ढूंँढोगे अगर मुल्कों-मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हमनफ़्सो वो ख़्वाब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी(1846-1927) का ये मतला किन 'नायाब' लोगों की तरफ़ इशारा करता है?... बेशक, ऐसी शख़्सियात, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बन जाएँ।
राजपूत सर की शख़्सियत को मैं इसी तरह देखता हूँ। हमारे तअल्लुक़ की उम्र कोई 13-14 साल हुई होगी, जिस में से काफ़ी वक़्त तक बात सलाम-दुआ तक रही। एक ही कम्पनी(बीएसएनएल) में होने की वजह से तकल्लुफ़ से काम लिया जाता था, जैसा कि सीनियर-जूनियर के बीच रहता ही है। मगर हमारे सेक्शंज़ अलग-अलग थे, इस लिए गाहे-ब-गाहे ही मुलाक़ात होती। मैं, तब न तो ख़ुद ही अदब की राह पर था और न ही उन के 'मधुकर' को जानता।
ये बात होगी अब से लगभग 7-8 साल पहले की, जब एक दिन 15 अगस्त या 26 जनवरी को दफ़्तर में सुबह का कार्यक्रम हो चुकने के बाद मैं उन से मिला तो उन्हों ने अपने सेक्शन में बात-चीत करने को बिठा लिया। छुट्टी का दिन था, काम से हम आज़ाद थे। उन दिनों मेरा अदब की तरफ़ खिंचाव शुरू हो चुका था। उसी दिन पहली दफ़ा मेरा उन की शख़्सियत के 'मधुकर'-पहलू से तअर्रुफ़ हुआ। तभी फ़िक्री जद्दोजहद करने का उन का जज़्बा भी मुझ पर खुला। बात-चीत के दौरान हमारे बीच कार्ल मार्क्स, मज़दूर, कम्युनिज़्म, कैपिटलिज़्म, सेकुलरिज़्म, साम्प्रदायिकता, धर्म, विज्ञान, तर्क, सामाजिक विज्ञान और सरोकार बार-बार आए। सवाल-जवाब हुए, तबादला-ए- ख़्याल हुआ। कहीं ख़ुलूस के साथ बातों को स्वीकारा गया, कहीं अदब-ओ-एहतेराम के साथ नकारा भी गया। ग़रज़ ये कि बहुत-कुछ सीखने-समझने-सोचने को मिला। वक़्त जैसे बातों में बह गया, सुबह से तीसरा पहर हुआ। एक-आध दिन बाद उन्हों ने मुझे अपनी और कुछ दूसरों की लिखी किताबें भी इनायत फरमायीं।
उस के बाद ऐसी कई बातें-चीतें हुईं, कभी लंबी, कभी मुख़्तसर। वो भगत सिंह, गोर्की, प्रेमचंद को पसंद करते थे। कहते थे, साहित्य वही है जिस में यथार्थ हो, समाज में चेतना लाने का माद्दा हो, वरना सब बेकार की बातें हैं। मैं सहमत-असहमत तो क्या ही होता, अलबत्ता उन की ये बातें मेरे सामने साहित्य को ले कर कई सवाल ज़रूर खड़े कर देती थीं, जिन के जवाबात पाने को आज भी इधर-उधर तलाशियाँ लेता फिरता हूँ।
दफ़्तर में उन की रिटायरमेंट पार्टी में व्योम जी से पहली बार तअर्रुफ़ हुआ।
एक दिन जब बेटी की शादी के मौक़े पर उन्होंने एक कवि सम्मेलन कराया तो मुझ नाचीज़ को भी वहाँ पढ़ने का मौक़ा दिया। वहीं मैं ने पहली बार ब्रजवासी जी को सुना और राजीव 'प्रखर' भाई से पहली मुलाक़ात हुई।
एक बार एक व्हाट्सएप्प ग्रुप पर उन्हों ने प्रेमचंद जयंती के मौक़े पर लोगों से आर्टिकल्स माँगे, जिस के तहत मैं ने भी एक आर्टिकल पोस्ट किया।
कुछ दिन बाद मैं दफ़्तर में था कि फ़ोन आया, फ़रहत भाई! कहाँ हो? ज़रा गेट पर आ जाओ। (उम्र और ओहदे, दोनों ही में मुझ से बड़े होने के बावजूद वो मुझ से 'फ़रहत भाई' कह कर मुख़ातिब होते थे)
मैं गेट पर पहुँचा तो देखा, स्कूटर पर बैठे हैं और एक बड़ा सा सर्टिफ़िकेट हाथ में है। सर्टिफ़िकेट मुझे देते हुए बोले, ये तुम्हारे आर्टिकल के लिए है। कुआँ ख़ुद प्यासे के पास चल कर आया, ये सोच कर मैं कुछ शर्मिंदा हुआ, कहा, अरे सर! ख़्वाह-म-ख़्वाह आप परेशान हुए, बोल दिया होता, मैं ख़ुद ले लेता।
बोले, नहीं, कोई बात नहीं। आप ने अच्छा लिखा।
इसी तरह, जब रिटायर्मेंट के बाद और फिर कोरोना के दौरान मिलने-जुलने का सिलसिला टूट सा गया, तो कई बार फ़ोन पर बात होती, अच्छी-ख़ासी लम्बी बात। बात अक्सर यहाँ से शुरू होती कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो।
मैं ने पाया कि राजपूत सर कभी बे-मक़सद नहीं थे। ज़िन्दगी के मैदान में अपने सामने उन्हें एक गोल-पोस्ट हमेशा दिखाई देता रहा।
लहरों के ख़िलाफ़ चलना उन की फ़ितरत में शामिल था। अपनी राह पर बिना डरे-झुके वो चलते रहे। नौकरी के दौरान बहुत सी बंदिशें थीं। मगर नौकरी के बाद उन्हों ने ख़ुद को पूरी तरह समाज की भलाई के काम में झोंक दिया। आम-जन के कवि तो थे ही, सच्चे समाजसेवी भी थे, फ़िल्में बनायीं तो वो भी सामाजिक मुद्दों पर, फिर उन में अदाकारी के जौहर भी दिखाए। कई तहरीकों का हिस्सा रहे। आख़िरी वक़्त में सियासत में भी उतरे। लेकिन अपने उसूलों से कभी हटे नहीं। चाहते तो दूसरे बहुत से लोगों की तरह लहरों के साथ तैरते और फ़ायदा उठाते।
ऐसे बे-ग़रज़ काम करने वाले अच्छे लोग कहाँ मिलते हैं। इसी लिए वो 'नायाब' हैं।
✍️ फ़रहत अली ख़ाँ
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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