बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी-------- 'द सीज ऑफ डेथ '


ये समय था 1944 की सर्दियों का और इस वक़्त जर्मनी और रुसी सेनाओं के बीच लेनिनग्राड शहर के लिए एक अहम और भयानक युद्ध चल रहा था। जर्मनी की सेना ने लेनिनग्राड शहर के इर्द गिर्द घेरा डाल रखा था। शहर को रूस के अन्य शहरों से जोड़ने वाले मुख्य मार्गों को जर्मनों ने कब्ज़ा रखा था और बाल्टिक सागर में उसकी नौसेना ने घेरा डाल रखा था। आसमान में जर्मनी के लड़ाकू विमान गरजते रहते थे। ये इस मोर्चे की सबसे भयंकर जंग थी। दो साल हो चुके थे और लेनिनगार्ड का घेरा अभी भी कायम था। जर्मनों की सफलता ये थी की शहर की आपूर्ति और उसके आस पास उनका कब्ज़ा था, तो वहीँ रूसियों ने जर्मनों को शहर पर कब्ज़ा करने से रोके रखा था। जब जर्मन सेना आगे बढ़ने में असफल रही तो उसने शहर की आपूर्ति ठप्प कर दी। रसद , अनाज और असलहा ढ़ोने वाले वाहनों को वो रस्ते में ही तबाह कर देता था और भेजी गयी रसद का बहुत छोटा सा हिस्सा ही शहर तक पहुँच पाता था। बाल्टिक सागर से आने वाले रसद के जहाजों को जर्मन पनडुब्बियां पानी में ही जलसमाधि दे देती थीं। शहर के हालात बेहद खराब हो चुके थे। रसद और राशन की कमी के कारण आधा शहर कब्रिस्तान बन चुका था। शहर में रुसी सेना के हालात भी ज्यादा अच्छे न थे। न हो ढंग से असलहा मिल रहा था न ही मदद। पूरे शहर में मौत , बेबसी और भूतिया सन्नाटा पसरा हुआ था। 2 साल में लेनिनग्राड में मात्र भुखमरी से 6 लाख से भी ज्यादा नागरिक मारे जा चुके थे। कब्रिस्तान बन चुके लेनिनग्राड में हालात बद से बदतर हो चले थे। अब लोग चलते चलते ही गिर पड़ते और उन्हें उठाने वाला भी वहां कोई न होता। रुसी सैनिक दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे, एक तो सामने के दुश्मन से दूसरा इस तबाही से। रोज न जाने कितने ही नागरिकों को दफनाते , जिनमे काई छोटे छोटे बच्चे कुछ तो नौनिहाल भी होते और तो और कई बार अपने ही किसी साथी को भी दफनाना पड़ता। जिन्दा लाश बन कर रह गए थे । जो ये सब नहीं देख पाता था, अपनी राइफल से खुद को गोली मार लेता था। जर्मन भी इस स्थिति से वाकिफ थे और उनका मानना था कि इस तरह वो बिना लड़े ही जीत जायेंगे। शहर खंडहर हो चुका था, जिस शहर में कल तक ऊँची ऊँची इमारतें हुआ करती थी, आज सड़कों पर उनका मलबा बिखरा पड़ा था। दिन में दो बार सेना के वाहन रसद बाँटा करते थे। हाँ, जिसको जितना मिल जाये वो अपनी किस्मत समझ ले लेता था। जिसे दिन में मिल जाता उसे शाम को मिले भी या नहीं इस बात कि भी कोई गारंटी नहीं थी। ऐसे ही शहर में घूमते सेना के एक ट्रक में सवार सैनिक इवानोस्की गुजरते रस्ते को देख रहा था। शहर कि दुर्दशा को देख उसके मन में अब कोई भाव नहीं आता था क्यूंकि आँखों के आंसू सूख चुके थे और दिल तो न जाने कब का पत्थर का हो चुका था। ट्रक रुकने पर इवानोस्की ट्रक से उतरा और बैरक की ओर चल दिया। बैरक क्या थी , एक टूटे फूटे भवन की ईमारत थी जिसमे वो और उसकी कंपनी के लोग रात गुजारते थे। अब आँखों में नींद नहीं होती थी। इवानोस्की 2 साल से लेनिनग्राड में था, अब इसे उसकी किस्मत कहें कि वो इतने साल तक जिन्दा रहा या बदकिस्मती कि उसने अपने साथ के न जाने कितने साथियों को अपने ही हाथों से दफनाया था। उसकी आँखों के कोर गीले तो होते थे लेकिन न ही आंसू निकलते थे और न ही मन में कोई भाव ही आता था। तभी एक गोली चलने की आवाज से वो उठ खड़ा हुआ, लेकिन थोड़ी देर में ही असलियत जान वापस पत्थर के टुकड़े पर लेट गया। साथ के एक और सिपाही ने खुद को गोली मार ली थी ,उसने आज दो लाशें दफ़नायीं थीं जिनमे एक मां और दूसरा 5 साल का बच्चा था। अपने ही लोगों को अपने सामने भूख से मरते देखना और फिर उनकी लाशों को दफनाना, नए रंगरूट कई बार इससे उबर नहीं पाते थे। इवानोस्की अतीत में देखने लगा कि जब वो पहली बार 2 साल पहले लेनिनग्राड आया था तो उसने भूख से मरे पूरे 11 लोगों के परिवार को दफनाया था। उसके बाद वो एक महीने तक सो नहीं पाया था। इवानोस्की जैसे न जाने कितने थे जो अब पत्थर के बन चुके थे। अगली सुबह इवानोस्की उठकर वापस अपनी ड्यूटी पर गया तो उसे पता चला कि रात को रसद लाने वाला ट्रक जर्मन बमबारी में तबाह हो गया, अब आज दिन का राशन नहीं बंटेगा। इवानोस्की को 4 रंगरूटों के साथ शहर का एक चक्कर लगाने को कहा गया। वो बैरक में वापस आ जाने की तैयारी करने लगा । वो रंगरूट भी वहीँ बैठे अपनी राइफल में गोलियां भर रहे थे और असलहा ले जाने की तैयारी कर रहे थे। इवानोस्की ने ये देख उनसे कहा -
'गोलियों से भी जरुरी एक चीज रख लेना, उसकी जरुरत आजकल ज्यादा पड़ती है'
'वो क्या सार्जेंट?' एक रंगरूट ने पूछा।
'कुदाल (फावड़ा)', इवानोस्की ने कहा।
वो रंगरूट चौंककर उसकी ओर देखने लगे।
'क्या हम दुश्मन को कुदाल से मारेंगे सार्जेंट', एक ने पूछा। 
'नहीं, दुश्मन के लिए नहीं' अपनी कुदाल रखते हुए इवानोस्की ने कहा
'तो कुदाल क्यों सार्जेंट?' दूसरे रंगरूट ने पूछा।
'कब्र खोदने और लाशें दफ़नाने के लिए’, ये कह इवानोस्की निकल गया।
उन चारों के मुख की चंचलता एक अजीब से तनाव और गंभीर भाव में बदल गयी। वो बिना कुछ कहे उठे और इवानोस्की के पीछे हो लिए।
इवानोस्की अपनी पत्थर निगाहों को शहर के प्रमुख स्थानों की ओर दौड़ता और उन स्थानों के युद्ध के पहले जैसे होने की कल्पना करता। इस युद्ध की विभीषिका ने इस शहर का क्या हाल बना दिया है। जहां पहले ये शहर खुशहाल , सुंदर और लोगों से भरा हुआ होता था, वहीँ आज खंडहर, कब्रिस्तान और भूतिया हो गया है। गश्त लगाते लगाते इवानोस्की शहर के मुख्य चौराहे पर पहुंचा तो उसने देखा एक 80 साल की बुढ़िया अपनी गोद में एक दुधमुंहा बच्चा लेकर दो कब्रों के पास बैठी थी। इवानोस्की उसके पास गया, और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख वहीँ बैठ गया। आगे की बात उस बुढ़िया की आँखों के आंसुओ ने इवानोस्की को बता दी। इवानोस्की ने अपने रंगरूट को इशारा किया तो वो पानी लेकर उसके पास गया। इवानोस्की ने उस बुढ़िया की ओर पानी बढ़ा कहा -
‘अम्मा, लो पानी ले लो'
आँखों में आंसू लेकिन पत्थर जैसी भाव से उसे बुढ़िया ने कहा -
'मेरी प्यास 5 दिन पहले मेरे बहु और बेटे के साथ मर गयी थी'
इवानोस्की के लिए ये कुछ नया नहीं था, फिर भी अपनी ड्यूटी निभाते हुए वो आगे बोला  'अम्मा , मैं तेरी क्या मदद कर सकता हूँ?'
'मेरा पोता 2 साल का है। इसकी मां 5 दिन पहले ही चल बसी', उस बुढ़िया ने उन कब्रों को निहारते हुए कहा।
इवानोस्की ने अपनी सप्लाई में टटोल के देखा तो उसे कुछ खाने का सामान मिल गया। उसने उसे उस बुढ़िया के हाथ में रखने की कोशिश की। इवानोस्की यही करता था, वो अपना सप्लाई राशन रोज किसी किसी न जरूरतमंद को दे देता था। लेकिन उस दिन उस बुढ़िया ने उससे राशन लेने से मना कर दिया। इवानोस्की ने थोड़ा जोर देकर कहा -
'आमा अपने पोते के लिए ले ले’
'वो, वो तो कल रात ही चल बसा', ये कहते हुए उस बुढ़िया की आँखों से आंसू ढुलक पड़ा।
इवानोस्की दंग रह गया। मन ही मन शायद वो भगवान से ये भी का रहा था की अभी और क्या देखना बाकी  है। उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
'अगर तू मेरी मदद करना चाहता है तो मेरे पोते को उसके मां बाप की कब्रों के बीच दफना दे'
इवानोस्की पत्थर हो चुका था। उसकी आँखों में भावरहित बेबसी और दुःख के आंसू थे। वो बिना कुछ कहे खड़ा हुआ और उसने वहां उन दोनों कब्रों के बीच एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उस बच्चे को वहां दफना दिया। वो चारों रंगरूट ये दृश्य देख रहे थे। उन्हें ये समझ ही नहीं आया कि किस से क्या कहें। उन्हें इवानोस्की के शब्द याद आ रहे थे -'कुदाल, लाशें दफ़नाने के लिए'। खैर, ये सब निपटा कर जैसे ही वो जाने को हुए, उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
‘बेटा, मेरा एक काम और करता जा'
इवानोस्की के कदम रुक गए। उसने उस बुढ़िया के हाथ अपने हाथ में लिए और बोला -
'बोलो अम्मा, क्या करना है'
‘मेरे मरने के बाद मुझे भी यहीं मेरे परिवार के पास दफना देना', उस बुढ़िया ने अपने पोते की कब्र की ओर देखते हुए कहा।
इवानोस्की के हाथ से उस बुढ़िया के हाथ छूट गए। उसकी समझ ही नहीं आ रह था की वो क्या कहे। थोड़ी देर उस बुढ़िया की आँखों में देख इवानोस्की खड़ा हुआ और वापस अपनी बैरक आ गया। आज की घटना के बाद जैसे उसका मन अब भर चुका था इस सबसे। वो रंगरूट तो सबसे ज्यादा विचलित थे। अभी आये हुए 3 माह भी नहीं हुए थे और ये वीभत्स दृश्य देख वो तो जैसे पूरी तरह ही डोल गए थे। उस रात बैरक में 4  सिपाहियों ने खुद को गोली मार ली। इवानोस्की को जब ये पता चला तो वो एक बार फिर अपनी कुदाल उठा चल दिया। बेबसी के इस माहौल में न जाने उसे अभी और कितनों को दफनाना था। इसा मोर्चे पर रूसियों को जर्मन सेना से इतनी क्षति नहीं पहुंची थी जितनी इस भुखमरी और बेबसी ने दी थी। लेनिनग्राड का ये घेराव पूरे 2 साल 4 महीने चला (तकरीबन 870 दिनों तक )। ये इतिहास का सबसे विभीषक  मोर्चा था जहां एक ही बार में इतने नागरिक  मारे गए थे (तकरीबन 8 लाख से भी ज्यादा) । 872 दिन के बाद रुसी सेना से जर्मन सेना को पीछे धकेलते हुए नगर का घेराव तोड़ा और युद्ध में वापसी की।

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त
 मुरादाबाद

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