सोमवार, 8 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का एक गीत ......सावन से ही आशा


बीत गया आषाढ़ बची अब 

सावन से ही आशा।


बरस बरस कर शायद भर दे 

बर्तन खाली सारे।

मोर नाच कर पंख पसारे

अपने न्यारे न्यारे।।

आप स्वयं टल जाए शायद 

घर में रुकी निराशा।


बरस-बरस कर कहीं-कहीं तो 

ला दो घनी तबाही।

कहीं बरसने के आवेदन  

चुसकें शुष्क कड़ाही।।

भेदभाव का ऐसा भी तो 

अच्छा नहीं तमाशा।


रहो बरसते नियम धरम से 

निश्चित ही हल बरसे।

तुम पर निर्भर जो कुछ भी है

उसका भी कल सरसे।।

झुलसे मुरझे त्रासद मन की

शायद मिटे दुराशा।  


इधर उधर की ठहर हवाएँ

मिलें खूब बरसाएँ।

झींगुर अपना स्वर आलापें

दादुर मिल टर्राएँ।

पानी में खुद घुलमिल लेगी

पसरी हुई हताशा।


नहीं बरस कर रत्ती भर भी 

बरखा धर्म बखाने। 

डींग मारकर गाती फिरना 

समरसता के गाने।।

हाहाकार मचे पर सुनना 

कारण,बूँद बताशा।


✍️  डॉ. मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद

      मोबाइल:9319086769

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