मंगलवार, 2 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के पांच गीत । ये गीत लिए गए हैं उनके गीत संग्रह ’ढाई आखर प्रेम के’ से। उनका यह गीत संग्रह वर्ष 2010 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित हुआ है और इसकी भूमिका लिखी है प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी ने ।

 


(1) फगुनाए दिन

तुम आए

तो सुख के फिर आए दिन

बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन


पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन 

निमिष-निमिष के 

हलके हो गए चरण 

उतर गई प्राणों तक 

भोर की किरण 

हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन


हो गई बयार

इस प्रकार मनचली 

झूमने लगी फुलवा बन कली-कली

भोर साँझ दुपहर

मन मोहने लगी 

धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन


(2) बदलाव

समय बदला हुआ है

मीत

मत बोलो

सरल मृगशावकों से नयन की भाषा

न कोई समझ पाएगा


यहाँ किसको समय है

प्यार से देखे 

तुम्हारी ओर पल-भर भी 

तुम्हारी बात तो है दूर

सुन पाता नहीं कोई

यहाँ अपना मुखर स्वर भी

समय बदला हुआ है 

मीत

मत छेड़ो

मधुर संगीत-लहरी अब

धरा स्वर से

सजाने की सनातन सौम्य अभिलाषा

न कोई समझ पाएगा


हमारी दृष्टि पैनापन पुरातन खो चुकी अपना परत-दर-परत भीतर

हृदय की गहराइयों में झाँकना

संभव न हो पाता

स्वनिर्मित पंथ पर हम

भूमि से आकाश तक को नापने में व्यस्त हैं इतने सहज संवेदना की 

सौंधती अमराइयों में घूमना संभव न हो पाता

समय बदला हुआ है

मीत

मत सोचो

हृदय में भावनाएँ हैं

तुम्हारी यह अप्रचलित रूढ़ परिभाषा

न कोई समझ पाएगा


(3) कुछ दिन बीते


तुम्हें गए

कुछ दिन बीते हैं 

पर मुझको अरसा लगता है


सब कहते

कल ही पूरब में 

एक घटा नभ में घहराई

फिर भी

लगता है बरसों से 

इधर नही आई पुरवाई 

मेरे घर पर

कभी न कोई

बादल-दल बरसा लगता है 


गुमसुम हैं

सारी दीवारें

छत भी है रोई रोई-सी

आँगन के

थमले में तुलसी

 रहती है खोई-खोई सी 

 द्वार

किसी निर्जन तट वाले

सूखे सरवर-सा लगता है


(4)अवकाश नहीं


सूख रहा कंठ

होंठ पपड़ाए

लेकिन

अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है

नीर - भरे कूलों को नमस्कार


भाग रहे हैं

अनगिन व्यस्त गली-कूचों में 

चौराहों-मोड़ों पर 

भीड़ों के बीच कई एकाकीपन

मन से अनजुड़े हुए तन 

कभी सघन छाँह देख 

ललक-ललक जाता हूँ

मन होता ठहरूँ

विश्राम करूँ

लेकिन

कहीं ठहरने का अवकाश नहीं मिलता है

सतरंगे दुकूलों को नमस्कार

सारे अनुकूलों को नमस्कार


एक घुटन होती है 

बादल के मन-सी 

कुहरे की परतों में बंदिनी किरन-सी 

गंधों की गोद पले गीतों के सामने 

चटखते दरारों वाले मन जब 

दौड़े आते है कर थामने 

कभी-कभी मन होता 

फेंक दूँ उतारकर विवशता में पहना यह 

कंठहार 

गंधहीन कागज़ का 

लेकिन

मन की करने का अवकाश नहीं मिलता है 

गंधप्राण फूलों को नमस्कार 

बौराई भूलों को नमस्कार


(5) और कहीं


यहाँ बहुत मैले प्रतिबिंब हैं 

चलो चलें और कहीं दर्पण मन मेरे


कैसे पहचानी 

पगडंडी को छोड़ें

कैसे गंधों से 

संबंध यहाँ जोड़ें

दूर तलक फैले वीरानों में कैसे हम

क्रूर बबूलों से

अपना रिश्ता जोड़ें 

झुलसाते अणुओं की गोद से

चलो चलें और कहीं चंदन मन मेरे


यहाँ सिर्फ़ बिखरे हैं

पाहन ही पाहन

रोगग्रसित स्वामी है

जर्जर है नाहन

ऊपर की चमक देख मूल्यांकन होता है

भीतर तक कहीं नहीं

होता अवगाहन

गँवई गाहक वाले गाँव से 

चलो चलें और कहीं कंचन मन मेरे


यहाँ स्वार्थ ही है 

संबंधों की सीमा

एक वृत्त तक है 

स्वच्छंदों की सीमा 

हृदयों की नहीं मात्र अधरों की बातें हैं 

सारे के सारे 

अनुबंधों की सीमा 

ऐसी सीमाओं को तोड़कर 

चलो चलें और कहीं उन्मन मन मेरे


:::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822


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