हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,
हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,
बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,
तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।।1।।
लोकतंत्र का कत्ल हुआ है, आज़ादी भी खतम हुई,
मीसातंत्र चलाकर सत्ता पागल और बेशरम हुई।
अन्याय और शोषण का अब राज न चलने पायेगा,
ठैर सकी कब रैन अंधेरी तरुणाई जब गरम हुई।। 2।।
बहुत याद आती हैं तुम्हारी बातें वो सारी,
ज़िन्दगी ही बदल दी जिन्होंने हमारी।
जब मंज़िल जुदा हों तो मुड़ना ही बेहतर,
कुछ इस तरह से रहना,न याद आए हमारी।।3।।
उषा की पहली किरणों, खिलते शाखसारों में,
बादलों के संग आता सावनी फुहारों में,
मन्दिरों के घंटों की ध्वनियाँ यादें लाती,
कोई झिलमिलाता है रात को सितारों में ।4।।
नेह की बतियाँ रात रात भर, कहने वाला कोई नहीं,
एक दिन भी अपनो के घर, रहने वाला कोई नहीं,
सबकी अपनी अपनी मंज़िल, अपनी अपनी कश्ती हैं,
मेरी तरह यूँ पानी के संग, बहने वाला कोई नहीं ।।5।।
रोज़ चेहरे पे नया चेहरा लगाने वाले,
खुद गुमराह हैं मुझे राह दिखाने वाले,
ये होते हैं कुछ और दिखते हैं कुछ,
झूठे वादों से मेरा दिल बहलाने वाले ।।6।।
बिताया खेल कर बचपन जहाँ,वह आँगन नहीं था,
न वह पेड़ पर झूला कहीं,वह सावन नहीं था,
पता पूछतीं है आज भी गलियाँ गाँव की,
जहाँ छोड़ा था वह बचपन वहाँ यौवन नहीं था ।।7।।
जान जाती है तो हम जाने देंगे
ऐ वतन तुझपे आँच न आने देंगे
यूँ तो सदा से अहिंसा के पुजारी हैं हम
वक्त पड़ा तो बम भी बरसाने देंगे।।8।।
कौन जाने किस घट की बूंदें किस प्यासे की प्यास बुझाएं,
निराश मन के घोर तिमिर में आलोक का विश्वास दिलाएं,
शासन, सत्ता,हमसफर सब, राह में तन्हा छोड़ गए जब,
जाने किस कवि के गीत, मंज़िल की फिर आस जगाएं।।9।।
दिन गए तो चली गईं संग, प्यार की वो कहानियाँ,
कौन, कब, कहाँ मिला था, शेष अब हैं निशानियाँ,
गुरबत में भी कैसा हम में एक अज़ब सा आकर्षण था,
सुन्दरता वो मासूम कितनी, लाज में थीं जवानियाॅं।।10।।
कोई औरों की खुशियों के वास्ते ही जी रहा है,
और कोई दूसरों के रक्त की मय पी रहा है,
हम ही सुख हैं, हम ही दुख हैं, हम ही अपने दोस्त-दुश्मन,
आदमी ही ज़ख्म देता, आदमी ही सी रहा है।।11।।
अस्त होता वो सूरज गोल, बोल रहा है अवसान के बोल,
संध्या चुपके चुपके पूछे, दामन में हैं कितने झोल,
कितने ज़ख्म मिले हैं तुझको, कितने ज़ख्म दिए हैं तूने,
क्या पाया,क्या खोया जग में, तराजू में ये कभी तू तोल ।।12।।
लम्हा, लम्हा ज़िन्दगी को जी तो लिया,
कांच पिघला हुआ जैसे पी तो लिया,
सैंकड़ों सर्प दंश की पीड़ा हो ज्यों,
ज़ख्म रिसते रहे, यूँ सी तो लिया ।।13।।
तुम्हारे विलुप्त प्यार की प्रतिध्वनि हूँ मैं,
जादू से उस रूप की करतल ध्वनि हूँ मैं,
बेझिझक हॅसी वो और बोलती आंखें तुम्हारी,
सिमटी हुई यादों की अंर्तध्वनि हूँ मैं ।।14।।
रुग्ण मन, जर्जर तन
एक सत्य, परिवर्तन
बुझता दीपक शनै:शनै:
धुंआ पहन, ताप सहन।।15।।
कैसा धुंधला उदासी का घेरा,
शाम लगता है आज सवेरा,
एक रात हस्ती की बितानी,
न होंगे जो कल होगा सवेरा।।16।।
वह तो तुम थे, तुम ही थे वह जिसको चाहा हर पल हमने,
देख अकेला गम ने हमको, घेर लिया हमको कल गम ने,
गर खंडहर ही जब होना था, क्यों सपनों के महल बनाए,
मुस्कान अधर से दूर फिर भी, पी लिया सब अश्रु जल हमने।।17।।
वह जीवन था, जीवन था वह,अपना पराया भान नहीं था,
अजनबी संग मन लगता था, किसी मे कोई मान नहीं था,
भूख लगी तो किसी पड़ोसी या दोस्त के घर खा लेते,
जिस दिन कालेज दोस्त न आता, पढ़ाई में भी ध्यान नहीं था।।18।।
दिल रोता है पहले फिर आंख रोती है,
हर रिश्ते की यहाँ एक उम्र होती है,
हम मरते नहीं,रिश्ते मरते यहाँ,
बाद उसके तो ज़िन्दगी लाश ढोती है।।19।।
✍️ आमोद कुमार
दिल्ली, भारत
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