प्यारेलाल उम्र से पूरे पक चुके हैं लेकिन आज तक समझ नहीं आया कि कब उन्हें पॉजिटिव होना चाहिए और कब निगेटिव।उन्हें तो देव दानव ,जीवन और मृत्यु ,सत असत के द्वंद्व का ही पता है जो शाश्वत और सनातन है।सकारात्मकता और नकारात्मकता में वह बात नहीं। मोटी अकल और रटंत विद्या वालों की यही दिक्कत है कि अगर वे कहीं चौराहे पर फँस जायें तो उनकी बाँये और दाँये की समझ ही गायब हो जाती है क्योंकि वे उल्टा और सीधा ही समझ पाते हैं या लेफ्ट और राइट ।वो तो भला हो ध्रुवतारे का जो हमेशा उत्तर में रहता है अन्यथा ज्यादातर लोग पूर्व और पश्चिम भी नहीं पहचान पाते जैसे कुछ भले आदमी ध्रुवतारे को ही नहीं चीन्ह सकते।उनके लिये मामूली सी दूरी भी बिल्लात यानी विलायत है।
प्यारेलाल को बचपन से सीधे रास्तों पर चलने की आदत है इसलिए वे कभी वृंदावन नहीं गये क्योंकि उन्हें कुंज गलियों में फँसने का डर है।उन्हें तो वसंत कुंज में अपने भाईसाब का घर ढूँढने में ही घण्टों लग जाते हैं क्योंकि वहाँ कोई भला आदमी पडौसी का नाम और नम्बर तक नहीं जानता।इन तमाम हालात के लिये कोई और नहीं वे खुद जिम्मेदार हैं।दरअसल उन्हें बचपन से ही जीवन के जो सूत्र और सुभाषित घुट्टी में पिलाये गये हैं युधिष्ठिर की तरह वे उनके दिमाग से निकलते ही नहीं।मसलन शिव संकल्प सूक्त सहित कृपया बाँये चलें,धीरे चलें, घर पर कोई आपका इन्तज़ार कर रहा है,सत्यं वद धर्मं चर,परहित सरिस धर्म नहिं भाई।वे शमशान में विवाह के गीत तो नहीं गा सकते।अब कोई कुछ भी कहे वे अपने मार्ग से डिगते नहीं।कोई कृष्ण ही उनका दुरुपयोग कर सकता है।
प्यारेलाल एकला चलो में परम विश्वास रखते हैं।साँयकालीन भ्रमण में जब सारे रिटायर्ड बुजुर्ग पेंशन,फंड,डीए ,बेटे बहुओं ,पडौसियों के सामूहिक निंदा रस में तल्लीन रहते हैं तब वे अपने आध्यात्मिक आनंद में पेड़,पौधों,फूलों और चिडियों को एकटक निहारते रहते हैं।यह वैराग्यपूर्ण गैर दुनियादारी उन्हें घर में भी अजनबी बनाये रहती है।यों खुद को व्यस्त रखने के लिये उन्होंने पाजिटिव थिंकर्स फोरम और लाफ्टर क्लब की सदस्यता ले रखी है जहाँ वे निरंतर सादा जीवन उच्च विचारों का प्रचार करने में लगे रहते हैं लेकिन नकली ठहाके झेलना उनके बस का नहीं ।उन्हें संसार में विपक्ष तक निगेटिव नजर नहीं आता।विज्ञान और दर्शन के सामंजस्य से उन्होंने जो जीवन दर्शन गढा है उसमें बिजली की तरह पाजिटिव और निगेटिव सृष्टि के विकास के दो अनिवार्य तत्व हैं।
लेकिन जबसे प्यारेलाल को डाक्टरों ने कोरोना पाजिटिव घोषित किया है उनका यह विश्वास धराशायी हो गया है।जैसे पूरी दुनिया में उल्टी गंगा बहने लगी है।वे बाबा के सुर में गाने लगे हैं -अब लौं नसानी अब न नसैहों।जैसे यही उनकी आईसीयू, आक्सीजन और रेमीडिसिवर है।अब उनका जिंदगी का फलसफा बदल गया है।अब सन्दर्भ और प्रसंग के बिना वे कोई बात नहीं करते।अब तक वे थरूर की अंग्रेजी से ही परेशान थे लेकिन कोरोना और मनोविज्ञान की अजीबोगरीब भाषा के जंजाल ने उनका जीना हराम कर दिया है।डिक्शनरी भी फेल है ।वे समझ गये हैं कि जिंदगी में और मेडिकल की तरह अलग-अलग अनुशासनों की भाषा में जमीन आसमान का फर्क है।इस कलिकाल में खग जाने खग ही की भाषा और ठग जाने ठग ही की भाषा।अवसाद से बचने का यही एकमात्र मध्यमार्ग है।परधर्म में टाँग अडाने या उसमें खाहमखाह घुसाने से उसके टूटने का खतरा है।अंत में उनका निष्कर्ष कि हमेशा पाजिटिव होने से बचो ,जिन्दा रहने के लिये कभी कभार निगेटिव होना भी जरूरी है।यों भी इतिहास गवाह है कि निगेटिव ऊर्जा सदैव से पाजिटिव से ज्यादा ताकतवर होती आई है।जरा सी चींटी पहाड जैसे हाथी को हिला देती है और जरा सा नीबू क्विंटलों दूध को सेकेंड्स में फाड़ देता है।
✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम
शक्ति नगर,चंदौसी,संभल 244412
मोबाइल 8218636741
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