शनिवार, 1 जुलाई 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के दो नवगीत ----

(1)

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल 

गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली

वर्षा थी, यूँ अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका 

कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल 

कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली

(2)

है समय प्रतिकूल माना

पर समय अनुकूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

घन तिमिर में इक दिये की

टिमटिमाहट भी बहुत है

एक सूने द्वार पर

बेजान आहट भी बहुत है

   

लाख भंवरें हों नदी में

पर कहीं पर कूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

विरह-पल है पर इसी में

एक मीठा गान भी है

मरुस्थलों में रेत भी है

और नखलिस्तान भी है

   

साथ में ठंडी हवा के

मानता हूं धूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


है परम सौभाग्य अपना

अधर पर यह प्यास तो है

है मिलन माना अनिश्चित

पर मिलन की आस तो है

   

प्यार इक वरदान भी है

प्यार माना भूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


-कुँअर बेचैन

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