शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी ने अपनी साहित्य यात्रा 'दिवाकर' उपनाम से वीर रस की कविताएं लिखने से की थी। 2 दिसम्बर 1962 को भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया था जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में उन्होंने अपनी एक वीर रस की रचना पढ़ी थी ----- तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया ......। उनकी यह रचना सन 1964 में हिंदी साहित्य निकेतन द्वारा प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'तीर और तरंग ' में भी प्रकाशित हुई थी। मुरादाबाद जनपद के 39 कवियों के इस काव्य संग्रह का संपादन किया था गिरिराज शरण अग्रवाल और नवल किशोर गुप्ता ने । भूमिका लिखी थी डॉ गोविंद त्रिगुणायत ने । प्रस्तुत है पूरी रचना -


भारत के नौजवानों से.....

तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


पहिले।   तो   तुम्हारे   क़दमों से, सारी।  धरती  थर्राती  थी, 

सागर का दिल हिल जाता था, पर्वत की धड़कती छाती थी । 

अब चाल में सुस्ती कैसी है, क्यों पांव हैं डगमग डोल रहे ? 

कुछ करके नहीं दिखाते हो, केवल अब मुँह से बोल रहे ॥


दुश्मन को मार गिराने का आक्रोश तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ,

 जाकर देखो भारत माँ के माथे पर जो आघात हुआ । 

 गर अब भी खून नहीं खौला, गर अब तक जाग न पाये हो,

  मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत माँ के जाये हो ।


दुनियाँ को दिव्य दृष्टि देते, वह होश तुम्हारा कहाँ गया 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ? 


आँखों की मस्ती दूर करो, यह संकट में कैसी हाला ? 

टक्कर से तोड़ो प्याले को, अब बन्द करो यह मधुशाला। 

गर तुम को कुछ पीना ही है, तो फिर दुश्मन का खून पियो,

 या तो स्वदेश पर मिट जाओ, या भारत माँ के लिये जियो ।

दुश्मन की फौजें दहल उठें, वह रोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


हे वीरों तुम हो महाकाल, फिर काल जो आये डरना क्या ?

 जब चला सिपाही लड़ने को, तो जीना क्या या मरना क्या ? 

 यदि मिटे तो फिर इतिहासों में, बलिदान अमर हो जायेगा,

  यदि जीवित रहे तो हर मानव, आदर से शीश झुकायेगा ।


माटी का हर कण पूछेगा, वह घोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?



::::::;प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

1 टिप्पणी:

  1. *काव्य में रस-परिवर्तन (हास्य व्यंग्य)*
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    जब से यह पता चला है कि हुल्लड़ मुरादाबादी पहले वीर रस के कवि थे तथा 2 दिसंबर 1962 को उन्होंने लाल किला दिल्ली पर अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन में जोरदार वीर रस की कविता पढ़ी थी ,हृदय प्रफुल्लित हो रहा है । उस कवि सम्मेलन की अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने की थी । इससे पता चलता है कि हुल्लड़ मुरादाबादी अपने शुरुआती काव्य काल में ही वीर रस के शिखर पर पहुंच गए थे ।अब मैं हास्य रस तथा वीर रस के आपसी संबंधों के बारे में सोच रहा हूँ। किसी भी वीर रस के कवि को देखता हूँ तो मन में यह भाव जाग उठते हैं कि यह कभी भी वीर रस की पार्टी छोड़कर हास्य रस की पार्टी में शामिल हो सकता है । इसी तरह क्या हास्य रस का कवि दलबदल कर के वीर रस में शामिल नहीं हो सकता ?
    रस कोई भी हो ,कविता तो शब्दों का खेल है । मंच पर भाषण देना आ जाए तो नेता चाहे जिस पार्टी का हो और चाहे जिस पार्टी में चला जाए ,भाषण जोरदार दे सकता है । आज अनेक नेता एक राजनीतिक दल को छोड़कर दूसरे राजनीतिक दल में शरण लिए हुए हैं । कुछ नेता दलबदल करने पर फ्लॉप हो जाते हैं तथा पुनः पुराने दल में वापस आ जाते हैं । कुछ लोगों का कैरियर दलबदल के बाद चमक उठता है । कुछ लोग जब तक मंत्री बनने की सेटिंग नहीं कर लेते तब तक दलबदल नहीं करते ।
    बहुत से लोग कई रसों में कविताएँ लिखते हैं ।कभी वीर रस ,कभी हास्य रस, कभी श्रंगार रस । साहित्य में बहुत से कलमकार एक जगह पर "एक पत्नी-व्रत" के समान टिके रहते हैं । न इधर देखते हैं न उधर देखते हैं । अगर कहानी लिखनी है तो सिर्फ कहानी ही जिंदगी भर लिखी । अगर कविता लिखनी है तो उसमें भी अगर गीत लिखना है तो केवल गीत लिखे और गीतिका लिखनी है तो केवल गीतिका ही लिखी।
    साहित्य में यह सुविधा है कि आप जिस रस में सराबोर हैं ,उसी में बहते हुए आप दूसरे रस में जाकर खड़े हो सकते हैं और उस दूसरे रस की नदी में चाहे जितनी डुबकी लगा सकते हैं । कोई मना नहीं कर रहा है । हो सकता है आप एक साथ दो या तीन रसों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो जाएँ। जब आदमी दो या तीन विषयों में एम.ए. कर सकता है तो दो या तीन रसों में प्रसिद्ध कवि क्यों नहीं बन सकता ? यह तो बाजार के सिद्धांतों की कठोरता है कि एक कवि जिस रस में लोकप्रिय हो गया ,उस पर उसी रस का ठप्पा लग जाता है और फिर वह अपनी उसी दुनिया में सिमट कर रह जाता है ।अपने पुराने प्यार को याद भी नहीं कर पाता।
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    *लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा*
    *रामपुर (उत्तर प्रदेश)*
    मोबाइल 99976 15451

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