सोमवार, 6 मई 2024

मुरादाबाद के प्रताप सिंह कन्या इण्टर कालेज में अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर के तत्वावधान में 5 मई 2024 को कवि सम्मेलन, पुस्तक लोकार्पण और साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन

 मुरादाबाद के प्रताप सिंह कन्या इण्टर कालेज में रविवार पांच मई 2024 को अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर के तत्वावधान में आयोजित भव्य समारोह में अंकन नवोदित साहित्यिकार मंच की स्थापना की गई। इस अवसर पर तीन कृतियों डॉ प्रीति हुंकार के बाल कविता संग्रह – स्पर्श, इंदु रानी के काव्य संग्रह– हित स्पंदन और जितेंद्र कमल आनंद, राम किशोर वर्मा, डॉ प्रीति हुंकार और इंदु रानी के संपादन में साझा काव्य संग्रह साहित्य जगत के उभरते सितारे का लोकार्पण किया गया। समारोह में कवि सम्मेलन और  साठ साहित्यकारों को प्रतीक चिन्ह व सम्मान पत्र प्रदान कर सम्मानित भी किया गया। 

   वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण दयाल शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में मुख्य अतिथि डॉ महेश दिवाकर, विशिष्ट अतिथि अमरीश गर्ग, रोहित राकेश, जितेंद्र कमल आनंद, डॉ सीमा शर्मा, रघुराज सिंह निश्चल, धवल दीक्षित और डॉ मनोज रस्तोगी रहे। संचालन राजीव प्रखर और सरफराज हुसैन फराज ने किया।

   समारोह में डॉ प्रेमवती उपाध्याय, के पी सिंह सरल, मनोज वर्मा मनु, जितेंद्र कुमार जौली ,नकुल त्यागी,विनीता चौरसिया, दुष्यंत बाबा, पूजा राणा, प्रदीप बैरागी, डा० शरद , कमलेश सिंह, राम वल्लभ तिवारी,  डा० आजम, आनंद वर्धन, सांत्वना, अनुराग रोहिला, सीमा रानी, रेखा रानी जैनेन्द्रसिंह, राजबहादुर यादव, महिपाल सिंह, संजय कुमार, पूनम उदयचंद्रा, कृष्ण कुमार, आरती रैदास, देवेन्द्र प्रताप वर्मा, चुनमुन रागिनी, सुनीता, रेखा, अल्पना दीक्षित, कमल , राजवीरसिंह, रूपेश धनकर, जाग्रति, स्वदेश कुमारी, शालिनी गुप्ता,अंजु झा,शुभम कश्यप समेत अनेक रचनाकार उपस्थित थे। संयोजिका डॉ प्रीति हुँकार व इन्दु रानी ने आभार व्यक्त किया।


































रविवार, 5 मई 2024

मुरादाबाद के दिवंगत साहित्यकार अखिलेश वर्मा की स्मृति में शनिवार 4 मई 2024 को श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन



मुरादाबाद के स्वतंत्रता सेनानी भवन में आयोजित श्रद्धांजलि-सभा में कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा जी का स्मरण करते हुए आज उपस्थित सभी साहित्यकारों की आंखें नम हो गईं। विदित हो कि महानगर मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य  पर एक लंबे अरसे तक चर्चित व लोकप्रिय रहे सुविख्यात ग़ज़लकार एवं लघुकथा लेखक श्री अखिलेश वर्मा का रविवार 28 अप्रैल 2024 को बरेली में हुई सड़क दुर्घटना में असमय निधन हो गया था। उनकी स्मृति में हुई श्रद्धांजलि सभा में  साहित्यकारों ने उनके साथ अपने संस्मरणों को साझा करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। 

कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा का स्मरण करते हुए वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल ने कहा - "निष्ठुर काल ने हमसे एक और प्यारा इंसान व बेहतरीन शायर छीन लिया। उनकी रचनाएं हमें सदैव उनका स्मरण कराती रहेगी।" 

    वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा -"अपने मधुर व्यवहार  से अखिलेश जी ने प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में एक विशिष्ट स्थान बनाया। उनके व्यक्तित्व की सरलता उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।" 

वरिष्ठ शायर डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ की भावुकता भी अखिलेश जी को याद करते हुए इस प्रकार झलक उठी  - "अखिलेश वर्मा हमारे बीच में नहीं है, मन इस बात को मानने को अब भी तैयार नहीं। शायरी का एक जगमगाता दीपक समय से पूर्व ही विश्राम पर चला गया।" 

 डॉ. मनोज रस्तोगी के अनुसार -"कीर्तिशेष अखिलेश जी के अप्रकाशित साहित्य को सभी के प्रयासों से प्रकाशित कराया जायेगा। लोकप्रिय ब्लॉग साहित्यिक मुरादाबाद को आगे ले जाने में उनकी एक बड़ी भूमिका रही।" 

कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता के अनुसार - "अखिलेश जी भौतिक रूप से आज भले ही हमारे बीच न हों परंतु अपने साहित्यिक अवदान में सदा उपस्थित रहेंगे।" 

वरिष्ठ नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का कहना था -"श्री अखिलेश वर्मा ने अल्प समय में ही साहित्य को बहुत कुछ दिया। वह अपनी उत्कृष्ट रचनाओं में अमर रहेंगे। उनका अप्रकाशित साहित्य प्रकाशन तक जाना चाहिए।" 

कवि मनोज मनु के अनुसार - "अभी भी मन यही कह रहा है कि अखिलेश जी यहीं कहीं आसपास हैं। उनकी अद्भुत रचनाओं ने सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श किया।" 

महानगर के रचनाकार राजीव प्रखर का कहना था - "अखिलेश जी के व्यक्तित्व में विद्यमान सरलता, सौम्यता एवं जीवटता ने उन्हें एक बड़ा रचनाकार बनाया। उनका साहित्यिक समर्पण सभी को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा।" 

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर भी अखिलेश जी का स्मरण करते हुए अत्यंत भावुक हो उठीं। उनका कहना था - "अखिलेश जी ने साहित्य के क्षेत्र में पग पग पर मेरा मार्गदर्शन किया मेरी साहित्यिक-यात्रा में उनका बहुत बड़ा योगदान है।" 

वरिष्ठ समाजसेवी धवल दीक्षित का कहना था - "अल्प समय में ही अखिलेश जी साहित्य व समाज को ऐसी रोशनी दे गये हैं जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं।" 

कवि मयंक शर्मा का कहना था - "अखिलेश जी की रचनाएं ज़मीन से जुड़ी हुई रचनाएं हैं। उनका असमय चले जाना समाज की एक बड़ी क्षति है।" 

कवि दुष्यंत बाबा ने कहा - "अखिलेश वर्मा जी का असमय चले जाना साहित्य एवं मानवता दोनों के लिए एक ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति करना संभव नहीं होगा।" 

कवि राशिद हुसैन के अनुसार -"अखिलेश जी को पढ़ते-सुनते हुए ही मैं ग़ज़ल लेखन की ओर आकर्षित हुआ। उनका चले जाना निश्चित रूप से एक अपूर्णीय क्षति है।" 

युवा कवि आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ के अनुसार - "अखिलेश जी की रचनाएं उनकी उपस्थिति का आभास कराती रहेंगी।" 

इस अवसर पर वरिष्ठ रंगकर्मी राजेश सक्सेना,  कीर्तिशेष अखिलेश वर्मा जी के परिवार से उनके बड़े भ्राता श्री अवनेश वर्मा, श्री अशोक वर्मा, श्रीमती इंदु वर्मा, अखिलेश जी के सुपुत्र लक्ष्य वर्मा तथा भतीजे ऋषभ वर्मा ने भी उनकी स्मृतियां को साझा करते हुए उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। अंत में अखिलेश जी की स्मृति में दो मिनट के मौन एवं शांति पाठ के पश्चात् श्रद्धांजलि-सभा पूर्ण हुई। 











































शुक्रवार, 3 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र गौतम का आलेख ....जीवन के खुरदुरेपन में मिठास पैदा करने वाला कवि। उनका यह आलेख प्रकाशित हुआ है दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ के 21 अप्रैल 2024 के अंक में


 16 अप्रैल 2024 को माहेश्वर तिवारी के निधन के साथ समकालीन नवगीत का उच्चतम शिखर ढह गया। इसके साथ उनकी सात दशक की काव्य-यात्रा का अवसान हो गया। तिवारीजी की रचनाएँ छठे दशक से ही ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। 'पांच जोड़ बांसुरी', 'नवगीत दशक-दो', 'यात्रा में साथ-साथ', 'गीतायन' जैसे सभी प्रतिनिधि नवगीत संकलनों में उनके गीत शामिल हैं। उनके नवगीत-संग्रह हैं: ‘हरसिंगार कोई तो हो', 'सच की कोई शर्त नहीं', 'नदी का अकेलापन' और 'फूल आये हैं कनेरों में'। इन संग्रहों का  समकालीन कविता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। काव्य-मंचों पर भी निरंतर उनकी उपस्थिति रही। उनका जन्म 22 जुलाई 1939 को बस्ती, (उ.प्र) में हुआ था। कुछ समय तक उन्होंने विदिशा में अध्यापन भी किया। उनकी संगीत-विशारद पत्नी विशाखा जी को चलने में कठिनाई थी। वे भी कॉलेज में पढ़ाती थीं। उनकी सुविधा का ध्यान रखते हुए माहेश्वर जी ने अध्यापन छोड़कर काव्य-मंचों को आजीविका का साधन बनाया लेकिन कभी मंचीय कवियों की तरह कविता के स्तर से समझौता नहीं किया।

माहेश्वर तिवारी के गीतों की ज़मीन बहुत विशिष्ट रही है। उन्होंने कृत्रिमताओं और बड़बोलेपन से दूर जीवन के ऐसे सहज चित्र प्रस्तुत किए, जिनमें पाठक के साथ चलने, उसकी संवेदना का हिस्सा बनने की अद्भुत क्षमता है। यह शक्ति उनकी काव्य-भाषा की बिंबात्मकता में निहित है। वे इसे नवगीत की काव्य-भाषा की विशिष्टता मानते हुए कहते हैं: “नवगीत एक बिंबप्रधान काव्य-रूप है। उसमें सहजता तो अभिप्रेय है लेकिन सपाटबयानी नहीं। सपाट सिर्फ़ गद्य हो सकता है कविता नहीं।... कविता... जितना व्यक्त करती है उतना ही अनकहा भी छोड़ देती है। दरअसल यह अनकहा ही तो कविता है”। नवगीत के विरोधियों ने इसकी प्रासंगिकता को नकारते हुए एक भ्रामक तस्वीर गढ़ने की कोशिश की लेकिन भ्रम को तोड़ते हुए माहेश्वर तिवारी ने स्पष्ट किया: “नवगीत नई कविता से मुकाबले के लिए ओढ़ा गया कोई आवरण नहीं है। कविता के इतिहास में यथार्थ के दबाव से इसका जन्म हुआ”। कम ही नवगीतकार ज़िंदगी के उतना निकट हैं, जितना माहेश्वर तिवारी। अति साधारण दृश्यों और घटनाओं से असाधारण संवेदना को व्यंजित करने वाले गीतों की रचना उनकी मौलिकता का आधार है। आश्वस्ति के स्पर्श में और रीढ़ को सिहरने वाले भय में क्या रिश्ता है, इसे परिवेश की हल्की रेखाओं से उभरने वाले बिंबों से वे कैसे चित्रित करते हैं, इसे ऐसे गीतों से समझा जा सकता है: 

उंगलियों से कभी

हल्का-सा छुएँ भी तो

झील का ठहरा हुआ जल

काँप जाता है।

मछलियाँ बेचैन हो उठतीं

देखते ही हाथ की परछाइयाँ

एक कंकड़ फेंक कर देखो

काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ

और उस पल

झुका कन्धों पर क्षितिज की

हर लहर के साथ

बादल काँप जाता है।

हम जिस खूंखार समय में जी रहे हैं, उसमें सत्ता और व्यवस्था के दानवी शिकंजे हमें कसे हैं। इस भयावह वातावरण में कविता का काम सबसे जटिल और कठिन है। माहेश्वर तिवारी इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और बहुत धारदार शैली में अपने वक़्त के वहशी चेहरे को बेनकाब करते हैं। खौफ़ के इस मंज़र की एक मुकम्मिल तस्वीर वे पाठक के सामने रखते हैं। विशेष यह है कि यह न तो नारेबाजी है और न नक्काशी। कविता की अनिवार्य उपस्थिती का नाम ही माहेश्वर तिवारी है। झुलसते हुए बारूदी सुरंगों के सफ़र को तय किया जाने का यह बयान बहुत मर्मस्पर्शी है: 

हम पसरती आग में

जलते शहर हैं

... हम झुलसते हुए

बारूदी सुरंगों के

सफ़र हैं 

कल उगेंगे

फूल बनकर हम

जमीनों में 

सोच को

तब्दील करते

फिर यकीनों में

आज तो

ज्वालामुखी पर

थरथराते हुए घर हैं  

नवगीत की रचना-प्रक्रिया में बिंबात्मकता के अतिरिक्त भाषा का रूपकात्मक और प्रतीकगर्भित प्रयोग इसकी नयी शैली का निर्माण करता है। जहां ये प्रयोग सहज एवं संवेदनाश्रित हैं, वहाँ वे इसकी उपलब्धि बने हैं, जहां उन्हें चमत्कार का जामा पहनाया गया है, वहाँ वे खिलवाड़ लगते हैं। माहेश्वर तिवारी के काव्य में प्रकृतिधर्मी प्रतीकों का अद्भुत प्रयोग नवगीत ही नहीं, समूची हिन्दी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखता है। जिजीविषा और  संघर्ष को प्रकृतिधर्मी प्रतीकों से माहेश्वर तिवारी ने ऐसे अद्भुत गीतों की रचना की है:  

कुहरे में सोये हैं पेड़

पत्ता-पत्ता नम है

यह सबूत क्या कम है

लगता है

लिपट कर टहनियों से

बहुत बहुत

रोये हैं पेड़

जंगल का घर छूटा

कुछ कुछ भीतर टूटा

शहरों में 

बेघर होकर जीते

सपनों में खोये हैं पेड़

यद्यपि माहेश्वर तिवारी ने रूमान को अभिव्यक्त करते ‘याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे’। जैसे कालजयी गीतों की भी रचना की है लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या उनके ऐसे गीतों की है, जिनमें अपने समय का दर्द गूँजता है। अपनी समस्त सौंदर्य-चेतना के बावजूद कविता यदि गूँगों की ज़ुबान नहीं बन पाती तो उसकी प्रासंगिकता संदिग्ध है। तिवारीजी के गीतों में मौजूद गहरा चिंतन हालात की प्रामाणिक तस्वीर ही नहीं है, सामाजिक संघर्ष का दस्तावेज़ भी है। समय के दर्द को आवाज देना पलायन नहीं अपितु मनुष्यता-विरोधी ताकतों को पहचान कर आम  आदमी को सुन्न कर देने वाले उस दर्द का अहसास भी करवाना है, जिसका प्रतीकार अपेक्षित है। यह माहेश्वर ने ऐसे गीतों से बखूबी किया है। 

 अंतत: माहेश्वर तिवारी द्वारा अपनी कविता के प्रेरणा-स्रोतों का यह उल्लेख उन्हें जीवन से जुड़ा हुआ कवि ही सिद्ध करता है: “मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ। मुझे बिंब और भाषा के लिए किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती। हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है। कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है। जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर। उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है। मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है। सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ। यह मिठास वहाँ से भी मिलती है। मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा स्रोत है। वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी”। 

✍️ राजेंद्र गौतम 

 

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता मीनाक्षी ठाकुर का गीत ....


एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में । 


गीत थमा, संगीत थमा है, 

शब्द अचंभित मौन खड़े। 

धूल- धूसरित भाव हो गये, 

व्याकुलता के भरे घड़े। 

फूल कनेरों के सूखे हैं, 

सन्नाटा है आँगन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


उखड़ गया वट वृक्ष पुराना, 

कुटिल -काल के अंधड़ में। 

 डाली से टूटा है पत्ता, 

 इस मौसम के पतझड़ में। 

हरसिंगारों के मुँह उतरे

क्रंदन करते हैं वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में।। 


आज अकेली नदी हो गयी

चला गया जो था अपना। 

 मंद हुई चिड़िया की धड़कन

टूट गया सुंदर सपना। 

पर्वत कोई गिरा यहाँ पर

हलचल सी है इस वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


✍️ मीनाक्षी ठाकुर 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ बुद्धि नाथ मिश्र का गीत ......

 




जी भर रोया

रोज एक परिजन को खोया

पाकर लम्बी उमर आज मैं

जी भर रोया।


जिनके साथ उठा-बैठा

पर्वत-शिखरों पर

उनको आया सुला

दहकते अंगारों पर

जो था मुझे जगाता

सारी रात हँसा कर

वह है खुद लहरों पर सोया।


एक-एक कर तजे सभी

सम्मोहन घर का

रहा देखता मैं निरीह

सुग्गा पिंजर का

हुआ अचंभित फूल देखकर

टूट गया वह धागा

जिसमें हार पिरोया।


किसके-किसके नाम

दीप लहरों पर भेजूँ

टूटे-बिखरे शीशे

कितने चित्र सहेजूँ

जिसने चंदा बनने का

एहसास कराया

बादल बनकर वही भिगोया। 


✍️ बुद्धिनाथ मिश्र

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ अजय अनुपम का गीत ......



...खुशबुओं के बीच माहेश्वर


बन उतरती धूप 

जिसके गीत में अक्षर

बो गये हैं खुशबुओं के बीज

माहेश्वर


चेतना में चांदनी की

दमकती काया

भाव से जिसने सहज ही

नेह बरसाया

खोल मन की बात

मिलना नेह में भरकर


आंँसुओं को गीत के कपड़े

पिन्हाते थे

गुनगुना कर चांँद-तारों को

बुलाते थे

अब बनाया चांँद-तारों में

उन्होंने घर


वह कनेरों के बगीचे के

दुलारे थे

फूल खुशबू या कि चमकीले

सितारे थे

बन गये नवगीत का पर्याय

शाश्वत-स्वर

खो गये हैं खुशबुओं के बीच

माहेश्वर


✍️डॉ. अजय अनुपम

मुरादाबाद


बुधवार, 1 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी जी की अठारह ग़ज़लें -



(1)

इश्क मत करना किसी से बावला हो जायगा

 तू जवानी के दिनों में, पिलपिला हो जायगा 

 

यह तो पानी का असर है, तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा 


दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटों के लिए 

इसको जब कुर्सी मिलेगी, भेड़िया हो जायगा 


हर तरफ हिंसा डकैती, हो रहे हैं अपहरण

 रफ्ता रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा 

 

जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में 

जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा 


लीडरों के इस नगर में, है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायगा

 

है बहुत रिस्की ये विस्की, रोज़ पीना छोड़ दे 

 चार हफ्तों में नहीं तो पीलिया हो जायगा 

 

शख्स वो जो टुल्ल होकर बक रहा है गालियाँ 

चाहे दिल्ली में रहे पर आगरा हो जायगा


 पेलकर पन्द्रह लतीफे मंच पर तो जम गया 

 गोष्ठी में हूट लेकिन शर्तिया हो जायगा 

 

पैंट का कपड़ा न लेना बौम्बे वी० टी० से कभी 

धीरे धीरे यह सिकुड़कर जाँघिया हो जायगा 


बोझ लादे फिर रहा है जो दुखों का हर समय 

आदमी होते हुए भी वह गधा हो जायगा 


क्या पता था शायरी में आयँगे ऐसे भी दिन

हर गज़ल का शे'र हुल्लड़ मर्सिया हो जायगा


(2)

शायरों को मिल रहे हैं ढेरों पत्थर आजकल 

क्योंकि महँगे हो गये अंडे टमाटर 


आजकल गीत चोरी का छपाया, उसने अपने नाम से

 रह गया है शायरा का, यह करैक्टर आजकल 

 

गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर सटायर आजकल 


इन कुँए के मेंढकों ने पी लिया पानी तमाम 

डूब कर मरने लगे हैं सब समंदर आजकल 


काटने को दौड़ता है, हर दिवस सप्ताह का 

जब से सर पे चढ़ गया है यह शनीचर आजकल


 पालने का शौक है तो आप कुत्ता पालिये 

 गोद मत लेना किसी का, कोई पुत्तर आजकल 

 

आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल


(3)


रहते देहरादून हमारे नेता जी 

देश का पीते खून हमारे नेता जी


 संविधान भी इन्हें नमस्ते करता है 

 खुद ही हैं कानून हमारे नेता जी 

 

हम तो केवल तारे हैं वह भी टूटे 

सरकारी फुल मून हमारे नेता जी 


धोती कुर्ता तो भाषण का चोला है 

घर पर हैं पतलून हमारे नेता जी 


इनके चमचे कातिल हैं पर बाहर हैं 

कर देते हैं फून हमारे नेता जी 


किसी बात पर इनसे पंगा मत लेना 

रखते हैं नाखून हमारे नेता जी 


आम आदमी हो तुम गर्मी में झुलसो 

जायेंगे रंगून हमारे नेताजी 


छठी फेल हैं फिर भी आज मिनिस्टर हैं

सूरत से पीयून हमारे नेता जी


'हुल्लड़' तुम तो दो कौड़ी के शायर हो 

लेकिन अफलातून हमारे नेता जी


(4)


हर तरफ  भेडचाल है दद्दा

कुर्सियों का कमाल है दद्दा 


पहले होता था दाल में काला 

अब तो काले में दाल है दद्दा 


डाकुओं का भी कुछ करैक्टर है 

पर ये नेता दलाल है दद्दा 


कोई घोड़ा हो या कि अफसर हो 

चलता फिरता बवाल है दद्दा 


जो कि भरता है जख्म दिल के भी 

वक्त ही वह डिटॉल है दद्दा


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा


मेरे शेरों में आग है 'हुल्लड़' 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा

(5)



मसखरा मशहूर है आँसू छिपाने के लिए 

बाँटता है वह हँसी, सारे ज़माने के लिए


घाव सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक 

आयेगा नहीं कोई मरहम लगाने के लिए 


देखकर तेरी तरक्की खुश नहीं होगा कोई 

लोग मौका ढूँढते हैं, काट खाने के लिए


फलसफा कोई नहीं है और ना मकसद कोई 

लोग कुछ आते जहाँ में हिनहिनाने के लिए


ज़िन्दगी में ग़म बहुत हैं, हर कदम पर हादसे 

रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए


मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का 

मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए


(6)


गरीबी ने किया गंजा, नहीं तो चाँद पर जाता 

तुम्हारी माँग भरने को सितारे तोड़कर लाता


बहा डाले तुम्हारी याद में, आँसू कई क्विंटल 

अगर तुम फोन ना करती, यहाँ सैलाब आ जाता


तुम्हारे नाम की चिट्ठी, तुम्हारे बाप ने खोली 

उसे उर्दू अगर आती मुझे कच्चा चबा जाता


बुढ़ापा आ गया लेकिन सिपाही का सिपाही हूँ 

कि मैं चालू अगर होता तो थानेदार हो जाता


हमारे जोक सुनकर भी वहाँ मज़दूर रोते थे 

कि जिसका पेट खाली हो, कभी भी हँस नहीं पाता


तुम्हारी बेवफाई से ही मैं डिप्टी कलैक्टर हूँ 

तुम्हारे इश्क में फँसता तो चौकीदार हो जाता


खुदा नाखून गंजों को नहीं देता कभी 'हुल्लड़ ' 

अगर देता तो यह नेता समूचा देश खा जाता


(7)


लाख तू तदबीर कर ले कुछ नही फल पायगा 

इस मुकद्दर की पहेली का नहीं हल पायगा 


पाँव खुद के हैं जरूरी हर सफर के वास्ते 

सिर्फ जूतों की मदद से किस तरह चल पायगा 


टूट जाएगी वो हँडिया जो कि होगी काठ की 

यार पानी में पकौड़ी किस तरह तल पायगा 


भाग्य की ठोकर लगेगी जब तुम्हारी पीठ पर 

मूँग तेरे पास होगी, तू नहीं दल पायगा 


साज़िशें करने से पहले, वक्त से तो पूछ ले 

वह मुखालिफ हो गया तो तू स्वयं जल जायगा 


नफरतों की आग दिल में मज़हबी चिंगारियाँ 

चंद वोटों की ही खातिर क्या वतन जल जायगा 


नाम वाले नाज़ मत कर, देख सूरज की तरफ 

यह सवेरे को उगेगा, शाम को ढल जायगा


(8)


मुल्क में ऐसा भी कानून बनाया जाये 

जो भी मनहूस हो सूली पे चढ़ाया जाये 


भूख से कोई भी मुफलिस जो मरे बस्ती में 

सारी बस्ती के अमीरों को जलाया जाये 


ना तो बिजली है, न पानी है, ना पाकीज़ा हवा 

भ्रष्ट नेताओं को मच्छर से कटाया जाये 


दाम साबुन के सुने हैं तो पसीना आया 

क्यों न अब रोज़ पसीने से नहाया जाये 


जो ये कहते हैं गरीबी का नहीं नामो-निशाँ 

उनको ताज़ा कोई अखबार पढ़ाया जाये 


हमने विस्की के लिए पूछा तो लीडर बोला 

हमको दंगों का गरम खून पिलाया जाये 


जिनको इस मुल्क की मिट्टी से कोई प्यार नहीं 

ऐसे गद्दारों को मिट्टी में मिलाया जाये 


जिसके बच्चे हों यहाँ पाँच से ज़्यादा हमदम 

उस गधे को तो गधे पर ही बिठाया जाये 


सिर्फ गीता को सुनाने से भला क्या होगा 

आचरण में भी किसी श्लोक को लाया जाये 


आके अमरीका में इस जिस्म को आराम मिला 

रूह प्यासी है इसे कुछ तो पिलाया जाये 


देश के भाग्य पे झुर्री ना कहीं पड़ जाये 

वक्त की माँग है बुड्ढों को हटाया जाये 


देश के वास्ते जीते नहीं जो भी नेता 

ऐसे नेताओं को गंगा में डुबाया जाये 


भीड़ अँगड़ाइयाँ लेती है, चली जायेगी 

क्यों न अब मंच पे 'हुल्लड़' को बुलाया जाये


(9)


तुम ढूँढ रहे चूहे, बिल्ली के घराने में 

कंधे नहीं मिलते हैं, गंजों के ठिकाने में 


घर हमने बनाया है, मंदिर के ही पिछवाड़े 

कितनी सुविधाएँ हैं, जूतों को चुराने में 


लकड़ी बड़ी महँगी है, रह लो बिन दरवाज़े 

नानी मर जाती है, सागौन लगाने में 


कालिख पुतवा दी है, मुल्क के माथे पर 

सदियाँ लग जायेंगी, यह दाग मिटाने में 


यह भीड़ निरंकुश है, हुशियार ज़रा रहना 

प्रह्लाद ना जल जाए, होली को जलाने में 


ढाँचा था कि मंदिर था, तय होगा खुदाई से 

जल्दी न मचा देना, इसे फिर से बनाने में 


बुश्शर्ट गरीबी की, तन ढाँप नहीं पाई 

काटी हैं उमर हमने, पैबंद लगाने में 


इस अर्थ-व्यवस्था की, तारीफ में क्या कहिये 

छ: - सात कटोरे हैं, भारत के खज़ाने में 


बेटी की विदाई पर, छुप-छुप के न रोया हो 

ऐसा कोई जोकर, दिखला दो ज़माने में 


इन वोट के खेतों में, कुछ प्यार भी बो देते तुम 

व्यस्त रहे केवल, लाशों को उगाने में 


मस्जिद से नहीं मतलब, मंदिर से है लेना क्या

 सब-के-सब पागल हैं, कुर्सी हथियाने में 


 श्री राम ! अयोध्या से, न्यूयार्क चले जाओ 

 सौ साल लगेंगे इन्हें, जजमैंट सुनाने में


(10)


वोट दे दो वोट दे दो, बड़बड़ाने आ गये

 फिर हमारे लाश को कंधा लगाने आ गये


देश से मतलब नहीं है, देश जाये भाड़ में 

चंद नारे रट लिये औ' हिनहिनाने आ गये


नाव को रक्खा है गिरवी, नाखुदा को मारकर 

तोड़कर पतवार को, लुटिया डुबाने आ गये


प्यास से हम तप रहे थे, दोपहर की धूप में 

उनकी किरपा देखिये, भाषण पिलाने आ गये


भीड़ तो जुटती नहीं है, अब किसी भी नाम पर 

लोग कहने लग गये हैं, कान खाने आ गये


हमने समझा टल गये हैं, पाँच बरसों के लिए 

उपचुनावों के बहाने, फिर सताने आ गये


बुझ गया वोटों का हुक्का, हो गयी ठंडी चिलम 

फिर भी ताऊ जी हमारे, गुड़गुड़ाने आ गये


(11)


लगता नहीं है भीख में नम्बर कभी कभी 

खिलवाती है यह लाटरी, लंगर कभी कभी


करना है हार्ट फेल तो शेयर खरीद ले 

नंगा तुझे करायेगा बम्पर कभी कभी


जुल्फों को भूल गाने भी चोली पे आ टिके 

यूँ भी पड़े हैं अक्ल पे पत्थर कभी कभी


शर्मों-हया का दौर तो गड्ढे में घुस गया 

ऊपर चढ़ा हुआ है कबूतर कभी कभी


बेरोज़गार भूख से मरते हैं इसलिये 

लगता है उनके शहर में, लंगर कभी कभी


जो भी बचा था खून वो दंगों ने पी लिया 

गुज़रा है इस तरह भी दिसम्बर कभी कभी


बच्चों को दूध मिल न सका, मौत मिल गयी 

देखे हैं हमने ऐसे भी मंज़र कभी कभी


 गणतंत्र संविधान भला बेचते हैं क्या? 

 इनसे बड़े हैं मस्जिदो-मंदर कभी कभी


हड़ताल, बंद, रैलियाँ, नारों के नाम पर 

पूरे नगर ने खाये हैं पत्थर कभी कभी


चमचागिरी ना पाओगे, शेषन के खून में 

आते हैं इस तरह के भी अफसर कभी कभी 


नेताओं की तो नींद भी शेषन ने छीन ली 

चढ़ता है इस तरह भी शनीचर कभी कभी


दुल्हिन भगा के ले गई दूल्हे को कार में 

होते हैं इस तरह भी स्वयंवर कभी कभी 


वो क्या चुनाव है, जहाँ कपड़े नहीं फटे

बनते हैं लीडरान भी बंदर कभी कभी


बरबादियों पे बुश की ये सद्दाम ने कहा 

सड़कों पे आ गया हैं सिकंदर कभी कभी


दुख तो सभी के साथ हैं, घबरा रहा है क्यों? 

होती है मरसीडीज़ भी पंचर कभी कभी


हमने सुनाये व्यंग्य तो फूटी है खोपड़ी 

होते हैं कहकहे भी सितमगर कभी कभी


(12)


नाम में शहीदों के डिग्रियाँ नहीं होती 

बदनसीब हाथों में चूड़ियाँ नहीं होती


सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है 

मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होती 


बेकसूर मरते हैं आजकल के दंगों में 

उस जगह पे नेता की अर्थियाँ नहीं होती 


कुछ गरीब कर्फ्यू में भूख से भी मरते हैं

मौत का सही कारण गोलियाँ नहीं होतीं


जो ज़मीर रख आये जेब में पड़ोसी की 

उनसे देशभक्ती की गलतियाँ नहीं होती


मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ 

क्योंकि फ्यूज़ बल्बों में बिजलियाँ नहीं होती


रोज़ क्यों नहाते हो वज़न मत घटाओ तुम 

वो बदन भी क्या जिसमें खुजलियाँ नहीं होती 


जब से ये पुलिसवाले गश्त पर नहीं आते 

तब से इस मुहल्ले में चोरियाँ नहीं होती


कब तलक बताओगे तुम कज़िन कवित्री को 

बेवकूफ इतनी तो बीवियाँ नहीं होतीं


हो गई बहुत महँगी यार बेतुकी कविता 

दस हज़ार से कम में पंक्तियाँ नहीं होती 


कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इन्साँ को 

आम वाले पेड़ों पर लीचियाँ नहीं होतीं


ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना 

फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होती


वो भरी जवानी में खुदकशी नहीं करता 

काश! उसके कुनबे में बेटियाँ नहीं होतीं


मार खाके सोता है रोज़ अपनी आया से 

सबके भाग्य में माँ की, लोरियाँ नहीं होतीं


जो तलाश में खुद की, चल रहे अकेले हैं 

यार उनके पाँवों में, जूतियाँ नहीं होतीं


बूँद में समंदर को, जिसने पा लिया 'हुल्लड़' 

साहिलों से फिर उसकी, दूरियाँ नहीं होतीं


(13)


बरबादियों पे अपनी, कोई नहीं गिला है 

मालूम है ये मुझको, इसमें भी कुछ भला है


दुनिया में दुख ही दुख है, रोना है सिर्फ रोना

 गम में भी मुस्कराना, सबसे बड़ी कला है 

 

यूँ बिजलियाँ चमन पर, तुमने बहुत गिराईं 

वह फूल क्या जलेगा, पत्थर पे जो खिला है 


प्रारब्ध है या संचित, मुझको पता नहीं है 

जितना बड़ा है लोटा, उतना ही जल मिला है 


सुख जाते-जाते बोला दुख से ये बात कहना 

वो भी नहीं रहेगा, ऐसा ही सिलसिला है 


जीना पड़ा है मुझको, इस हाल में भी हमदम 

हर दिन है युद्ध का दिन, हर रात कर्बला है 


मैयत पे मेरी आकर, कुछ लोग यह कहेंगे 

सचमुच मरा है 'हुल्लड़', या ये भी चुटकला है ?


(14)


दोस्तों को आज़माना चाहता है ? 

चोट पर फिर चोट खाना चाहता है ?


आज के इस दौर में ईमानदारी 

चील से तू मांस खाना चाहता है


क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे अब 

उम्र-भर क्या घास खाना चाहता है ?


बिन सिफारिश ढूँढता है नौकरी को 

क्यों नदी में घर बनाना चाहता है ?


जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू 

रोज़ ही क्यों सर मुँडाना चाहता है


यह व्यवस्था खून पी लेगी तुम्हारा 

शेर को कॉफ़ी पिलाना चाहता है


व्यंग के ये शेर सुनकर लोग बोले 

क्यों हमारे कान खाना चाहता है


(15)

अरी मौत ! तुझ पर फ़िदा हो रहा हूँ 

मैं इस ज़िन्दगी से जुदा हो रहा हूँ 


बहुत बोझ ढोया है जीने की खातिर

 मैं शायर हूँ लेकिन गधा हो रहा हूँ 

 

ज़माने ने मुझको सताया है इतना 

 मैं पत्नी से पहले सता हो रहा हूँ 

 

अरे कर्ज़ वालो बहुत रोओगे तुम 

 बिना बिल चुकाये विदा हो रहा हूँ 


 जो चाहो तो कुर्की करा लीजियेगा 

 मेरा क्या है मैं तो हवा हो रहा हूँ 


 नहीं मैं ही जब, तो ये ग़म क्या करेंगे

  मैं अब आदमी से खुदा हो रहा हूँ


(16)



ज़िन्दगी तो इक जुआ है भानजे

 वक्त नोकीला सुआ है भानजे 


 आजकल क्यों द्रौपदी नंगी हुई 

 कृष्ण को अब क्या हुआ है भानजे 

 

खो गया ईमान हिन्दुस्तान का

 रंग उसका गेहूँआ है भानजे


 जुल्म पर भारी पड़ी है राजनीति

  यह तो उसकी भी बुआ है भानजे 

 

 अच्छे-अच्छे को भिखारी कर दिया 

  यह शेयर ऐसा मुआ है भानजे 

 

 बोलता है सच इसे बाहर करो 

  कह दो यह तो बुर्जुआ है भानजे 


आफ़तों को क्यों पसीना आ गया 

साथ में माँ की दुआ है भानजे


(17)


लौटकर फिर पास मेरे ग़म पुराने आ गये 

लग रहा है शायरी के दिन सुहाने आ गये 


मुश्किलें जिसमें न हों, वह ज़िन्दगी बेकार है 

फूल पत्थर पर खिलाने के ज़माने आ गये 


मैं ही अपना मित्र भी हूँ और दुश्मन भी स्वयं

 इसलिए निज आत्मा को आज़माने आ गये

 

 पीर दरिया-सी बहा दी आँसुओं की शक्ल में 

  खुद बहुत रोये मगर तुमको हँसाने आ गये


हमने तुमको दिल दिया था, तूने हमको ग़म दिया

 गीत तेरे हैं, तुझी को हम सुनाने आ गये


(18)


खो गया जाने कहाँ ईमान मेरे देश का 

ग़र्क़ है क्यों नींद में दरबान मेरे देश का 


इनको अपने दाँव-पेंचों से नहीं फुरसत मिली 

जल रहा कश्मीर में खलिहान मेरे देश का


टालने की नीतियाँ गर इस तरह चलती रही 

हो न जाये यह चमन शमशान मेरे देश का

 

 संत की दरगाह को भी जो बचा पाये नहीं 

 वो सुरक्षित क्या रखेंगे मान मेरे देश का


:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी जी से लिया गया यह साक्षात्कार बरेली से प्रकाशित दैनिक अमर उजाला के 24 मई 1987 के रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था । उस समय मैं एम ए का विद्यार्थी था । 37 वर्ष पूर्व लिया गया यह साक्षात्कार आज भी प्रासंगिक है ––

लोक से ही मिलते हैं कविता के संस्कार


■■ आपने किस आयु से लिखना प्रारंभ किया तथा लेखन की प्रेरणा किससे मिली?

□□ बारह वर्ष की आयु से। पहला छन्द एक समस्या पूर्ति के रूप में था। प्रेरणा के बारे में कई बातें हैं। पहली--मेरे चाचाजी को गीत-गोविन्द आदि के पद कंठस्थ थे। वे जब उन्हें सस्वर गाया करते थे तब मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था जिसके कारण संस्कार मेरे वहीं से पड़ गये।

     उसके बाद जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ने गया तो वहां रामदेव सिंह कलाधर नामक के एक अध्यापक थे जो स्वयं सनेही जी के मण्डल के समर्थ रचनाकारों में से एक थे। चूंकि वहां उस समय कोई विशिष्ट श्रोता नहीं थे अतः उनके छात्र ही उनकी रचनाओं के प्रथम श्रोता होते थे। उसी दौरान में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा की परीक्षा में बैठा और रामचन्द्र शुक्ल 'सरस' का खण्ड काव्य को जो 'अभिमन्यु' से संबंधित था, पढ़ा। उसे  पढ़ते समय मुझे अचानक लगा मैं भी कुछ  लिख सकता हूं। संयोग है कि पहला छन्द जो मैंने लिखा वह अभिमन्यु से ही संबंधित था। इस बारे में जैसे ही श्री कलाधर जी को मेरे बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने न केवल मुझे प्रोत्साहित किया बल्कि छन्द शास्त्र की अलग से शिक्षा भी देनी प्रारंभ कर दी। इसलिये प्रेरक या काव्य गुरु अगर मैं किसी को कह सकता हूं तो श्री रामदेव सिंह कलाधर जी को ही। हालांकि प्राथमिक संस्कार मुझे परिवार से ही मिले।

■■ आपने अधिकतर नवगीत ही लिखे हैं। क्या सोच-समझकर या लिखने के बाद आपको लगा कि यह नवगीत हो गये हैं?

□□ दरअसल नवगीत के साथ मैं सन् 1969 से जुड़ा। उससे पहले छायावाद उत्तर गाथा से ही जुड़ा हुआ था। लिखने के साथ-साथ पढ़ने की रुचि मुझमें शुरू से थी उस समय मैं प्रकाशित रचनाओं को सिर्फ पढ़ता ही नहीं था, उन पर सोचता भी था और इस सोचने के क्रम में मुझे ऐसा लगा यदि हिन्दी गीत को अपने समय के साथ साँस लेनी है तो उसे उपस्थित चुनौतियों से जूझना पड़ेगा और उस समय हिन्दी गीत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी--'नयी कविता' यदि हिन्दी गीत उस समय नयी कविता के अभिव्यक्ति कौशल को और समकालीन रचना के मुहावरों को नहीं पकड़ता तो इसके अप्रासंगिक हो जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं थीं। दूसरी चुनौती थी मंच से पढ़े जाने वाले गीतों में निरन्तर रचनात्मकता का ह्रास होना। प्रमुख रूप से इन दो चुनौतियों ने मुझे नवगीत से जोड़ दिया। इसके अलावा मुझे वातावरण भी कुछ ऐसा मिला। देवेन्द्र कुमार, डा. परमानन्द श्रीवास्तव, ब्रजराज तिवारी, रामसेवक श्रीवास्तव, भगवान सिह आदि युवा रचनाकार मेरे महाविद्यालय के सहपाठी थे।

 ■■ गीत से नवगीत की पृथकता की पहचान के लिये आप किन-किन आधारों को स्वीकार करेंगे?

□□ देखिये, नवगीत ने आधुनिक बोध को ग्रहण किया है जबकि परम्परावादी गीत में आधुनिक बोध नहीं है। नवगीत में संभवतः पहली बार रागात्मकता को दाम्पत्य तथा पारिवारिकता से जोड़ा गया है जबकि परम्परावादी गीतों में आध्यात्म तथा प्रेम का ही बखान प्रमुख रूप से हुआ है। नवगीत ने छन्द में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और छोटा किया है जबकि परम्परावादी गीत लम्बे-लम्बे लिखे जाते रहे हैं। नवगीत ने नये प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को सुधारा है।

दूसरी बात--नवगीत ने शब्दों के  संभावित अर्थों को साथ-साथ अपनाया है। इसके अलावा लोक से ही कविता को आदिशक्ति और संस्कार मिलते रहे हैं। नवगीत अपनी तलाश में उसी ओर लौटा जबकि परम्परावादी गीतों में यह लोक चेतना या लोक संस्कृति, लोक भाषा अथवा लोकलय अनुपस्थित रही।

■■ आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ कविता के लिये किन-किन गुणों का समावेश होना जरूरी है?

□□ सबसे पहली चीज है, रचना की विषय वस्तु। दरअसल जब तक रचना से यह स्पष्ट न हो कि वह आपके निजत्व को तोड़कर उसे कितना सामाजिक बनाती है तथा अपने समय के साथ अपनी प्रांसगिकता को सिद्ध करती है तब तक रचना शिल्प की दृष्टि से कितनी ही प्रौढ़ और परिपक्व क्यों न हो वह एक कमजोर रचना ही मानी जायेगी। शिल्पगत निखार उसका एक उपकरण है लेकिन वह सबसे ज्यादा जरूरी और सबसे बड़ा उपकरण नहीं है। प्रमाण देना यदि किसी रचना की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये शिल्पगत आग्रह ही प्रमुख होते तो कबीर को या तो कवि ही नहीं माना जाता और यदि माना जाता तो एक घटिये दर्जे का।

      मात्राएं गिनकर हम सिर्फ कविता का ढाँचा खड़ा कर सकते हैं उससे कविता नहीं खड़ी कर सकते। हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि उसके तमाम रचनाकार शब्द और अर्थ की लय को भूलकर मात्राओं के तानपुरे में ज्यादा उलझे रहते हैं। इसीलिये आज के बहुत से गीतों में सिर्फ साज बजते हैं, गीत नहीं सुनाई देता।

■■ क्या कोई विचारधारा अथवा सिद्धान्त आपके विचारों को बल देता है और क्या उसका उपयोग आप अपने लेखन में करते हैं ?

□□ हाँ, सन् 1970 तक कलावादियों की तरह सिर्फ कलागत आग्रह ही मेरी रचनाओं के मूलबिन्दु थे। कोई भी विचारधारा अलग से स्पष्ट नहीं थी। 1970 के बाद प्रगतिशील विचारधारा से समता के कारण यह स्पष्ट हो गया कि रचना की सबसे बड़ी और केन्द्रीय चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक सरोकारों से जुड़कर प्रासंगिकता ग्रहण करती है। उसका परिणाम यह हुआ कि मैं अपने लेखन में सामाजिक चिन्ताओं को ही अभिव्यक्ति देने लगा।

■■ आदरणीय तिवारी जी, क्या आप मानते हैं कि कविता से सामाजिक क्रान्ति संभव है?

□□ कविता से सामाजिक बदलाव दूसरी प्रक्रियाओं की अपेक्षा ठोस किन्तु धीमी होती है। रचना अपने आप में पूर्ण होती है और अपने समय के मनुष्य के मन और मस्तिष्क को तैयार करती है और इसके लिये उसे व्यक्ति के मन में बैठे पूर्व संस्कारों से जूझना पड़ता है।

■■ आप कवि सम्मेलनों से भी बहुत जुड़े हुए हैं। क्या आप आज के कवि सम्मेलनों के स्वरूप से सन्तुष्ट हैं?

□□ मैं नितान्त असन्तुष्ट हूं। सबसे पहले तो घटिया रचनाकारों की मंच से छंटाई होनी  चाहिये और दूसरे घटिया कवियों ने जिन श्रोताओं और पाठकों के मन बिगाड़ दिये हैं उनको संस्कारित करने के लिये बड़ी गोष्ठियां आयोजित की जायें।

■■ चलते-चलते, एक प्रश्न नवोदित रचनाकारों की ओर से कि आप उन्हें क्या सुझाव देना चाहेंगे?

□□ नवोदित रचनाकारों को मेरा सुझाव है - कि वे जिस भी विधा में लिख रहे हों उस विधा के पुराने से लेकर नये तक के साहित्य को गंभीरता से पढ़ें और उस पर चिन्तन करें।