सोमवार, 18 मार्च 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख...कैंटीन में कवि गोष्ठी

 


उन दिनों मेरी नियुक्ति बुलंदशहर में थी।छुट्टी मिलने पर घर के ढेरों काम निष्पादित करने पड़ते थे।

   मुरादाबाद न होने के कारण कई महीनों से फोन के बिल का भुगतान मैं नहीं कर पाया था।सो छुट्टी मिलने पर मैं सीधे टेलीफोन एक्सचेंज मधुकर जी के पास जा पहुंचा। उनके होते भला कैसी चिंता ?

  ज्यों ही मैंने उन्हें अपना बिल और उसकी धनराशि थमाई उन्होंने तत्काल अपना एक अनुचर काउंटर पर भेजकर भुगतान जमा करा दिया और प्राप्ति की रसीद मेरे हाथ में थमा दी।

  रसीद लेकर मैं चलने लगा तो उन्होंने कहा --"राजीव जी, यह बात नहीं मानी।इतने दिनों बाद तो आप मिले हो ।चाय पिये बिना नहीं जाने दूँगा... कुछ समय तो मेरे पास बैठना ही होगा।"

  मधुकर जी ने साधिकार आग्रह किया तो मैं इनकार न कर सका और उनके बगल में रखी कुर्सी पर बैठ गया।

  कुछ देर की रस्मी बातों और गप्पबाज़ी के बाद उन्होंने कहा--

  "और सुनाइये, आजकल लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है?"

  "कुछ खास नहीं,बाल साहित्य समालोचना पर कुछ करने की सोच रहा हूँ।"मैंने कहा।

  "कोई कविता बगैरह...चलिये ,आज अपनी कोई कविता ही सुना दीजिए ...."

  मैं मूलतया स्वयं को गद्य लेखक मानता हूँ तो कविता पाठ में  मेरी कोई खास रुचि नहीं थी।

  मैंने  टालने के इरादे से कहा --"भाईसाहब, लंबे समय से कोई कविता भी नहीं लिखी है...."

  "तो कोई पुरानी कविता ही सुना दीजिए ..." मधुकर जी ने मुझे निरस्त्र कर दिया और मेरी कोई बहानेबाजी नहीं चलने दी।

  अब कवितापाठ मेरी बाध्यता थी।

  मैंने अपनी कविताओं का पाठ अभी शुरू ही किया था कि मधुकर जी के सहयोगी एस .के सिंह भी अपने कुछ साथियों के संग आ पहुंचे। मुझ पर नज़र पड़ते ही बड़े उत्साह के साथ बोले --"अच्छा तो राजीव जी आये हुए हैं।भाई हम भी सुनेंगे इनकी कविता  .." 

  सिंह साहब मेरे भी परिचित थे और साहित्यिक कार्यक्रमों में बड़े उत्साह से सम्मिलित भी होते रहते थे।

  बस , फिर क्या था!

  कुछ देर पहले की हमारी गप्प -गोष्ठी अनायास ही एक छोटी -मोटी कवि गोष्ठी में बदल गयी।

  उनके कार्यालय में अजीब नज़ारा बन गया --कार्यालय का काम तो ठप्प हो गया और मधुकर जी के सहयोगी मेरी कविता सुनने लगे।

   मैंने अपना कविता पाठ बीच में रोककर कहा --"भाईसाहब, कार्यालय में कविता पाठ उचित नहीं रहेगा .."

  लंच का समय हो गया था।

  मधुकर जी को मेरी बात ठीक लगी।उन्होंने मेरा सुझाव मानते हुए कहा--"ऐसा करते हैं कि कैंटीन में चलते हैं , वहाँ चाय भी पीएंगे और कविता पाठ भी होगा।"

  सभी लोग केंटीन की ओर चल पड़े ।कुर्सियों पर जमने के बाद मेरा कविता पाठ फिर शुरू हुआ। केंटीन में उपस्थित सभी लोग बड़ी उत्सुकता से कविता पाठ सुनने लगे।

 मधुकर जी भी भला कहाँ पीछे रहने वाले थे ?उन्होंने भी कई जानदार और फड़कती हुई कविताएं एक -एककर सुना डालीं।यहां तक कि बीच में कई शौकिया कवि या शायर भी अपने शेर लेकर  फांद पड़े । केंटीन में आने वाले लोग ही नहीं बल्कि दरवाजे के बाहर खड़े लोग भी बड़ी दिलचस्पी के साथ इस कवि -गोष्ठी का हिस्सा बन गए और दत्तचित्त होकर कविताएं सुनने लगे। केंटीन में कथित श्रोताओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी।

  उधर मधुकर जी बार -बार चाय का ऑर्डर देते  परेशान थे।वे ज्यों  ही एक बार ऑर्डर देते कुछ निकट सहयोगियों के आगमन पर उन्हें फिर पुकार लगानी पड़ती --"अरे भाई, दो चाय और बढ़ा देना  "

  ऐसा  कम से कम दो -तीन बार हुआ जब उन्हें चाय बढ़ाने के लिए कहना पड़ा।

 सबसे दिलचस्प बात  तो तब हुई जब कविता सुनने की जिज्ञासा के कारण केंटीन का मालिक भी अपना काउंटर छोड़कर खिसकते -खिसकते ठीक हमारी कुर्सियों के पास ही आ खड़ा हुआ और बड़ी तल्लीनता से कवियों को सुनने लगा।

  कवि गोष्ठी से केंटीन में समा बंध गया।सरकारी कार्यालय की जड़ता और नीरसता  एकदम भंग हो गयी और वातावरण में एक  नई ऊर्जा व्याप्त हो गयी।

  उत्साहित होकर मधुकर जी बोले --"राजीव जी, लगता है अब जल्दी ही एक बड़ा कार्यक्रम दफ्तर में कराना होगा ।"

  मैं किसी  पूर्व योजना के  बिना और अकस्मात आयोजित हुई इस कवि गोष्ठी की ढेरों  सुनहरी यादें लेकर घर वापस आया।फिर यह गोष्ठी सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

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