रविवार, 7 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो पितृ..?

 


-सर। हमारे श्राद्ध आ रहे हैं। हम ही नहीं होंगे तो श्राद्ध कैसे होंगे?

मतलब क्या है? सीधे सीधे बोलो।

-सर। हम पृथ्वीलोक जाना चाहते हैं। 15 दिन की ही तो बात है। आ जाएंगे।

पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो? यहां अब कुछ तो है! 

-यह बात नहीं सर। आपकी कृपा से सब कुछ है। लेकिन पृथ्वी लोक तो पृथ्वी लोक है।

अगर हम यहीं से सब दिखा दें तो..?

-दिखा दीजिए। लेकिन हम जाना चाहते हैं। 

वहां ऐसा है क्या, जो जाना चाहते हो? नारद जी का भी यहां मन नहीं लगता?

-सर। आपको नहीं पता। वहां बहुत सुविधाएं हैं। 

कैसे? 

-सर। हम सीनियर सिटीजन होकर मरे या यमराज जबरदस्ती ले आए। मरे न आखिर।

हां

-वहां वाईफाई है। चैनल हैं। चैलेंज हैं। तकरार है। प्यार है। इजहार है। दुत्कार है। राजनीति है। 

यह क्या अच्छी बात है?

-न हो। मन तो लगता है वहां। टीवी पर संसद देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। 

हां। मैने भी देखा। लोग मेरे नाम पर दुकान चला रहे हैं। लेकिन हे पितृ! तुमको वहां अब कुछ नहीं मिलेगा। तुम निष्प्राण हो।

-यह सब भी आपकी कृपा से है। हम कोई अपने आप मरे?

नहीं। तुमको दुनिया ने मारा। अपनों ने मारा। तुम्हारा सब कुछ हजम कर गए।

-सर जी। बातों में मत उलझाओ। जाने दो।

ठीक है। जाओ। मगर हालात बदल गए हैं। 

तुम खुद देख लेना। तुमको काले तिल, दूध और पानी भी नहीं मिलेगा? तर्पण भूल गए हैं लोग।

-ऐसा नहीं होगा। मेरे अपने ऐसा नहीं कर सकते।

और सुनो। कुत्तों को पूरी सड़क पर खिला नहीं सकते। कोर्ट का ऑर्डर है। कौए गायब हो चुके हैं। गाय ? नारायण की आंखों में आंसू आ गए।

-सर जी। प्लीज जाने दो। इमोशनल न करो।

ठीक है। जाओ। 


सीन 2

पितृ पृथ्वी लोक में आ गए। लेकिन यह क्या? सब कुछ वैसा ही चल रहा है। कोई हमको याद नहीं कर रहा। कहीं श्राद्ध हो रहा है। ज्यादातर नहीं। सब बिजी हैं। कहते हैं, पितृ अमावस्या पर कर देंगे ! 

मेरे अपनों ने पंडित जी को बोल दिया..आपको पेमेंट कर देंगे। आप कर देना।किसी ने बरसी पर सब निबटा दिया।

मेरे अपनों को यह भी नहीं पता, मेरी मोक्ष तिथि क्या है? 

नारायण! आपने सच कहा। दुनिया बदल चुकी है। परदादा, परनाना के नाम की क्या कहें? दादा नाना के नाम लोगों को याद नहीं। इनको जीएसटी की छूट याद है। हमारी नहीं।

सब संस्कारों का तर्पण कर चुके हैं। ॐ शांति।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघु कहानी.... खूबसूरती

 


"मैडम जी हमारा काम निपट गया अब हम घर जा रहे हैं। " कस्तूरी ने अपना झोला उठाते हुए कहा। "हाँ हाँ..चली जाना...थोड़ी देर सुस्ता तो ले। " मंदाकिनी ने टीवी का रिमोट उठाते हुए कहा। कोई सीरियल चल रहा था शायद जिसमें बला की खूबसूरत लड़कियाँ अभिनय कर रही थीं। 

कस्तूरी नीचे जमीन पर ही बैठने लगी तो मंदाकिनी ने डाँटते हुए कहा। "अरे उपर ही बैठ जा...जब देखो तब गिल्ट फील कराती रहती है...यह मजबूरी है नहीं तो कभी कोई बाई नहीं लगाती   । " मंदाकिनी ने अपने पेट को पकड़ते हुए कहा। आठ महीने की पेट से थी वह। 

"अरे मैडम ऐसा क्यों कह रही हो ?...आपने तो हम जैसे असहाय गरीब लोगों को काम देकर हम पर उपकार ही किया है। " कस्तूरी की आवाज में एहसान का पुट था। "मैडम जी एक बात पूछे?" कस्तूरी ने डरते हुए पूछा। 

"हाँ हां...दस पूछ। " मंदाकिनी ने किशमिश मुँह में रखते हुए कहा। 

"जे हीरोइन कितनी सुंदर होती हैं न!" कस्तूरी ने मासूमियत से कहा। 

"अरे सब मेकअप का कमाल है...इतनी ज्यादा भी खूबसूरत नहीं होती ये। " मंदाकिनी ने हँसते हुए कहा। 

"क्या मेकअप से हम भी खूबसूरत लग सकते हैं?" कस्तूरी ने फिर से सवाल किया। 

उसकी बात सुनकर मंदाकिनी आश्चर्य से उसका मुँह देखती रह गई। 

"ठीक है मैडम जी हम चलते हैं...बच्चे इंतजार कर रहे होंगे...बिटिया के एग्जाम होने वाले हैं। " कहती हुई कस्तूरी एकदम से उठ खड़ी हुई। 

मंदाकिनी मुस्करा भर दी। उसके जाते ही मंदाकिनी ने एक गहरी सांस ली और सोचने लगी। "खूबसूरती की कितनी तुच्छ सी परिभाषा हमारे इस समाज द्वारा निर्धारित कर दी गई है।"

"गोरा रंग और स्त्रियों के तीखे नाक नक्श। " यानी शारीरिक सुंदरता। मन की सुंदरता को तो जैसे बिल्कुल इस समाज ने दरकिनार ही कर दिया है। "मंदाकिनी ने गहरी सांस ली और जोर से सिर हिलाया जैसे कह रही हो कि कुछ भी नहीं हो सकता इस समाज का । वह न चाहते हुए भी खुद को रिलेक्स करने की लिए कोई पुराना सा लोक गीत गुनगुनाने लगी ...और उस दिन की घटना याद आ गई। 

दरवाजे की घंटी बजते ही उसने दरवाजा खोला तो सामने साँवरी सलोनी सी कोई पच्चीस साल की लड़की खड़ी थी। 

"मैडम नमस्ते। " उसने झेंपते हुए कहा। 

"नमस्ते...क्या चाहिए?"

"मैडम काम..!"

"काम तो कोई नहीं है अभी....वैसे क्या काम कर लेती हो?"

"मैडम झाड़ू पोछा  ...बर्तन....!"

"खाना बना लेती हो?"

"हाँ हाँ...बना लेती हूँ। "

"ठीक है...कल से आ जाना...। "

"धन्यवाद मैडम....आपने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी। " उसने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा। 

अगले दिन वह काम पर आई...मंदाकिनी ने पति जतिन को जब इसके बारे में बताया तो वह भी खुश हुआ क्योंकि उसकी घर बैठे ही बहुत बड़ी समस्या हल जो हो गई थी। 

खाना तो इतना लजीज बनाया कस्तूरी ने कि पूरा घर ही कस्तूरी सी महक से खिल उठा। 

"घर में कौन कौन है तुम्हारे?"

"मम्मी पापा और दो बच्चे मेरे!"

"और पति?" मंदाकिनी ने जिज्ञासावश पूछ लिया। 

"वे हमारे साथ नहीं रहते। " उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। 

मंदाकिनी ने आगे पूछना उचित नहीं समझा। 

"मैडम पूछा नहीं आपने...मुझे उन्होंने क्यों छोड़ दिया?" उसका प्रश्न सुनकर मंदाकिनी चौंक गई। 

"मैं बदसूरत हूँ न...मेरी मोटी नाक...बड़े दांत और यह क़ाली चमडी़। " कहते हुए वह रुआंसी हो गई। 

तथाकथित खूबसूरती से वह कोसों दूर जरूर थी लेकिन उसके भीतर एक कुशल स्त्री के सभी गुण मौजूद थे जो कि उसके पति को शायद नजर ही नहीं आये। कितनी शालीनता है इसके व्यवहार में और कर्तव्यनिष्ठा भी। अपने बच्चों को अपने दम पर पाल रही है। 

तभी डोर की घंटी बजी....दरवाजा खोला तो सामने कस्तूरी खड़ी थी। 

"अरे तुम फिर आ गई!"

"हाँ....कल न मेरी बेटी का जन्म दिन है...इसलिए थोड़ा लेट हो जाऊंगी मैडम। " उसने खुशी से चहकते हुए कहा। 

"ठीक है कस्तूरी...बस ऐसे ही खिली खिली रहा करो कस्तूरी सी...और हाँ....तुम्हें किसी क्रीम और मेकअप की जरूरत नहीं है....तुम बहुत खूबसूरत हो...खुद की नजर से देखा करो खुद को। "मंदाकिनी ने मुस्कराते हुए कहा। 

" हां मैडम जी...तभी तो जिंदा हैं...नहीं तो कब के खाक में मिल गए होते। "उसने हँसते हुए जवाब दिया। 

 मंदाकिनी की सारी शंकायें और डर धरे के धरे रह गए। उसको बहुत खुशी हुई। 


✍️राशि सिंह 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य.....कल्लू के बाल और सवाल

 


गांव में सर्वे हुआ। कितने बच्चे पढ़ना चाहते हैं। बीस बच्चे निकले। यह कम थे। फिर सर्वे हुआ। अबकी बार 18 निकले। दो घट गए। फिर सर्वे हुआ...बच्चे क्यों घट रहे हैं। स्कूल है। इमारत है। मास्टर हैं। बच्चे क्यों नहीं आ रहे। मास्टर पांच थे। बच्चे 18..। कोटा दिया। हर मास्टर पांच बच्चे लेकर आए। फिर सर्वे हुआ..बच्चे चाहते नहीं या अंदर से इच्छा शक्ति नहीं है।  पता लगा..पहले चाहते थे। अब नहीं चाहते। माथा ठनका। इसका मतलब..पढ़ाई ठीक नहीं। मास्टर जी का टेस्ट लो। 

अब मास्टर जी टेस्ट दे रहे हैं। बच्चों को फिर भी "टेस्ट" नहीं आ रहा। पहले मुर्गा बनते थे। अब खुद मुर्गा बन रहे हैं। गांव का कल्लू बहुत होशियार था। हर सवाल का जवाब देना उसके बाएं हाथ का खेल था। गांव के स्कूल में निरीक्षण हुआ। कल्लू से पूछा गया..कौन सी ऐसी चीज है जो रहती तो वही है लेकिन उसका स्थान बदलते ही नाम चेंज हो जाता है। कल्लू उस्ताद बताते गए। सिर के बाल। कान के बाल। नाक के बाल। पलकों के बाल। बगल के बाल। सीने के बाल। कल्लू कुछ और बोलता। निरीक्षक ने रोक दिया। स्कूल पास। पहली शिक्षक पात्रता परीक्षा मास्टर जी ने पास कर ली।

मास्टर जी ने कल्लू को बुलाया। "सुन। मैं तो तुझको उल्लू समझता था। यह तूने तो कमाल कर दिया ? "

कल्लू बोला..मास्टर जी! छोटी सी तो बात थी। कह दी।

बाल में से बाल निकल सकता है तो खाल क्यों नहीं निकल सकती ? कुछ दिन बाद कल्लू के मास्टर जी, हेड मास्टर हो गए। कल्लू बोला..आपकी किस्मत ही खराब है। मुझे और बोलने देते तो आज प्रिंसिपल होते।

शिक्षक। निरीक्षण। स्कूल। ये 19 का पहाड़ा है। अच्छी तरह याद नहीं होता। कल्लू बड़ा होकर इंटर कॉलेज में गया। वहां कोई निरीक्षण नहीं था। कोई पहाड़ा नहीं पूछता था।

बोर्ड की परीक्षा थी। गारंटी थी..फेल तू होगा नहीं। कल्लू 99% से टॉपर। कल्लू यूनिवर्सिटी पहुंचा। सज धज कर। उसको तो अपना प्राइमरी स्कूल याद था। 

गेट पर ही उसके मुंह से निकला.. वाह। उसको बताया गया। यहां आने जाने की पूरी छूट है। आओ चाहे ना आओ। निरीक्षण की टेंशन मत लो। बड़े लेवल के निरीक्षण होते हैं। सब मैनेज हो जाते हैं। 

कल्लू बचपन से मास्टर बनना चाहता था। दिक्कत दो थी। एक वो गांव का था। दूसरे उसके बालों से सरसों का तेल निकलता था। कल्लू होनहार था। उसने बहुत डिग्री ले ली।  लेकिन कल्लू पात्र नहीं था। उसको उसके बाल वाले मास्टर जी ने सलाह दी..टीईटी करनी होगी। 

कल्लू की क्वालिफिकेशन इससे ज्यादा थी। उसने गूगल बाबा से पूछा..शिक्षक कैसे बनें? गूगल बाबा ने लिस्ट थमा दी...ये करो। वो करो।

कल्लू ने फिर पूछा..शिक्षक बनने के लिए क्या जरूरी है। जवाब मिला...मेहनत, ईमानदारी, आत्म विश्वास, समर्पण। आप युग निर्माता है।

कल्लू तो कल्लू था। समझ गया। मुर्गा बनाया जा रहा है। जब टीईटी करानी थी तो बीएड क्यों कराया ? मास्टरों की योग्यता कौन मापेगा ? बहरहाल। गूगल बाबा के रस्ते पर चलकरकल्लू की नौकरी लग गई। अब वह डेली हनुमान चालीसा का पाठ करता है। आते जाते हर वक्त वही रटता है... भूत पिशाच निकट नहीं  आवे...संकट कटे मिटे सब पीरा। 

कल्लू की सैलरी अच्छी थी। बस आराम नहीं था। टेंशन बहुत थी। यह करो। वो करो। कभी यह भरो। कभी वह भरो। यह चुनाव कराओ। वो कराओ। 

कल्लू को अपने जीवन का पहला सवाल याद आ गया.. वही कौन सी ऐसी चीज है..जो स्थान  बदलने पर नाम बदल देती है लेकिन रहती वही है। तब उसने बाल बताया था। आज उसके मुंह से निकला..मास्टर।

प्राइमरी स्कूल में मास्टर, गुरुकुल में गुरु, माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक या अध्यापक, डिग्री कॉलेज में टीचर, असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रोफेसर, डीन आदि आदि। कल्लू बोला..एक शिक्षक...इतने सारे नाम। 

समय बदलते देर नहीं लगती। कुछ दिन पहले कल्लू ने प्रियंका चोपड़ा का इंटरव्यू पढ़ा। कैसे वो काली थी। लोग उसे चिढ़ाते थे। फिर कैसे वो सुंदरी बन गई। बॉलीवुड हॉलीवुड पर छा गई। कल्लू राजनीति में आ गया। कल्लू जान गया...बेंत, स्टूल, सीट, मुर्गा का दौर गया। मुर्गा बनना नहीं, बनाना है। मुर्गा जब मटन हो सकता है। तो कल्लू "केएल" क्यों नहीं हो सकता? कल्लू के अब कई कॉलेज और प्राइवेट यूनिवर्सिटी है। वह कुलाधिपति है। 

कल्लू के बालों से अब सरसों का तेल नहीं निकलता।  कल्लू के दो बच्चे हैं। स्कूल जाते हैं। पीटीए होती है। उसकी मम्मी पीटीए में झगड़कर आ जाती है।" टीचर को कुछ नहीं आता। बताओ, कोई बात हुई ...मासूम से बच्चे को डांट दिया।"

कल्लू को अपनी पुरानी बेंत याद आ गई। जिसने कल्लू को केएल बनाया। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... गड़ा मुर्दा उखड़ गया..जी!

 


मुर्दा जब गड़ गया। फिर उसको उखाड़ने की क्या जरूरत थी। इसके पीछे दो कारण होंगे। पोस्ट मार्टम न कराया हो। या ठीक से न गड़ा हो। पोस्ट मार्टम पहले होता नहीं था। सो, पहली बात गलत है। ठीक से न गड़ा हो?  यह हो नहीं सकता। हजारों लोग जनाजे में थे। सबने चेक किया था। फिर गड़ा मुर्दा बाहर आया तो कैसे आया? शायद उसको कोई बात बुरी लगी होगी। किसी ने गाली दी होगी। मुर्दे को बदला लेना होगा। कोई अंतिम इच्छा पूरी न हुई हो। लोग कफन डाल गए। उसको ठंड लग रही हो। वगैरह वगैरह। 

जब मुहावरा बना होगा। मुर्दा उखड़ा होगा। वरना...? मुहावरे के महान रचयिता को क्या पता.. मुर्दा उखड़ा। उस वक्त चैनल होते तो ब्रेकिंग न्यूज होती। बेचारा मुर्दा। कितनी बड़ी अपॉर्च्युनिटी मिस कर गया। 

मुर्दा उखड़े न उखड़े। एक दिन उखड़ता जरूर है। क्या मुर्दे की तरह पड़ा है? मुर्दे में जान आ गई? क्यों मुर्दे को गाली देते हो? वो चाहे तो मुर्दे में भी जान डाल दे। देखो..मुर्दा अकड़ गया। चिता बहुत "अच्छी जली"। मुर्दे ने जरा भी तंग नहीं किया। आराम से जल गई। ये..ऊंची लपटें! एक मुर्दा, सौ रूप।

हम बिस्तर पर पड़े थे। अम्मा आई...क्या मुर्दे की तरह पड़ा है, कुछ करता धरता क्यों नहीं? अब अम्मा को कौन कहे..हम दुनिया का सबसे नेक काम कर रहे हैं... रील्स देख रहे हैं। 

मुर्दे की बात छोड़ो। यह वाइड डिस्कशन का विषय है। उखाड़ने और उखड़ने पर आते हैं। यह एक आर्ट है। यह हर किसी को नहीं आती। किसी को उखाड़ना आसान भी नहीं होता। बड़ा आदमी कभी नहीं उखड़ता। किसी की हिम्मत भी नहीं जो उसको उखाड़ दे।

 इसको उदाहरण के साथ समझिए। कवि सम्मेलन में जमता कौन है? बड़ा कवि। उखड़ता कौन है? छोटा कवि या विरोधी कवि। क्यों? बड़े कवि ने संचालक को देखा। कनखियों में बात हुई। मकसद साफ। बहुत तैश खाता है। अपने को उस्ताद समझता है...उखाड़ दो। बस शतरंज की चौपाल बिछ गई। सबसे पहले उसको खड़ा कर दिया। निबट गया। वीर रस के बाद असहाय रस डाल दिया। निबट गया। संचालक इसमें निपुण होता है। उसको पता  है,  कब किसको क्यों और कैसे उखाड़ना है। 

हम सब जीवन के कवि सम्मेलन में हैं। रोज यही करते हैं। हमारे मन का मुर्दा उखड़ कर हमसे पूछता है..क्या हुआ? वो उखड़ा क्या ? नहीं उखड़ा तो? हम जमेंगे कैसे?  कुछ करो। कुछ उखाड़ो।

लगता है, यहीं से पोस्ट मार्टम की नींव पड़ी। पीएम रिपोर्ट बताती है..मुर्दा क्यों गड़ा और क्यों उखड़ा ? वह मरा तो क्यों मरा? 

गड़े मुर्दे उखाड़ना समय, काल, परिस्थितियों और सियासत के लिए जरूरी है। वो क्या है न...इससे पुरानी बातें रिकॉल हो जाती हैं। याद बनी रहनी चाहिए। मुर्दा  और वोट दोनों बाहर। 

पितृ पक्ष आ रहा है जी। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

बुधवार, 3 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... बत्ती चली गई


बत्ती कभी भी जा सकती है। बत्ती जाना और बत्ती निकालना दोनों का ही महत्व है। बत्ती के कई रूप हैं। वह वीआईपी में पावर है। पावर ऑफ एनर्जी। मध्यम वर्ग में बिजली। निम्न आय वर्ग में बत्ती। उच्च शुद्ध समुदाय में विद्युत।

विद्युत आ गई। विद्युत चली गई। इस जैसे मुहावरे को सिर्फ बिजली विभाग समझता है। इसका सामाजिक महत्व नहीं है। बहुत सी चीजें चलन से बाहर हुईं हैं। इसमें विद्युत भी है। जिन चीजों से करंट लगे या आउट डेटेड हों उनको चलन से बाहर कर देना चाहिए यथा घूंघट, चुनरी, चरण स्पर्श आदि। 

शर्मा जी की बिजली चली गई (गलत मत सोचो, घर की लाइट चली गई। पत्नी घर में ही है)। शर्मा जी ने हेल्प लाइन नंबर पर फोन किया। वो सर्विस से बाहर था। बिजली घर फोन किया। नहीं मिला। टू टू की आवाज आती रही। शर्मा जी भी थके नहीं। बिजली आए या न आए...आज बिजली वालों का फोन उठाकर ही मानूंगा।

तीन घंटे हो गए। टू टू होती रही। अरे....मुबारक हो....उठ गया। 

बिजली कब आएगी? शर्मा जी ने पूछा।

"अच्छा। लाइट। ऊपर से गई है। फोन कट।"

शर्मा जी छत पर गए। बिजली वाले झूठ क्यों बोलेंगे? ऊपर से ही गई होगी। चारों तरफ अंधेरा। अंधेर नगरी चौपट राजा। कुछ देर बाद लाइट आ गई। फिर चली गई। 

बिजली जाना कोई खबर नहीं है। बिजली आना खबर है। रोज रोज की दिक्कत। शर्मा जी ने सोचा...बिजली कटवा दूं। पीडी ( परमानेंट डिस्कनेक्शन) हो जाएगा तो सोलर लगवा लूंगा।

"आप पीडी क्यों कराना चाहते हैं।"

लाइट नहीं आती।

"तो इसमें पीडी की क्या जरूरत। पत्नी मायके चली जाए तो क्या उसे छोड़ देंगे?"

नहीं साब। हमको बिजली चाहिए ही नहीं।

ठीक है। यह फॉर्म भर दो। जेई चेक करेगा। कटनी चाहिए या नहीं। ( जेई वो प्राणी है जो हर जगह पाया जाता है। नाना रूप धरे ये जेई।)

कई बार फोन करने पर जेई शुभ मुहूर्त में आया। मुस्कुराया। मलाई के कोफ्ते के मानिंद नमस्कार किया। शर्मा जी को अंकल कहा। "अंकल जी, काम हो जाएगा। आजकल बहुत दिक्कत हो रही है। सब परेशान हैं। हम और भी परेशान हैं। कोई बिजली ठीक करने को नहीं कहता। सबको कटवानी है।"

"अंकल जी। आपका बिल तो बहुत आरा होगा?"

अरे भाई। हम दो ही तो प्राणी हैं। बच्चे बाहर हैं।  100 यूनिट भी नहीं आती।

"ऐसा क्यों अंकल! ( इस बार उसने जी नहीं लगाया। समझ गया। मुर्गी फंस गई।) 

आपके एसी है? पंखा है? फ्रिज है? टीवी है? फिर भी 100 यूनिट।"

शर्मा जी देखते रह गए। जेई ने मीटर शंट की रिपोर्ट दे दी। एक लाख की। जुर्माना लग गया।

"छी छी छी। सुना तुमने। शर्मा जी के यहां छापा पड़ा! बिजली चोरी पकड़ी गई।" पड़ोसी ने कहा।

दूसरा पड़ोसी-"वही तो मैं कहूं, अंकल आंटी कई इतनी बिजली फूंक रहे थे।"

शर्मा जी ने ऊपर कंप्लेंट की। गुरुत्वाकर्षण का  नियम है। ऊपर फेंकी चीज नीचे आती है। वहीं हुआ। दन दनादन फोन तो बहुत आए। जांच जेई पर ही आ गई। 

"शर्मा जी! ( अब अंकल भी नहीं बोला) ! आपने शिकायत की थी। बताइए, क्या कहना है?"

भैया! हमको कुछ नहीं कहना। शर्मा जी ने जैकेट में से पेंशन के रुपए निकाले। पांच सौ रुपए थमाए। 

"अंकल जी। अब बात ऊपर पहुंच गई है। अब तो...! " शर्मा जी जेब हल्की करते गए। बात बिजली गुल से शुरू हुई थी। कहां पहुंच गई। दीमक कभी घर छोड़ती है? नहीं न। बिजली आ रही है तो भगवान का धन्यवाद दीजिए। चली जाए तो धन्यवाद दीजिए। यह व्यवस्था है। इसका कुछ नहीं होने वाला। फ्यूज बल्ब कभी रोशनी नहीं देते।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ