सोमवार, 18 मार्च 2024

श्री अरविंदो सोसाइटी के तत्वावधान में 17 मार्च 2024 को काव्यगोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की संस्था अरविंदो सोसाइटी के तत्वावधान में कम्पनी बाग स्थित स्वतंत्रता सेनानी भवन में राष्ट्र चेतना विषय पर केंद्रित काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। मनोज 'मनु' द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्य भूषण डॉ महेश 'दिवाकर' ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में सरिता लाल, विशिष्ट अतिथि के रूप में धवल दीक्षित, फक्कड़ मुरादाबादी एवं वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई मंचासीन रहे। कार्यक्रम का संचालन विवेक 'निर्मल' के द्वारा किया गया। 

   डॉ प्रेमवती उपाध्याय के संयोजन में हुए इस कार्यक्रम के सह-संयोजक दुष्यन्त 'बाबा' ने अपनी कविता पढ़ते हुए कहा- 

'हरि-हरि में मतभेद कर, फँसे भक्त भव कूप।

 दृग माया का  मैल है, सब  ही  उसके  रूप'

राजीव प्रखर ने पढ़ा- 

'जलते-जलते आस के, देकर रंग अनेक। 

दीपक-माला कर गई, रजनी का अभिषेक' 

शुभम कश्यप ने अध्यात्म विषय पर अपनी अभिव्यक्ति कुछ इन पंक्तियों से की-

भक्ति से श्रद्धा बढ़ी, ऊंचा मिला मुक़ाम।

जब से कर दी ज़िंदगी, गोविंद तेरे नाम' 

डॉ मनोज रस्तोगी ने गीत प्रस्तुत किया -

'घर-घर में करना आह्वान है। 

मत का करना सही दान है।। 

परिवार सहित चलें बूथ पर। 

बाद में करना जलपान है'  ।।

 अचल दीक्षित ने सुनाया-

 'देखो-देखो बसंत आया है 

चंचल चितवन चित्त चकराया है'

 वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने अपने हास्य-व्यंग्य के माध्यम से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 

वरिष्ठ साहित्यकार योगेंद्र वर्मा 'व्योम' ने रचना प्रस्तुति से आनंदित करते हुए पढ़ा-

केवल अपनापन रहे, हर मन का सिरमौर। 

साहित्यकार अशोक 'विद्रोही' ने सुनाया-

'साल पाँच सौ गुजर गए अब भाग्य बदलने वाले हैं, 

श्री रामचंद्र फिर से अपने मंदिर में आने वाले हैं' 

 अनन्त 'मनु' ने अपने पिता मनोज मनु का गीत प्रस्तुत किया तो श्री राघव ने 

'ऋतुएं भी कुछ ऐसे, करवट बदलने लगी हैं 

बसंत में भी पेड़ों से पत्तियां गिरने लगी हैं' 

सुनाकर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। 

     इस अवसर पर मंचासीन साहित्य भूषण महेश 'दिवाकर', डॉ सरिता लाल, हास्य कवि फक्कड़ मुरादाबादी, ओंकार सिंह 'ओंकार', रघुराज सिंह 'निश्छल', राम सिंह 'निशंक' एवं समाजसेवी धवल दीक्षित ने भी राष्ट्र चेतना विषयक विचार एवं रचनाएँ प्रस्तुत कीं। कार्यक्रम संयोजिका डॉ प्रेमवती उपाध्याय के द्वारा आभार अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम पूर्णता को प्राप्त हुआ।
















































:::::प्रस्तुति:::::::

दुष्यंत 'बाबा'

9758000057

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित श्रीकृष्ण शुक्ल का संस्मरणात्मक आलेख...बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे वे



स्मृतिशेष  शिशुपाल सिंह राजपूत 'मधुकर' जी से मेरा प्रथम परिचय राजभाषा हिन्दी प्रचार समिति की काव्य गोष्ठी में हुआ था। उससे पूर्व मैंने साहित्यिक मुरादाबाद के वाट्स एप कवि सम्मेलन में श्रमिकों की स्थिति पर अपनी एक कविता शेयर की थी , उसी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने अपना परिचय दिया था। उसके बाद तो तमाम गोष्ठियों में उनसे भेंट होती रही। धीरे धीरे उनकी रचनाओं को सुनते सुनते सामाजिक संदर्भों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का परिचय मिला। 

ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान उन्हें मेरी सहज योग के प्रति आस्था के विषय में पता चला तो देर तक चर्चा चली। उसी चर्चा के दौरान उनकी साम्यवादी विचारधारा का परिचय मिला। कहीं सहमति और कहीं असहमति के कारण यह चर्चा लंबी चलने लगी। उसी दौरान उन्होंने साम्यवाद से संबंधित एक किताब मुझे दी । 

वह साम्यवादी दल में केवल राजनीति के लिए नहीं थे बल्कि धरातल पर शोषित पीड़ित और उपेक्षित वर्ग के हितार्थ कार्य भी करते थे। मुरादाबाद में रेहड़ी, पटरी वाले दुकानदारों के पुनर्वास हेतु उन्होंने निरंतर आंदोलन किया था।

वर्ष 2022 के विधान सभा चुनाव में मुरादाबाद देहात विधानसभा क्षेत्र से उन्होंने विधायक हेतु चुनाव भी लड़ा था। 

श्री मधुकर काव्य सृजन के अतिरिक्त फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी सक्रिय थे। उनके द्वारा निर्मित दो फिल्मों के प्रीमियर पर मैं भी सम्मिलित हुआ था। एक फिल्म 'मेरा कसूर क्या था', कन्या भ्रूण हत्या तथा दूसरी फिल्म नशे की कुप्रथा के संदर्भ में निर्मित थीं। दोनों ही फिल्में दर्शकों के मन पर अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम थीं। 

इससे ज्ञात होता है कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे।

सितंबर 2022 में एक दिन अचानक उनका फोन आया, और उन्होंने बताया कि उनकी साहित्यिक संस्था 'संकेत' अपनी रजत जयंती मना रही है। उक्त अवसर पर पॉंच साहित्यकारों की रचनाओं का एक साझा काव्य संग्रह संस्था द्वारा प्रकाशित कराया जाना है, और उन साहित्यकारों में मेरा सम्मान करना निश्चित हुआ है। उक्त संदर्भ में उन्होंने मुझसे मेरी 20 रचनाएं भेजने का आग्रह किया। पहले मैंने यही कहा कि मैं तो साधारण सा लेखक हूॅं, मुरादाबाद में बहुत से श्रेष्ठ रचनाकार हैं, उनके रहते मेरा सम्मान उचित नहीं, लेकिन उन्होंने कहा, हम जानते हैं कि आपका साहित्य कैसा है, संस्था ने आपको चयनित किया है, संस्था के अध्यक्ष आदरणीय अशोक विश्नोई जी भी यही चाहते हैं। 

तत्पश्चात मैंने उनसे थोड़ा समय माॅंगा और कुछ ही दिनों में बीस रचनाएं प्रेषित कर दीं।

मैंने उनसे साझा संग्रह हेतु आर्थिक योगदान के विषय में जानकारी चाही किंतु वह टाल गये। आदरणीय अशोक विश्नोई जी से मैंने बहुत आग्रह किया तब उन्होंने योगदान हेतु सहमति दी, और योगदान देकर मुझे भी संतुष्टि मिली।

अंततः 20 नवंबर 2022 को संस्था द्वारा आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में हम पॉंच साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। हमारे अतिरिक्त अन्य साहित्यकारों, रामपुर से श्री ओंकार सिंह विवेक, धामपुर से श्री प्रेमचंद प्रेमी, मुरादाबाद की वरिष्ठ कवियित्री डा. प्रेमवती उपाध्याय और मुरादाबाद की ही मीनाक्षी ठाकुर का सम्मान उक्त कार्यक्रम में हुआ।

उसके बाद मधुकर जी से हमारे संबंध और प्रगाढ़ हो गये थे।  माह दिसंबर से मार्च तक हम सहजयोग की प्रवर्तिका माताजी श्री निर्मला देवी जी के जन्म शताब्दी महोत्सव की तैयारियों व आयोजनों में व्यस्त रहे, जिस कारण साहित्यिक गतिविधियों से सक्रिय नहीं रह पाये थे, पटल पर भी सक्रियता न्यूनतम थी।

उन्हीं दिनों अचानक 2 मार्च 2023 को आदरणीय विश्नोई जी द्वारा उनके देहावसान की खबर पटल पर दी गई । अचानक से आघात लगा, विश्वास ही न हुआ कि इतने सक्रिय और दिखने में ह्रष्ट पुष्ट व्यक्ति अचानक हमारे बीच से चला गया। बड़ी मुश्किल से मन को समझाया। नियति को जो मंजूर था वह तो घट ही चुका था।

अभी विगत 3 मार्च को उनकी प्रथम पुण्य तिथि पर संकेत संस्था के बैनर तले ही, आदरणीय अशोक विश्नोई जी के संयोजन में उनकी स्मृति में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिसमें मुरादाबाद और आस पास के साहित्यकारों द्वारा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त किये और उनकी रचनाओं का वाचन किया था, उक्त कार्यक्रम में कुछ साहित्यकारों का सम्मान भी किया गया।

कार्यक्रम में मधुकर जी के परिजनों द्वारा यह भी सूचित किया गया कि उनकी स्मृति में यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष होगा।

निश्चय ही समाज को समर्पित एक संवेदनशील रचनाकार, आमजन को समर्पित एक राजनेता और एक संवेदनशील फिल्म निर्माता की स्मृतियों को चिरकाल तक जीवंत रखने का यह बहुत अच्छा निर्णय है।

उनकी तमाम रचनाएं, जो न जाने हमने कितनी बार पढ़ी थीं, लेकिन उनके लेखन की आत्मा को हम तब नहीं समझ पाये थे, आज पढ़कर और मंच से अन्य साहित्यकारों से सुनकर उनके लेखन की गहराई अब समझ में आती है।

जब वह कहते हैं:

1.

मजदूरों की व्यथा-कथा तो

कहने वाले बहुत मिलेंगे

पर उनके संघर्ष में आना

यह तो बिल्कुल अलग बात है,

तब उनके मन की पीड़ा का पता चलता है।

यह पंक्तियां भी देखें:

2.

तुम कुछ भी कहो

हम चुप ही रहें

यह कैसे तुमने सोच लिया,

3.

निशाने पर रहा हूं मैं निशाने पर रहूँगा मैं 

गलत बातों से मेरी तो रही रंजिश पुरानी है ,

4.

झूठ गर सच के सांचे में ढल जाएगा

रोशनी को अंधेरा निगल जाएगा

और

5.

छोड़ दो उसकी उंगली बड़ा हो गया

ठोकरे खाते - खाते संभल जाएगा।


उनकी सभी रचनाएं सामाजिक असमानता, विद्रूपता, शोषित, पीड़ित व वंचित वर्ग की आवाज बनकर हमारे समक्ष आयी हैं। जब जब ये पढ़ी जायेंगी तब तब ये आवाज़ और ऊॅंची उठकर व्यवस्था की नींद को झकझोरेगी। यही उनके लेखन की महानता है। इन्हीं शब्दों के साथ स्मृति शेष मधुकर जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूॅं।

साथ ही उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर उनकी स्मृति में यह आयोजन कराने के लिये साहित्यिक मुरादाबाद पटल के प्रशासक डा. मनोज रस्तोगी का भी ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूॅं।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल

फ्लैट नंबर T-5 / 1103

आकाश रेजीडेंसी अपार्टमेंट

आदर्श कालोनी, मधुबनी के पीछे

कांठ रोड

मुरादाबाद 244001 

उ.प्र. , भारत

मोबाइल नंबर: 9456641400


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित फरहत अली खां का संस्मरणात्मक आलेख....वो 'नायाब' हैं


ढूंँढोगे अगर मुल्कों-मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम

जो याद न आए भूल के फिर ऐ हमनफ़्सो वो ख़्वाब हैं हम

शाद अज़ीमाबादी(1846-1927) का ये मतला किन 'नायाब' लोगों की तरफ़ इशारा करता है?... बेशक, ऐसी शख़्सियात, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बन जाएँ।

राजपूत सर की शख़्सियत को मैं इसी तरह देखता हूँ। हमारे तअल्लुक़ की उम्र कोई 13-14 साल हुई होगी, जिस में से काफ़ी वक़्त तक बात सलाम-दुआ तक रही। एक ही कम्पनी(बीएसएनएल) में होने की वजह से तकल्लुफ़ से काम लिया जाता था, जैसा कि सीनियर-जूनियर के बीच रहता ही है। मगर हमारे सेक्शंज़ अलग-अलग थे, इस लिए गाहे-ब-गाहे ही मुलाक़ात होती। मैं, तब न तो ख़ुद ही अदब की राह पर था और न ही उन के 'मधुकर' को जानता।

ये बात होगी अब से लगभग 7-8 साल पहले की, जब एक दिन 15 अगस्त या 26 जनवरी को दफ़्तर में सुबह का कार्यक्रम हो चुकने के बाद मैं उन से मिला तो उन्हों ने अपने सेक्शन में बात-चीत करने को बिठा लिया। छुट्टी का दिन था, काम से हम आज़ाद थे। उन दिनों मेरा अदब की तरफ़ खिंचाव शुरू हो चुका था। उसी दिन पहली दफ़ा मेरा उन की शख़्सियत के 'मधुकर'-पहलू से तअर्रुफ़ हुआ। तभी फ़िक्री जद्दोजहद करने का उन का जज़्बा भी मुझ पर खुला। बात-चीत के दौरान हमारे बीच कार्ल मार्क्स, मज़दूर, कम्युनिज़्म, कैपिटलिज़्म, सेकुलरिज़्म, साम्प्रदायिकता, धर्म, विज्ञान, तर्क, सामाजिक विज्ञान और सरोकार बार-बार आए। सवाल-जवाब हुए, तबादला-ए- ख़्याल हुआ। कहीं ख़ुलूस के साथ बातों को स्वीकारा गया, कहीं अदब-ओ-एहतेराम के साथ नकारा भी गया। ग़रज़ ये कि बहुत-कुछ सीखने-समझने-सोचने को मिला। वक़्त जैसे बातों में बह गया, सुबह से तीसरा पहर हुआ। एक-आध दिन बाद उन्हों ने मुझे अपनी और कुछ दूसरों की लिखी किताबें भी इनायत फरमायीं।

उस के बाद ऐसी कई बातें-चीतें हुईं, कभी लंबी, कभी मुख़्तसर। वो भगत सिंह, गोर्की, प्रेमचंद को पसंद करते थे। कहते थे, साहित्य वही है जिस में यथार्थ हो, समाज में चेतना लाने का माद्दा हो, वरना सब बेकार की बातें हैं। मैं सहमत-असहमत तो क्या ही होता, अलबत्ता उन की ये बातें मेरे सामने साहित्य को ले कर कई सवाल ज़रूर खड़े कर देती थीं, जिन के जवाबात पाने को आज भी इधर-उधर तलाशियाँ लेता फिरता हूँ।

दफ़्तर में उन की रिटायरमेंट पार्टी में व्योम जी से पहली बार तअर्रुफ़ हुआ।

एक दिन जब बेटी की शादी के मौक़े पर उन्होंने एक कवि सम्मेलन कराया तो मुझ नाचीज़ को भी वहाँ पढ़ने का मौक़ा दिया। वहीं मैं ने पहली बार ब्रजवासी जी को सुना और राजीव 'प्रखर' भाई से पहली मुलाक़ात हुई।

एक बार एक व्हाट्सएप्प ग्रुप पर उन्हों ने प्रेमचंद जयंती के मौक़े पर लोगों से आर्टिकल्स माँगे, जिस के तहत मैं ने भी एक आर्टिकल पोस्ट किया।

कुछ दिन बाद मैं दफ़्तर में था कि फ़ोन आया, फ़रहत भाई! कहाँ हो? ज़रा गेट पर आ जाओ। (उम्र और ओहदे, दोनों ही में मुझ से बड़े होने के बावजूद वो मुझ से 'फ़रहत भाई' कह कर मुख़ातिब होते थे)

मैं गेट पर पहुँचा तो देखा, स्कूटर पर बैठे हैं और एक बड़ा सा सर्टिफ़िकेट हाथ में है। सर्टिफ़िकेट मुझे देते हुए बोले, ये तुम्हारे आर्टिकल के लिए है। कुआँ ख़ुद प्यासे के पास चल कर आया, ये सोच कर मैं कुछ शर्मिंदा हुआ, कहा, अरे सर! ख़्वाह-म-ख़्वाह आप परेशान हुए, बोल दिया होता, मैं ख़ुद ले लेता।

बोले, नहीं, कोई बात नहीं। आप ने अच्छा लिखा।

इसी तरह, जब रिटायर्मेंट के बाद और फिर कोरोना के दौरान मिलने-जुलने का सिलसिला टूट सा गया, तो कई बार फ़ोन पर बात होती, अच्छी-ख़ासी लम्बी बात। बात अक्सर यहाँ से शुरू होती कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो।

मैं ने पाया कि राजपूत सर कभी बे-मक़सद नहीं थे। ज़िन्दगी के मैदान में अपने सामने उन्हें एक गोल-पोस्ट हमेशा दिखाई देता रहा।

लहरों के ख़िलाफ़ चलना उन की फ़ितरत में शामिल था। अपनी राह पर बिना डरे-झुके वो चलते रहे। नौकरी के दौरान बहुत सी बंदिशें थीं। मगर नौकरी के बाद उन्हों ने ख़ुद को पूरी तरह समाज की भलाई के काम में झोंक दिया। आम-जन के कवि तो थे ही, सच्चे समाजसेवी भी थे, फ़िल्में बनायीं तो वो भी सामाजिक मुद्दों पर, फिर उन में अदाकारी के जौहर भी दिखाए। कई तहरीकों का हिस्सा रहे। आख़िरी वक़्त में सियासत में भी उतरे। लेकिन अपने उसूलों से कभी हटे नहीं। चाहते तो दूसरे बहुत से लोगों की तरह लहरों के साथ तैरते और फ़ायदा उठाते।

ऐसे बे-ग़रज़ काम करने वाले अच्छे लोग कहाँ मिलते हैं। इसी लिए वो 'नायाब' हैं।

✍️ फ़रहत अली ख़ाँ

लाजपत नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख....कुएं के मेंढक


यह सर्दियों की एक उजली दोपहर थी।यत्र-तत्र सुनहली धूप छिटकी हुई थी।मैं छत पर कुर्सी पर बैठा धूप सेंक रहा था।

 तभी दरवाजे पर लगी डोरबेल जोर से घनघना उठी।

  मैंने नीचे झांककर देखा --यह मधुकर जी थे जो मेरे पड़ोस के एक प्रिंटर के यहाँ जरूरी काम से आये थे।

  वे बिना किसी पूर्व सूचना के अयाचित मेरे घर पधारे थे।साहित्यकार विशेषकर कवि स्नेहवश इस तरह आपस में मुलाकात करते ही रहते हैं।

 जब साहित्य से जुड़े दो रचनाधर्मी साथ बैठे हों तब उनके बीच साहित्यिक चर्चा होना स्वाभाविक है ।सो चर्चा घूम -फिरकर मुरादाबाद नगर के  साहित्यिक परिदृश्य पर आकर टिक गई।

  मैं नगर के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य से बिल्कुल संतुष्ट नहीं था और इसमें कुछ बदलाव चाहता था।

 मैंने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कुछ खिन्न स्वर में कहा--"भाईसाहब,शहर में कुछ नया नहीं हो रहा है।सारी साहित्यिक गतिविधियां बस गीत -नवगीत या फिर ग़ज़ल तक सीमित होकर रह गयी हैं।कविता को ही साहित्य का पर्याय मान लिया गया है..." 

  उन्होंने मेरे आशय को समझ लिया क्योंकि उनकी मेरी वेवलेंथ काफी मिलती थी।

 वे बोले --"आप सही कह रहे हैं।क्या करें, शहर के साहित्यकार कुएं के मेंढक बने हुए हैं...."

  इस 'कुएँ के मेंढक 'शब्द की मेरे ऊपर एकदम प्रतिक्रिया हुई और मैं बेसाख्ता हँस पड़ा।

 मैंने कहा -"चलिये, कुछ नया करते हैं...."

  "क्या करेंगे?"

 "बहुत हुई कवि गोष्ठियां...अब एक कथा -गोष्ठी का आयोजन करेंगे।"मैंने कहा।

  "हाँ, यह ठीक रहेगा ।हमारे शहर में कथा गोष्ठी की परंपरा एक नई  शुरुआत होगी।"उन्होंने अपनी सहमति व्यक्त की।

  बस, फिर क्या था!

  जल्दी ही हमारी पहल पर मेरे निवास पर एक कथा गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मधुकर जी,अशोक विश्नोई जी, योगेंद्र कुमार और मैंने अपनी कहानियों का पाठ किया।

 शिशुपाल जी भी पीछे न रहे।जल्दी ही इसी कड़ी में उन्होंने भी अपने घर एक कथा गोष्ठी आयोजित की जिसमें ओंकार सिंह 'ओंकार ' मुशर्रफ हुसैन और मुझ सहित नगर के दूसरे रचनाकारों ने भी प्रतिभाग किया।फिर तो यह सिलसिला बढ़ने लगा।मेंढक कुएं के बाहर आने लगे।कवि गोष्ठियों के समानांतर कथा गोष्ठियां भी आयोजित होने लगीं और इसका पूरा श्रेय मधुकर जी को ही था जिनकी नगर के समकालीन साहित्यिक परिदृश्य के संदर्भ में की गई -'कुएं के मेंढक' वाली टिप्पणी  कुछ व्यंग्यात्मक अवश्य थी किंतु इसने हमारी रचनाधर्मिता और साहित्यिक परिदृश्य में बदलाव लाने  हेतु एक उत्प्रेरक का कार्य किया।

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख...सभी का स्वागत है


यह गर्मियों की एक कासनी सांझ थी।

गांधीनगर पब्लिक स्कूल के एक बड़े सभागार में नगर की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था --'संकेत' के  बैनर तले  एक बड़ा सारस्वत कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसमें नगर के लगभग सभी साहित्यकार उपस्थित थे।संस्था के अध्यक्ष अशोक विश्नोई जी के निमंत्रण पर मैं भी कार्यक्रम में उपस्थित था।जहां तक मुझे याद है इस कार्यक्रम में संकेत द्वारा आयोजित नगर के सभी साहित्यकारों पर केंद्रित संदर्भ ग्रंथ का विमोचन होना था।विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर हापुड़ की कवयित्री कमलेश रानी अग्रवाल मंच पर अपने पति सहित उपस्थित थीं।

  विश्नोई जी माइक संभालकर संचालन कर रहे थे।

  साहित्यकारों की जबरदस्त उपस्थिति से प्रोत्साहित विश्नोई जी ने तभी किसी बात पर किंचित आवेश में कहा --"मैं अपनी दुकान के सामने किसी दूसरे की दुकान नहीं सजने दूँगा ..."

 यह कहते हुए विश्नोई जी के चेहरे पर क्रोध की एक हल्की छाया भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी जिसे सभागार में उपस्थित साहित्यकारों को लक्ष्य करते देर न लगी।

 कुछ क्षणों के लिए सभागार में एक सन्नाटा -सा  छा गया।

सभी  साहित्यकारों के चेहरे पर एक बेचैनी अथवा अकुलाहट झलकने लगी । मुझे भी लगा कि  विश्नोई जी के इस वक्तव्य के बाद कहीं कार्यक्रम बिगड़ न जाये ।

  कुछ अप्रिय घटित होता इसके पहले ही शिशुपाल मधुकर जी  संकटमोचक के तौर पर अवतरित हुए जो उस समय विश्नोई जी के सहयोगी के तौर पर उनके पार्श्व में खड़े थे ।

 मधुकर जी ने माइक थामते हुए कहा --' सभी साहित्यकार हमारे सम्मानित हैं, कार्यक्रम  में  सभी का स्वागत है, यह आपका अपना कार्यक्रम है...."

 कुछ तो मधुकर जी के सौम्य चेहरे और मधुर स्वभाव का या फिर मृदु भाषा में दिए गए उनके वक्तव्य का ही यह प्रभाव था कि  सभी जल्दी ही सहज हो गए। फिर कोई भी अप्रिय बात नहीं हुई और कार्यक्रम सुचारू रूप से सम्पन्न हुआ।

  मधुकर जी थे ही कुछ ऐसे --एक जेनुइन कवि होने के अलावा एक सहज इंसान भी थे और उनका यह व्यकितत्व ही लोगों से जुड़कर  उन्हें अपना बना लेता था।

 मधुकर जी के इस व्यवहार का जादू -सा असर हुआ।मुझे उन्हें अपना मित्र बनाने  और उनसे बतियाने की आवश्यकता अनुभव हुई।

  कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मेरा उनका परस्पर परिचय हुआ।

  इस संक्षिप्त परिचय के बाद फिर तो मेरी उनकी वेवलेंथ खासी मिलने लगी और यह परिचय निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और  जल्दी ही वह दिन भी आया जब गांधीनगर पब्लिक स्कूल में ही आयोजित उनके कविता संकलन --'अजनबी चेहरों के बीच ' के लोकार्पण में मुझे विशिष्ट अतिथि के तौर पर अपना बीज वक्तव्य देने का अवसर भी प्राप्त हुआ और हम साहित्य की नई -नई योजनाएं बनाने लगे ।

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख...कैंटीन में कवि गोष्ठी

 


उन दिनों मेरी नियुक्ति बुलंदशहर में थी।छुट्टी मिलने पर घर के ढेरों काम निष्पादित करने पड़ते थे।

   मुरादाबाद न होने के कारण कई महीनों से फोन के बिल का भुगतान मैं नहीं कर पाया था।सो छुट्टी मिलने पर मैं सीधे टेलीफोन एक्सचेंज मधुकर जी के पास जा पहुंचा। उनके होते भला कैसी चिंता ?

  ज्यों ही मैंने उन्हें अपना बिल और उसकी धनराशि थमाई उन्होंने तत्काल अपना एक अनुचर काउंटर पर भेजकर भुगतान जमा करा दिया और प्राप्ति की रसीद मेरे हाथ में थमा दी।

  रसीद लेकर मैं चलने लगा तो उन्होंने कहा --"राजीव जी, यह बात नहीं मानी।इतने दिनों बाद तो आप मिले हो ।चाय पिये बिना नहीं जाने दूँगा... कुछ समय तो मेरे पास बैठना ही होगा।"

  मधुकर जी ने साधिकार आग्रह किया तो मैं इनकार न कर सका और उनके बगल में रखी कुर्सी पर बैठ गया।

  कुछ देर की रस्मी बातों और गप्पबाज़ी के बाद उन्होंने कहा--

  "और सुनाइये, आजकल लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है?"

  "कुछ खास नहीं,बाल साहित्य समालोचना पर कुछ करने की सोच रहा हूँ।"मैंने कहा।

  "कोई कविता बगैरह...चलिये ,आज अपनी कोई कविता ही सुना दीजिए ...."

  मैं मूलतया स्वयं को गद्य लेखक मानता हूँ तो कविता पाठ में  मेरी कोई खास रुचि नहीं थी।

  मैंने  टालने के इरादे से कहा --"भाईसाहब, लंबे समय से कोई कविता भी नहीं लिखी है...."

  "तो कोई पुरानी कविता ही सुना दीजिए ..." मधुकर जी ने मुझे निरस्त्र कर दिया और मेरी कोई बहानेबाजी नहीं चलने दी।

  अब कवितापाठ मेरी बाध्यता थी।

  मैंने अपनी कविताओं का पाठ अभी शुरू ही किया था कि मधुकर जी के सहयोगी एस .के सिंह भी अपने कुछ साथियों के संग आ पहुंचे। मुझ पर नज़र पड़ते ही बड़े उत्साह के साथ बोले --"अच्छा तो राजीव जी आये हुए हैं।भाई हम भी सुनेंगे इनकी कविता  .." 

  सिंह साहब मेरे भी परिचित थे और साहित्यिक कार्यक्रमों में बड़े उत्साह से सम्मिलित भी होते रहते थे।

  बस , फिर क्या था!

  कुछ देर पहले की हमारी गप्प -गोष्ठी अनायास ही एक छोटी -मोटी कवि गोष्ठी में बदल गयी।

  उनके कार्यालय में अजीब नज़ारा बन गया --कार्यालय का काम तो ठप्प हो गया और मधुकर जी के सहयोगी मेरी कविता सुनने लगे।

   मैंने अपना कविता पाठ बीच में रोककर कहा --"भाईसाहब, कार्यालय में कविता पाठ उचित नहीं रहेगा .."

  लंच का समय हो गया था।

  मधुकर जी को मेरी बात ठीक लगी।उन्होंने मेरा सुझाव मानते हुए कहा--"ऐसा करते हैं कि कैंटीन में चलते हैं , वहाँ चाय भी पीएंगे और कविता पाठ भी होगा।"

  सभी लोग केंटीन की ओर चल पड़े ।कुर्सियों पर जमने के बाद मेरा कविता पाठ फिर शुरू हुआ। केंटीन में उपस्थित सभी लोग बड़ी उत्सुकता से कविता पाठ सुनने लगे।

 मधुकर जी भी भला कहाँ पीछे रहने वाले थे ?उन्होंने भी कई जानदार और फड़कती हुई कविताएं एक -एककर सुना डालीं।यहां तक कि बीच में कई शौकिया कवि या शायर भी अपने शेर लेकर  फांद पड़े । केंटीन में आने वाले लोग ही नहीं बल्कि दरवाजे के बाहर खड़े लोग भी बड़ी दिलचस्पी के साथ इस कवि -गोष्ठी का हिस्सा बन गए और दत्तचित्त होकर कविताएं सुनने लगे। केंटीन में कथित श्रोताओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी।

  उधर मधुकर जी बार -बार चाय का ऑर्डर देते  परेशान थे।वे ज्यों  ही एक बार ऑर्डर देते कुछ निकट सहयोगियों के आगमन पर उन्हें फिर पुकार लगानी पड़ती --"अरे भाई, दो चाय और बढ़ा देना  "

  ऐसा  कम से कम दो -तीन बार हुआ जब उन्हें चाय बढ़ाने के लिए कहना पड़ा।

 सबसे दिलचस्प बात  तो तब हुई जब कविता सुनने की जिज्ञासा के कारण केंटीन का मालिक भी अपना काउंटर छोड़कर खिसकते -खिसकते ठीक हमारी कुर्सियों के पास ही आ खड़ा हुआ और बड़ी तल्लीनता से कवियों को सुनने लगा।

  कवि गोष्ठी से केंटीन में समा बंध गया।सरकारी कार्यालय की जड़ता और नीरसता  एकदम भंग हो गयी और वातावरण में एक  नई ऊर्जा व्याप्त हो गयी।

  उत्साहित होकर मधुकर जी बोले --"राजीव जी, लगता है अब जल्दी ही एक बड़ा कार्यक्रम दफ्तर में कराना होगा ।"

  मैं किसी  पूर्व योजना के  बिना और अकस्मात आयोजित हुई इस कवि गोष्ठी की ढेरों  सुनहरी यादें लेकर घर वापस आया।फिर यह गोष्ठी सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख....विराट रूप


  "पापा, मुझे वीडियो गेम के लिए तेज स्पीड वाला इंटरनेट चाहिए। हमें जल्दी ऑप्टिकल फाइबर लगवाना होगा...."

  एक दिन मेरे पुत्र ने मेरे सामने फरमाइश की।

   तब मेरी नियुक्ति बुलंदशहर में थी।घर से दूर होने के कारण मैं तत्काल कुछ नहीं कर सकता था।सो,ऐसे में मुझे मधुकर जी की याद आयी।भारत संचार निगम से जुड़ी किसी भी समस्या के लिए वे ही हमारे संकटमोचक थे।वैसे भी वे हमेशा दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते थे।जमीन से जुड़े व्यक्ति और मजदूर आंदोलनों अथवा कामगार संगठनों के संघर्षों में सहभागिता तथा अपनी मार्क्सवादी-जनवादी  विचारधारा के चलते वे जुझारू प्रवृत्ति के तो थे ही अन्याय का विरोध करने के लिए वे पंगा लेने से चूकते भी नहीं थे।

  उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष को उजागर करने वाली ऐसी एक घटना का साक्षी  मैं तब बना जब पुत्र के अनुरोध पर मैंने मधुकर जी से मेरे घर ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन लगवाने हेतु दूरभाष पर बात की।मैंने कहा--"भाईसाहब,ईशान ने फरमाइश की है-घर पर जल्दी ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन लगना है।"

  "लगेगा, क्यों नहीं लगेगा...सबसे पहले लगेगा ।"मधुकर जी ने कहा।

  तब मेरे निवास स्थल यानी डिप्टी गंज में ऑप्टिकल फाइबर  का बस एक ही कनेक्शन वह भी नया -नया लगा था।

  दिन पंख लगाकर गुजर रहे थे और कनेक्शन का दूर -दूर तक नामो निशान नहीं था।

  मैं छुट्टी में घर मुरादाबाद आया तो पुत्र ने आक्रोश में कहा --"पापा, अभी तक कनेक्शन नहीं लगा है।कितने दिन हो गए हैं,आप मधुकर अंकल से आज ही बात कीजिये। मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता..."

  अब मेरे पीछे दीवार आ गयी थी।

  मैं तुरन्त मधुकर जी के कार्यालय पहुंचा। मैंने शिकायती लहजे में कहा--" भाईसाहब, आपके कहने के बावजूद अभी तक ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन नहीं लगा है....."

  बस , फिर क्या था! 

  जरूरी फाइलें छोड़कर मधुकर जी उठ  खड़े हुए ।बोले --"आइए एस .डी .ओ के पास चलते हैं..मैं देखता हूँ आज कैसे नहीं लगता है कनेक्शन।"

  वे किसी सामुराई के अंदाज़ में दनदनाते हुए मेरे साथ सीधे एस. डी. ओ के कक्ष में जा पहुंचे और मेरा परिचय देते हुए  कहा --"इतने दिन बीत गए और अभी तक राजीव जी के घर कनेक्शन क्यों नहीं लगा....."

  एस. डी. ओ काम में अड़ंगा लगाने की कला में माहिर था।मधुकर जी के तेवर देखकर एकदम अचकचा गया और लगभग मिमियाते हुए बोला ---"टीम गयी थी...डिप्टी गंज में कुछ दिक्कत आ रही है।दो करोड़ की मशीन है ,अभी खाली नहीं है....."

  "तो दो करोड़ की मशीन क्या देखने के लिए है...अगर कोई कस्ट्मर कनेक्शन लगवाना चाहेगा तो क्या आप उसे  मना कर देंगे?एस. डी .ओ साहब ,साफ -साफ सुन लीजिए --राजीव जी मेरे अभिन्न मित्र हैं।उनका बेटा मेरा भतीजा है।यह कनेक्शन समझिये मेरे घर लगना है।अगर मेरे या मेरे मित्र के घर कनेक्शन नहीं लगेगा तो फिर कहीं नहीं लगेगा...."मधुकर जी ने गरजते हुए कठोर शब्दों में कहा तो एस .डी. ओ को एकाएक कुछ न सूझा। 

  मधुकर जी का यह विराट रूप देखकर बेचारा एस. डी .ओ स्तब्ध और हैरान था।मैंने भी मधुकर जी को इससे पहले कभी कुपित होते या क्रोध करते नहीं देखा था।वे अधिकांशतया संयत रहते थे और शायद ही किसी ने उन्हें संयम खोते देखा होगा।किंतु मधुकर जी का यह विराट रूप मेरे लिए भी एक  अनोखा अनुभव था।

   एस. डी. ओ के इर्द -गिर्द मौजूद लोग दम साधे मधुकर जी का यह विराट रूप देख रहे थे।

  मधुकर जी के सामने एस. डी. ओ को समर्पण करना पड़ा।वह बोला --"ठीक है, अभी टीम भेजकर कनेक्शन कराता हूँ...."

  उसी दिन शाम तक ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन मेरे घर लग गया वह भी बिना कोई सुविधा शुल्क दिए।मधुकर जी ने स्वयं अपनी देखरेख में अपने सामने कनेक्शन लगवाया।

  कनेक्शन लगने के बाद मधुकर जी ने पूछा--"क्यों ईशान , अब तो खुश ..."

  प्रत्युत्तर में ईशान भी मुस्करा दिए। फिर तो दोनों के बीच इंटरनेट से लेकर साइबर टेक्नोलॉजी   तक खूब बातें हुईं और मैं अहमकों की तरह  मुंह बाए उनका वार्तालाप सुनता रहा।

  बाद में मैंने कहा --"भाईसाहब, आज तो आपने सचमुच  एस. डी. ओ को अपने विराट रूप के दर्शन करा दिये..."

  "राजीव जी,अगर मैं विराट रूप न दिखाता तो फिर आज कनेक्शन भी न लगता।"

   उनकी बात बिल्कुल सही थी।

 तो ऐसे थे --हमारे शिशुपाल 'मधुकर ' जी।अपनों के लिए किसी से भी  किसी भी सीमा तक लड़ने या  भिड़ जाने वाले एक अप्रतिम योद्धा ।अन्याय का प्रतिकार करने की यह शक्ति उन्हें भीतर से और अपनी परोपकार की भावना से प्राप्त होती थी ।

✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 11 मार्च 2024

मुरादाबाद मंडल कुरकावली (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम् के नौ दोहे .....



माँ वाणी वागीश्वरी,कलम हाथ में थाम।

नारी का वंदन करूं,लेकर तेरा नाम।।1।।


सह सह कर आघात भी,देती है आहार।

वंदनीय भगवान सा,नारी का किरदार।।2।।


शीतल सुंदर झील सी,शांत किंतु पुरजोर।

नारी है शक्तिश्वरी,बोल उठा हर छोर।।3।।


दुनिया में देखा नहीं,ऐसा रूप अनूप।

छाया बन संतान की,नारी सहती धूप।।4।।


राम-कृष्ण को पालती,दे आंचल की छांव।

देवपुरुष तक पूजते,हैं नारी के पांव ।।5।।


शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी,सरस्वती का ज्ञान।

सर्वाधिक संसार में,नारी का सम्मान।।6।।


नारी घर की लक्ष्मी,आन बान है शान। 

पूरी वसुधा कर रही,नारी का गुणगान।।7।।


रावण बाली कंस या,दुर्योधन बलवान।

नारी का अपमान कर,खो बैठे सम्मान।।8।।


मां,बेटी,पत्नी,बहन,सारे रूप अनूप।

नर को देती नारियां,नारायण का रूप।।9।।


✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्

कुरकावली, संभल 

उत्तर प्रदेश, भारत




मंगलवार, 5 मार्च 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिशुपाल मधुकर की काव्य कृति ..अजनबी चेहरों के बीच । इस कृति का प्रकाशन वर्ष 2003 में सागर तरंग प्रकाशन द्वारा हुआ। इस संग्रह में उनके 22 गीत, 23 गीतिकाएं, 25 मुक्तक और 86 दोहे हैं। संग्रह की भूमिका साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने लिखी है।



 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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https://acrobat.adobe.com/id/urn:aaid:sc:AP:93d176a0-5426-4e03-ae60-3888a4892b2d 

::::::प्रस्तुति::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

सोमवार, 4 मार्च 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिशुपाल मधुकर की काव्य कृति ...अभिलाषा के पंख । इस कृति का प्रकाशन वर्ष 1994 में शक्ति प्रकाशन द्वारा हुआ। इस संग्रह में उनकी 35 काव्य रचनाएँ हैं। संग्रह की भूमिका साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने लिखी है।



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:::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822