बुधवार, 1 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी जी की अठारह ग़ज़लें -



(1)

इश्क मत करना किसी से बावला हो जायगा

 तू जवानी के दिनों में, पिलपिला हो जायगा 

 

यह तो पानी का असर है, तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा 


दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटों के लिए 

इसको जब कुर्सी मिलेगी, भेड़िया हो जायगा 


हर तरफ हिंसा डकैती, हो रहे हैं अपहरण

 रफ्ता रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा 

 

जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में 

जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा 


लीडरों के इस नगर में, है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायगा

 

है बहुत रिस्की ये विस्की, रोज़ पीना छोड़ दे 

 चार हफ्तों में नहीं तो पीलिया हो जायगा 

 

शख्स वो जो टुल्ल होकर बक रहा है गालियाँ 

चाहे दिल्ली में रहे पर आगरा हो जायगा


 पेलकर पन्द्रह लतीफे मंच पर तो जम गया 

 गोष्ठी में हूट लेकिन शर्तिया हो जायगा 

 

पैंट का कपड़ा न लेना बौम्बे वी० टी० से कभी 

धीरे धीरे यह सिकुड़कर जाँघिया हो जायगा 


बोझ लादे फिर रहा है जो दुखों का हर समय 

आदमी होते हुए भी वह गधा हो जायगा 


क्या पता था शायरी में आयँगे ऐसे भी दिन

हर गज़ल का शे'र हुल्लड़ मर्सिया हो जायगा


(2)

शायरों को मिल रहे हैं ढेरों पत्थर आजकल 

क्योंकि महँगे हो गये अंडे टमाटर 


आजकल गीत चोरी का छपाया, उसने अपने नाम से

 रह गया है शायरा का, यह करैक्टर आजकल 

 

गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर सटायर आजकल 


इन कुँए के मेंढकों ने पी लिया पानी तमाम 

डूब कर मरने लगे हैं सब समंदर आजकल 


काटने को दौड़ता है, हर दिवस सप्ताह का 

जब से सर पे चढ़ गया है यह शनीचर आजकल


 पालने का शौक है तो आप कुत्ता पालिये 

 गोद मत लेना किसी का, कोई पुत्तर आजकल 

 

आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल


(3)


रहते देहरादून हमारे नेता जी 

देश का पीते खून हमारे नेता जी


 संविधान भी इन्हें नमस्ते करता है 

 खुद ही हैं कानून हमारे नेता जी 

 

हम तो केवल तारे हैं वह भी टूटे 

सरकारी फुल मून हमारे नेता जी 


धोती कुर्ता तो भाषण का चोला है 

घर पर हैं पतलून हमारे नेता जी 


इनके चमचे कातिल हैं पर बाहर हैं 

कर देते हैं फून हमारे नेता जी 


किसी बात पर इनसे पंगा मत लेना 

रखते हैं नाखून हमारे नेता जी 


आम आदमी हो तुम गर्मी में झुलसो 

जायेंगे रंगून हमारे नेताजी 


छठी फेल हैं फिर भी आज मिनिस्टर हैं

सूरत से पीयून हमारे नेता जी


'हुल्लड़' तुम तो दो कौड़ी के शायर हो 

लेकिन अफलातून हमारे नेता जी


(4)


हर तरफ  भेडचाल है दद्दा

कुर्सियों का कमाल है दद्दा 


पहले होता था दाल में काला 

अब तो काले में दाल है दद्दा 


डाकुओं का भी कुछ करैक्टर है 

पर ये नेता दलाल है दद्दा 


कोई घोड़ा हो या कि अफसर हो 

चलता फिरता बवाल है दद्दा 


जो कि भरता है जख्म दिल के भी 

वक्त ही वह डिटॉल है दद्दा


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा


मेरे शेरों में आग है 'हुल्लड़' 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा

(5)



मसखरा मशहूर है आँसू छिपाने के लिए 

बाँटता है वह हँसी, सारे ज़माने के लिए


घाव सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक 

आयेगा नहीं कोई मरहम लगाने के लिए 


देखकर तेरी तरक्की खुश नहीं होगा कोई 

लोग मौका ढूँढते हैं, काट खाने के लिए


फलसफा कोई नहीं है और ना मकसद कोई 

लोग कुछ आते जहाँ में हिनहिनाने के लिए


ज़िन्दगी में ग़म बहुत हैं, हर कदम पर हादसे 

रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए


मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का 

मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए


(6)


गरीबी ने किया गंजा, नहीं तो चाँद पर जाता 

तुम्हारी माँग भरने को सितारे तोड़कर लाता


बहा डाले तुम्हारी याद में, आँसू कई क्विंटल 

अगर तुम फोन ना करती, यहाँ सैलाब आ जाता


तुम्हारे नाम की चिट्ठी, तुम्हारे बाप ने खोली 

उसे उर्दू अगर आती मुझे कच्चा चबा जाता


बुढ़ापा आ गया लेकिन सिपाही का सिपाही हूँ 

कि मैं चालू अगर होता तो थानेदार हो जाता


हमारे जोक सुनकर भी वहाँ मज़दूर रोते थे 

कि जिसका पेट खाली हो, कभी भी हँस नहीं पाता


तुम्हारी बेवफाई से ही मैं डिप्टी कलैक्टर हूँ 

तुम्हारे इश्क में फँसता तो चौकीदार हो जाता


खुदा नाखून गंजों को नहीं देता कभी 'हुल्लड़ ' 

अगर देता तो यह नेता समूचा देश खा जाता


(7)


लाख तू तदबीर कर ले कुछ नही फल पायगा 

इस मुकद्दर की पहेली का नहीं हल पायगा 


पाँव खुद के हैं जरूरी हर सफर के वास्ते 

सिर्फ जूतों की मदद से किस तरह चल पायगा 


टूट जाएगी वो हँडिया जो कि होगी काठ की 

यार पानी में पकौड़ी किस तरह तल पायगा 


भाग्य की ठोकर लगेगी जब तुम्हारी पीठ पर 

मूँग तेरे पास होगी, तू नहीं दल पायगा 


साज़िशें करने से पहले, वक्त से तो पूछ ले 

वह मुखालिफ हो गया तो तू स्वयं जल जायगा 


नफरतों की आग दिल में मज़हबी चिंगारियाँ 

चंद वोटों की ही खातिर क्या वतन जल जायगा 


नाम वाले नाज़ मत कर, देख सूरज की तरफ 

यह सवेरे को उगेगा, शाम को ढल जायगा


(8)


मुल्क में ऐसा भी कानून बनाया जाये 

जो भी मनहूस हो सूली पे चढ़ाया जाये 


भूख से कोई भी मुफलिस जो मरे बस्ती में 

सारी बस्ती के अमीरों को जलाया जाये 


ना तो बिजली है, न पानी है, ना पाकीज़ा हवा 

भ्रष्ट नेताओं को मच्छर से कटाया जाये 


दाम साबुन के सुने हैं तो पसीना आया 

क्यों न अब रोज़ पसीने से नहाया जाये 


जो ये कहते हैं गरीबी का नहीं नामो-निशाँ 

उनको ताज़ा कोई अखबार पढ़ाया जाये 


हमने विस्की के लिए पूछा तो लीडर बोला 

हमको दंगों का गरम खून पिलाया जाये 


जिनको इस मुल्क की मिट्टी से कोई प्यार नहीं 

ऐसे गद्दारों को मिट्टी में मिलाया जाये 


जिसके बच्चे हों यहाँ पाँच से ज़्यादा हमदम 

उस गधे को तो गधे पर ही बिठाया जाये 


सिर्फ गीता को सुनाने से भला क्या होगा 

आचरण में भी किसी श्लोक को लाया जाये 


आके अमरीका में इस जिस्म को आराम मिला 

रूह प्यासी है इसे कुछ तो पिलाया जाये 


देश के भाग्य पे झुर्री ना कहीं पड़ जाये 

वक्त की माँग है बुड्ढों को हटाया जाये 


देश के वास्ते जीते नहीं जो भी नेता 

ऐसे नेताओं को गंगा में डुबाया जाये 


भीड़ अँगड़ाइयाँ लेती है, चली जायेगी 

क्यों न अब मंच पे 'हुल्लड़' को बुलाया जाये


(9)


तुम ढूँढ रहे चूहे, बिल्ली के घराने में 

कंधे नहीं मिलते हैं, गंजों के ठिकाने में 


घर हमने बनाया है, मंदिर के ही पिछवाड़े 

कितनी सुविधाएँ हैं, जूतों को चुराने में 


लकड़ी बड़ी महँगी है, रह लो बिन दरवाज़े 

नानी मर जाती है, सागौन लगाने में 


कालिख पुतवा दी है, मुल्क के माथे पर 

सदियाँ लग जायेंगी, यह दाग मिटाने में 


यह भीड़ निरंकुश है, हुशियार ज़रा रहना 

प्रह्लाद ना जल जाए, होली को जलाने में 


ढाँचा था कि मंदिर था, तय होगा खुदाई से 

जल्दी न मचा देना, इसे फिर से बनाने में 


बुश्शर्ट गरीबी की, तन ढाँप नहीं पाई 

काटी हैं उमर हमने, पैबंद लगाने में 


इस अर्थ-व्यवस्था की, तारीफ में क्या कहिये 

छ: - सात कटोरे हैं, भारत के खज़ाने में 


बेटी की विदाई पर, छुप-छुप के न रोया हो 

ऐसा कोई जोकर, दिखला दो ज़माने में 


इन वोट के खेतों में, कुछ प्यार भी बो देते तुम 

व्यस्त रहे केवल, लाशों को उगाने में 


मस्जिद से नहीं मतलब, मंदिर से है लेना क्या

 सब-के-सब पागल हैं, कुर्सी हथियाने में 


 श्री राम ! अयोध्या से, न्यूयार्क चले जाओ 

 सौ साल लगेंगे इन्हें, जजमैंट सुनाने में


(10)


वोट दे दो वोट दे दो, बड़बड़ाने आ गये

 फिर हमारे लाश को कंधा लगाने आ गये


देश से मतलब नहीं है, देश जाये भाड़ में 

चंद नारे रट लिये औ' हिनहिनाने आ गये


नाव को रक्खा है गिरवी, नाखुदा को मारकर 

तोड़कर पतवार को, लुटिया डुबाने आ गये


प्यास से हम तप रहे थे, दोपहर की धूप में 

उनकी किरपा देखिये, भाषण पिलाने आ गये


भीड़ तो जुटती नहीं है, अब किसी भी नाम पर 

लोग कहने लग गये हैं, कान खाने आ गये


हमने समझा टल गये हैं, पाँच बरसों के लिए 

उपचुनावों के बहाने, फिर सताने आ गये


बुझ गया वोटों का हुक्का, हो गयी ठंडी चिलम 

फिर भी ताऊ जी हमारे, गुड़गुड़ाने आ गये


(11)


लगता नहीं है भीख में नम्बर कभी कभी 

खिलवाती है यह लाटरी, लंगर कभी कभी


करना है हार्ट फेल तो शेयर खरीद ले 

नंगा तुझे करायेगा बम्पर कभी कभी


जुल्फों को भूल गाने भी चोली पे आ टिके 

यूँ भी पड़े हैं अक्ल पे पत्थर कभी कभी


शर्मों-हया का दौर तो गड्ढे में घुस गया 

ऊपर चढ़ा हुआ है कबूतर कभी कभी


बेरोज़गार भूख से मरते हैं इसलिये 

लगता है उनके शहर में, लंगर कभी कभी


जो भी बचा था खून वो दंगों ने पी लिया 

गुज़रा है इस तरह भी दिसम्बर कभी कभी


बच्चों को दूध मिल न सका, मौत मिल गयी 

देखे हैं हमने ऐसे भी मंज़र कभी कभी


 गणतंत्र संविधान भला बेचते हैं क्या? 

 इनसे बड़े हैं मस्जिदो-मंदर कभी कभी


हड़ताल, बंद, रैलियाँ, नारों के नाम पर 

पूरे नगर ने खाये हैं पत्थर कभी कभी


चमचागिरी ना पाओगे, शेषन के खून में 

आते हैं इस तरह के भी अफसर कभी कभी 


नेताओं की तो नींद भी शेषन ने छीन ली 

चढ़ता है इस तरह भी शनीचर कभी कभी


दुल्हिन भगा के ले गई दूल्हे को कार में 

होते हैं इस तरह भी स्वयंवर कभी कभी 


वो क्या चुनाव है, जहाँ कपड़े नहीं फटे

बनते हैं लीडरान भी बंदर कभी कभी


बरबादियों पे बुश की ये सद्दाम ने कहा 

सड़कों पे आ गया हैं सिकंदर कभी कभी


दुख तो सभी के साथ हैं, घबरा रहा है क्यों? 

होती है मरसीडीज़ भी पंचर कभी कभी


हमने सुनाये व्यंग्य तो फूटी है खोपड़ी 

होते हैं कहकहे भी सितमगर कभी कभी


(12)


नाम में शहीदों के डिग्रियाँ नहीं होती 

बदनसीब हाथों में चूड़ियाँ नहीं होती


सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है 

मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होती 


बेकसूर मरते हैं आजकल के दंगों में 

उस जगह पे नेता की अर्थियाँ नहीं होती 


कुछ गरीब कर्फ्यू में भूख से भी मरते हैं

मौत का सही कारण गोलियाँ नहीं होतीं


जो ज़मीर रख आये जेब में पड़ोसी की 

उनसे देशभक्ती की गलतियाँ नहीं होती


मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ 

क्योंकि फ्यूज़ बल्बों में बिजलियाँ नहीं होती


रोज़ क्यों नहाते हो वज़न मत घटाओ तुम 

वो बदन भी क्या जिसमें खुजलियाँ नहीं होती 


जब से ये पुलिसवाले गश्त पर नहीं आते 

तब से इस मुहल्ले में चोरियाँ नहीं होती


कब तलक बताओगे तुम कज़िन कवित्री को 

बेवकूफ इतनी तो बीवियाँ नहीं होतीं


हो गई बहुत महँगी यार बेतुकी कविता 

दस हज़ार से कम में पंक्तियाँ नहीं होती 


कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इन्साँ को 

आम वाले पेड़ों पर लीचियाँ नहीं होतीं


ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना 

फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होती


वो भरी जवानी में खुदकशी नहीं करता 

काश! उसके कुनबे में बेटियाँ नहीं होतीं


मार खाके सोता है रोज़ अपनी आया से 

सबके भाग्य में माँ की, लोरियाँ नहीं होतीं


जो तलाश में खुद की, चल रहे अकेले हैं 

यार उनके पाँवों में, जूतियाँ नहीं होतीं


बूँद में समंदर को, जिसने पा लिया 'हुल्लड़' 

साहिलों से फिर उसकी, दूरियाँ नहीं होतीं


(13)


बरबादियों पे अपनी, कोई नहीं गिला है 

मालूम है ये मुझको, इसमें भी कुछ भला है


दुनिया में दुख ही दुख है, रोना है सिर्फ रोना

 गम में भी मुस्कराना, सबसे बड़ी कला है 

 

यूँ बिजलियाँ चमन पर, तुमने बहुत गिराईं 

वह फूल क्या जलेगा, पत्थर पे जो खिला है 


प्रारब्ध है या संचित, मुझको पता नहीं है 

जितना बड़ा है लोटा, उतना ही जल मिला है 


सुख जाते-जाते बोला दुख से ये बात कहना 

वो भी नहीं रहेगा, ऐसा ही सिलसिला है 


जीना पड़ा है मुझको, इस हाल में भी हमदम 

हर दिन है युद्ध का दिन, हर रात कर्बला है 


मैयत पे मेरी आकर, कुछ लोग यह कहेंगे 

सचमुच मरा है 'हुल्लड़', या ये भी चुटकला है ?


(14)


दोस्तों को आज़माना चाहता है ? 

चोट पर फिर चोट खाना चाहता है ?


आज के इस दौर में ईमानदारी 

चील से तू मांस खाना चाहता है


क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे अब 

उम्र-भर क्या घास खाना चाहता है ?


बिन सिफारिश ढूँढता है नौकरी को 

क्यों नदी में घर बनाना चाहता है ?


जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू 

रोज़ ही क्यों सर मुँडाना चाहता है


यह व्यवस्था खून पी लेगी तुम्हारा 

शेर को कॉफ़ी पिलाना चाहता है


व्यंग के ये शेर सुनकर लोग बोले 

क्यों हमारे कान खाना चाहता है


(15)

अरी मौत ! तुझ पर फ़िदा हो रहा हूँ 

मैं इस ज़िन्दगी से जुदा हो रहा हूँ 


बहुत बोझ ढोया है जीने की खातिर

 मैं शायर हूँ लेकिन गधा हो रहा हूँ 

 

ज़माने ने मुझको सताया है इतना 

 मैं पत्नी से पहले सता हो रहा हूँ 

 

अरे कर्ज़ वालो बहुत रोओगे तुम 

 बिना बिल चुकाये विदा हो रहा हूँ 


 जो चाहो तो कुर्की करा लीजियेगा 

 मेरा क्या है मैं तो हवा हो रहा हूँ 


 नहीं मैं ही जब, तो ये ग़म क्या करेंगे

  मैं अब आदमी से खुदा हो रहा हूँ


(16)



ज़िन्दगी तो इक जुआ है भानजे

 वक्त नोकीला सुआ है भानजे 


 आजकल क्यों द्रौपदी नंगी हुई 

 कृष्ण को अब क्या हुआ है भानजे 

 

खो गया ईमान हिन्दुस्तान का

 रंग उसका गेहूँआ है भानजे


 जुल्म पर भारी पड़ी है राजनीति

  यह तो उसकी भी बुआ है भानजे 

 

 अच्छे-अच्छे को भिखारी कर दिया 

  यह शेयर ऐसा मुआ है भानजे 

 

 बोलता है सच इसे बाहर करो 

  कह दो यह तो बुर्जुआ है भानजे 


आफ़तों को क्यों पसीना आ गया 

साथ में माँ की दुआ है भानजे


(17)


लौटकर फिर पास मेरे ग़म पुराने आ गये 

लग रहा है शायरी के दिन सुहाने आ गये 


मुश्किलें जिसमें न हों, वह ज़िन्दगी बेकार है 

फूल पत्थर पर खिलाने के ज़माने आ गये 


मैं ही अपना मित्र भी हूँ और दुश्मन भी स्वयं

 इसलिए निज आत्मा को आज़माने आ गये

 

 पीर दरिया-सी बहा दी आँसुओं की शक्ल में 

  खुद बहुत रोये मगर तुमको हँसाने आ गये


हमने तुमको दिल दिया था, तूने हमको ग़म दिया

 गीत तेरे हैं, तुझी को हम सुनाने आ गये


(18)


खो गया जाने कहाँ ईमान मेरे देश का 

ग़र्क़ है क्यों नींद में दरबान मेरे देश का 


इनको अपने दाँव-पेंचों से नहीं फुरसत मिली 

जल रहा कश्मीर में खलिहान मेरे देश का


टालने की नीतियाँ गर इस तरह चलती रही 

हो न जाये यह चमन शमशान मेरे देश का

 

 संत की दरगाह को भी जो बचा पाये नहीं 

 वो सुरक्षित क्या रखेंगे मान मेरे देश का


:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

1 टिप्पणी: