गुरुवार, 3 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ....शिक्षा का मंदिर


जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके कदम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी सी तख्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था "शिक्षाका मंदिर"।

जेपी जी हाँ अब जयप्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी।

पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ जमीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे।

उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।

आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी।

सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी।

आश्रम से पढ़े अनखों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे।

  जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था।

  जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आयी जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा।

अभी उसने कदम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज सुनी, "कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता।

"लेकिन ये आश्रम...?" जेपी ने पलटते हुए पूछा।

जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।

"हाँ साहब आये थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कारशाला अच्छी लगनी बन्द हो गयी।

और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीजों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पायीं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गयीं।

बाकी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गयी।

  आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे।

किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि।

तो साहब 'अब यहाँ कोई नहीं रहता।" बूढ़े ने कहा और  लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया।

जेपी का दिल जैसे बैठ सा गया था।

वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे, "अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब"

✍️ नृपेंद्र शर्मा सागर 

ठाकुरद्वारा, 

मुरादाबाद 

उत्तर प्रदेश, भारत


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