मंगलवार, 9 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के छह गीत । ये गीत लिए गए हैं उनके गीत संग्रह ’त्रिवर्णी’ से। उनका यह गीत संग्रह वर्ष 2015 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित हुआ है और इसकी भूमिका लिखी है मधुकर अष्ठाना ने ।


 (1) बदलाव

हर दिशा से

आज कुछ ऐसी हवाएँ चल रही हैं

आदमी का आचरण बदला हुआ है.


इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर

बात मन से

मन नहीं करता यहाँ पर

हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है

कि जिसको देखकर

सागर स्वयं डरता यहाँ पर

कल्पना विध्वंस की करता यहाँ पर


एक भी निःश्वास

स्वाभाविक नहीं वातावरण में

इस क़दर वातावरण बदला हुआ है।


लोग कहते हैं नया परिधान पहना है समय ने

और सूरज

बहुत ऊपर चढ़ गया है 

पर मुझे लगता कि सबको

स्वप्न धोखा दे रहा है

घोर दलदल बीच ही रथ अड़ गया है

आदमी भीषण भँवर में पड़ गया है


सभ्यता के ग्रंथ में

पन्ने पुराने ही भरे हैं

किंतु ऊपर आवरण बदला हुआ है

(2) कसबे का दर्द

मेरा दर्द कि मै न गाँव ही रह पाया

न शहर बन पाया


लुप्त हुई 

कालीनों जैसी

खेत-खेत फैली हरियाली 

बीच-बीच में

पगडंडी की शोभा

वह मन हरने वाली 

अब न फूलती सरसों 

डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं 

तन-मन की जो थकन मिटा दे 

वह शीतल-से ठौर नहीं हैं


सबको छाँह बाँटने वाला

मैं न सघन पाकर बन पाया


वह चूनर का छोर

होंठ के कोने में रखकर

शरमाना

देख कनखियों से

बिन बोले

मन का महाकाव्य कह जाना 

ऐसे दृश्य सहज सुखदायक 

हुए आज आँखों से ओझल 

सूख गया नयनों का पानी 

बढ़ता गया निरंतर मरुथल


कभी नहीं कल-कल जल वाला

वह निर्मल निर्झर बन पाया


बहुत बढ़े

देवालय मसजिद

रोज़ कथा कीर्तन होते हैं 

होती

उपदेशों की वर्षा

नित जागरण हवन होते हैं

 दुर्भावों की कीचड़ फिर भी 

 हृदय बीच बढ़ती ही जाती

जैसे गंगा बीच किसी पर

परत कलुष की चढ़ती जाती


पावन गंगारज कहलाता 

मैं न वही पत्थर बन पाया

(3) शहर की खोज

खोज में शहर की मन का बौनापन पाया
कबिरा के ढाई आखर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

उठते हैं ठीक सामने
रेत के बगूले
लगता है भटक गए हम
राह यहाँ भूले
कहीं नहीं जल है केवल मरुथल की छाया

घर वाले कल-कल निर्झर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

कुछ भी तो यहाँ न पाया
अपनापन खोया
विश्वासी आँखें खोईं
भीगा मन खोया
इससे तो अच्छे हम थे श्याम के सँगाती

पगली मीरा के गिरधर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

चलें अलावों के आगे
प्यार की तपन में
खेत-खेत आँगन-आँगन
खेलते पवन में
जहाँ नहीं नयनों में है संशय गहराता

पुरवइया के निश्छल स्वर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

(4) निरपेक्ष
और किस-किससे अपेक्षा मैं करूँ
अब मुझे हर व्यक्ति परवश दीखता

है न कोई
जो तिमिर की भीड़ में
एक दीपक की
हिमायत कर सके
न्याय के जो पक्ष में
बाँहें उठा
बात कहने की
ललक से भर सके

जो अनय-अन्याय को ललकार दे
अब न ऐसा तीव्र तेजस दीखता

परत पर परतें
जमी हैं राख की
दिख न पाती उष्णता
अंगार में
बह रहे हैं सब
अवश असहाय से
क्षुद्र तिनकों-से
समय की धार में
चीर कर मझधार पहुँचे पार जो
अब कहीं ऐसा न ओजस् दीखता

शब्द की
संकल्प से दूरी बढ़ी
कर्म-चिंतन में नहीं है संतुलन
कर रही है
शांत मन के मूल पर
भोगवादी दृष्टि
भीषण आक्रमण

एक-सा हो आचरण-वाणी जहाँ
एक भी ऐसा न वर्चस दीखता

(5) असुरक्षा
अब नहीं सुरक्षित है
कोई भी साँस
करें किस पर विश्वास हम

एक समय था
जब हर घर-देहरी के सुख में
अपनापन होता था
हर आँगन का दुःख
हर नयन को भिगोता था
किसी गेह कन्या की
सजल विदा-बेला में
गाँव की हरेक आँख
सहज डबडबाती थी
हर युवा पड़ोसी के
हाथ की कलाई जब
राखी में बँधने को
पल-पल अकुलाती थी
दो कच्चे धागे
अनमोल हुआ करते थे
घर-बाहर प्रीतपगे
बोल हुआ करते थे

अब तो हर दृष्टि हुई
भीतर की फाँस
करें किस पर विश्वास हम

एक समय था
जब हर खेत, वृक्ष, नीड़ों में
भोर चहचहाती थी
वंदना सुनाती थी
सांझ घर बुलाती थी
मन में होती उमंग
सुबह खेत जाने की
शाम ललक होती थी
गेह लौट आने की
किलकारी शैशव की
स्वप्नबिंधे वैभव की
अनुभव के आशीषों की फुहार पाने की
अब वह सब कहाँ गया,
ममता का नाम नहीं
अँगड़ाती सुबह नहीं,
बतियाती शाम नहीं

दिन सूने-सूने हैं
यामिनी उदास करें
किस पर विश्वास हम

खेत गली चौबारे
जगह रह न पाई अब
कोई अनबींधी है
लगता है नहीं रही
दृष्टि सरल सीधी है
कुछ दिन ही बीते जब
घर-आँगन में उसकी
कोने से कोने तक किलकारी गूँजी थी
जहाँ चौक पूरे थे
होलिका जलाई थी
दीप जगमगाए थे, दीवाली पूजी थी
अब उसे डराती है गेह की अटारी भी
अपने ही घर की वह आँगन-तिदवारी भी

घर में ही
कसे कई क्रूर बाहुपाश करें
किस पर विश्वास हम

(6) छद्मवेश
ओसभरी अँजुरी का
हो क्यों आभास यहाँ
दहक रहे हों जब अंगारे सिरहाने

कौन छद्मवेषों में सगा या पराया है
नहीं जान पाते हम
अपनी धरती की हत्या के षड्यंत्रों की
योजना बनाते हम

एक-से मुखौटे सब
पहने हैं फिर बोलो
भले-बुरे को कोई कैसे पहचाने

कौन भला दुहराएगा साहस- शौर्य भरे
उत्तम इतिहासों को
देवालय के भीतर प्राण गँवाते देखा
हमने अरदासों को

लगता है ईंट ईंट
रक्त में भिगोकर हम
आए हैं एक अनोखा भवन बनाने

सहचर होने का सुख अलग हुआ करता
जब लक्ष्य एक होता है
फिर न सोचता कोई, किसकी उपलब्धि हुई
कौन यहाँ खोता है

कोई बेमोल भी
न अपनाएगा हमको
बिखर गए जिस दिन इस माला के दाने

:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822



2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया रचनाएं स्मृति शेष श्री शचींद्र भटनागर जी की...
    डॉ अशोक रस्तोगी अग्रवाल हाइट्स राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद

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