शनिवार, 2 सितंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों पर ओंकार सिंह ओंकार का विस्तृत आलेख ---



 समाज की ज़मीनी सच्चाइयों को स्पष्टता से बयान करने वाले शायर/कवि दुष्यंत कुमार ने कहा था कि मैं उर्दू नहीं जानता परन्तु मैं शह्र और शहर के वज़्न और वजन के फ़र्क़ से वाक़िफ था। परंतु मैं उस भाषा में लिखना चाहता था जिस भाषा में मैं बोलता था । इसलिए मैंने जानबूझकर शहर की जगह नगर नहीं लिखा। 

        वे कहते थे," उर्दू और हिन्दी जब अपने अपने सिंहासन से उतर कर आम आदमी के पास आती है तो दोनों भाषाओं में अन्तर करना मुश्किल हो जाता है। मेरी नियत और कोशिश यही रही है कि मैं इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूं। इस लिए ये ग़ज़लें उसी भाषा में कही गई हैं जिसे मैं बोलता हूं।" वे अपने एक शेर में कहते हैं कि-

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं।

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं।।

   हिन्दी के बहुत से पुराने कवियों ने ग़ज़लें कही हैं। जिनमें निराला जैसी हस्तियां शामिल हैं। लेकिन कवि दुष्यंत ने परंपरागत ग़ज़ल की धारा को मोड़कर जनसंघर्ष की धारा में परिवर्तित कर दिया तथा समय की आवश्यकता के अनुसार उसे नवीनता प्रदान कर दी। राजनीतिज्ञों ने आज़ादी के समय जो जनता से वादे किए थे, दुष्यंत ने राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अंतर को बड़े व्यंगात्मक और चुटीले अंदाज़ में बयान किया है। उन्होंने कहा-

कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए।

कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।।

न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे,

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।।

आदमी की परेशानियों, ग़रीबी, भुखमरी, बेरोजगारी तथा अन्य सामाजिक सरोकारों का उल्लेख करने वाले बहुत से शेर दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों में दिये हैं जिनमें से से दो शेर पाठकों की सुगमता के लिए प्रस्तुत हैं-

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा।

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।।

कई फ़ाक़े बिताकर मर गया जो उसके बारे में,

वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।।

प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने ग़रीबों और ज़रूरत मंदों को सरकार से दी जाने वाली आर्थिक सहायता या अन्य सहयोग उन तक पहुंचने से पहले  ही समाप्त हो जाती है।इसी का बहुत सुन्दर चित्र अपने एक बहुत सुन्दर शेर में कवि दुष्यंत ने दिया है । उस समय के सरकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार को व्यक्त करने का इतना अच्छा व्यंग्य शायद ही किसी अन्य कवि / शायर की रचनाओं में मिल पाए।

यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां,

हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा ।।

इसी प्रकार कवि दुष्यंत कुमार के बहुत से शेर याद करने और समय समय-समय पर उदाहरण के तौर पर उल्लेख करने लायक़ हैं। जिनमें से कुछ शेर प्रस्तुत हैं :-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग तो फिर आग जलनी चाहिए।।

 दुष्यंत कुमार जनकवि थे ।वे ग़रीबों और कमज़ोरों की तकलीफ़ों को सत्ता के शीर्ष पदाधिकारियों तक पहुंचाना चाहते थे तथा जनता को भी अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते थे। संघर्ष का एक प्रतिरोधी स्वर उनकी शायरी /कविताओं में मिलता है। यही स्वर उनकी शायरी को दीर्घायु बनाता है तथा  उन्हें अन्य कवियों से श्रेष्ठता प्रदान करता है। उनकी शायरी सहज और सरल भाषा में है जिसे आम आदमी समझ सकता है। उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप" बार बार पढ़ने योग्य है। उनकी शायरी को जनता लम्बे समय तक याद रखेगी। 


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार' 

1-बी/241 बुद्धि विहार, मझोला,

मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244103

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