जस्टिस भंडारी को सुबह सुबह ही एक महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई हेतु नियुक्त किये जाने का आदेश मिला। उनका अर्दली रामभरोसे बाहर नियुक्ति के आदेश और मामले से जुड़े दस्तावेजों के साथ खड़ा था। महामारी के चलते जस्टिस भंडारी यदा कदा ही न्यायालय जाते हैं। घर से ही ऑनलाइन मामलों की सुनवाई करते हैं, बहुत अधिक गंभीर मामलों के लिए ही वो न्यायालय जाते हैं। जस्टिस भंडारी, जी हाँ जस्टिस निर्मल चंद्र भंडारी जो कि भारत की उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के विशेष न्यायाधीशों में से एक हैं। वरिष्ठता और कार्य कुशलता के कारण सभी उनका सम्मान करते हैं। चाय की मेज पर मामले की फाइल पढ़ते हुए जस्टिस भंडारी के मुख पर एक तिरछी मुस्कान खिंच गयी थी। उनके स्टेनो विकास ने उनसे पूछा,'सर, क्या इस केस को भी ऑनलाइन सुनवाई के लिए चिन्हित कर दूँ?'
'नहीं विकास, ये मामला तो न्यायालय में ही सुनने योग्य है। इस विषय के दोनों पक्षों को प्रत्यक्ष रूप से सुने बिना इस मामले की वास्तविक गंभीरता समझ नहीं आएगी। इसके दोनों पक्षकारों को तारीख दे दो और प्रत्यक्ष सुनवाई के लिए प्रेषित कर दो', जस्टिस भंडारी विकास को यह कहकर तैयार होने चले गए।
दोपहर के भोजन के बाद जस्टिस भंडारी पुनः उस मामले को विस्तार से पढ़ने के लिए बैठे। यह एक स्वतंत्र याचिका थी जो कि एक अधिवक्ता ने दाखिल की थी। इसका शीर्षक था, 'महामारी के कारण देशभर के स्कूल और शैक्षणिक संस्थान आगामी एक सत्र के लिए बंद किये जाने के सम्बन्ध में'। यूँ तो देश का संविधान हर किसी को अपनी किसी भी समस्या के लिए न्यायालय जाने के लिए स्वतंत्रता देता है, परन्तु इस सुविधा के चक्कर में कई बार बेफिजूल की याचिकाएं अदालतों का समय बर्बाद करती हैं। कई बार झूठी प्रशंसा और समाचारों का पर्याय बनने के उद्देश्य से अनूठी और बेकार की याचिकाएं बेवजह न्यायालयों पर भार बढ़ाती रहती हैं। इनका कोई मूल उद्देश्य तो होता नहीं और इनके चक्कर में अन्य उपयोगी मामले लंबित हो जाते हैं। खैर, केस की फाइल पढ़ते पढ़ते कब रात हो गयी, पता ही नहीं चला। मिसेज भंडारी ने जब रात के भोजन के लिए जस्टिस भंडारी को आवाज दी तब जाकर उनकी चेतना टूटी। भोजन करते करते मिसेज भंडारी ने पूछ ही लिया, 'क्या कोई नया अनूठा केस है? बड़ी तल्लीनता के साथ पढ़ रहे हो'। 'स्वतंत्र याचिकाएं तो अक्सर अनूठी ही होती हैं। यह मामला अनूठा तो है लेकिन साथ ही साथ थोड़ा गंभीर भी है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया।
'ऐसा क्या हैं इसमें?' मिसेज भंडारी ने उत्सुकता वश पूछा। 'कोरोना की वजह से एक साल तक स्कूल बंद करने की याचिका है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया जिसे सुनकर पहले तो मिसेज भंडारी थोड़ा चौंक गयीं, फिर थोड़े समय बाद उन्होंने एक तिरछी मुस्कान देते हुए पूछा 'ओह, तो मतलब अब स्कूल एक साल के लिए बंद किये जायेंगे?' 'ये तो आप फैसला सुना रही हैं, मैंने भी अभी तक निर्णय नहीं किया है', जस्टिस भंडारी ने कहा।
'अब ये तो आप ही जाने जज साहब, आपको क्या करना है क्या नहीं, लेकिन मुझे इस विषय में रुचि अधिक है। मुझे प्रतिदिन इस केस की सुनवाई के बारे में बताइयेगा जरूर'। यह बोलकर मिसेज भंडारी काम निपटाने रसोईघर में चली गयीं।
अगले दिन प्रातः तैयार होकर जस्टिस भंडारी कोर्ट पहुंचे। महामारी के चलते सिर्फ मामले से जुड़े पक्षकार, अधिवक्ता और कर्मचारी ही उपस्थित थे। याचिकाकर्ता खुद एक अधिवक्ता, सुरेन्द्रनाथ तिवारी थे। अधेड़ उम्र के एक अधिवक्ता, जिनकी ख्याति कुछ खास नहीं थी। वे अपने अतरंगी अंदाज और अनोखी याचिकाओं के लिए जाने जाते थे। हालाँकि उनको कई बार उनकी इन्ही अनोखी याचिकाओं के लिए कोर्ट से फटकार लग चुकी थी। लेकिन उनका यही अंदाज उनकी ख्याति का कारण था। इस पक्ष में दूसरी तरफ अधिवक्ता थे सुधांशु चतुर्वेदी, एक युवा लेकिन तेज तर्रार अधिवक्ता जो हाल ही में विधि में परास्नातक की शिक्षा पूरी कर सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्र नाथ चौबे के निर्देशन में कार्य कर रहे थे। खैर, अदालत की कार्यवाही शुरू हुई, जस्टिस भंडारी ने कोर्ट रूम में पहुँच अपना स्थान ग्रहण किया। औपचारिकताएं जांचने के बाद बहस और दलीलों का दौर शुरू हुआ। सबसे पहले जस्टिस भंडारी ने मुख्य याचिकाकर्ता तिवारी को अपना पक्ष रखने के लिए कहा। तिवारी जी बड़े ही जोश और उमंग के साथ खड़े हुए जैसे मानो वो एक ही दलील में केस जीत लेंगे। रौबदार तरीके से चलते हुए वो अपनी जगह तक पहुंचे और फिर उन्होंने शुरू किया, 'योर ऑनर, हम इस समय इस वक़्त की सबसे बड़ी भयंकर समस्या से दो चार हो रहे हैं। इस महामारी ने अपनी चपेट में पूरे विश्व को ले लिया है और हमारा सामान्य जीवन इससे प्रभावित हुआ है। इस महामारी के प्रकोप से बचने के लिए पिछले कई महीने से देश भर में लॉकडाउन किया गया था, जो कि अब समय के साथ धीरे धीरे खोला जा रहा है। बंद उद्योग खोले जा रहे हैं ,बाजार खोले जा रहे हैं, कार्यालय खोले जा रहे हैं लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि खतरा अभी भी कम नहीं हुआ है। संक्रमण का खतरा अभी भी बना हुआ है, और विशेषतौर पर बच्चों के लिए ये खतरा बना हुआ है, और इसी के मद्देनजर मैं जनहित में देश के सभी शिक्षण संस्थानों को आगामी पूरे सत्र के लिये बंद किये जाने की मांग करता हूँ ' इसी के साथ एडवोकेट तिवारी ने अपनी याचिका की प्रस्तावना को अदालत के सामने व्यक्त किया।
याचिकाकर्ता का पक्ष सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने बचाव पक्ष के अधिवक्ता को अपना पक्ष रखने को बोला।
सुधांशु बड़े ही अदब और सलीके के साथ खड़ा हुआ , उसने आँखों से जस्टिस भंडारी को अभिवादन किया और फिर उसने शुरू किया, ' योर ऑनर , मेरे काबिल दोस्त ने महामारी के प्रभावों का बड़ी ही कुशलता से वर्णन किया है। ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि इस महामारी ने हमारे जनजीवन को बहुत प्रभावित किया है। संक्रमण का खतरा निश्चित ही बना हुआ है और बच्चों के प्रति उनकी इस सुरक्षा भावना का मैं निश्चित ही सम्मान करता हूँ। वाकई ये समस्या जटिल है कि ऐसे वक्त में जबकि हम अस्त व्यस्त जीवन को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं ऐसे वक्त में संक्रमण के खतरे के साथ परिस्थितियों को सामान्य कैसे किया जाये? उसमें भी याचिकाकर्ता पक्ष की तरफ से ऐसी याचिका जो सबकुछ सामान्य होने की राह में रोड़ा अटकाने जैसा है। हमने पिछले तीन महीनों में काफी कुछ सीखा है मीलॉर्ड, और उसमें से एक चीज ये भी कि हमें हार नहीं माननी है। हमें एक दूसरे का साथ देते हुए फिर से एक बार खड़े होना है। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि मेरे काबिल दोस्त शिक्षा जैसी मूल आवश्यकता पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं। वे स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद करने की बात कर रहे हैं जबकि ऐसे वक़्त में हमें शिक्षा और ज्ञान ही इस बुरे वक्त से निकाल सकता है। इससे न केवल छात्रों का भविष्य संकट में पड़ जायेगा बल्कि अनेक लोगों की जीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा , लिहाजा शिक्षण संस्थानों को सत्र भर के लिए बंद करना कतई उचित नहीं होगा'।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने मामले की बहस जारी रखने के लिए अगली तारीख दे दी। केस स्वीकार कर लिया गया था। शाम को खाने के वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से उत्सुकतावश पूछा, 'कैसा रहा पहला दिन? क्या केस स्वीकार किया गया?' ' हाँ , कल से इस पर बहस होगी', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया। 'क्या लगता है आपको, फैसला किस ओर जायेगा?' मिसेज भंडारी ने पूछा। 'ये अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ इसकी दलीलें जरूर दिलचस्प होंगी, क्यूंकि इस मामले में ज्यादा कानूनी दांवपेंच नहीं हैं। ठोस दलील के बलबूते ही इसका निर्णय किया जायेगा', जस्टिस भंडारी ने कहा।
अगले दिन की कार्यवाही के लिए सभी पक्षकार उपस्थित हुए। याचिकाकर्ता अधिवक्ता तिवारी ने अपनी याचिका के समर्थन में कई शोध आख्याएँ प्रस्तुत कीं। वहीँ बचाव पक्ष के अधिवक्ता सुधांशु ने भी कई साक्ष्य अपने तर्क के समर्थन में दिए। अब समय था मुख्य बहस का, जो कि मध्यावकाश के बाद होनी थी। भोजनावकाश के बाद तिवारी जी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ,' योर ऑनर, इन शोध आख्याओं से स्पष्ट है कि स्कूलों के खोले जाने के बाद बच्चों में संक्रमण और तेजी से फैलेगा, लिहाजा बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किया जाए'।
अब बचाव पक्ष ने अपना कथन दिया,'मीलॉर्ड,बेशक बच्चों के लिए संक्रमण का खतरा है, लेकिन मैं याचिकाकर्ता से पूछना चाहता हूँ कि क्या स्कूलों को बंद किया जाना इसका विकल्प है? क्या इससे बच्चों के भविष्य का खतरा नहीं हो जायेगा?' बीच में ही तिवारी जी कूद पड़े 'योर ऑनर शायद बचाव पक्ष के अधिवक्ता ये भूल रहे हैं कि ऑनलाइन पटल पर पढाई जारी है और ये पूरे सत्र के लिए भी जारी रह सकती है। आखिर ये तकनीकी युग है और ऑनलाइन पढ़ने से बच्चों के मानसिक विकास में भी वृद्धि हो रही है'। सुधांशु ने बेबाकी से इसका कटाक्ष किया, 'बेशक ऑनलाइन पटल पर पढ़ाई हो रही है लेकिन ये कितना प्रभावी है क्या मेरे काबिल दोस्त इस बात पर गौर फरमाना चाहेंगे? योर ऑनर हर वर्ग, हर व्यक्ति की अपनी तार्किक क्षमता व अपना बौद्धिक विकास होता है। ऑनलाइन पटल वर्तमान के लिए एक अस्थायी विकल्प है लेकिन ये परम्परागत स्कूली पढाई का स्थान नहीं ले सकता। ऑनलाइन पढाई से पाठ्यक्रम पूरा किया जा सकता है इसमें कोई दोराय नहीं है, लेकिन महोदय ऑनलाइन पढ़ाई से शिक्षा के वास्तविक अर्थ की पूर्ति किसी तरह से भी संभव नहीं है। मेरे काबिल दोस्त शायद भूल रहे हैं इसीलिए मैं उनके साथ साथ आप सबको ये बताना चाहता हूँ की स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान नहीं है, बल्कि ये एक बच्चे के सर्वांगीण विकास का द्वितीय चरण है मीलॉर्ड। एक बच्चा जब स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसे सबसे पहले पाठ्यक्रम नहीं बल्कि नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। स्कूल एक परिवेश देता है, एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करता है जहाँ शिक्षक उसके अभिभावक की तरह उसके विकास का उत्तरदायित्व सम्हालता है। स्कूल में सिर्फ किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, बल्कि वहां बच्चे को अपने सहपाठियों से लेकर अपने बड़ों तक के साथ किस तरह का व्यव्हार करना है, शिष्टाचार और मुख्यतः अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब किसी छोटे बच्चे को कोई पाठ समझ नहीं आता तब शिक्षक उसे विभिन्न प्रकार के अन्य कलापों द्वारा समझाता है। मेरे काबिल दोस्त यदि ये बता पाएं कि इनमें से एक भी कार्य ऑनलाइन पटल के माध्यम से पूर्ण हो सकता है तो बेशक स्कूलों पर ताला लगा दिया जाये'।
सुधांशु की इस दलील के आगे तिवारी जी के पास कोई उत्तर न था, किन्तु अपने तर्क के समर्थन में कुछ तो कहना ही था तो वो बोले, 'यानि आपका तर्क है कि बच्चों के जीवन का कोई मोल नहीं?' सुधांशु ने इस बार समाधान की दलील पेश की, 'बेशक बच्चों का जीवन कीमती है, बल्कि अभी कुछ समय तक शायद स्कूलों को बंद ही रखा जाये, किन्तु उन्हें पूरी तैयारी और सावधानी के साथ निश्चित समय पर खोला जा सकता है। सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के साथ। बजाय इसके कि हम अपने बच्चों को डर के घर में छुपना सिखाएं, हमें उन्हें जागरूक करना चाहिए, कैसे वो सामाजिक दूरी बनाये रख सकते हैं वो सिखाना चाहिए। साथ ही सरकार को चाहिए कि वे दिशा निर्देश निर्धारित करें और स्कूलों को सलीके से खोलने के इंतजाम करे लेकिन एक सत्र के लिए स्थगन कोई तर्क सम्मत विचार नहीं। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि यदि आपके शरीर के किसी एक अंग में कोई रोग हो जाये तो आप उस रोग का इलाज करेंगे या उस अंग को काटकर कुछ दिनों के लिए रख देंगे? शिक्षा हमारे समाज का अभिन्न अंग है और हमें ऐसे कठिन समय में इसके सुधार पर चर्चा करनी चाहिए'। तिवारी जी ने फिर चाल चली, 'अधिवक्ता महोदय, दलील तो बहुत दे दी, लेकिन अदालत ठोस सबूत मांगती है '।
सुधांशु ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ' बिलकुल, सुबूत है, मीलॉर्ड मैंने जो साक्ष्य अदालत में दाखिल किये हैं उनमें सबसे पहले है बेसिक शिक्षा विभाग की आख्या, जो ये स्पष्ट कहती है कि उनके लिए ऑनलाइन पटल कारगर नहीं क्यूंकि प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा के साधन उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही एक अन्य शोध आख्या है जिसके अनुसार छोटे बच्चों को ऑनलाइन पटल से पढ़ने में सबसे अधिक दिक्क्तों का सामना करना पड़ रहा है । निजी स्कूल के कई शिक्षकों को आधा वेतन और उनके कर्मचारियों को वेतन विहीन रहना पड़ रहा है। मीलॉर्ड आख्या ये भी बताती हैं कि ऑनलाइन पटल की शिक्षा छोटी कक्षाओं के लिए प्रभावी नहीं है। यहाँ तक की सुरक्षा उपकरणों के साथ स्कूलों का खोला जाना अन्य कई देशों में भी संभव हुआ है। और ये सब उन आख्याओं में वर्णित है जो कि अदालत में दाखिल की गयीं हैं'। इसके बाद तिवारी जी के पास बोलने को न ही कोई दलील बची थी और न ही पेश करने को कोई सुबूत। अब गेंद जस्टिस भंडारी के पास थी, लेकिन शाम हो चली थी और फैसला कल सुनाया जाना निश्चित किया गया। दिन की कार्यवाही समाप्त हुई। घर पहुँचते ही मिसेज भंडारी कुछ पूछतीं उससे पहले ही जस्टिस भंडारी ने उन्हें अगले दिन न्यायालय में आने का न्योता दे दिया। रात भर जस्टिस भंडारी ने अपने सहायक विकास के साथ बैठकर इस मामले का निर्णय लिखा जो कि अगले दिन सुनाया जाना था।
अगले दिन सुबह सभी कोर्ट में समय से पहले पहुंचे। सभी उत्सुक थे फैसला जानने के लिए। सीमित तौर पर एक दो पत्रकार भी उपस्थित थे। जस्टिस भंडारी अपने स्थान पर पहुंचे। जस्टिस भंडारी ने गंभीर भाव और ठहराव के साथ कहना प्रारम्भ किया, 'ये मामला बेशक देखने में एक छोटी सी याचिका थी, लेकिन वास्तविक रूप में इसके पक्षों की दलील ने कई अहम् सवाल खड़े किये। याचिकाकर्ता का प्रश्न अपनी जगह जायज था कि बच्चों की सुरक्षा को किसी भी रूपसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, किन्तु उनकी मांग बड़ी ही विचित्र थी। अदालत ने इस मुद्दे पर दोनों ही पक्षों की दलील को गंभीरता से सुना और सभी सुबूतों को गहनता से जांचा। इससे पहले कि अदालत का फैसला मैं सुनाऊँ मैं इस मुद्दे पर अदालत की टिप्पणी सुनना चाहूंगा। यह बात निर्विवाद रूप से सच है कि बच्चों की सुरक्षा से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। वे आने वाले कल के भविष्य हैं और उनका स्वस्थ भविष्य हमारी जिम्मेदारी बनता है। किन्तु ये इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा की गुणवत्ता में भी कोई लचरता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ता का कहना है कि ऑनलाइन पटल पर शिक्षण कार्य चल रहा है और इसे आगामी पूरे साल के लिए ऑनलाइन ही रखा जाये और स्कूलों को बंद रखा जाये। वहीं बचाव पक्ष की ये दलील रही कि ऑनलाइन पटल उतना अधिक प्रभावी नहीं जितनी कि परम्परागत स्कूली शिक्षा। साथ ही ये बात भी विचारणीय है कि एक साल तक स्कूल बंद रखने से उससे जुड़े कई लोगों की जीविका का संकट भी उभर कर सामने आएगा। अदालत बचाव पक्ष की इस दलील के साथ सहमत होती है कि स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान मात्र नहीं बल्कि वास्तविक शिक्षा को छात्र के जीवन में आत्मसात करने का स्थान है। बेशक एक बच्चा स्कूल में जो सीखता है वो उसे ऑनलाइन पटल पर उपलब्ध नहीं हो सकता। स्कूल के माध्यम से एक बच्चे की दिनचर्या बनती है, उसे स्कूल के परिवेश में पाठ्यक्रम के साथ साथ उसे संस्कारों का ज्ञान भी प्राप्त होता है जो कि ऑनलाइन पटल पर संभव नहीं। शिक्षा विभाग की आख्या का अवलोकन करते हुए अदालत सहमत है कि ग्रामीण क्षेत्र के कई विद्यार्थी अभी भी ऑनलाइन शिक्षा के साधन से वंचित हैं। सिर्फ ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहर में रहने वाले निम्न वर्ग के वे बच्चे जिनके अभिभावक मजदूरी और अन्य जीविकोपार्जन के साधन से जहाँ स्कूलों की फीस ही नहीं भर सकते वो भला ऑनलाइन शिक्षा कैसे ग्रहण करेंगे। ऐसे बच्चों के लिए ही स्कूलों में मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है जो कि ऑनलइन पटल पर संभव नहीं। लिहाजा, बचाव पक्ष की तमाम दलीलों व पेश किये गए सुबूतों से सहमत होते हुए ये अदालत स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किये जाने की ये याचिका ख़ारिज करती है। इसके साथ ही ये अदालत सरकार को ये आदेश भी देती है कि वरिष्ठ शिक्षाविदों और वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति गठित करे जो कि स्कूलों के लिए सुरक्षा हेतु दिशा निर्देशों का निर्माण करेगी। इसी के साथ ये अदालत बर्खास्त की जाती है'। जस्टिस भंडारी के फैसला सुनाते ही सुधांशु के चहेरे पर एक सुकून भरी मुस्कान खिंच गयी। अधिवक्ता तिवारी ने उसके पास आकर उसकी पीठ थपथपाई। वहीँ मिसेज भंडारी भी दूसरी ओर बैठी मंद मंद मुस्कुरा रहीं थीं। लौटते वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से कुछ पूछना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे भांपते हुए कहा, 'मैं जानता हूँ तुम क्या जानना चाहती हो। यही न कि सुबूत कुछ खास नहीं थे फिर भी इस केस का फैसला किस आधार पर किया? तो सुनो, सुधांशु की दलील ठोस थी। सच कहूं तो उसने स्कूलों का वो दृष्टिकोण सामने रख दिया जो शायद मैंने भी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसी दलील भी कभी मिलेगी। कभी कभी कुछ दलीलें सुबूतों के ढेर पर भी भारी पड़ जाती हैं'।
✍️विभांशु दुबे विदीप्त
गोविंद नगर
मुरादाबाद 244001
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