मुर्दा जब गड़ गया। फिर उसको उखाड़ने की क्या जरूरत थी। इसके पीछे दो कारण होंगे। पोस्ट मार्टम न कराया हो। या ठीक से न गड़ा हो। पोस्ट मार्टम पहले होता नहीं था। सो, पहली बात गलत है। ठीक से न गड़ा हो? यह हो नहीं सकता। हजारों लोग जनाजे में थे। सबने चेक किया था। फिर गड़ा मुर्दा बाहर आया तो कैसे आया? शायद उसको कोई बात बुरी लगी होगी। किसी ने गाली दी होगी। मुर्दे को बदला लेना होगा। कोई अंतिम इच्छा पूरी न हुई हो। लोग कफन डाल गए। उसको ठंड लग रही हो। वगैरह वगैरह।
जब मुहावरा बना होगा। मुर्दा उखड़ा होगा। वरना...? मुहावरे के महान रचयिता को क्या पता.. मुर्दा उखड़ा। उस वक्त चैनल होते तो ब्रेकिंग न्यूज होती। बेचारा मुर्दा। कितनी बड़ी अपॉर्च्युनिटी मिस कर गया।
मुर्दा उखड़े न उखड़े। एक दिन उखड़ता जरूर है। क्या मुर्दे की तरह पड़ा है? मुर्दे में जान आ गई? क्यों मुर्दे को गाली देते हो? वो चाहे तो मुर्दे में भी जान डाल दे। देखो..मुर्दा अकड़ गया। चिता बहुत "अच्छी जली"। मुर्दे ने जरा भी तंग नहीं किया। आराम से जल गई। ये..ऊंची लपटें! एक मुर्दा, सौ रूप।
हम बिस्तर पर पड़े थे। अम्मा आई...क्या मुर्दे की तरह पड़ा है, कुछ करता धरता क्यों नहीं? अब अम्मा को कौन कहे..हम दुनिया का सबसे नेक काम कर रहे हैं... रील्स देख रहे हैं।
मुर्दे की बात छोड़ो। यह वाइड डिस्कशन का विषय है। उखाड़ने और उखड़ने पर आते हैं। यह एक आर्ट है। यह हर किसी को नहीं आती। किसी को उखाड़ना आसान भी नहीं होता। बड़ा आदमी कभी नहीं उखड़ता। किसी की हिम्मत भी नहीं जो उसको उखाड़ दे।
इसको उदाहरण के साथ समझिए। कवि सम्मेलन में जमता कौन है? बड़ा कवि। उखड़ता कौन है? छोटा कवि या विरोधी कवि। क्यों? बड़े कवि ने संचालक को देखा। कनखियों में बात हुई। मकसद साफ। बहुत तैश खाता है। अपने को उस्ताद समझता है...उखाड़ दो। बस शतरंज की चौपाल बिछ गई। सबसे पहले उसको खड़ा कर दिया। निबट गया। वीर रस के बाद असहाय रस डाल दिया। निबट गया। संचालक इसमें निपुण होता है। उसको पता है, कब किसको क्यों और कैसे उखाड़ना है।
हम सब जीवन के कवि सम्मेलन में हैं। रोज यही करते हैं। हमारे मन का मुर्दा उखड़ कर हमसे पूछता है..क्या हुआ? वो उखड़ा क्या ? नहीं उखड़ा तो? हम जमेंगे कैसे? कुछ करो। कुछ उखाड़ो।
लगता है, यहीं से पोस्ट मार्टम की नींव पड़ी। पीएम रिपोर्ट बताती है..मुर्दा क्यों गड़ा और क्यों उखड़ा ? वह मरा तो क्यों मरा?
गड़े मुर्दे उखाड़ना समय, काल, परिस्थितियों और सियासत के लिए जरूरी है। वो क्या है न...इससे पुरानी बातें रिकॉल हो जाती हैं। याद बनी रहनी चाहिए। मुर्दा और वोट दोनों बाहर।
पितृ पक्ष आ रहा है जी।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

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