रविवार, 2 जुलाई 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से 2 जुलाई 2023 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में रविवार दो जुलाई 2023 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन मिलन विहार स्थित मिलन धर्मशाला में किया गया। 

      दुष्यंत बाबा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. महेश दिवाकर ने संदेश दिया - 

दो पल जिनसे भी मिलो, मन में रहे विचार।

 वह दो पल की ज़िंदगी, बन जाए उपहार।।

    मुख्य अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने दोहों से वर्षा का चित्र खींचा - 

सावन में लहरा रहे, ज्वार बाजरा धान। 

परमल, लौकी, तोरई, टिंडे चढ़े मचान।। 

आए बादल झूमकर, पड़ने लगी फुहार। 

मगर टपकाने लग गए, कच्चे बने मकान।।

   विशिष्ट अतिथि के रूप में रामेश्वर वशिष्ठ ने कहा ....

अब नहीं मिलता जग में सरल अन्तःकरण है।

 हर कोई ओढ़े हुए, एक अपना आवरण है।।

वरिष्ठ कवि रामदत्त द्विवेदी का दर्द इन पंक्तियों में झलका - 

नाम देकर के जमाने ने किया हमको अलग। 

वरना हममें और तुममें भेद कुछ होता नहीं। 

एक को हिन्दू बता और दूसरे को मुसलमां, 

कह दिलों में नफरतों के बीज बोता कोई।। 

के. पी. सिंह सरल ने सामाजिक परिस्थितियों का चित्र खींचते हुए कहा - 

माता-पिता से विमुख हो, कभी न करायें प्यार। लिव इन में रहने का चलन, बन्द करें सरकार।।

पद्म सिंह बेचैन की अभिव्यक्ति थी - 

कितने हैं मजबूत इन रिश्तों के धागे। 

पंछी रे तुझ बिन मन नहीं लागे।। 

डॉ. मनोज रस्तोगी ने सावन के संदर्भ में कुछ इस तरह से कहा....

पवन भी नहीं करती शोर। 

वन में नहीं नाचता है मोर। 

नहीं गूंजते हैं घरों में 

अब सावन के गीत। 

खत्म हो गई है अब 

झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत।। 

योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपने दोहों के माध्यम से आह्वान किया - 

मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़। 

जड़ से जो जुड़़कर जिये, हरे रहे वे पेड़।।

 व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम। 

तन-मन के सुख-चैन को, सबने किया तमाम ।। 

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने  दोहों के माध्यम से अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालते हुए कहा - 

फाॅंसे बैठा है मुझे, यह माया का जाल। 

चावल मुझसे छीन लो, आकर अब गोपाल। 

मैंने तेरी याद में, ओ मेरे मनमीत। 

पूजाघर में रख दिए, रचकर अनगिन गीत।। 

दुष्यंत बाबा की अभिव्यक्ति थी - 

भाव टमाटर खा रहे, और पैसे नटवर  लाल। 

भूखे खेत किसान सब, न  चावल न   दाल।। 

 रचना पाठ करते हुए जितेन्द्र जौली ने कहा - 

पापी कमा लेते हैं बहुत नाम देखो। 

सरेराह होता है कत्लेआम देखो।।

हमें नहीं पूछता है कोई दुनिया में, 

लोग गुंडों को करते हैं सलाम देखो। 

  रामदत्त द्विवेदी द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया। 
















मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग कविता..... समाधान


हमने

एक ख्याति प्राप्त 

डॉक्टर से कहा

महोदय

आपके होते हुए भी

पूरा देश बीमार है

अजीब अजीब बीमारियों ने

मचाया हा हा कार है

आपसी रिश्ते

आखिरी रिश्तों में

बदल रहे हैं

स्वार्थ के वेंटीलेटर से

जैसे तैसे चल रहे हैं

ईमानदारी

लकवा ग्रस्त है

मानवता

पोलियो से त्रस्त है

धार्मिक कट्टरता ने

हमारे दिलो दिमाग को

सुन्न कर दिया है

जातिवाद के कीटाणु ने

सबका विवेक हर लिया है

पूरे समाज में

कैंसर की तरह

फैल रहा  भ्रष्टाचार है

क्या आपके पास

इसका कोई उपचार है


डॉक्टर बोले

यह सब 

सामाजिक बीमारियां हैं

इनसे आप ही नही

हम भी परेशान हैं

समाज के अंदर ही

इनके समाधान हैं

आप अभी से

उनको खोजने में

जुट जाइए

और सफल हो जाएं

तो हमको भी बताइए


हमने

इस गंभीर समस्या पर

अपना चित्त डाला

अपने साठ साला

अनुभव का निचोड़ निकाला

अगर इन बीमारियों से

छुटकारा पाना है

नियमित रूप से

अच्छे चरित्र और

अच्छे संस्कार का

इंजेक्शन लगवाना है


✍️डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

शनिवार, 1 जुलाई 2023

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम् के 52 दोहे .....


बिन सोचे समझे सदा, लिक्खे मन के भाव।

यश-अपयश से मुक्त हो, रहे सदा समभाव।।1।।


और सुनो जी अनकही, एक अनोखी बात।

शुभ प्रभात है आपसे, श्रेष्ठ आपसे रात।।2।।


पागल बनकर सुन सखी, पागल पन की बात।

तुझ बिन तपते जेठ सी, सावन की बरसात।।3।।


हमनें रिश्तों में कभी, किया नहीं व्यापार।

रहे उसूलों पर अडिग, जीत मिली या हार।।4।।


बोल बड़े अनमोल हैं, सोच-समझ कर बोल।

भटके तो कृष्णम् जहर, दें रिश्तों में घोल।।5।।


उखड़ी-उखड़ी साँस है, सपने चकनाचूर।

भारी बोझा पीठ पर, लाद चला मजदूर।। 6।।


भूख प्यास के गाँव में, देख रहा मधुमास।

मजदूरों की पीर का, है किसको आभास।।7।।


तपती-जलती रेत में, रखे जमाकर पाँव।

मेहनतकश की आंख में, उम्मीदों का गाँव।।8।।


मालिक की दुत्कार को, लिखा भाग्य में मान।

धारण की मजदूर ने, होठों पर मुस्कान।।9।।


मन नयनों पर घिर गिरा,बोतल भरी शराब।

निष्ठुर मधुशाला हुई,गड़बड़ हुए हिसाब।। 10।।


नयन कटोरे मधु भरे,अधर पी गए प्यास।

मधुशाला बहकी पड़ी,थी सागर के पास।।11।


तन मदिरा मन होठ हैं,सदा रहेंगे पास।

जग झूठा झगड़े सभी,प्रेम अटल विश्वास।।12।


हम क्या जाने धर्म को,क्या मजहब की शान।

प्रेम भरी डलिया पकड़,रही तड़पती जान।।13।।


मीठी सी मुस्कान को,कौन सका है तोल।

हीरे मोती लुट गए,बिन बोले अनमोल।।14।।

सासोसेसांसो से जब भी कहा,मेरी तुम में जान।सांसो से जब भी कहा,मेरी तुम में जान।

तब सांसो ने फेंक दी,तीखी सी मुस्कान।।15।।


बगुले जैसी सोच में,कोयल के व्यवहार।

मन पर डाका डालते,चापलूस मक्कार।।16।।


गर्लफ्रैंड हर बॉय का, मूल मंत्र एंजॉय।

थोड़े दिन की हाय है, फिर हो जाती बाय।।17।।


देखी भाली है नहीं, लगती जैसे फ्रेंड।

रोज धड़ाधड़ कर रही,देखो मैसेज सैंड।। 18।।


मैं गुड़िया जापान की, गूची जैसी सैंट।

पल्ले देखो पड़ गया, एंड बैंड हसबैंड।।19।।


जीजा जी होते सभी, स्वीटहार्ट नमकीन।

साली होती चाय सी,जीजी सब गमगीन।।20।।


देख-देखकर हो गयीं, जीजी जी गमगीन।

जीजा साली ढूंढते, बिस्किट में नमकीन।।21।।


पाजी के मुँह को लगा, जब अंग्रेजी प्यार।

कॉकटेल जैसा हुआ, उठा-पटक व्यवहार।।22।।


डाली पके अनार हम,भीतर बाहर रैड।

मनिया मन भर देख ले,फीके वाई जैड।।23।।


गर्मी में लगती बड़ी,अच्छी थमसप कोक।

जल्दी से लाओ सनम, छोड़ो सारे जोक।।24।।


सौतन मोबाइल बनी,मेरी सुन भरतार।

ब्रांड नई में घूमते,छोड़ पुरानी कार।।25।।


मुँह से लगी अफीम सी,अंग-अंग में भंग।

सो क्यूटी ब्यूटी भरी, अजब-गजब हर ढंग।।26।।


और बताऊँ मैं तुम्हें, एक कीमती बात।

मैं ठहरा गुड मॉर्निंग, बाकी काली रात।।27।।


डाँट प्यार फटकार है,माँ का लाड़-दुलार।    

आँचल माँ की गंध का,बालक का संसार।।28।।


पाया है मां बाप से,जिसने सच्चा प्यार।         

जीवन भर उसको मिला,खुशियों का भंडार।।29।।


जीवन जीना माँ बिना,चलना बोझ समेत।

दूर दूर तक जल नहीं,उड़ती तपती रेत।।30।।


चली गईं आकाश तुम, इच्छा जैसी ईश।

रखो पीठ पर हाथ माँ,देना सर आशीष।।31।।


जिसको भी माँ से मिला,पूरा सच्चा प्यार।

मुट्ठी में उसकी रहा,खुशियों का संसार।।32।।


भगवन मुझको थाम लो,मन नहि थमता आज।

मैं बालक अब क्या करूं,रोते-रोते साज।।33।।


मैया तेरी याद में,रोता मैं दिन रैन।

सत्य जानकर भी नहीं,आता मन को चैन।।34।।


मन को आता ही नहीं,कृष्णम् यह विश्वास।

माता जी अब कर रहीं,परमधाम में वास।।35।।


माँ हम सब को छोड़कर,चली गईं किस लोक।

पूछ रहा है शोक में,डूबा हुआ अशोक।।36।।


पिंडदान के हो गए,सारे पूर्ण विधान।

 मां को चरणों में जगह,दे देना भगवान।।37।।


वर्तमान भटका हुआ,उलझा हुआ अतीत।

कृष्णम मां बिन जिंदगी,बिना साज का गीत।।38।।


मातृ दिवस पर राम सब,घर-घर श्रवण कुमार।

दिन में उल्लू से छिपे,मजनू के अवतार।।39।।


गाली मां को रात दिन,देने वाले लोग।

मातृ दिवस पर दे रहे,माता जी को भोग।।40।।


पत्नी एसी रूम में,मां को टूटी खाट।

 देर रात तक जोहती,मां बेटों की बाट।।41।।


कही सुनी मन की नहीं,कभी न बैठे पास।

मां की महिमा का हमें,क्या होगा आभास।।42।।


कारण में वातावरण,का होता है हाथ।

वैसी बनती वृत्तियां,जैसा मिलता साथ।।43।।


सुख के कारण आप हैं, दुख के अपने आप।

किया धरा कुछ भी नहीं,मन का अपने ताप।।44।।


फैलाए जब भी कभी,कहीं किसी ने हाथ।

अपने सब सपने हुए,छोड़ गए सब साथ।।45।।


बंद बंद थी लाख की,खुली मिली बस राख।

मुट्ठी तू समझी नहीं,क्या होती है साख।।46।।


आन बान की शान का,अपनी रखते मान।

ऐसे राणा का करें,राष्ट्रभक्त गुणगान।।47।।


छोटी मोटी बात पर,रोना धोना छोड़।

चेतक बन कर  युद्ध में,सर दुश्मन के फोड़।।48।।


बात बात पर रात दिन,रोने वाले लोग।

मामूली होते नहीं,कोरोना से रोग।।49।।


बैसाखी के हाथ जो,मांगें अपनी खैर।

वो मेरे हैं ही नहीं,काटो ऐसे पैर।।50।।


बीच धार में नांव है,हाथ नहीं पतवार।

बेबस मन नाविक बहुत,तारो पालनहार।।51।।


चलते-चलते घिस गए,पांव हमारे राम। 

हम शबरी के बेर से,दे दो पूर्ण विराम।।52।।


✍️त्यागी अशोका कृष्णम्

कुरकावली, संभल

 उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की कहानी .......मानवता का धर्म

 


पहाड़ी घुमावदार रास्तों पर श्याम बाबू अपनी गाड़ी सहज गति से चलाते हुए जा रहे थे। अचानक एक मोड़ काटते ही सड़क किनारे भीड़ दिखाई दी। ट्रैफिक भी रुका हुआ था।श्याम सिंह ने गाड़ी से उतरकर पूछा तो पता चला एक कार नीचे गिर गयी है। तभी नीचे से एक घायल को ऊपर लाया गया। श्याम बाबू उसे देखते ही चौंक गये: अरे ये तो दिलावर है। दिलावर गंभीर रुप से घायल था और उसे तुरंत चिकित्सा की जरुरत थी। बिना एक क्षण की देरी किये श्याम बाबू चिल्लाये: अरे जल्दी करो, इसे मेरी गाड़ी में लिटा दो और अस्पताल लेकर चलो। थोड़ी ही देर में वह अस्पताल पहुँच गये। डाक्टर ने जाँच की और कहा खून बहुत बह गया है। इन्हें तुरंत दो यूनिट खून चढ़ाना जरूरी है, नहीं तो ये नहीं बचेंगे। संयोग से श्याम बाबू का और वहाँ उपस्थित दो अन्य लोगों का खून भी मैच कर गया। लगभग दो घंटे की मशक्कत के बाद आपरेशन थियेटर से डाक्टर बाहर आये और बोले , आप लोग इन्हें टाइम से ले आये। और थोड़ी देर हो जाती तो ये नहीं बचते।

श्याम बाबू ने ईश्वर का बहुत धन्यवाद किया और अपने दफ्तर में आ गये। बैठे बैठे उन्हें वो दिन स्मरण हो आया जब यही दिलावर किसी टेंडर के सिलसिले में उनसे मिला था और टेंडर न मिलने पर उन्हें खुलेआम धमका कर गया था। श्याम बाबू एक आध दिन थोड़ा विचलित हुए, फिर सब भूल गये। 

दफ्तर के बाद शाम को श्याम बाबू फिर अस्पताल पहुँचे। दिलावर को होश आ चुका था।कहो दिलावर अब कैसे हो, श्याम बाबू ने उसका हाथ सहलाते हुए पूछा। तभी वहाँ खड़ी नर्स ने दिलावर को बताया, यही साब जी अपनी गाड़ी में आपको अस्पताल लाये थे, और अपना खून भी दिया था। इन्हीं की वजह से आपकी जिन्दगी बच गयी,नहीं तो यहाँ तक आते आते तमाम एक्सीडेंट के केस निपट जाते हैं।

दिलावर यह सुन कर रोने लगा और हाथ जोड़कर बोला बाबूजी आप मुझे क्षमा कर दो। मैंने आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया किंतु आपने सब कुछ भुलाकर मेरी जान बचायी।

अरे, रोओ मत, श्याम बाबू उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले: ये तो मानवता का कार्य था। कोई और भी होता तो उसे भी हम अस्पताल पहुँचाते। और तुम ज्यादा मत सोचो। मैंने तो वह बात तभी भुला दी थी। हमारा काम ही ऐसा है। जिसका काम नहीं हो पाता वो ही धमका जाता है। तुम जल्दी से ठीक हो जाओ।

साब' आप इंसान नहीं इंसान के रुप में फरिश्ता हो। आपका बहुत बड़ा दिल है। जीवन में आपके किसी काम आ सका तो अपने को धन्य मानूँगा, कहते कहते दिलावर फिर रोने लगा।

रोओ मत दिलावर, सबकी रक्षा करनेवाला वह ईश्वर ही होता है, वो ही समय पर हमारे पास मदद के लिये किसी न किसी को भेज देता है। अब आगे से तुम भी यह निश्चय कर लो कि मुसीबत में यथासंभव अन्जान व्यक्ति की मदद करोगे और किसी से दुर्व्यवहार नहीं करोगे।

अच्छा चलता हूँ, कहकर श्याम बाबू अपने घर वापस आ गये।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के दो नवगीत ----

(1)

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल 

गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली

वर्षा थी, यूँ अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका 

कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल 

कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली

(2)

है समय प्रतिकूल माना

पर समय अनुकूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

घन तिमिर में इक दिये की

टिमटिमाहट भी बहुत है

एक सूने द्वार पर

बेजान आहट भी बहुत है

   

लाख भंवरें हों नदी में

पर कहीं पर कूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

विरह-पल है पर इसी में

एक मीठा गान भी है

मरुस्थलों में रेत भी है

और नखलिस्तान भी है

   

साथ में ठंडी हवा के

मानता हूं धूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


है परम सौभाग्य अपना

अधर पर यह प्यास तो है

है मिलन माना अनिश्चित

पर मिलन की आस तो है

   

प्यार इक वरदान भी है

प्यार माना भूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


-कुँअर बेचैन

गुरुवार, 29 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ......ओह बाबा !

   


पिछले 3 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला था जलता भी कैसे  घर में अन्न का एक भी दाना नहीं था....!

       .......... किसी ने कुछ भी नहीं खाया था परंतु अब सहन नहीं होता ! हे भगवान आगे कैसे चलेगा.. कुछ तो मदद करो...! कहीं से तो आओ ?.... क्या मेरे बच्चे यूं ही भूखे मर जाएंगे?.... प्रभु कुछ तो चमत्कार दिखाओ .....! घर के पूजा गृह में माथा टेकते हुए  संगीता बुदबुदाई !

    पति का एक्सीडेंट क्या हुआ संगीता  की तो दुनिया ही  उजड़ गई ..... एक्सीडेंट होने के बाद वह बिस्तर पर आ गए और फिर धीरे-धीरे घर की सारी जमा पूंजी की एक-एक पाई समाप्त हो गयी...! 

.......?और फिर अचानक एक दिन राधेश्याम  स्वर्ग सिधार गया। और छोड़ गया अपने पीछे एक बूढ़ी मां, पत्नी और दो बेटियों को.... बेसहारा परिवार में कमाने वाला कोई भी नहीं..... जहां कहीं से मदद ली जा सकती थी ली जा चुकी थी......।

.. अब दुकानदार ने भी उधार देना बन्द कर दिया था । ऐसा लगता था कि पूरा परिवार ही भूख से  दम तोड़ देगा.....!

......... शाम के 8:00 बजे  दरवाजे पर एकाएक दस्तक हुई.....  दरवाजा संगीता ने ही खोला.... क्या बात है ? कौन है ?क्या है?

.......... ".... कुछ खाने का सामान ,राशन, घी ,तेल और कुछ फल व सब्जियां हैं"..... "कहां रखना है?" लंबे डील-डोल वाले व्यक्ति ने जवाब देते हुए प्रश्न किया !

.....संगीता ने पूछा  "किसने भेजा है ? "

.....".हमें डॉ जोशी ने भेजा है. .!."

... पता गलत हो सकता है ! हमारी तो कोई जान पहचान भी डॉक्टर जोशी से नहीं है !

......."नहीं यही पता है नरोत्तम सिन्हा का यही मकान है न ?"

....... "हां मेरे दादाजी का नाम ही नरोत्तम सिन्हा था " नन्दू ने  कहा......"रास्ते में पूछा था तो पता तो सही है ही"!.... और साथ में लिफाफा भी है ....!"

      सभी घरवाले यह देखकर चकित थे कि ये  चमत्कार कैसे हो गया.....  ऐसा कौन डॉ जोशी है ? जो संकट की इस घड़ी में भगवान बन कर हमारे सम्मुख उपस्थित हो गया है।...... हम तो किसी डॉक्टर जोशी को नहीं जानते .....?हमारा उस से क्या संबंध ?

.... खैर जो भी हो यह सब सोचने समझने का समय अब नहीं था....... भूख से सभी के प्राण निकले जा रहे थे .....खाने में कुछ ब्रेड थीं ड्राई फ्रूट्स थे; नमकीन, बिस्कुट थे.......

 सभी खाने पर झपट पड़े,.....! पानी पिया दूध से चाय बनाई गई !

  ....... लिफाफा खोला तो उसमें 500  के नोटों की गड्डी थी गिनती करने पर पता लगा कि ₹20000 थे ! सोचा सामान खत्म हो जाएगा तो कोई बात नहीं और सामान लाया जाएगा ।

    .....डॉ जोशी ने ये  सामान क्यों भेजा ? कुछ दिन बीते धीरे-धीरे सारा सामान खत्म होने लगा परंतु यह क्या महीना भर बाद फिर वही समान वही लिफाफा....घर में आ गया अब तो बहुत मुश्किल थी .. यह जानना भी जरूरी था आखिर ये डॉक्टर जोशी है कौन ?

   ......जो संकट की घड़ी में अनजाने लोगों की यों मदद कर रहा है ।

 .......डॉक्टर जोशी रामनगर में कहीं रहते थे अम्मा जैसे तैसे पता लगा कर रामनगर पहुंचीं  तो वहां देखा कि बहुत भीड़ लगी है जानने की कोशिश की कि क्या हुआ है?.... तो पता लगा डॉक्टर जोशी की एक्सीडेंट में मौत हो चुकी थी..... उम्र यही कोई 45 साल.... लोग कहते जा रहे थे डॉक्टर साहब बहुत भले आदमी थे ....!

      हार कर अम्मा वापस आ गई पता लगाने की कोशिश बेकार गयी .......!.......

.....महीना भर बाद फिर वही गाड़ी आई और समान और लिफाफा छोड़ गयी.....अब तो डॉक्टर जोशी भी जिंदा नहीं थे....... ।

...... कुछ दिन बाद अम्मा को बाबा का संदूक खोलने पर एक डायरी मिली उस डायरी  में अंदर जो लिखा था उसे देख कर अम्मा  चकित रह गई .....!

.......एक पन्ने पर सारा हिसाब लिखा था  जिसका अर्थ  निकलता था कि हर महीने बाबा ₹1000 किसी अनाथ बच्चे जोशी को देहरादून भेजते थे ...जिससे जोशी का पूरा पढ़ाई का खर्च हॉस्टल की फीस जमा होती थी  ।..... बाबा अक्सर देहरादून जाते रहते थे ....वे जब तक जिंदा रहे तब तक पैसा भेजते रहे.... और वही बालक आज एक सफल डॉ सर्जन बन गया..था...!

        कुछ दिन बाद डॉक्टर जोशी के अकाउंटेंट इस परिवार का हाल जानने आए तो उन्होंने बताया कि डॉक्टर जोशी अत्यधिक बिजी रहते थे .....बहुत  धर्म कर्म वाले थे जैसे ही डॉक्टर जोशी को पता लगा कि नरोत्तम सिन्हा के  इकलौते बेटे की भी एक दुर्घटना में मौत हो गई तो उन्होंने इस परिवार के लिए एक बड़ा फंड बैंक में जमा किया जिससे प्रति माह इस परिवार का खर्च चल सके ! 

........जानकर नन्दू के मुंह से अनायास ही निकल गया *ओह बाबा !*और दो आंसू उसके गालों पर ढुलक पड़े !!

.........डॉक्टर जोशी उस दिन इसी परिवार से मिलने आ रहे थे कि रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया और उनकी मृत्यु हो गई.......!

✍️ अशोक विद्रोही 

 412 प्रकाश नगर

  मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा .... सही निर्णय


 सुधा के पति के देहांत को आज दस दिन पूरे हो गए ।उसकी दोनों बेटियां मोनिका और मीनू  घर को व्यवस्थित करने में लगी थी। तभी सुधा ने आकर कहा," मीनू ,अपने चाचा से कहो कि वह अपने लिए घर देख ले।" सुनकर दोनों बेटियां अचंभित हो गई क्योंकि बचपन से ही चाचा हर्ष उनके साथ रह रहे थे ।उनके बचपन का बहुत सारा सुन्दर समय उन्होंने चाचा के साथ व्यतीत किया था । पिता ने सदैव भाई को पुत्र की तरह रखा। 

      मां की बात सुनकर मोनिका बोली," मां ,अब इस उम्र में चाचा कहां जाएंगे ?आप सोचो पापा ने हमेशा चाचा को अपने साथ रखा"। इस पर सुधा ने तटस्थ रहकर उत्तर दिया," अब वो चले गये। लेकिन मुझे घर खाली चाहिए और कोई आमदनी का जरिया नहीं है किराए पर मकान दूंगी जिससे मुझे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा"। सुनकर बेटियां ही नहीं दरवाजे पर खड़े उसके देवर हर्ष भी आश्चर्य चकित थे। बेटियों ने बहुत समझाने की कोशिश की मगर वो अपने निर्णय पर अडिग रही।हमेशा से आज्ञा कारी रहे हर्ष ने इसे भी स्वीकार कर लिया।रात में घर से बाहर सामान लेकर जाते हुए चाचा को देखकर सबका दिल जार जार  जोर रहा था।सुधा भी तटस्थ खड़ी थी ।उसके कानों में मामी चाची के कई शब्द गूंज रहे थे," एक  दो दिन मे बेटियां अपने घर चली जाएंगी तो अकेले मर्द के साथ घर में रहेगी । पीछे पता नहीं क्या क्या होगा"।अब किसी को कुछ कहने का अवसर नहीं मिलेगा समाज के कारण अपने मन पर पत्थर रखकर वह सब देख रही थी।                

✍️ डॉ श्वेता पूठिया 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 28 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर (वर्तमान में गाजियाबाद निवासी ) की साहित्यकार रूपा राजपूत की ग़ज़ल ...जाकर वापस आने में यार! ज़माना लगता है


 ख़ुद को ढूँढ़ के लाने में यार! ज़माना लगता है

यूँ पागल हो जाने में यार ! ज़माना लगता है


मेरी हँसती आँखों में आँसू ठहरे पाओगे

रोके अश्क बहाने में यार ! ज़माना लगता है


हमको उनसे इश्क़ हुआ जाने कब कह पाएँगे

दिल की बात बताने में यार! ज़माना लगता है


कितनी रातों की नींदें  लूटीं उला-सानी ने

 मिसरों को बैठाने में यार! जमाना लगता है


'रूपा' आख़िर कब तक तू उनका रस्ता देखेगी 

जाकर वापस आने में यार! ज़माना लगता है


✍️ रूपा राजपूत 

गाजियाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत


मंगलवार, 27 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार डॉ मधु चतुर्वेदी की ग़ज़ल ... हां जी, मैंने पी है जनाब

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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के गीत संग्रह "मेघ गोरे हुए सांवरे" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा ....सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे ,प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते गीत

 सृष्टि के आरंभ में जब चारो ओर मौन था, नदियों का जल मूक होकर बह रहा था. पक्षी गुनगुनाते न थे.भँवरे गुंजन न करते थे .पवन भी मौन होकर निर्विकार भाव से बहती थी, प्रकृति के सौंदर्य के प्रति मानव मन में भावनाएँ शून्य थीं , तब सृष्टि के प्रति  मानव की यह उदासीनता देखकर भगवान शिव ने अपना डमरू  बजाकर नाद की उत्पत्ति  की,  और फिर ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार माँ शारदे ने  अपनी वीणा को बजाकर  मधुर वाणी को जन्म दिया.जिसके फलस्वरूप नदियाँ कलकल करने लगीं ,पक्षी चहचहाने लगे. बादल गरजने लगे, पवन सनन- सनन  का शोर मचाती इधर से उधर बहने लगी. हर ओर गीत - संगीत बजने लगा. मानव मन की भावनाएँ मुखरित होकर शब्दों का आलिंगन करने लगीं तथा स्वर और ताल की लहरियों पर नृत्य करते गीत का अवतरण हुआ. तबसे लेकर आज तक गीत लोकजीवन का अभिन्न अंग  बने हुए हैं. गीत मानव मन की सबसे सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है ही, इसके अतिरिक्त    काव्यपुरुष की कंचन काया से उत्पन्न विभिन्न विधाओं की रश्मियों में  सबसे चमकदार व अलंकृत विधा भी  गीत ही है.गीत  का उद्देश्य केवल मानव मन को आनंदित  करना ही नहीं है,अपितु  लोक कल्याण भी है. लोककल्याण हेतु ज्ञान का रूखा टुकड़ा पर्याप्त नहीं था .अतः  जनमानस के स्मृति पटल पर  ज्ञान को चिर स्थायी रखने हेतु , रूखे ज्ञान को विभिन्न रसों व छंदो में डुबोकर गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया . इसी क्रम में डॉ अर्चना गुप्ता जी का यह गीत संग्रह " मेघ गोरे हुए साँवरे" इस उद्देश्य  की पूर्ति मे सफल जान पड़ता है.

आपका यह गीत संग्रह ,शिल्प की कसी हुई देह में छंदो के आकर्षक परिधान पहने, पूरी  सजधज के साथ  आपको  गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर  रहा है.गीतमाला का आरंभ पृष्ठ 17 पर  माँ शारदे की वंदना से होता है

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

लाई हूँ मैं भावनाओं के सुगंधित हार मांँ

ओज भर आवाज में तुम सर गमों का ज्ञान दो

गा सकूँ गुणगान मन से भाव में भर प्रान दो

कर सकूँ अपने समर्पित मैं तुम्हें उद्धार माँ

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

गीत कवयित्री डॉ अर्चना गुप्ता जी अपने शीर्षक गीत पृष्ठ संख्या 21 गीत नं. 2  "मेघ गोरे हुए सांवरे" से ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती हैं. जब एक प्रेयसी के कोरे मन पर प्रियतम  की सांँवरी छवि अंकित होती है, तब मन की उमंगें मादक घटाएँ बन कर बरस- बरस  कर गाने लगती हैं.. 

मेघ गोरे हुए सांवरे

देख थिरके मेरे पांव रे

बह रही संदली सी पवन

आज बस मे नही मेरा मन

झूमकर गीत गाने लगीं

स्वप्न अनगिन सजाने लगी

कल्पनाओं में मैं खो गयी

याद आने लगे गाँव रे

देख थिरके मेरे पाँव रे.

डॉ अर्चना गुप्ता जी की पावन लेखनी जब भावों के रेशमी धागों में शब्दों के  मोती पिरोकर ,गीतों का सुकोमल हार तैयार करती है ,तब एक  श्रृंगारिक कोमलता अनायास ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती है... पृष्ठ नं.22पर  "प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे" गीत की पंक्तियाँ  देखिएगा.. 

पोरुओं से उन्हें हम उठाने लगे

अश्रु भी उनको मोती के दाने लगे

जब पिरोया उन्होंने प्रणय डोर में

प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे

संयोग  और वियोग , दोनो ही परिस्थितियों में कवयित्री ने प्रेम की उत्कंठा को बड़े यत्नपूर्वक संजोया है.प्रेम की मार्मिक अभिव्यक्ति, जब होठों के स्थान पर आंखों से निकली तो दुख और बिछोह  की पीड़ा के खारेपन  ने आपकी लेखनी की  व्यंजना शक्ति   को और भी अधिक मारक बना  दिया है.पृष्ठ नं. 55 पर  गीत संख्या 32 के बोल इस प्रकार हैं.

बह रहा है आंख से खारा समंदर

ज़िन्दगी कुछ इस तरह से  रो रही है

रात की खामोशियाँ हैं और हम हैं

बात दिल की आँसुओं से हो रही है

नींद आंखों मे जगह लेती नहीं है

स्वप्न के उपहार भी देती नहीं है

जग रहे हैं हम और दुनिया सो रही है

बात दिल की आंसुओं से हो रही है

मगर श्रृंगार लिख कर ही आप ने अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं की है.. आपकी लेखनी जीवन की  सोयी हुई आशा को झंझोड़ती है और उसे उठकर,कर्तव्य पथ पर चलने का आह्वान भी करती है . पृष्ठ संख्या 47 पर गीत सं.25 की पंक्तियाँ देखिएगा... 

पार्थ विकट हालात बहुत है मगर सामना करना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा

समझो जीवन एक समर है, मुख मत मोड़ो सच्चाई से

लड़ना होगा आज समर में, तुमको अपने ही भाई से

रिश्ते- नाते, संगी- साथी, आज भूलना होगा सबको

और धर्म का पालन करने, सत्य मार्ग पर चलना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनो से लड़ना होगा

डॉ. अर्चना गुप्ता जी का नारी सुलभ मन  कभी प्रेयसी बन कर लाजवंती के पौधे सा सकुचाया तो , कभी मां बनकर बच्चों को दुलारता दिखता  है . कभी पत्नी बनकर गृहस्थी की पोथी बांँचता  है, तो कभी बहन बनकर भाई के साथ बिताये पल याद कर भावुक हो उठता है और जब यही मन बेटी बना तो पिता के प्रति प्रेम, स्नेह, आदर, और कृतज्ञता की नदी बन भावनाओं के सारे तटबंधों को तोड़ , गीत बनकर बह चला.पृष्ठ संख्या 65 पर  गीत संख्या 38 हर बेटी के मन को छूती रचना अति उत्कृष्ट श्रेणी में रखी जायेगी .गीत की पंक्तियाँ बेहद मार्मिक बन पड़ी हैं... 

मेरे अंदर जो बहती है, उस नदिया की धार पिता

भूल नहीं सकती जीवन भर, मेरा पहला प्यार पिता

मेरी इच्छाओं के आगे, वे फौरन झुक जाते थे

मगर कभी मेरी आँखों में, आँसू देख न पाते थे

मेरे ही सारे सपनों को देते थे आकार पिता

भूल नहीं सकतीं जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता 

आपकी कलम ने जब देशभक्ति की  हुंकार भरी तो भारतीय नारी के आदर्श मूल्यों का पूरा चित्र ही गीत के माध्यम से खींच दिया, जब वो अपने पति को देश सेवा के लिए  हंँसते- हँसते  विदा करती है..तब. पृष्ठ संख्या 113 ,गीत संख्या 76 पर ओजस्वी कलम बोल उठती है

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

राह देखूंगी तुम्हारी शीघ्र ही तुम लौट आना

सहचरी हूँ वीर की मै , जानती हूँ धीर धरना

ध्यान देना काम पर चिंता जरा मेरी न करना

भाल तुम माँ भारती का, नभ तलक ऊंचा उठाना

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

 इसी क्रम में एक नन्ही बच्ची के माध्यम से एक सैनिक के परिवार जनो की मन: स्थिति पर लिखा गीत पढ़कर तो आंखे स्वयं को भीगने से नहीं रोक पायीं.... पृष्ठ संख्या 121 ,गीत संख्या 82..

सीमा पर रहते हो पापा, माना मुश्किल है घर आना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मै बस ये बतलाना

दादी बाबा की आंखों में, पापा सूनापन दिखता है

मम्मी का तकिया भी अक्सर मुझको गीला मिलता है

देख तुम्हारी तस्वीरों को, अपना मन बहलाते रहते, 

गले मुझे लिपटा लेते ये, जब मैं चाहूँ कुछ समझाना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मैं बस ये बतलाना

इसी क्रम में आपकी लेखनी ने जब तिरंगे के रंगों को मिलाकर माँ भारती का श्रृंगार किया तो अखंड भारत की तस्वीर जीवंत हो उठी .पृष्ठ संख्या 117 पर .हिंदुस्तान की शान में  लिखा ,भारत सरकार द्वारा दस हजार रूपये. की धनराशि से पुरस्कृत  गीत नं. 79 आम और खास सभी पाठकों से पूरे सौ में सौ अंक प्राप्त करता प्रतीत होता है.गीत के बोल हैं... 

इसकी माटी चंदन जैसी, जन गन मन है गान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

है पहचान तिरंगा इसकी, सबसे ऊंची शान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

सर का ताज हिमालय इसका, नदियों का आँचल है

ऋषियों मुनियों के तपबल से, पावन इसका जल है

वेद पुराणों से मिलता है, हमें यहाँ पर ज्ञान

जग में सबसे प्यारा है ये, अपना हिंदुस्तान

इसके अतिरिक्त वक्त हमारे भी हो जाना, ये सूर्यदेव हमको लगते पिता से, कुछ तो अजीब हैं हम, ओ चंदा कल जल्दी आना, पावन गंगा की धारा, मैं धरा ही रही हो गये तुम गगन. आदि गीत आपकी काव्यकला का उत्कृष्ट प्रमाण देते हैं.

डा. अर्चना जी के गीतों की भाषा -शैली सभी मानकों पर खरी उतरती हुई,आम बोलचाल की भाषा है,शब्द कहीं से भी जबरन थोपे  हुए प्रतीत नहीं होते हैं. आपकी लेखनी पर- पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति करने में भी सफल रही है. सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे सभी गीत गेयता, लय, ताल व संगीत से अलंकृत हैं.प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते, उत्सवों को मनाते, प्रकृति के सानिध्य में अध्यात्म की वीणा बजाते और देश सेवा को समर्पित गीतों का यह संग्रह , सुंदर छपाई, जिल्द कवर पर छपे मनभावन वर्षा ऋतु के चित्र के साथ रोचक व प्रशंसनीय बन पड़ा है . मेरा विश्वास है कि  डा. अर्चना गुप्ता जी के ये साँवरे सलोने गीत हर वर्ग के  पाठकों का मन मोह लेंगे.


कृति
: मेघ गोरे हुए सांँवरे (गीत संग्रह) 

कवयित्री : डॉ अर्चना गुप्ता

प्रकाशक : साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा 201301

प्रकाशन वर्ष : 2021

मूल्य : 299₹


समीक्षक
: मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 



बुधवार, 21 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी..... दावानल

     


अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मानव अंग पुनर्स्थापन विभाग में नेत्र प्रत्यारोपण के उपरांत जब मंजरी जोशी ने आंखें खोलीं तो हृदय में फूट रहे उल्लास के नवांकुर अधरों से प्रस्फुटित होने को अधीर हो उठे। दृष्टि चारों ओर घुमाकर उसने वातावरण के सौंदर्य को विस्मय से निहारा और संस्थान के चिकित्सक अनंत चतुर्वेदी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोली –"आप मेरे लिए देवदूत बनकर अवतरित हुए हैं सर! आपने मेरे नेत्रों को जीवन दान देकर मेरे जीवन को पुनर्प्रकाशित किया है। मेरा यह जीवन सदैव आपका ऋणी रहेगा। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भुला पाऊंगी कि आपने मुझे विश्व का सौंदर्य पुनः देखने की सामर्थ्य प्रदान की  है।"

      डॉक्टर चतुर्वेदी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराया–" बेटी तुम्हें मेरा नहीं अपितु उस व्यक्ति का ऋणी होना चाहिए जिसके नेत्रों को हमने तुम्हारे नेत्रों में प्रत्यारोपित किया है। आज के इस स्वार्थवादी युग में ऐसा महान धर्मात्मा होना असंभव नहीं तो कम से कम कठिन और दुर्लभ अवश्य है। एक ओर जहां इस युग में लोग अपने छोटे से स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों का जीवन लेने से भी नहीं हिचकते, वहीं उस बेचारे ने पांच-पांच लोगों को नवजीवन प्रदान कर मानवता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। धन्य है उसका यह प्रेरणादाई त्याग।" 

      मंजरी जोशी चौंकी–"पांच-पांच लोगों को किस प्रकार सर? मैंने तो मात्र नेत्रदान के विषय में ही सुना है। और वह भी केवल मृत्यु उपरांत ही।" 

      डॉक्टर चतुर्वेदी बताने लगे–"पिछले सप्ताह संस्थान में बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त एक ऐसा व्यक्ति आया था जिसके दोनों पैर और एक हाथ कुचला जा चुका था। रक्त भी बहुत बह चुका था। उसके बचने की आशा बहुत क्षीण थी। फिर भी संस्थान के चिकित्सकों ने कई दिनों तक अथक परिश्रम कर उसे जीवनदान दे दिया था। उसकी चेतना जब वापस लौटी तो हाथ-पैरों की दुर्दशा देखकर वह बहुत रोया। बिलख-बिलखकर बार-बार यही प्रार्थना करता रहा कि ऐसे जीवन से भी क्या लाभ जो पराश्रित होकर जिया जाए। इससे तो मौत अच्छी। डॉक्टर मुझे जहर का कोई ऐसा इंजेक्शन दे दो जो सरलता से मृत्यु की नींद सो सकूं।…

     "हमने उसे समझाया कि यदि तुम मृत्यु का आलिंगन करना ही चाहते हो तो अपने अंगों के दान से जीवन को अमरत्व प्रदान करते जाओ! उसकी आंखों में खुशी की लौ चमक उठी। तुरंत दानपत्र पर उसने अपने परिजनों के हस्ताक्षर करा दिए।… इस प्रकार उसके नेत्र तुम्हारे चेहरे पर हैं तथा यकृत, गुर्दे और हृदय अन्य ऐसे लोगों को प्रत्यारोपित किए गए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। वह मरकर भी अमर हो गया। धन्य है उसका जीवन, तुम्हें उसी का ऋणी होना चाहिए बेटी!"

      "क्या आप मुझे उसके घर परिवार का पता दे सकते हैं ताकि मैं वहां जाकर उसके परिजनों का आभार व्यक्त कर सकूं?"

      "नहीं बेटी संस्थान के नियमानुसार यह संभव नहीं है। हम दानकर्ता का पता किसी को नहीं देते। हां इतना अवश्य कहेंगे कि इस धरा पर राक्षस तो बहुत विचरण करते फिरते हैं, लेकिन ऐसा धर्मात्मा कभी-कभी ही अवतरित होता है। जो हजारों लाखों की भीड़ में अकेला होता है। तुलना करो बेटी! वह एक राक्षस भी इसी धरती का जीव था जिसने तुम्हारे नेत्रों की ज्योति छीनकर तुम्हारे जीवन में घोर अमावस जैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था। और यह धर्मात्मा भी इसी धरती पर जन्मा था जिसने तुम्हारे जीवन के अंधकार को अपना बलिदान देकर प्रकाशपुंज में परिवर्तित कर दिया। धरती और आसमान जैसा कितना विशाल अंतर है दोनों के व्यक्तित्व में।"

      मंजरी को लगा कि डॉक्टर चतुर्वेदी ने अनजाने में उसके रोपित व्रण को छील दिया …ऐसा व्रण जिसके रोपण में इतना लंबा समय निकल गया था… यकायक उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस का वीभत्स चेहरा उभर आया, जिसने एक प्रकार से उसे मृत्यु के आगोश में ही धकेल दिया था… उसके प्रकाशपुंज सदृश जीवन को तिमिराच्छादित कर दिया था…और वर्तमान छोड़कर वह अतीत से जा जुड़ी…….

     पत्रकारिता का पाठ्यक्रम कर रही थी वह उन दिनों। प्रतिदिन बस से आना-जाना पड़ता था। अनेक राक्षसी आंखों का सामना होता था। जिसे भी देखो वही उसके नैसर्गिक सौंदर्य को ऐसे निहारता प्रतीत होता जैसे क्षणिक अवसर मिलते ही समूचा निगल जाएगा। पर ऐसी काकदृष्टियों की अभ्यस्त हो चली मंजरी कांव-कांव करने वाले इन कव्वों से लेश मात्र भी तो भयभीत नहीं होती थी। कोई दुष्ट छींटाकशी करता भी तो वह मक्खी- मच्छर की भांति झटक देती। ऐसी अशोभनीय प्रक्रियाओं का प्रायः उसे नित्य प्रति ही सामना करना पड़ता था। अतएव किसी भी मनचले को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया था।

      बस कुछ इसी तरह से गंगा नदी की भांति कभी चट्टानों से टकराती, कभी पत्थरों को धकेलती, चकनाचूर करती जिंदगी अनवरत रूप से बही चली जा रही थी।

      लेकिन अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से एक भारी-भरकम चट्टान ने उसकी राह में आकर उसके प्रवाहक्रम को बाधित कर दिया। उसे क्या पता था कि प्रतिदिन पूरे रास्ते पीछा करने वाला वह राक्षस उसके जीवन को अंधकारमय बनाकर रख देगा? उसे न जीता छोड़ेगा न मरता। 

     सड़क पर बने यात्री प्रतीक्षालय से उसकी गतिविधियां प्रारंभ हो जातीं… हर पल में उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरता रहता और पलार्द्ध को भी दृष्टि टकराती तो दुष्ट विषाक्त हंसी हंस पड़ता। बस में चढ़ती तो साथ-साथ चढ़ता, सटकर बैठने अथवा खड़े होने की दुष्चेष्टा करता, उसके समीप अपना खुरदरा मुंह करके कोई भी फब्ती कस देता। उसकी दुष्चेष्टाएं जब असह्य हो उठतीं तो वह उसे आग्नेय नेत्रों से घूर देती। लेकिन अद्भुत  साहस का धनी था वह भी। नेत्रों से निकलती चिंगारियों से भी लेशमात्र भयभीत नहीं होता। अपितु दाईं आंख दबाकर धीरे से हंस पड़ता।

      कभी इतनी व्याकुल नहीं हुई थी मंजरी, जितना इस राक्षस के कारण हुई थी…हृदय की व्यथा कहे भी तो किससे कहे?… परिवार वालों से कहेगी तो तत्काल उसका विद्यालय जाना रोक देंगे… वे तो पहले से ही इस संघर्षभरे पाठ्यक्रम के विरोधी थे। मंजरी शैशव से ही संघर्षों से टकराना सीख गई थी। उसकी हठधर्मिता के समक्ष परिवार वालों को झुकना पड़ता था… थाने में शिकायत करने जाए तो पुलिस वाले चटखारे लेकर परिहास उड़ाएंगे, कई तरह के सुझाव देकर पीछे छुड़ा लेंगे। और थाने से निकलते ही हृदयोद्गार व्यक्त करने से भी नहीं चूकेंगे –'जालिम है भी तो इतनी खूबसूरत कि देखते ही दिल बेलगाम हो जाता है।'

     वह स्वयं ही कई दिनों तक आत्ममंथन करती रही…सोचती रही…विचारती रही… और आखिर में स्वयं ही उस राक्षस को सीख देने का  वज्र निर्णय  मन ही मन ले बैठी।

      एक सुबह को जब वह यात्री प्रतीक्षालय पहुंची तो उसका स्वयंभू प्रेमी पहले से ही वहां खड़ा था। उसके पहुंचते ही वह आगे बढ़कर बोला–'भगवान ने तुम्हें इतना भरपूर सौंदर्य प्रदान किया है कि तुम्हें देखते ही मेरा दिल बेकाबू हो जाता है। तुम नहीं जानतीं मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं। सच-सच बताओ क्या तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो?'

      क्रोध की पराकाष्ठा में मंजरी का अंग-अंग कंपकंपाने लगा। ढेर सारा झागदार थूक मुख से निकालकर उसने दुष्ट  के मुंह पर उछाल दिया। साथ ही दाएं पंजे में शरीर की संपूर्ण ऊर्जा सन्निहित कर तड़ाक से उसके गाल पर छापते हुए बोली–'ले यह है मेरा जवाब!'

      विस्मित नेत्रों से तमाशा देख रहे लोग रोमांचित होकर उपहास की हंसी हंस पड़े। और थोथी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उसकी बहादुरी की प्रशंसा करने लगे। परंतु चूड़ियां पहने कायर पुरुषों के वक्तव्य सुनने के लिए वह रुकी नहीं। तेज-तेज कदमों से घर पर वापस लौट आई। परिजनों ने वीरता भरा वृतांत सुना तो पीठ थपथपाने के बजाय उसी को डांटने लगे–'क्या जरूरत थी उस गुंडे मवाली से पंगा लेने की? कल को वह प्रतिशोध लेने पर उतर आया तो न जाने क्या परिणाम सहना पड़े? हमें नहीं करवानी ऐसी पत्रकारिता जिस की राह में कांटे ही कांटे बिछे पड़े हों।'

      साथ ही उसे कर्कश आदेश भी सुनना पड़ा था–'कल से तू कॉलेज नहीं जाएगी।घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी।'

      मंजरी पलांश में आकाश से धरती पर गिर पड़ी। उसे लगा उसका अस्तित्व शून्य में विलीन हो गया है। नेत्रों से अश्रु टपककर पैरों पर गिर पड़े। स्वर में आक्रोश का पुट उभर आया–'क्या समझते हैं आप नारी को? मोम की गुड़िया या हाड़मांस का निष्प्राण शरीर?… जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे उसकी कोई महत्ता ही न हो… क्या ईश्वर ने नारी को मात्र पुरुषों का अत्याचार सहने के लिए ही बनाया है? क्या उसे सिर उठाकर जीने का कोई अधिकार नहीं?… कैसी दयनीय स्थिति बना दी है इस पुरुष समाज ने नारी की… घर के लोग ईंटों की दीवारों में कैद रखना चाहते हैं तो बाहर के लोग जीवित निगल जाने को तैयार … लेकिन मंजरी को ऐसा कातर जीवन कदापि स्वीकार नहीं… वह जिएगी तो स्वाभिमान पूर्वक सिर उठाकर जिएगी, अन्यथा हंसते-हंसते सहर्ष मृत्यु का आलिंगन कर लेगी'…

     निकृष्ट छद्म प्रेमी से वह लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुई थी। अपितु एक नए उत्साह से भरकर फिर से विद्यालय जाने लगी थी।

      कुछ दिनों तक उस बर्बर की छाया भी कहीं दिखाई नहीं दी तो वह हर ओर से निश्चिंत हो गई थी। शायद अपमान दंश से लज्जित होकर वह कहीं किसी विवर में जा घुसा था।

      लेकिन वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी शीघ्र ही आ पहुंचा जब उसके जीवन के चंद्रमा जैसे प्रकाश को राहु ने ग्रसकर अमावस जैसा घोर अंधकार व्याप दिया।

      संध्या के झुरमुटे में जब वह एक दिन घर वापस लौट रही थी तो एक संकरी गली में किसी गुरिल्ले की भांति वह यकायक मंजरी के सामने प्रकट हुआ और लोहे के शिकंजे जैसा हाथ उसके मुंह पर चिपकाकर कंधे पर डाल समीपस्थ सुनसान खंडहर में ले गया। और लगा पाशविक कामुक चेष्टाएं करने। मंजरी ने पूरी शक्ति के साथ उसकी हर कुचेष्टा का प्रतिकार किया। परंतु एक कोमल कमनीय काया कब तक उस बलिष्ठ पशु का सामना कर पाती? शीघ्र ही उससे परास्त होने लगी। उसे लगा कि यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो वह उसकी अस्मत तार-तार कर देगा।

     अतएव अपने दांत उसने ऊपर पड़े राक्षस के वक्ष में पूर्ण शक्ति से चुभा दिए। असह्य वेदना से तिलमिलाकर वह उसके ऊपर से तो हट गया, परंतु क्रोधावेश में थरथरा उठा। दोनों हाथों से मंजरी का सिर पकड़कर उसने पूर्ण वेग के साथ दीवार में दे मारा। मंजरी की आंखों के सामने तारे से झिलमिलाए तथा मस्तक बड़ी तीव्रता से घूमने लगा। दोनों हाथों से सिर को थामकर वह एक और गिर पड़ी। और कुछ ही पलों में संज्ञाशून्य होती चली गई। फिर कुछ भी तो उसके संज्ञान में नहीं आ पाया कि निकृष्ट राक्षस ने उसकी अचेत देह के साथ  क्या-क्या किया?

      चेतना वापस लौटी तो उसने स्वयं को चिकित्सालय में परिजनों व चिकित्सकों से घिरा पाया। उन लोगों के पारस्परिक वार्तालाप से ही उसे आभास हुआ कि मस्तिष्काघात के कारण उसका रेटिना नष्ट हो चुका है। नेत्रों की ज्योति सदा-सदा के लिए समाप्त हो चुकी है।

     सन्न रह गई जलधारा सी सहज मंजरी जोशी… और वह केवल सन्न ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे किसी ने उसके भावनामृत युवा शरीर से सारी शक्ति खींच ली हो… जीवन हीन कर डाला हो। उसके अधरों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई।अंत:करण शोक और निराशा से परिपूर्ण हो उठा… लगा कि जैसे कोंपल जैसे बसंत पर यकायक पतझड़ टूट पड़ा है। मन हुआ कि चीत्कार कर उठे …इतनी जोर से रोए कि अपना ही सीना फट जाए… सावन की घनघोर काली घटाओं की तरह हृदय की पीड़ा सघन हो उठी… कालचक्र ने यह कैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था उसके सद्यप्रकाशित जीवन में…

      फिर भी दु:खाग्नि में जलते अपने हृदय पर उष्ण घृतवत आ गिरे इस भयावह वृतांत को पचाने में उसने समूची संयम शक्ति लगा दी। शांतभाव से समूचे घटनाक्रम को भीतर ही भीतर पी गई वह। असंतोष और क्षोभभरा एक भी शब्द मुख से बाहर नहीं निकलने दिया। लाभ भी क्या था कुछ कहने से? चंद्रमा पर लगा कलंक का टीका और भी काला हो सकता था।

      घृणा  लावे की तरह तन-मन को जलाकर राख करती रही… चुप रहकर भीतर ही भीतर वह जलती रही…बस जलती रही।

      परिजन उसे लेकर कहां-कहां नहीं घूमें-फिरे थे? किस-किस ख्याति प्राप्त नेत्र चिकित्सक के पास नहीं गए थे? परंतु हर किसी का एक ही निराशा भरा उत्तर होता था–'अफसोस नेत्र ज्योति वापस नहीं आ सकती। नेत्र प्रत्यारोपण के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं।'

      लेकिन नेत्र भी किसी दुकान पर बिकते हैं क्या कि खरीदो और प्रत्यारोपित करा लो?

      थक-हारकर निराश से सभी घर बैठ गए थे। और मंजरी को उसके भाग्य और परिस्थितियों पर छोड़ दिया था।

     परंतु मंजरी जोशी उस मृत्तिका से नहीं बनी थी जिससे निर्मित लोगों के लिए लाचारी और विवशता जैसे शब्द ज्यादा अर्थमय होते हैं। नेत्र ज्योति खोकर भी वह लाचार अथवा असहाय बनकर शांत नहीं बैठी। अपनी इस अपंगता को उसने चुनौती के रूप में स्वीकार किया। और परिजनों की इच्छा के विपरीत एक सहायिका के माध्यम से विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में छिपे हुए पहलुओं को उजागर करना उसका मुख्य शौक बन गया।काले चश्में से नेत्रों को ढके अपनी सहायिका को साथ लेकर चर्चाओं के वृत्त में कैद पुरुषों को प्रश्नों के जाल में ऐसा उलझाती कि शीर्ष पुरुष पिंजरे में बंद पक्षी की तरह छटपटाने लगता। ऐसे साक्षात्कार लोग चटखारे ले-लेकर पढ़ते।

        परंतु विगत की तिक्त स्मृतियां हर पल उसके मस्तिष्क में लोहशस्त्र जैसा प्रहार करती रहतीं। बलात् किए गए कामुक स्पर्शों की विषाक्त पीड़ा देह में वृश्चिक दंश जैसी चुभन का एहसास कराती रहती। जीवन को अंधकारमय बनाने वाले उस निकृष्ट राक्षस का वीभत्स चेहरा भयानक अट्टहास करता हुआ कभी भी उसके अवचेतन में उभर आता। तब आवेश में शरीर की शिराएं झनझना उठतीं। क्रोध की अधिकता में मुट्ठियां कस जातीं। मन करता कि कहीं सामने आ जाए तो उसका चेहरा नोंच डाले…

      लेकिन अगले ही पल अपने असामर्थ्यबोध पर तिलमिला उठती… सामने आ भी गया तो पहचानेगी कैसे?… उफ्फ!उसने तो न जीता छोड़ा और न मरता… इससे तो अच्छा था मार ही डालता… इस प्रकार घुट-घुटकर तो न मरना पड़ता… एक जीवित लाश बनकर तो न जीना पड़ता।

     उन्हीं दिनों उसने कहीं सुना कि आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉ अनंत चतुर्वेदी अपने सहयोगी चिकित्सकों के साथ उन रोगियों को उचित अंग प्रत्यारोपित कर नवजीवन प्रदान करने के महान कार्य में जुटे हुए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा रह जाता।

      बस वह पहुंच गई उनका साक्षात्कार शब्दांकित करने… डॉक्टर चतुर्वेदी उसे शांत, गंभीर, परोपकारी और त्यागी-तपस्वी से लगे। साक्षात्कार के मध्य ही डॉक्टर चतुर्वेदी उसकी काले चश्मे के पीछे से झांकती आंखों की असामर्थ्यता पहचान गए। उन्होंने स्वयं ही उसके सामने नेत्र प्रत्यारोपण का प्रस्ताव रख दिया। हर्षातिरेक में मंजरी का झरने की तरह झनझनाता हुआ मृदुल स्वर भर्रा उठा–'सर क्या मैं पूर्व की भांति फिर से विश्व के सौंदर्य का आनंद ले सकती हूं? क्या मेरी खोई हुई नेत्रज्योति पूरी तरह वापस लौट सकती है?'

     'हां-हां क्यों नहीं? हमारे नेत्र शल्यकर्म के कुछ ही दिनों बाद तुम विश्व की रंगीनियों का सौंदर्यपान अपनी आंखों द्वारा कर सकती हो!' डॉ चतुर्वेदी ने उसे विश्वास दिलाया तो वह सतरंगी सपनों की वादियों में विचरण करने पहुंच गई।

"बेटी! तुम्हारा ऑपरेशन सफल रहा, चाहो तो घर जा सकती हो!"  डॉक्टर चतुर्वेदी ने उसकी आंखों पर बंधी पट्टियां खोलते हुए कहा तो उसका स्वप्निल संसार ऐसे छिन्न-भिन्न हो गया जैसे किसी ने शांत और स्थिर जल में ऊपल फेंक दिया हो।

      घर वापस लौटते ही पुनः संघर्षमई पत्रकारिता में जुटने में उसने पल भर का भी विलंब नहीं किया। अपने कार्य में वह स्वयं को इस तरह उलझाए रखती कि स्मृतियां उद्वेलित न करें। लेकिन जब कभी विगत से जुड़ जाती तो हृदय में आकाश तक को धुंधला देने वाले रेतीले बवंडर उठ खड़े होते…विगत की कष्टकारी अनुभूतियां उसे अनंत रेगिस्तान जैसी झुलसन का एहसास करातीं तो वर्तमान के आनंददाई पल तन-मन को पुलकित करके रख देते। एक ओर वह नेत्रदान जैसा पुण्यकर्म करने वाले उस महान धर्मात्मा के चेहरे को अज्ञात रेखाओं द्वारा पहचानने का प्रयास करती रहती जिसका वह नाम तक नहीं जान सकी थी…कितना पवित्रात्मा था वह जो मरकर भी अमर हो गया… उसका तो किसी प्रकार ऋण भी नहीं चुकाया जा सकता।

     तो दूसरी ओर एकांतिक अवसर पाते ही वह विगत से जुड़ जाती। तब उसे अपने जीवन की सुख-शांति हर लेने वाले उस राक्षस का वीभत्स चेहरा चिढ़ाता हुआ सा दिखाई देता…घृणा तन-मन को जलाकर राख कर देने को उतावली हो उठती…

     और जब-जब भी उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस की भयावह आकृति उभरकर आती तब-तब उसकी देह में एक दावानल सुलगने लगता… ऐसा दावानल जिसकी प्रचंड लपटें आसमान तक की हर वस्तु को भस्मीभूत करने को आतुर हो उठतीं…दुःख और अपमान की चिंगारियां  उसके अंग-प्रत्यंग को झुलसाने लगतीं…सारे शरीर में उत्तेजना व्याप्त हो जाती।मन करता कि कहीं मिल जाए तो कुचल-मसलकर रख देगी…समाज के सामने ऐसा नंगा करेगी उसे कि पश्चात्ताप और घृणा की अग्नि में स्वयं ही तिल-तिल जल मरेगा।

     कैसी विचित्र सी स्थिति हो गई थी उसकी…कभी तो मन वर्तमान के आनंददाई क्षणों को महसूस कर चांदनी भरे आकाश की तरह निर्मल तथा शांतिमय हो जाता तो कभी अगले ही पल दुःख और अपमान के भारी बोझ से वर्षा के घटाटोप मेघ सा घिर आता। पाशविक दुराचरण और सामाजिक अवमानना का स्मरण होते ही उसके भीतर प्रतिशोध की वह भावना बलवती हो उठती जो ध्वंश की प्रलय लाती है।

     दैवयोग से ऐसा अवसर भी शीघ्र ही हाथ आ गया जब उस दुष्टात्मा तक पहुंचने का सूत्र उसके हाथों तक स्वत: चला आया।

     पिछले वर्षों के आपराधिक आंकड़ों का तुलनात्मक ग्राफ तैयार करते समय एक पुराने समाचारपत्र में उस राक्षस का सचित्र विवरण उसे अकस्मात् ही दिखाई दे गया…हूबहू वही था…वही बिज्जू जैसी चमक बिखेरती छोटी-छोटी आंखें, खुरदरा चेहरा और मोटे से भद्दे होंठ, दैत्यों वाली मोटी नाक और अस्त व्यस्त उलझे हुए बाल…छायाचित्र में भी कितना वीभत्स लग रहा था दुष्ट…जैसे अभी छायाचित्र से बाहर निकलकर पुनः पाशविक आचरण करने लगेगा।

     क्रोधाधिकता में जबड़े भिंच गए उसके और मुट्ठियां कस गईं, शिराएं झनझना उठीं…लगा जैसे खौलता हुआ तरल लोह पदार्थ उसकी नस-नस में प्रवाहित होकर ज्वालाएं उगल रहा है। तीव्र अपमान का एहसास और भयंकर वेदना ने एक बार पुनः उसके भावनामृत शरीर को झकझोरकर रख दिया…प्रतिशोध लेकर रहेगी उससे…दुर्भाग्य का जैसा काला डरावना बादल उस पिशाच ने जीवन के निर्मल आकाश पर आच्छादित कर दिया था उससे भी ज्यादा गहरी कालिमा वह उसके पूरे जीवन पर पोतकर रहेगी…ऐसा पंगु बना देगी उसे कि धूर्त मृत्यु की भिक्षा मांगने को विवश हो जाएगा।

     कंधे पर बैग लटका तत्काल सहायिका को साथ ले वह समाचारपत्र में दिग्दर्शित पते की खोज में निकल पड़ी। 

     और जब वह झुग्गी झोपड़ी जैसे उसके घर में प्रविष्ट हुई तो सामने की दीवार पर शीशे के आवरण में कैद उस निकृष्ट राक्षस की छायाकृति टंगी देखकर क्रोध की ज्वाला में दहक उठी। नेत्रों से चिंगारियां सी झड़ने लगीं… जैसे सर्वप्रथम उसी छायाचित्र को भस्मीभूत करेगी… संपूर्ण बदन में विद्युत लहरियों जैसी तेज लपटें सुलग  आईं… क्रोधावेश में उसे यह भी तो ध्यान नहीं रहा की छायाकृति पर तो पुष्पमाल टंगी है। सहायिका ने  भ्रू संकेत से उसका ध्यान आकृष्ट किया तो वह चौंक पड़ी… यथार्थ का बोध होते ही आवेश किसी तरल पदार्थ की भांति बहकर शिराओं से बाहर निकलने लगा। क्रोध का ज्वार भी नीचे गिरने लगा। देह शीतल होने लगी।

      असमंजस के से भाव नेत्रों में लिए वहां खड़ी एक युवती दो अजनबी युवतियों को घर में यकायक प्रविष्ट हुआ देखकर कुछ समझ नहीं पाई तो उसने मंजरी से पूछ लिया–" बहन जी! क्या आप इन्हीं के बारे में कोई जानकारी लेने आई हैं या कोई और प्रयोजन है ?"

      मंजरी की गर्दन स्वीकृति में हिलते ही उस युवती के नेत्रों में दर्द का समंदर उमड़ पड़ा और कंठ भर्रा गया–" बहन जी! मेरे पति की स्मृति है यह। बेचारे मरकर भी अमर हो गए। जीते जी तो मुझे कुछ सुख दिया या नहीं वह तो अलग की बात है, परंतु मरते समय जो पुण्य कार्य वह कर गए हैं उससे मेरा भी मस्तक गर्व से ऊंचा उठ गया …दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ कुचल गए थे उनके। जीने का कोई प्रयोजन भी नहीं रह गया था उनकी सोच में। अपंग और पराश्रित होकर जीना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। अपना एक जीवन खोकर पांच-पांच जिंदगियों को नया जीवन प्रदान कर गए हैं वह।अब आप ही बताइए बहन जी! क्या आपने ऐसे महान धर्मात्मा के विषय में कहीं सुना है जिसने पांच-पांच जिंदगियों को सुख पहुंचाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? वरना जिंदगी किसे प्यारी नहीं होती? क्या प्रेरणापुंज सदृश नहीं  है उनका यह कृत्य?"

      लंबी-लंबी सिसकियों के बीच उसका स्वर अटककर रह गया। अंगुलियों के पोरों से आंसुओं को पोंछकर वह पुनः भावनाओं में बह गई–" ऐसी श्रेष्ठ पुण्यात्मा के प्रति किसका मस्तक श्रद्धा से नहीं झुक जाएगा बहनजी? शायद आप भी इसी परोपकारी को शीश झुकाने आई होंगी? श्रद्धांजलि अर्पित करने आई होंगी इन्हें जैसे कि अन्य बहुत से लोग नित्यप्रति आते रहते हैं। प्रेरणादायक है ऐसे दानवीर का महान व्यक्तित्व।"

      मंजरी प्रस्तर प्रतिमा सी अवाक् खड़ी रह गई। उसके कर्णद्वय युवती के हृदयोद्गारों को बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। और विस्फारित सी दृष्टि उसी छायाकृति को अपलक निहारे जा रही थी। परंतु जिह्वा जैसे लकवाग्रस्त हो गई थी अथवा शब्दकोश ही समाप्त हो गया था… कोई भी तो शब्द मुख से बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे निकृष्ट राक्षस कहे या धर्मात्मा की उपाधि प्रदान करे?… अथवा धर्मात्मा-राक्षस कहकर पुकारे?…

     उसकी अपनी आंखों में उसी की आंखों की रोशनी जगमगा रही थी जिसने किन्हीं दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में उसे विवेकशून्यता से ग्रसित होकर नेत्रांधता प्रदान की थी।

      वर्षों से सुलगता आया दावानल इस तरह कभी स्वत: ही पलांश भर में शांत हो जाएगा जैसे किसी ने यकायक ढेर सारा जल उछाल दिया हो… उसने कभी सोचा भी नहीं था…न ही कभी कल्पित कर सकी थी।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत