहुंचना अत्यधिक दुष्कर है। क्योंकि गोबर, कीचड़, जालों और चमगादड़ों ने उसमें अपना बसेरा कर लिया ।
🙏 डा.अशोक रस्तोगी
अफजलगढ़ बिजनौर
उत्तर प्रदेश, भारत
बंदर बोला बंदरिया से कहो आज क्या खाना है
मटर उड़ाऊँ किसी के घर से या फिर के लालाना है
बोली बंदरिया क्यूं फल और सवजी से बहलाते हो
रानी पहने जो लहँगा वो क्यों नहीं लेकर आते हो ।
*2*
भैया तुम राखी बंधवाकर पैसे मुझको मत देना
मेरी गुड़िया रोती है तुम टॉफी उसको दे देना
मेरी गुड़िया की शादी में खूब नाचना जी भर के
पैसे उस पर खूब लुटाना तुम न्यौछावर करकर के |
*3*
चुन्नू कहता मुझको भी चन्दा के घर जाना है
नील आर्मस्ट्रॉंग सा ड्रेस मुझे बनवाना है
बछेन्द्रीपाल सा बनना है पर्वत पर मुझको चढ़ना है
कोई न रोको कोई न टोको आगे मुझको बढ़ना है ।
*4*
जी करता है पंख लगा के नीलगगन उड़ जाऊ,,ं मैं
चंदा सूरज तारों को समझूँ और समझाऊं मैं
कभी में सोचूँ क्रिकेट खेलूँ या फिर करूँ मैं मस्ती खूब
कभी मैं सोचूँ करूँ पढ़ाई या ले रजाई सो जाऊँ मैं ।
*5*
फूल और तितली न दिखलाओ, कहानी से न बहलाओ
मुझको भूख लगी है मम्मी, थोड़ा खाना लेकर आओ
छोटू को भी नहीं मालूम, ये लॉकडाउन क्या होता है
जल्दी उसको दूध मंगा दो, भूख के मारे रोता है
टीचर कहती फोन पे .चीजें भेजी पढ़ने वाली हैं
वो क्या जाने फोन भी मेरे पेट के जैसा खाली है
मेरे दोस्त भी फोन से कभी नहीं पढ़ पाते हैं
क्योंकि उनका फोन तो पापा और भाई ले जाते हैं
कोई विद्यालय खुलवाओ, हमको सबसे फिर मिलवाओ
मिड डेमिल से फिर खाना पेटभर खायेंगे
सबके साथ खेलेंगे और पढ़कर दिखलायेंगे।
✍️ विनीता चौरसिया
169 कटिया टोला,
शाहजहाँपुर
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल नम्बर 8419037273
तुम आए
तो सुख के फिर आए दिन
बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन
पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन
निमिष-निमिष के
हलके हो गए चरण
उतर गई प्राणों तक
भोर की किरण
हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन
हो गई बयार
इस प्रकार मनचली
झूमने लगी फुलवा बन कली-कली
भोर साँझ दुपहर
मन मोहने लगी
धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन
(2) बदलाव
समय बदला हुआ है
मीत
मत बोलो
सरल मृगशावकों से नयन की भाषा
न कोई समझ पाएगा
यहाँ किसको समय है
प्यार से देखे
तुम्हारी ओर पल-भर भी
तुम्हारी बात तो है दूर
सुन पाता नहीं कोई
यहाँ अपना मुखर स्वर भी
समय बदला हुआ है
मीत
मत छेड़ो
मधुर संगीत-लहरी अब
धरा स्वर से
सजाने की सनातन सौम्य अभिलाषा
न कोई समझ पाएगा
हमारी दृष्टि पैनापन पुरातन खो चुकी अपना परत-दर-परत भीतर
हृदय की गहराइयों में झाँकना
संभव न हो पाता
स्वनिर्मित पंथ पर हम
भूमि से आकाश तक को नापने में व्यस्त हैं इतने सहज संवेदना की
सौंधती अमराइयों में घूमना संभव न हो पाता
समय बदला हुआ है
मीत
मत सोचो
हृदय में भावनाएँ हैं
तुम्हारी यह अप्रचलित रूढ़ परिभाषा
न कोई समझ पाएगा
(3) कुछ दिन बीते
तुम्हें गए
कुछ दिन बीते हैं
पर मुझको अरसा लगता है
सब कहते
कल ही पूरब में
एक घटा नभ में घहराई
फिर भी
लगता है बरसों से
इधर नही आई पुरवाई
मेरे घर पर
कभी न कोई
बादल-दल बरसा लगता है
गुमसुम हैं
सारी दीवारें
छत भी है रोई रोई-सी
आँगन के
थमले में तुलसी
रहती है खोई-खोई सी
द्वार
किसी निर्जन तट वाले
सूखे सरवर-सा लगता है
(4)अवकाश नहीं
सूख रहा कंठ
होंठ पपड़ाए
लेकिन
अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है
नीर - भरे कूलों को नमस्कार
भाग रहे हैं
अनगिन व्यस्त गली-कूचों में
चौराहों-मोड़ों पर
भीड़ों के बीच कई एकाकीपन
मन से अनजुड़े हुए तन
कभी सघन छाँह देख
ललक-ललक जाता हूँ
मन होता ठहरूँ
विश्राम करूँ
लेकिन
कहीं ठहरने का अवकाश नहीं मिलता है
सतरंगे दुकूलों को नमस्कार
सारे अनुकूलों को नमस्कार
एक घुटन होती है
बादल के मन-सी
कुहरे की परतों में बंदिनी किरन-सी
गंधों की गोद पले गीतों के सामने
चटखते दरारों वाले मन जब
दौड़े आते है कर थामने
कभी-कभी मन होता
फेंक दूँ उतारकर विवशता में पहना यह
कंठहार
गंधहीन कागज़ का
लेकिन
मन की करने का अवकाश नहीं मिलता है
गंधप्राण फूलों को नमस्कार
बौराई भूलों को नमस्कार
(5) और कहीं
यहाँ बहुत मैले प्रतिबिंब हैं
चलो चलें और कहीं दर्पण मन मेरे
कैसे पहचानी
पगडंडी को छोड़ें
कैसे गंधों से
संबंध यहाँ जोड़ें
दूर तलक फैले वीरानों में कैसे हम
क्रूर बबूलों से
अपना रिश्ता जोड़ें
झुलसाते अणुओं की गोद से
चलो चलें और कहीं चंदन मन मेरे
यहाँ सिर्फ़ बिखरे हैं
पाहन ही पाहन
रोगग्रसित स्वामी है
जर्जर है नाहन
ऊपर की चमक देख मूल्यांकन होता है
भीतर तक कहीं नहीं
होता अवगाहन
गँवई गाहक वाले गाँव से
चलो चलें और कहीं कंचन मन मेरे
यहाँ स्वार्थ ही है
संबंधों की सीमा
एक वृत्त तक है
स्वच्छंदों की सीमा
हृदयों की नहीं मात्र अधरों की बातें हैं
सारे के सारे
अनुबंधों की सीमा
ऐसी सीमाओं को तोड़कर
चलो चलें और कहीं उन्मन मन मेरे
:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
सोचें क्यों अन्जाम।।
नियम ताक पर रख कर सारे,
वाहन तेज भगाएं।
टकराने वाले हमसे फिर,
अपनी खैर मनायें ।
सही राह दिखलाने की हर,
कोशिश है नाकाम।
चोला ओढ़े सच्चाई का,
साथ झूठ का देते।
गुपचुप अपनी बंजर जेबें,
हरी-भरी कर लेते।
हर मुद्दे का कुछ ही पल में,
करते काम तमाम।
सुर्खी में ही लिपटे रहना,
हमको हरदम भाता।
भूल गए मेहनत से भी है,
अपना कोई नाता।
जिसकी लाठी भैंस उसी की,
जपते सुबहो-शाम।
✍️ प्रो ममता सिंह
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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डॉ मनोज रस्तोगी
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