शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी रवि प्रकाश का व्यंग्य ...जाड़ों की धूप में मूॅंगफली खाना मौलिक अधिकार

   


हुआ यह कि एक सरकारी संस्थान था और उसमें पदासीन गेंदा बाबू रोजाना एक घंटा लेट आते थे । संस्थान के प्रभारी ने इस बात को तो सहन किया क्योंकि उसकी बुद्धि कहती थी कि इन छोटी-छोटी बातों में टॉंग अड़ाना अच्छी बात नहीं होती। लेकिन जब से जाड़ा शुरू हुआ गेंदा बाबू एक घंटा लेट तो आते ही थे, अब उन्होंने आने के बाद कोई कार्य करने के स्थान पर धूप में कुर्सी डालकर बैठना और मूॅंगफली खाने का कार्य और आरंभ कर दिया । 

        हफ्ते-दो-हफ्ते तो प्रभारी ने चीजों को नजरअंदाज किया लेकिन एक दिन उसकी चेतना जागृत हो गई अथवा यूं कहिए कि साठ वर्ष का होने से पहले ही उसकी बुद्धि सठिया गई और उसने गेंदा बाबू को टोक दिया -"यह आप कार्य करने के स्थान पर रोजाना धूप में कुर्सी डालकर मूंगफली खाने का कार्य नहीं कर सकते । आपको कार्य के लिए वेतन दिया जाता है।"

          बस  प्रभारी के इस भारी अपराध को गेंदा बाबू न तो क्षमा कर पाए और न ही सहन कर पाए। तत्काल उन्होंने अपने मौलिक अधिकारों की दुहाई लगाई तथा संस्थान के सभी सहकर्मियों को एकत्र कर लिया। संस्थान-प्रभारी के विरुद्ध हाय-हाय के नारे लगने लगे । 

           गेंदा बाबू ने सबके सामने खड़े होकर जोरदार भाषण दिया । अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह पूंजीवादी व्यवस्था है तथा निजीकरण की ओर बढ़ता हुआ प्रयास है, जिसमें किसी गरीब का धूप में बैठना और मूंगफली खाना व्यवस्था को सहन नहीं हो पा रहा है । गेंदा बाबू ने सबको बताया कि ईश्वर ने सेंकने के लिए ही धूप बनाई है तथा मूंगफली खाने की ही वस्तु है । अतः धूप में मूंगफली खाना हर कर्मचारी का मौलिक अधिकार है। इससे उसे रोका नहीं जा सकता।

              प्रभारी ने अब एक और बड़ी भारी गलती कर दी । उसने अनुशासनहीनता के आरोप में गेंदा बाबू को निलंबित कर दिया। प्रभारी की इस कार्यवाही ने आग में घी डालने का काम किया । वैसे तो मामला सुलझ जाता। थोड़ा-बहुत गेंदा बाबू कार्य करते रहते और थोड़ी-बहुत धूप सेंकते हुए मूंगफली भी खाते रहते। लेकिन कठोर कार्यवाही से मामला एक संस्थान के हाथ से निकल कर जिले-भर के सभी संस्थानों तक फैल गया ।

         मौलिक अधिकारों का प्रश्न अब मुख्य हो चला था । कार्य तो संस्थानों में होता ही रहता है, कभी कम-कभी ज्यादा । लेकिन धूप सेंकना और मूंगफली खाना -यह तो ईश्वर प्रदत्त मौलिक अधिकार है । इससे किसी को वंचित कैसे रखा जा सकता है -अब यह तकनीकी प्रश्न सबके सामने था । आंदोलन जोर पकड़ने लगा । जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त स्टाफ ने जिले के 'वेतन वितरण अधिकारी' को पत्र लिखकर जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त कर्मचारियों को निलंबित करने की मांग कर डाली और कहा कि रोज-रोज के शोषण और उत्पीड़न को सहने की अपेक्षा अच्छा यही है कि एक बार में ही सब को निलंबित कर दिया जाए । 

            अब मामला गंभीर था। 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' ने पूरे जिले के समस्त संस्थानों के कर्मचारियों की भीड़ को देखते हुए आनन-फानन में निर्णय लिया और संबंधित समस्याग्रस्त संस्थान के प्रभारी को पत्र लिखकर चौबीस घंटे के अंदर अपने संस्थान में असंतोष को समाप्त करने का अल्टीमेटम दे डाला -"अगर आप अपने संस्थान में कर्मचारियों के असंतोष को दूर नहीं करते हैं तो आप के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाएगी ।" 

                 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' के कठोर पत्र को पढ़कर समस्याग्रस्त संस्थान का प्रभारी चक्कर खाकर गिर पड़ा । उसकी समझ में दो मिनट में यह बात आ गई कि जाड़ों के दिनों में धूप इसीलिए निकलती है कि सब लोग उसका सेवन करें तथा मूंगफलियां तो खाने के लिए ही बनाई जाती हैं । यह एक प्रकार से परमात्मा का अलिखित आदेश है । उसने तुरंत अपनी भूल को सुधारा और गेंदा बाबू से कहा -"आपने हमें जो गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया है, वह तो हमें नौकरी से रिटायरमेंट के करीब आते-आते भी कहीं से नहीं मिल पाया था । अब हम अपने चक्षु खोल सके हैं और आप धूप के सेवन तथा मूंगफली खाने के लिए स्वतंत्र हैं।" यह सुनकर गेंदा बाबू ने प्रभारी से कहा कि आप चिंता न करें, हम धूप के सेवन और मूंगफली खाने के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ कार्य संस्थान के लिए अवश्य करेंगे। आखिर हमें वेतन वितरण अधिकारी के कर-कमलों से वेतन इसी कार्य के लिए तो प्राप्त होता है ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा,

 रामपुर 

उत्तर प्रदेश ,भारत

मोबाइल 99 97 61 5451

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में दिल्ली निवासी) की #साहित्यकार विमला रस्तोगी की रचना ...

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मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृति शेष मालती प्रकाश की कहानी ......."अंतरंग का अंत"। ये कहानी उनके कहानी संग्रह "आखिर कब तक" से ली गई है। इस कृति का विमोचन एक जून 2008 को नगर निगम सभागार मुरादाबाद में तत्कालीन मेयर डाक्टर एस. टी हसन एवं आकाशवाणी दिल्ली के निर्देशक लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने संयुक्त रूप से किया था।


आज सुबह साढ़े सात बजे से मेरी अंतरंग सखी पूर्वा का मृत शरीर मेरी आँखों के सामने है। उसे अंतिम यात्रा पर ले जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। न किसी की आंख में आँसू, न वेदना, न छटपटाहट न ही कोई बेचैनी। जैसे उसका दुनिया से चले जाना बहुत मामूली-सी बात हो। उसके होने या न होने से घर वालों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा लग रहा था कि उसके जहाँ से चले जाने पर घरवाले जैसे एक प्रकार की राहत महसूस कर रहे हों, क्योंकि अब किसी को उसकी जरुरत नहीं थी। उसकी उपस्थिति भी उसके घरवालों को भार लगती थी। यद्यपि वह किसी पर शारीरिक या आर्थिक रूप से निर्भर नहीं थी। कृत्रिमता का मुखौटा उसके चेहरे पर न था। वह जो थी, वैसे ही दीखती थी। किसी प्रकार का आवरण उसने अपने मुख पर नहीं ओढ़ा था। दिखावा करना उसे नहीं आता था। पर आज के जीवन की दिनचर्या में नाटक का बहुत बड़ा हाथ है। जो अपने आपको बहुत अच्छा साबित करने का ड्रामा करना जानता है, उससे अधिक सफल आज के युग में कोई नहीं है।

    पूर्वा से मेरी मित्रता तीसरी कक्षा में साथ-साथ पढ़ने के दौरान आरंभ हुई थी और आज जीवन के अंतिम सोपान तक हम दोनों की अंतरंगता, घनिष्ठता में कोई अंतर नहीं आया था। विद्यार्थी-जीवन से हम दोनों (पूर्वा-प्रज्ञा) की जोड़ी मशहूर थी। चाहे खेल का मैदान हो, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रतियोगिताएँ हों या कोई भी परीक्षा अथवा टेस्ट हो, हम दोनों ही हर जगह छाए रहते थे। पूर्वा को समय की पाबंदी, अनुशासन व स्वच्छता बहुत पसंद थी, जिसके कारण उसकी एक अलग पहचान थी। रंग भी उसका मुझसे उजला था। भगवान ने उसे बहुत मधुर कंठ दिया था। उसका गाना सुनने को सब उत्सुक रहते थे। एक तो उसका कंठ मधुर था ही,

दूसरे भावों की गहराई में पैठ कर वह गाती थी उसका लेख ऐसा जैसे मोती टंके हो। यही नहीं, सारे घर के कामों में कुशल । खाना बनाने में इतनी होशियार कि खाने वाले उसकी प्रशंसा किए विना नहीं रहते थे। सिलाई, बुनाई एवं कढ़ाई में भी दक्ष।

     जाड़ों के दिनों में थपरिवारवालों के साथ-साथ रिश्तेदारों एवं मिलनेवालों के भी भिन्न-भिन्न डिजाइन के स्वेटर वह बनाती थी। उसके बनाए हुए स्वेटरों की चर्चा हर जगह होती थी। मेरे माता-पिता कभी-कभी मजाक में मुझसे कहते-"प्रज्ञा, अपनी सखी पूर्वा से तुम भी कुछ सीख लो। क्या कमाल की लड़की है। गुणों की खान है। उसके माँ-बाप ऐसी संतान को जन्म देकर धन्य हैं। बधाई के पात्र हैं। उन्हें‌ उसकी शादी करने की भी कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी। कोई भी खुशी से उसे अपने घर की रौनक बना लेगा। भगवान ऐसी होनहार संतान हर किसी माँ-बाप को दे।" 

     मेरे मम्मी-पापा को भी मुझ पर बड़ा गर्व था, क्योंकि मेरी और पूर्वा की जोड़ी हर बात में बराबर की थी। मैं भी उसी की टक्कर की थी। उसके रिश्तेदार भी कहते कि जिस घर में पूर्वा जाएगी, उस घर को वह रोशन कर देगी। उसके ससुराल वाले

बड़े भाग्यशाली होंगे पूर्वा जैसी लड़की को बहू के रूप में पाकर। मेरी इतनी अंतरंग सखी होते हुए भी मुझे कभी-कभी उसकी अतिप्रशंसा सहन नहीं होती थी और मैं अनायास बिना किसी बात के खीझ उठती थी। दोनों का नाम भी लगभग एक साथ

रोशनी में आता था, पर मुझे अंदर से लगता कि लोग मुझसे अधिक उसकी प्रशंसा करते हैं। उस समय मेरी बुद्धि इतनी परिपक्व नहीं थी। जैसे-जैसे मुझमें परिपक्वता आती गई, वैसे-वैसे मित्रता में प्रगाढ़ता आती गई और हम दोनों दो शरीर एक मन- मित्र सदा के लिए बन गए। दोनों के बीच राई-रक्ती भी छिपा नहीं था। ऐसा कुछ गलत था भी नहीं, जिसे छिपाने की जरूरत पड़ती। हम दोनों ही परिश्रमी एवं

लोकप्रिय थे। पूर्वा का परिवार बड़ा था और मेरा छोटा परिवार था। पूर्वा के चार भाई और तीन बहनें थीं। मेरे केवल एक भाई था जिसका नाम प्रतीक था। मेरे और पूर्वा के पापा एक ही कम्पनी में काम करते थे, उन दोनों में भी अच्छी दोस्ती थी, पर बड़ा

परिवार होने के कारण पूर्वा के पापा का हाथ थोड़ा तंग ही रहता था। हम दोनों ने बी.ए. की पढ़ाई समाप्त की कि दोनों के मम्मी-पापा हमें शादी के बंधन में बॉधने को तैयार हो गए। पूर्वा और आगे पढ़ना चाहती थी तथा अपना कैरियर भी बनाना

चाहती थी,पर मेरा ऐसा कोई विचार नही था, यदि अवसर मिले तो आगे भी पढ़ा जा सकता है। नहीं तो मेरी गिनती अनपढ़ों में तो हो नहीं सकती थी। कैरियर की ओर कोई विशेष रुचि नहीं थी। मेरा सोचना था या तो कैरियर बनाया जाए या घर-

गृहस्थ संभाला जाए। दोनों को निभाने की ताकत मुझमें नहीं थी। अत: मैंने अपनी शादी की स्वीकृति अपने मम्मी-पापा को दे दी । 

     मेरी शादी मद्रास और पूर्वा की शादी बैंगलोर के एक साधारण परिवार में हो गई। पूर्वा ने सोचा था कि ऐसे परिवार में उसके रूप और गुणों की अधिक कद्र होगी। अमीर लोगों को अपनी अमीरी का नशा रहता है। बात-बात में वे लोग दहेज और दूसरी बातों का ताना मारेंगे। उन्हें किसी की भावनाओं से कोई मतलब नहीं होता।

    शादी के तुरंत बाद तीन दिन की लंबी यात्रा से पूर्वा बेहद थक गई थी और एकदम अनजानी जगह में उसने कदम रखा था। चारों ओर का वातावरण नया और अनजान, खाना-पीना, पहरावा एवं भाषा तथा तौर-तरीके सब अलग। यद्यपि जिस परिवार में शादी हुई थी, वह यू.पी. का ही परिवार था जो लंबे अर्से से बेंगलोर में रहने लगा था। उसके पति को छोड़कर परिवार में कोई अधिक पढ़ा-लिखा नहीं

था। पति से प्रथम भेंट में उसने सुना कि वे अपनी छोटी बहन की अच्छी जगह शादी करना चाहते हैं। जिस बहन की शादी दो-तीन वर्ष पहले हुई थी, उसकी शादी में वे जो चीजें जब नहीं दे पाए थे, अब देना चाहते हैं, क्योंकि वह भी इनसे छोटी है। अपने बड़े भाई-भाभी तथा माँ की सेवा करना चाहते हैं। अपने दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई पूर्ण करवाकर नौकरी पर लगाना चाहते हैं। अपनी शादी या पूर्वा के

बारे में कुछ नहीं कहा। स्वाभाविक रूप से पूर्वा का मूड खराब हो गया। उसने अपने बड़े भाई की शादी तथा रिश्तेदारों की शादियों में जो बहुओं का ससुराल में स्वागत एवं शगुन होते देखा था, यहाँ तो उसके बिलकुल विपरीत था। किसी बात का शगुन नहीं, बस पहले दिन से ही अपमान होना शुरू हो गया। जो कुछ भी पूर्वा को उसके मायके से मिला था, पूरे परिवार द्वारा बेदर्दी से उसका इस्तेमाल किया जाने लगा। किसी भी चीज पर उसका कोई अधिकार नहीं था। उसमें अपने पति के प्रति अपार प्रेम एवं आदर की भावना थी। वह यही सोचती थी कि कितनी भी दूरी हो. उसे पति का सहारा तो हमेशा मिलेगा ही। पति ने धीरे-धीरे उसकी सारी आशाओं एवं

भावनाओं को मिट्टी में मिला दिया। धीरे धीरे अपने पति की वास्तविकता को वह जानने लगी। उसके प्रति उन्हें कोई मोह या खिंचाव या स्नेह की कोई भावना नहीं थी। वैसे उनमें स्वतंत्र रूप से कुछ करने का साहस या विश्वास नहीं था। कोई निर्णय अपने आप नहीं ले सकते थे, पर पत्नी को हर बात में घरवालों के सामने नीचा दिखाने में कभी नहीं चूकते थे। शायद यही उनकी मर्दानगी थी।

      बेंगलोर पहुँचने के एक सप्ताह बाद ही पूर्वा के सीने में ऐसा दर्द हुआ कि उसे डॉक्टर के पास ले जाना पड़ा। पूर्वा ने अपने पति प्रमोद का अति कड़वा, कटु एवं असली स्वर पहली बार तब सुना जब वे बड़ी रुखाई से डॉक्टर से बात कर रहे

थे। बनावटी मीठी बोली का उन्होंने आवरण ओढ़ रखा था, जिससे लोगों को वे प्रभावित करने का प्रयास करते थे। असली रूप उनका पत्नी के अतिरिक्त कोई और नहीं जानता था। डॉक्टर के यहाँ से घर आकर अपनी माँ, बहन-भाइयों तथा भाभी

के सामने पूर्वा के पति उससे बोले-"मुझे बेंगलोर में नौकरी ढूँढ़नी होगी । मैसूर रहकर गुजारा नहीं हो सकता। मैं तुम्हारे पल्लू से बँधकर तो नहीं बैठ सकता और फिर थोड़ा गैस की वजह से दर्द हो गया, कोई हार्ट-अटैक तो नहीं हुआ जो बड़ी आफत आ गई हो। मामूली-सा दर्द है लेटने या आराम करने की कोई जरूरत नहीं है। नार्मल तरीके से घरवालों का काम में हाथ बँटाओ।"

     पूर्वा का मरण तो उसी दिन से आरंभ हो गया। दूरी के कारण विवाह के तुरंत बाद वह अपने मायके अलीगढ़ न जा सकी। यदि कोई पूर्वा से बातचीत करना चाहता तो घर का कोई न कोई सदस्य वहाँ अवश्य रहता। उसे तो मुँह खोलने की अनुमति थी ही नहीं। कम पढ़े-लिखों ने फूल-सी कोमल गुणों की खान पूर्वा पर शासन करना शुरू कर दिया। जिसे देखो वह किसी न किसी काम की ओर उसे

संकेत करता ही रहता। प्रमोद की भाभी यानी पूर्वा की जिठानी प्रमोद और अपने पति विनोद के सामने यही बताने की कोशिश में लगी रहती कि पूर्वा को घर का कोई काम नहीं आता। एक दिन कुछ और कहने को नहीं मिला तो वह प्रमोद से कहने लगी-" भैया, एक मजे की बात बताऊँ, आज मैंने पूर्वा से रसोइघर में जाकर जरा सब्जी चलाने को कहा तो महारानी हाथ में घड़ी पहनकर रसोई में घुसी। अब

आप ही बताइए कि घड़ी पहनकर क्या कोई रसोई का काम होता है? कहीं हमें नीचा तो दिखाना नहीं चाहती कि वह हमसे अधिक पढ़ी-लिखी है।"

     इसी तरह सास अपने बड़े बेटे विनोद और प्रमोद से पूर्वा की झूठी शिकायतें करती रहती। दूसरों की बातों का उसे बुरा तो बहुत लगता पर जब कोई बाहरवाला उसके किसी काम की प्रशंसा करता और उस समय उसके पति प्रमोद कहते कि उनकी भाभी और बहनें इससे भी अच्छा करती हैं। इस समय वह इतनी घायल हो जाती कि कई दिनों तक उसका मूड खराब रहता। एक बार उसने हल्के गुलाबी रंग

का गोल गले के आकार का तथा आगे से खुला हुआ ऊन का ब्लाउज बनाया जो सबको बहुत अच्छा लगा था। एक दिन प्रमोद के एक मित्र और उनकी पत्नी ऐसे ही मिलने आए थे, उस समय पूर्वा ने वही ब्लाउज पहन रखा था। मित्र की पत्नी ने कहा-" आपका ब्लाउज तो बहुत अच्छा लग रहा है। हाथ का बुना हुआ लग रहा है? आपने स्वयं बनाया या किसी से बनवाया।"

उसके बोलने से पहले प्रमोद बोल उठे-" मेरी छोटी बहन इससे भी अच्छे स्वेटर बनाती है।" जबकि उस बहन को बुनने की सलाइयाँ भी पकड़नी नहीं आती थीं।

हर बात में टॉग अड़ाना उसके किए गए काम पर पानी फेरना जैसे उनके हर्ष का विषय हो। पूर्वा आम का अचार बहुत अच्छा बनाती थी, जो भी खाता, उस अचार की तारीफ अवश्य करता और तब प्रमोद महाशय कहते कि यह अचार आमलेट आम का है इसलिए इसका स्वाद इतना अच्छा है। यदि कोई उसके द्वारा बनाए गए डोसे की तारीफ करे तो झट उस कम्पनी का नाम बताने लगते जिस कम्पनी का वह डोसे का आटा होता। हर समय हर बात में घर के हर सदस्य के उसके साथ सौतेले व्यवहार का पारिणाम यह हुआ कि उसके चेहरे की मुस्कान, हॅसी सब गायब हो गई। उसे सुनाकर उसके पति सबसे कहते कि कुछ लोगों का चेहरा हमेशा मगरमच्छ की तरह रहता है।

     शादी के चालीस दिन के बाद उसका भाई उसे लेने आया,तब उसे ऐसा लगा जैसे कैद से उसकी रिहाई हो रही हो। वह दोबारा उस घर में आना नहीं चाहती थी, पर उसे पता चला कि वह गर्भवती है। मायके में जाकर मानसिक एवं शारीरिक दोनों

रूप से पूर्वा बहुत बीमार रहने लगी। उसे पानी भी नहीं पचता था। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। एक तो संसुराल वालों का बुरा व्यवहार उसे दुखी किए रहता था, दूसरे यहाँ भी उसकी प्रशंसा करने वाले भी मायके में लंबी अवधि तक रहने के

कारण तरह-तरह की बातें किया करते थे। कुछ रिश्तेदार महिलाएँ उसकी मम्मी से कहा करती थीं कि प्रथम प्रसव मायके में नाना के लिए भारी होता है, शुभ नहीं होता। उधर पति महाशय का कभी-कभार पत्र आता तो उसमें अप्रत्यक्ष रूप में

लिखा होता कि उनकी मम्मी का कहना है कि उनके यहाँ पहली डिलीवरी मायके में होती है। पूर्वा इतनी दुखी हो गई कि उसे समझ न आता कि ये उसकी शादी की खुशियाँ उसे मिल रही हैं या किसी जन्म के पाप का दंड। उसे लगता था कि उसकी तरह उसका बच्चा भी अनचाहा है। किसी को उसके आने की खुशी नहीं है। परिणामस्वरूप न तो उसे किसी से बातचीत करना अच्छा लगता था न खाना-पीना। वह ऐसा महसूस करने लगी जैसे उससे कोई अपराध हो गया हो, जिसके कारण वह अपनों से ही मुँह छिपाए रखना चाहती है। शादी के आरंभ की यह अवधि जिसके सहारे लड़कियाँ अपने जन्म लेने वाले घर को भुलाकर अपना नया घर बसाती हैं, उसमें जब घुन लग जाए तो किसी प्रकार की भी अच्छी फसल फल ही नहीं सकती। वियोग की घड़ियाँ, प्यार का स्पर्श जब रिक्त हो, तब वह रिक्तता किसी भी चीज से भरी नहीं जा सकती। इन सारी परिस्थितियों का परिणाम वही हुआ, जिसकी आशंका उसकी मम्मी को थी । बच्चा कमजोर और अस्वस्थ पैदा

हुआ। जन्म से ही बीमार, हर समय दवाइयाँ ही दवाइयाँ। पूर्वा की भरी जवानी बच्चे की चिकित्सा, देखभाल में ही निकल गई । वह जीवन के मधुमास को जी नहीं सकी। जैसे उसका बेटा बड़ा होता गया उसकी बीमारियाँ बढ़ती गई और‌ उसकी नियति इतनी क्रूर कि यहाँ भी उसके पति ने अपनी जिम्मेदारी से बड़ी चतुराई से हाथ धो लिए। सारा आरोप पूर्वा के घर वालों पर लगा दिया कि उन्होंने

ठीक तरह से देखभाल नहीं की।

 माँ के खिलाफ बाप ने ऐसा विष भरा इंजेक्शन बेटे

के लगाया कि जब तक वह जीवित रही उसने उसे अपना दुश्मन समझ उससे कभी सीधे मुँह बात नहीं की। पूर्वा के पति में एक प्रतिशत भी कोमल भाव उसके लिए नहीं था। एक ही व्यक्ति है, जिसे घर के हर सदस्य की छोटी से छोटी जरूरत मालूम रहती थी और यथासंभव सबकी जरूरतें पूरी भी की जातीं पर उसकी भी कोई जरूरत हो सकती है, उस पर कतई ध्यान नहीं दिया जाता। वह कितना भी

काम कर ले, घर-गृहस्थी का भार संभाल ले, उसकी कोई कदर नहीं थी, उसके पति कहा करते थे कि घर का काम कोई काम नहीं होता। मानसिक कार्य के कोई मायने होते हैं।

  विष के घूँट पीते हुए उसने एक पुत्री को भी जन्म दिया। उसके दोनों बच्चों के भविष्य के लिए उसने अपना मानसिक संतुलन कायम रखने का

प्रयास करते हुए प्राइवेट एम. ए. एवं साहित्य रत्न की परीक्षाएँ पास की। एक विद्यालय में काम मिलने पर उसकी जिम्मेदारी तो दुगनी-तिगुनी हो गई पर लाभ यह हुआ कि उसकी प्रतिभा को स्वयं के बच्चों तथा छात्र-छात्राओं के माध्यम से बाहर आने का अवसर मिलने लगा। कड़े परिश्रम से अनेक विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल करते हुए वह आगे बढ़ती रही। काम का बोझ बहुत अधिक होने के कारण उसका रक्तचाप बहुत बढ़ जाता, मधुमेह ने भी अपने फंदे में जकड़ लिया। शरीर

की सारी हड्डियाँ कमजोर होकर गलने लगीं। सारे जोड़ों में हर समय दर्द रहने लगा। अपने खाने-पीने की ओर उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया। हर समय बेटे की बीमारी की चिंता और काम का बोझ उस पर सवार रहता था। पति ने ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर भी उसे सांत्वना नहीं दी, न ही सहारा। जितना लोग उसकी प्रशंसा करते उतने ही उसके पति उससे जल भुन जाते। खुले आम अन्य महिलाओं के दुख सुख की इतनी पूछताछ करते कि उन महिलाओं को स्वंय बड़ा अटपटा लगता। अब आलम यह हो गया कि जब भी आने जाने वाले पूरवा की प्रशंसा करते वे अपनी बढ़ाई का ऐसा पिटारा खोलते कि आने वाले उकता जाते।

   पूर्वा का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था, उस पर रात दिन निर्जीव सी घर और बाहर के काम में पिसती जा रही थी, जैसे सब उसे पूरी तरह मिटाने पर तुल गए हों। पूर्वा इतनी टूट चुकी थी कि उसने मुझसे भी कुछ कहना छोड़ दिया था।

 एक बार उसने बताया कि फोन पर भी बात करने से दूसरे कमरे के रिसीवर से उसकी सारी बातें सुनते हैं। किसी का उससे फोन पर बात करना उन्हें बिलकुल

पसंद नहीं। यदि पूर्वा से मिलने कोई आ जाए तो उसका भी उन्होंने अपमान करना शुरू कर दिया था। घर में सबके मन-मस्तिष्क में यह बिठा दिया गया कि वे नितांत अच्छे हैं और पूर्वा बिलकुल खराब । 

    घर में पूर्वा का अस्तित्व ही लोप हो गया। उसके पति ने उसके बच्चों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उसके खिलाफ कर दिया। हर बात में उनकी यही कोशिश रहती कि सब उनका ही आदर करें और पूर्वा का अपमान।

धुआँ-धुआँ, रफ्ता-रफ्ता उसका रोम-रोम घुटने लगा और उसके ब्रेन में भी तकलीफ पैदा हो गई जिसके कारण हर समय उसे तेज सिर दर्द रहने लगा एवं

चक्कर आने लगे। ऐसी मानसिक स्थिति में एक दिन वह घी बना रही था, जो काफी देर से उबल रहा था। चम्मच से चलाते ही खौलता हुआ पूरा घी उसके

दाहिने हाथ पर गिर पड़ा। आलू के बराबर बड़े-बड़े दो-तीन छाले पड़ गए। डॉक्टर के पास हमेशा की तरह वह अकेली गई। डॉक्टर ने छाले काट दिए, जिससे उसे बहुत दर्द हो रहा था, उसी दर्द में अकेले आकर उसने बाएँ हाथ से घर का ताला खोला, जिसमें उसे बहुत तकलीफ हुई। उसकी तकलीफ से तो किसी को कुछ लेना-देना नहीं था, बस सबको इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि सारा काम अब

कौन करे? एक बार तो सबको मरना होता है, लेकिन पूर्वा तिल-तिल मरने के लिए नित्य प्रात: जीवित हो उठती। अपनी जिंदा लाश को स्वयं ढोती रहती। मानसिक तनाव एवं शारीरिक रोग उम्र बढ़ने के साथ-साथ बढ़ते ही जा रहे थे। नित्य-प्रतिदिन अपमान की बढ़ती प्रबल मात्रा के ज्वर ने पूर्वा को ऐसा जकड़ा कि वह बिस्तर से उठ ही नहीं पाई।

     जीवन-भर पूर्वा अलग रहने की बात सोचती रही, पर कभी किसी कारण से तो कभी किसी और कारण से वह अलग रहने की योजना में सफल न होने पाई। संतप्त मानसिक दशा में पूर्वा ने मुझे एक दिन फोन किया और कहा-"प्रज्ञा, मैं अब

बहुत थक गई हूँ। क्या कुछ दिनों के लिए मैं तुम्हारे पास आकर रह सकती हूँ?"

मैंने कहा, "क्यों नहीं पूर्वा, यह भी तुम्हारा ही घर है। अपने आने की सूचना देना, मैं एयरपोर्ट पहुँच जाऊँगी।" मैं उसका आने का समाचार जानने के लिए बेचैन हो गई। मुझे लगा कि कुछ गंभीर मामला है। उसके फोन के बाद से हर समय उसके फोन का इंतजार मुझे रहता कि तीसरे दिन रात के बारह बजे फोन की घंटी बजी। रिसीवर उठाते ही उधर से आवाज आई कि पूर्वा की हालत बहुत गंभीर है।

डॉक्टर के अनुसार उसके बचने की उम्मीद बहुत कम है। यदि देखना चाहती हो तो तुरंत आ जाओ। यह समाचार सुनते ही मेरे हाथ-पाँव कॉपने लगे। उसी समय अपने बेटे तरुण को सोते से जगाया और जो भी फ्लाइट सबसे पहले उपलब्ध हो, उसकी

दो टिकटें लाने के लिए कहा और दो घंटे के अंदर ही जाने की तैयारी की। साढ़े पाँच बजे की फ्लाइट के लिए साढ़े चार बजे ही अपने पति के साथ एयरपोर्ट पहुँच गई। सुबह सात बजे तक पूर्वा के घर बैंगलोर हम पहुँच गए। पूर्वा के प्राण जैसे मुझमें ही

अटके हों। मेरे पहुँचने पर वह बोल तो कुछ न सकी, पर मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर मुझे टुकुर-टुकुर देखती रही। जैसे उसकी आँखें मुझसे कह रही हों-"यहाँ तो मेरा कोई अंतरंग न बन सका, पर तू तो मेरी एकमात्र अंतरंग सखी है, पर तू भी इस अभागी सखी के किसी काम न आ सकी? अरे! मरने के बाद तो सभी को अकेले यात्रा करनी होती है। मुझे तो जीते जिंदगी सबने सागर की भँवर में अकेले

छोड़ दिया। खैर अब उस परमपिता से ही अपने कर्मों का लेखा-जोखा जान पाऊंगी। इस तरह की जिंदगी जीने को उसने उसे क्यों मजबूर किया?" बस फिर उसने सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

     पूर्वा के दुखांत के बाद मैं भी सामान्य जीवन की सॉसें न ले पाई। हमेशा उसका पीला चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता जितना अधिक मैं उसके बारे में सोच-सोच दुखी होती रहती कि पूर्वा की इतनी उपेक्षा क्यों हुई कि वह जी ही नहीं

पाई। उसकी गलती क्या थी ? क्या कमी थी उसमें जो ससुराल में उसका रूप और उसके गुण सदा आँसू बहाते रहे, जरा-सा प्यार पाने को तरसते रहे। यह सब देखकर हृदय इतना घायल हो गया है। बार- बार मेरे सामने एक बड़ा-सा प्रश्न-चिह्न उभरता

है कि यही स्वतंत्र भारत की नारी की प्रगति है। किस समानाधिकार की बात हम करते हैं? किस नारी-स्वतंत्रता की बड़ी-बड़ी डींगें हम मारते हैं ? यदि थोड़ी भी दृष्टि हम इधर-उधर घुमाएँ अनेक पूर्वा अपने इर्द-गिर्द दिखाई देंगी, जो इस उन्नत

समाज में इस तरह का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

✍️ मालती प्रकाश

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ....शिक्षा का मंदिर


जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके कदम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी सी तख्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था "शिक्षाका मंदिर"।

जेपी जी हाँ अब जयप्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी।

पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ जमीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे।

उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।

आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी।

सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी।

आश्रम से पढ़े अनखों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे।

  जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था।

  जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आयी जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा।

अभी उसने कदम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज सुनी, "कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता।

"लेकिन ये आश्रम...?" जेपी ने पलटते हुए पूछा।

जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।

"हाँ साहब आये थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कारशाला अच्छी लगनी बन्द हो गयी।

और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीजों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पायीं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गयीं।

बाकी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गयी।

  आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे।

किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि।

तो साहब 'अब यहाँ कोई नहीं रहता।" बूढ़े ने कहा और  लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया।

जेपी का दिल जैसे बैठ सा गया था।

वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे, "अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब"

✍️ नृपेंद्र शर्मा सागर 

ठाकुरद्वारा, 

मुरादाबाद 

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष रामलाल अनजाना की काव्य कृति "गगन ना देगा साथ"। यह कृति वर्ष 2000 में अखिल भारतीय साहित्य कला मंच द्वारा चंद्रा प्रकाशन मुरादाबाद उत्तर प्रदेश से प्रकाशित की गई है ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822 



सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था 'संकेत' की ओर से काले सिंह साल्टा की आत्म कथा 'धरा से गगन की ओर' का विमोचन एवं काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था 'संकेत' की ओर से काले सिंह साल्टा की आत्म कथा 'धरा से गगन की ओर' का विमोचन एवं काव्य-गोष्ठी का आयोजन रविवार 30 अक्तूबर को दयानंद डिग्री कॉलेज में हुआ। डॉ प्रेमवती उपाध्याय द्वारा प्रस्तुत माॅं शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्य भूषण डॉ महेश 'दिवाकर' ने की। मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ एवं शिक्षाविद् डॉ हरवंश दीक्षित तथा विशिष्ट अतिथियों के रूप में वरिष्ठ कवयित्री डॉ प्रेमवती उपाध्याय एवं समाजसेवी इंजी उमाकांत गुप्ता 'एडवोकेट' मंचासीन हुए। दो चरणों में हुए इस कार्यक्रम का संयुक्त संचालन राजीव प्रखर, दुष्यंत बाबा एवं श्री अशोक विश्नोई ने किया।

          कार्यक्रम के प्रथम चरण में नगीना (बिजनौर) के रचनाकार श्री काले सिंह साल्टा के जीवन-वृतांत 'धरा से गगन की ओर' का विमोचन हुआ जिसमें उपस्थित साहित्यकारों एवं वक्ताओं ने श्री साल्टा को अपनी बधाई एवं शुभकामना प्रेषित करते हुए उनकी लेखनी के निरंतर गतिशील रहने की कामना की। 

      कार्यक्रम के द्वितीय चरण में संस्था की ओर से श्री काले सिंह साल्टा जी को सम्मानित किया गया सम्मान स्वरूप उन्हें अंग वस्त्र, प्रशस्ति पत्र व स्मृति चिह्न प्रदान किए गये। मान-पत्र का वाचन दुष्यंत बाबा ने किया। तत्पश्चात् एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें दुष्यंत बाबा, चेतन विश्नोई, राजीव 'प्रखर', श्रीकृष्ण शुक्ल, धन सिंह थनेन्द्र, शिवओम वर्मा, रघुराज सिंह निश्चल, के० पी० सरल, नकुल त्यागी, फक्कड़ मुरादाबादी, एम० पी० बादल, रवि चतुर्वेदी, अशोक विद्रोही, पूजा राणा, इंदु रानी आदि रचनाकारों ने अपनी-अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की।       

      मनोहर लाल भाटिया, डॉ० विपिन विश्नोई, भगत जी, साल्टा परिवार, ए० के० सिंह, सरदार सुरेन्द्र सिंह आदि भी उपस्थित रहे। शिशुपाल 'मधुकर' ने आभार अभिव्यक्त किया। 
































:::::::::प्रस्तुति:::::::
राजीव 'प्रखर'

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 



रविवार, 30 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के सरायतरीन (जनपद संभल) की संस्था सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता समिति (भारत) उत्तर प्रदेश ने किया साहित्यकारों रूप किशोर गुप्ता, डॉ आरसी शुक्ला, डॉ मनोज रस्तोगी, प्रो सुधीर कुमार अरोड़ा , आरिफा मसूद अंबर, डॉ राशिद अज़ीज़, सुल्तान मौहम्मद खां कलीम, त्यागी अशोका कृष्णम्, प्रदीप कुमार दीप एवं दीक्षा सिंह को सम्मानित

 मुरादाबाद मंडल के सरायतरीन (जनपद संभल) की संस्था सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता समिति (भारत)  उत्तर प्रदेश द्वारा रविवार 30 अक्टूबर 2022 को आजाद गर्ल्स डिग्री कॉलेज दीपा सराय संभल में आयोजित प्रांतीय अलंकरण सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। 

       इस समारोह में साहित्यकार एवं महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद के प्राचार्य प्रो सुधीर कुमार अरोड़ा को सरस्वती सम्मान, वरिष्ठ साहित्यकार एवं केजीके महाविद्यालय मुरादाबाद के पूर्व विभागाध्यक्ष अंग्रेजी डॉ आरसी शुक्ला को साहित्य रत्न सम्मान, बहजोई के वयोवृद्ध साहित्यकार रूप किशोर गुप्ता एवं मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी को हिंदी गौरव सम्मान, मुरादाबाद की साहित्यकार आरिफा मसूद अंबर को नन्ही देवी रामस्वरूप सम्मान,  कश्मीर विश्वविद्यालय कश्मीर के उर्दू विभाग के डॉ राशिद अज़ीज़, सुल्तान मौहम्मद खां कलीम, त्यागी अशोका कृष्णम्, प्रदीप कुमार दीप एवं दीक्षा सिंह को काव्य दर्पण सम्मान से विभूषित किया गया।

      इस अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन एवं मुशायरा में त्यागी अशोका कृष्णम, प्रदीप कुमार दीप, दीक्षा सिंह, सुल्तान मौहम्मद खां कलीम, डॉ राशिद अज़ीज़, शफीकुर्रहमान बरकाती, डॉ मनोज रस्तोगी,रूप किशोर गुप्ता, डॉ यू सी सक्सेना, मुशीर खां तरीन, डॉ सुधीर कुमार अरोड़ा, डॉ आर सी शुक्ल, आरिफा मसूद, डॉ किश्वर जहां जैदी आदि ने काव्य पाठ कर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। 

     समारोह की अध्यक्षता डॉ सीपी सिंह ने की। विशिष्ट अतिथि  डॉ यूसी सक्सेना, श्री मुशीर खां थे। संयोजक राष्ट्रीय अध्यक्ष हरद्वारी लाल गौतम थे । संचालन साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम ने किया ।

      समारोह में रूबी, नाहिद रजा, सुरेन्द्र सिंह, रजनी कान्ता चौहान, मन्जू सक्सेना, चिंकी दिवाकर, साक्षी शर्मा, भारती ठाकुर, दीक्षा ठाकुर, नीलम गौतम, डॉ मुनव्वर ताविश, मुजम्मिल खां मुजम्मिल, डॉ शहजाद अहमद, डॉ प्रदीप कुमार त्यागी, हाजी फ़हीमउद्दीन, हाजी शकील अहमद कुरैशी, डॉ जिकरूल हक, डॉ शशीकांत गोयल, शाह आलम रौनक, ताहिर सलामी,मौ फरमान अब्बासी आदि की सक्रिय भागीदारी रही।