सेवारत प्रशिक्षण के तीन दिवसीय शिविर में पहली बार अमृत से मुलाकात हुई थी।उसकी ओजस्विता,उसकी ऊर्जा,उसकी वाकपटुता,उसकी चपलता और किसी भी विषय पर उसके धाराप्रवाह शास्त्रार्थ कर पाने की क्षमता ने मेरे दिलो-दिमाग पर गहरा असर किया था।पर कभी कभी लगता था जैसे वह बीच बीच में कहीं भटक जाती है, लेकिन स्वयं ही स्वयं को मुख्यधारा से जोड़ती वह पुन: अपनी जीवन्तता का परिचय देती तो सब कुछ ठीक लगता।
ऐसा लगता था जैसे वह समय की मिट्टी को समेटकर एक पात्र बना लेना चाहती हो और समय के इस पात्र में अपने भीतर के घनीभूत भावों को विविध रूप देकर वह उड़ेल देना चाहती हो।वह चाहती कि उसके आस पास मौजूद हर व्यक्ति श्रोता या दर्शक बनकर उसके समय पात्र से अवश्य ही रसपान कर उसे सराहे।तभी वह कविता,गीत, ग़ज़ल,भजन,श्लोक ,कहानियाँ, हास-परिहास, वाद-विवाद, लतीफे,भाषण आदि विविध परिस्थितियों के अनुकूल विधाओं के स्वाद इस पात्र में उड़ेलती रहती थी।
सच बताऊँ तो प्रथम दृष्टया वह मुझे दिमाग से खिसकी हुई लगी थी।क्योंकि वह निरन्तर अपनी ही बक बक किये जाती थी।कभी कभी लोगों का ध्यान खींचने के लिए वह कुछ विवादित बातें भी कह उठती थी जिसके कारण अक्सर उसका मकसद पूरा हो जाता,क्योंकि इंसान की आम फितरत है कि वह विवाद से जल्दी और अनचाहे ही जुड़ जाता है।शिविर के प्रतिभागियों में से कुछ लोग उसकी बहुमुखी प्रतिभा के कायल हो चुके थे,पर अधिकांश लोग उसे सनकी या पागल समझते थे, जिनमें मैं भी थी।यह विडम्बना ही है कि हमारे भारतीय समाज में अतिसक्रियता,विलक्षण बुद्धि और अति विचारशीलता या संवेदनशीलता को अक्सर पागलपन या सनकीपन करार दिया जाता है।
मुझे आज भी अफसोस है कि संवेदनशील होते हुए भी पहले दिन मुझे भी उसका व्यवहार सनकी लगा था और मैंने उसकी एक पहचान वाली से पूछ ही लिया था,"क्या इसको कोई मानसिक बीमारी है?"तो उसने तुरंत खण्डन करते हुए गम्भीरता पूर्वक कहा था,"नहीं, दीदी।वह बहुत अच्छी है।आप एक बार उससे दोस्ती कर के तो देखो।हालांकि वह बीमार है,लेकिन मानसिक बीमार तो कतई नहीं।"
कौतूहल तो जगा था पर संकोचवश मैंने स्वयं कोई पहल नहीं की। सौभाग्य से प्रशिक्षण के दौरान हम सबको अपने-अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया गया। मुझे कविता लिखने का शौक है यह अधिकतर सहकर्मी जानते थे अतः मुझसे कविता सुनाने का आग्रह हुआ। मैंने अपनी एक कविता सभा में सुनाई।सभी को बहुत पसंद आई और सबने करताल से मेरा स्वागत किया।परंतु अमृत ने एक ऐसी बात कह दी कि मेरे कानों में विष सा घुल गया।अमृत खड़ी हुई और वही अपने असाधारण सनकीपने से बोली,"अरे भई,किसी की चुराई हुई कविता पढ़ने में क्या बात है? योग्यता हो तो चुनौती लो और मेरे साथ कविता में प्रतिस्पर्धा करो।"
मुझे बहुत बुरा लगा कविता लिखना मेरा शौक था।"चोरी की कविता" जैसा शब्द-समूह मेरे लिए गाली की तरह था।उसके इस व्यवहार ने मुझे उद्वेलित कर दिया था।लेकिन अमृत मुस्कुरा रही थी।
एक अन्य प्रतिभागी महिला ने दोहे और श्लोक सुनाएं जो नीति परक थे।परंतु अमृत तब भी चुप नहीं रही और उसने दोहों के रचनाकारों के नाम पूछने शुरू कर दिए।इस पर उस महिला के आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंची,पर अमृत के लिए तो मानो यह सब खेल ही था।उसने खुद उठकर न केवल कई दोहे सुनाये बल्कि प्रत्येक दोहे के रचनाकार का नाम और उस रचनाकार का जीवन परिचय भी धाराप्रवाह बताना शुरू कर दिया।अब यह ज्यादा हो रहा था। प्रतिभागी धीरे धीरे मंच पर आने से घबराने लगे थे।अमृत के इस असाधारण व्यवहार की सदन में आलोचना होने लगी थी और आपसी खुसर-पुसर में उसके सनकी होने की चर्चा बढ़ती जा रही थी।तभी अचानक अमृत ने गीत सुनाने की पेशकश सदन में रखी और उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर गाना शुरू कर दिया।बहुत ही सुंदर फिल्मी गीत था जिसके बोल थे,"इक दिन बिक जायेगा" सदन में चुप्पी छा गई थी। कुछ देर पहले फैली कड़वाहट को उस मधुर गीत की धुन में सब भूल चुके थे और जब गाना खत्म हुआ तो पूरा सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था जिसमें मेरी तालियां भी शामिल थीं। मैं अजीब सी उधेड़बुन में थी।मेरे लिए कल तक सनकी अमृत,फिर कठोर प्रतिस्पर्धी अमृत अब एक जिज्ञासा बनती जा रही थी।
मध्यावकाश के बाद प्रशिक्षक ने एक गतिविधि के तहत सभी को छ:छ: के समूह में विभाजित कर दिया।अजीब इत्तेफाक था, मैं और अमृत एक ही समूह में थे।अमृत मेरे पास आकर बैठी और बोली,"कब से इस मौके की तलाश में थी,अब जाकर मिला।अब देखना सबकी छुट्टी।दो धुरंधर एक ग्रुप में। सबसे अच्छा प्रेजेंटेशन हमारा ही होने वाला है।" मन को अच्छा-सा लगा।प्रस्तुतिकरण तैयार करते समय उसके विचार तर्कपूर्ण थे और अन्य लोगों के तर्कपूर्ण विचारों को भी समान महत्व देते हुए वह समूह भावना का परिचय दे रही थी।टास्क के बीच में ही उसने मुझसे कहा,"आप बहुत उम्दा लिखती हैं।आपको तब मेरी बात बुरी लगी होगी परन्तु सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए ऐसे आघात भी कभी कभी बहुत जरूरी होते हैं। मुझे भी लिखने का शौक है।पर आपकी तरह मेरी किस्मत कहाँ.....? अच्छा बताइये आपको घर का सपोर्ट तो है न।मेरा मतलब भाई साहब को आपके लिखने से कोई परेशानी तो नहीं।"
एक नयी अमृत के पृष्ठ क्रमशः मेरे सामने खुल रहे थे।कल तक सनकी लगने वाली अमृत का उदार, मानवीय, सृजनात्मक, तार्किक और सबसे अलग एक संवेदनशील परन्तु भीतर से कहीं गहरे तक घायल चेहरा धीरे-धीरे मेरे मानस पटल पर छप रहा था।
मैंने भी आत्मीय होकर बताया कि किस तरह मेरा पूरा परिवार मेरा सहयोग करता है खासकर मेरे पति जो मेरी भावनाओं का पूरा ख्याल रखते हैं और उदार दृष्टिकोण रखते हुए मेरी रचनाओं को ना केवल सराहते हैं,बल्कि उचित मंच पर उन्हें ले जाने हेतु प्रोत्साहित भी करते हैं।जब मैं यह बात बता रही थी तब मैंने हर क्षेत्र में संपूर्ण सी लगती अमृत की आंखों में एक अजीब सूनापन देखा और एक फीकी सी बात उन मधुर होंठों से बाहर निकल कर आई,"सबकी किस्मत इतनी अच्छी कहां होती है।... खैर भगवान का लाख-लाख शुक्रिया!आप किस्मत वाली हो।भगवान आपको खुश रखे।" कहते हुए अमृत ने फिर बात की दिशा बदल दी और हम टास्क पूरा करने में लग गये।
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प्रशिक्षण का अंतिम दिन था।पहले दिन हुई अमृत की आत्मीय बातों ने मुझे उसके करीब ला दिया था।सागर की तरह न केवल उसका विस्तार अधिक था बल्कि सागर की तरह उसमें गहराई भी थी जिसकी थाह पाने की ललक मुझ में जाग चुकी थी।आज मैं स्वयं ही अमृत के पास जाकर बैठ गयी थी।पर आज अमृत बुझी-बुझी सी थी।मैंने कारण पूछा तो उसनेे कमर में बँधी अपनी बेल्ट की ओर इशारा किया और कहा,"मेरा बेटा बड़े ऑपरेशन से हुआ था।पता नहीं उस समय कौनसा टीका गलत लग गया कि तब से आज तक कई डॉक्टर्स को दिखा चुकी हूँ पर कमर दर्द है कि ठीक ही नहीं होता।हमेशा ही यह बेल्ट बाँधे रहती हूंँ।कभी कभी दर्द असहनीय हो जाता है,आज भी यही हो रहा है।पर अब तो दर्द की आदत बन गई है।"उसका दर्द मुझे अपने भीतर तक महसूस हुआ। मुझे एहसास हुआ कि वह एक महान शख्सियत थी जिसने अपनी जीवंतता से अपने दर्द को मात दी हुई थी।उससे बातचीत के क्रम में मुझे पता चला कि वह अपने माता-पिता की दो संतानों में से इकलौती पुत्री थी।उसका भाई बहुत बड़ा बिजनेसमैन था। उसके पिता एक रिटायर्ड जज थे। मांँ स्वास्थ्य विभाग से रिटायर्ड थीं।पति भी व्यवसायी था और उसका ससुराल बहुत संपन्न था। एक 7 वर्ष का बेटा था उसका। जीवन में सब कुछ इतना आकर्षक था।फिर इतनी छटपटाहट क्यों थी,अमृत की आँखों में।इतनी व्याकुलता क्यों थी,उसकी बातों में।इतनी अधीरता क्यों थी,उसके व्यवहार में।
शिविर समाप्त हो गया था। हम पुन: अपने कार्य स्थलों पर पहुंच चुके थे।यह प्रशिक्षण शिविर उससे मेरी मुलाकात का पहला और आखिरी स्थल बन जायेगा, ऐसी कल्पना करना भी मूर्खता था।पर स्मृति पटल पर धीरे धीरे इन पलों की तीव्रता मंद पड़ती जा रही थी।
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वार्षिक सम्मेलन में हमारी संस्था की ओर से बीस सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी कार्यशैली और प्रदर्शन के आधार पर चयनित किए गए थे।विभागाध्यक्ष द्वारा उन्हें समारोह पूर्वक सम्मानित करने हेतु आमंत्रित किया गया था।मैं भी इस सूची में शामिल थी और मुझे पता चला था कि अमृत भी इस सूची में है।अतः बहुत दिनों बाद उससे मुलाकात होगी,यह सोच कर भी मैं रोमांचित थी। आधुनिक युग में भी ऐसी संवादहीनता का कारण यह था कि अमृत के पास अपना कोई फोन नंबर नहीं था।उसने यह कह कर बात टाल दी थी कि उसे फोन से एलर्जी है।कोई जरूरी संदेश होता है तो उसके पति के फोन से काम चलता है।उसके पति का नंबर न मैंने लिया न उसने दिया। इसलिए मेरे पास उस शिविर के बाद से उसकी कोई खबर नहीं थी।मंच पर मेरा नाम पुकारा गया मैंने प्रशस्ति पत्र लिया और आभार व्यक्त किया।मेरी नजरें अमृत को खोज रही थीं,परंतु मुझे अमृत कहीं दिखाई नहीं दी।अमृत का नाम मंच से पुकारा गया पर वह वहां नहीं थी।उसकी सहकर्मी ने उसका सम्मान ग्रहण किया। समारोह के समापन के बाद मैं अमृत की उस सहकर्मी के पास गई और मैंने अमृत के बारे में पूछा।उसने बताया कि अमृत के बारे में उसे भी तीन-चार दिन से कुछ नहीं पता है। क्योंकि वह 4 दिन से ऑफिस भी नहीं आई है। उसके पति के नंबर पर फोन करने पर वह बेरुखी से जवाब देता है ,"मुझे नहीं पता क्यों नहीं आ रही?" मैंने पूछा,"कोई परेशानी है क्या उसे ?" वह बोली, "परेशानी....परेशानी का पहाड़ है उसके सिर पर।" मैंने आश्चर्य से पूछा,"क्या मतलब........वह तो संपन्न परिवार से है।जॉब करती है, एक 7 साल का बेटा है।प्रतिभा की धनी है।बेस्ट ऑफिशियल अवार्डी है।अब शरीर की बीमारियों का क्या?ये तो लगी रहती हैं।उसकी स्थिति तो फिर भी ठीक है कि वह इलाज करा सकती है, दवाई ले सकती है।अब हर इंसान को सब कुछ तो नहीं मिल सकता।" वह बोली,"मैडम जो दिखता है,हमेशा वही पूरा सच नहीं होता।अमृत मैडम की कमर दर्द की समस्या तो उनकी असल समस्या के सामने बिंदु भर भी नहीं है?" "क्या....प्लीज मुझे खुल कर बताओ?",मैंने निवेदन किया। उसने गहरी साँस भरी और कहना शुरू किया,"अमृत जी के पति बहुत ही शक्की,पियक्कड़ और गुस्से बाज हैं।वह उनकी हर बात पर शक करते हैं।रोज पीते हैं और नशे में धुत होकर उन्हें बेरहमी से पीटते हैं।एक बार एक संपादक उनकी रचनाओं को छापने की बात लेकर घर पहुंच गया।उनके पति ने उसे पीट पीट कर घर से बाहर निकाला।उनकी सारी डायरियांँ,सारा लेखन आग के हवाले कर दिया और यहां तक कि उनके नौकरी करने पर भी उन्हें आपत्ति है।कई बार तो वह उनके पीछे-पीछे ऑफिस आ जाते हैं और निगरानी रखते हैं कि वह क्या कर रही है,किससे बात कर रही है ?और फिर बात बेबात सरेआम बेइज्जती करना शुरू कर देते हैं।"
यह सुनकर मैं गुस्से से उत्तेजित होकर बोल उठी,"अरे अमृत जैसी पढ़ी लिखी महिला,एक सम्पन्न परिवार की बेटी,क्यों ऐसे शराबी व्यक्ति के ज़ुल्म सह रही है।उसे इसका प्रतिरोध करना चाहिए।आज के समय में तो महिलाओं के हित में इतने कानून हैं।ऐसे दुष्ट को तो सबक सीखाना चाहिए।" वह फीकी मुस्कान बिखेरती हुई बोली,"यह सब कहना जितना आसान है न मैडम उतना करना नहीं। मैंने भी कई बार अमृत जी को सलाह दी है पर उनकी बातों ने हमेशा मुझे चुप करा दिया।पता नहीं किस मिट्टी की बनी हैं। कहती हैं 'ज्ञान,संस्कार और सामाजिक प्रतिष्ठा वे बेड़ियाँ हैं उनके अंतःकरण पर जिनसे वह कभी निकल नहीं पायेंगी।क्योंकि इससे उनका परिवार और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जायेंगे।उनके बेटे की जिंदगी कानूनी दांव पेंचों में फँस कर रह जाएगी।कोई बात नहीं मियां बीवी में झगड़े तो होते ही हैं वह अपने प्यार से अपने पति का बर्ताव बदलकर रख देंगी।'पता नहीं मैडम!कितनी हिम्मत है उनके अंदर सब कुछ सह लेती हैं। किसी से कुछ नहीं कहती।कहती हैं 'पुलिस में जाकर क्या होगा उनके माता-पिता की इतने वर्षों से बनी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।उन्हें बुढ़ापे में लोगों की कितनी बातें सुननी पड़ेंगी। हमारे समाज में हर गलती का जिम्मेदार घुमा फिरा कर आखिर लड़की को ही समझा जाता है। फिर न्याय क्या पेड़ पर लगा पत्ता है कि गए और तोड़ लाए।वैसे ही हमारे देश में जजों की कमी है। कई केस न्याय की बाट जोह रहे हैं। न्याय तो जल्दी मिलेगा नहीं उल्टा जिंदगी कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते कट जाएगी और इस सब में उनके बेटे का बचपन, उससे उसके पिता की छांव,उनके माता-पिता व सास ससुर का बुढ़ापा,समाज में उनकी प्रतिष्ठा, उनके भाई का सुनहरा भविष्य सब दांव पर लग जाएगा।एक उनके जख्म सहने से अगर इतने घाव बच रहे हैं तो यही सही।फिर कभी तो भोर होगी।'ऐसी बातें करके ही वह चुप करा देती हैं।"
मैं अवाक थी।अमृत से पहली मुलाकात याद आ रही थी।उस वक्त उसके व्यवहार पर जितना आश्चर्य हुआ था,आज उतना ही गर्व महसूस हो रहा था।वह एक सामान्य महिला से दैवीय रूप धारण करती जा रही थी। मैं भाव विभोर थी। उसके आदर्श ऊंचाई पर चमकते दिखाई दे रहे थे।
तभी फोन की रिंग से मेरा ध्यान टूटा,मैंने अपना फोन चैक किया। परन्तु फोन अमृत की सहकर्मी का बज रहा था। उसने फोन रिसीव किया और ,"क्या.....?"के साथ उसका मुंह खुला रह गया।"कब...? कैसे....?"अग्रिम दो शब्द थे। उसने अश्रुपूरित नेत्रों से मेरी ओर देखा और बस इतना कह पायी,"अमृत सूख गया, मैडम!"
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अमृत के आलीशान बंगले के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। हमारे विभाग के अधिकारी और सहकर्मी वहाँ मौजूद थे।दुमंजिले में कमरे के बाहर अमृत को रखा गया था। ऐसा लग रहा था जैसे अमृत अभी उठेगी और कहेगी,"ओय चुप करो भई! मैं तो मजाक कर रही सी गी।" पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
अमृत की माँ दहाड़े मार कर रो रही थीं। रोते रोते वह बीच में बेहोश हो जाती तो लोग पानी के छीँटे मारकर और पानी पिलाकर उन्हें सँभालते।जब वह होश में आती तो आर्तनाद करती,"हाय बेटी तूने ये क्या किया?एक बार तो अपनी माँ को बताती।तेरा भाई तेरे लिए धरती पाताल एक कर देता।तेरे डैडी ने जिन्दगी भर लोगों के फैसले किये,तेरे लिए भी करते।पर तूने हमें कुछ न बताया बेटी।हाय मेरी लाडो हमें जिन्दा मार गयी तू।"माँ की दहाड़ों के साथ साथ औरतों के रुआँसे स्वर भी शामिल होकर माहौल को बहुत गमगीन बनाये हुए थे।
दबे स्वर में लोग अमृत के पति और सास-ससुर की बुराई कर रहे थे।कोई कह रहा था कि उन्हें यकीन नहीं होता कि इतनी पढ़ी लिखी,नौकरीपेशा,सम्पन्न मायके वाली लड़की इन जाहिलों के ज़ुल्म को अब तक बर्दाश्त करती रही।अमृत का बेटा मामा की गोद में बैठा भरी आँखों से इधर उधर टुकुर-टुकुर देख रहा था।मेरी नज़र अमृत के पति को ढूँढ रही थीं। मैं एक बार नर वेशधारी उस भेड़िये को देखना चाहती थी पर पता चला कि वह घटना के बाद से ही फरार है।
"4 दिन से वह लगातार अमृत की पिटाई कर रहा था उसने अमृत के मायके जाने पर भी रोक लगा दी थी।बेटे को भी वह अमृत के पास नहीं जाने देता था और उसके बारे में भला-बुरा कहता था।",एक पड़ोसन बता रही थी। दूसरी ने कहा,"उस दिन ऑफिस से कोई आदमी आया था यह बताने के लिए कि उसका नाम ईनाम के लिए गया है तो वह फलां तारीख को फलां जगह ईनाम लेने आ जाए। बस उस आदमी को देखकर ही मिन्दर भड़क गया था और 'ले ईनाम!ले ईनाम!'कह कर डंडे से वह पिटाई की थी उसकी कि दूसरे दिन पूरे बदन पर नील पड़ी हुई थी और वह उठ भी नहीं पा रही थी।तभी से वह ऑफिस भी नहीं गई थी।" "बेचारी कब तक सहती आज मौका पाकर आजाद हो गई, लटक गई फंदे से,"एक अन्य ने कहा।
मुझे धक्का लगा।यकीन नहीं हो रहा था,"अमृत और ऐसा कदम... ।नहीं,.....यह हत्या है।"मन कह रहा था।पर लगातार घनों की चोट से पहाड़ भी तो टूट जाते हैं।हो सकता है अमृत के भीतर का पहाड़ भी हिल गया होगा।सच्चाई अमृत के साथ ही चली गई थी।पर मेरे पूरे वजूद को इस भयावह दृश्य ने कम्पित कर दिया था।आज पता चला वह समय को क्यों समेट लेना चाहती थी?वह बोलने का कोई अवसर क्यों नहीं गवाती थी।पर अब क्या?.....,
विष को अमृत करने की चेष्टा में अमृत सूख चुका था।
✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद