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बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की अंकित गुप्ता "अंक" द्वारा की गई समीक्षा.. महकती है भारतीयता की भीनी-भीनी ख़ुशबू

ग़ज़ल का अपना एक सुदीर्घ इतिहास रहा है । अमीर ख़ुसरो,  कबीर, वली दक्किनी, मीर तक़ी 'मीर', मिर्ज़ा मज़हर, सौदा, मीर दर्द, ज़ौक़, मोमिन, ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, जिगर मुरादाबादी जैसे सुख़नवरों से होती हुई यह फ़िराक़ गोरखपुरी, फ़ैज़, अहमद फ़राज़, दुष्यंत कुमार के हाथों से सजी और सँवरी । ग़ज़ल को पारंपरिक तौर पर इश्क़ो- मोहब्बत की चाशनी में पगी सिन्फ़ समझा जाता था और एक हद तक यह धारणा गलत भी नहीं थी । धीरे-धीरे ग़ज़ल बादशाहों के दरबार से नज़र बचाकर समाज की ओर जा पहुँची । तल्ख़ हक़ीक़तों की खुरदुरी ज़मीन से इसका पाला पड़ा, तो ज़िंदगी की कशमकश के नुकीले काँटों ने भी इसके कोमल हाथों को लहूलुहान किया । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि इसने अपने पैकर में रहते हुए भी अपनी आत्मा को परिमार्जित और परिष्कृत किया तथा यह शोषित-पीड़ित मन की आवाज़ बनने लगी ।

मोहम्मद अल्वी का कहना था—

"क्यूँ सर खफा रहे हो मज़ामीं की खोज में

 कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर"

    ज़िया ज़मीर जदीद शायरी की इस मशाल को आगे बढ़ाने वाले शोअ'रा में से एक है़ं । उनका ग़ज़ल-संग्रह 'ये सब फूल तुम्हारे नाम'  इस कथन पर मुहर लगाने के लिए काफ़ी है । संग्रह में 92 ग़ज़लें, 9 नज़्में, 16 दोहे और 6 माहिये संकलित हैं । ज़िया साहब को शायरी का फ़न विरासत में मिला । वालिदे-मुहतरम जनाब ज़मीर दरवेश के मार्गदर्शन में उनकी शायरी क्लासिकी और आधुनिकता दोनों का कॉकटेल बन गई । ज़िया ज़मीर अपनी हर ग़ज़ल में ग़ज़ल के स्वाभाविक और 'क्विंटनसेंशियल' हिस्से मोहब्बत और इश्क़ को नहीं भूलते । इस पतवार का सहारा लेकर वे आधुनिक जीवन की हक़ीक़त और सच्चाइयों और बुराइयों के पहलुओं को छूते हैं और एक नए दृष्टिकोण की स्थापना करते हैं । 

 "उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

  बैठेंगे    कभी    साथ    तो  तन्हाई बनेगी"

उपरोक्त शे'र के ज़रिए वे आज की एकांत और बेहिस ज़िंदगी की तस्वीर खींचते हैं, तो वहीं

 " जो एक तुझको जां से प्यारा था 

 अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या"

 शे'र में तेज़ी से बदलते रिश्तों के प्रतिमान की पड़ताल कराते हैं कि कैसे इस सो कॉल्ड 'आधुनिक' समाज में रिश्ते और संबंध पानी पर उठे बुलबुले जैसे क्षणभंगुर हैं ।

बाहुबलियों के हाथों दीन-हीनों पर अत्याचार कोई नई बात नहीं रही है;  नई बात तो उनका हृदय-परिवर्तन होना है । ज़िया साहब का एक शे'र देखें—

 " लहर ख़ुद पर है पशेमान के उसकी ज़द में

  नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है "

बालपन किसी घटना को पहले से सोचकर क्रियान्वित नहीं करता । वह तो गाहे-बगाहे वे कार्य कर डालता है जिसे बड़े चाह कर भी नहीं कर पाते । ज़िया ज़मीर कुछ यूँ फ़रमाते हैं— 

"किसी बच्चे से पिंजरा खुल गया है

 परिंदों   की   रिहाई   हो  रही  है"

फ़िराक़ गोरखपुरी के अनुसार, "ग़ज़ल वह बाँसुरी है; जिसे ज़िंदगी की हलचल में हमने कहीं खो दिया था और जिसे ग़ज़ल का शायर फिर कहीं से ढूँढ लाता है और जिसकी लय सुनकर भगवान की आँखों में भी इंसान के लिए मोहब्बत के आँसू आ जाते हैं ।" प्रेम की प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं हो सकती । बाइबिल में अन्यत्र वर्णित है— "यदि मैं मनुष्य और स्वर्ग दूतों की बोलियाँ बोलूँ और प्रेम न रखूँ; तो मैं ठनठनाता हुआ पीतल और झनझनाती हुई झांझ हूँ ।"  ज़िया ज़मीर की शायरी इसी प्रेम का ख़ाक़ा खींचती है और वे कहते हैं—

 "देख कर तुमको खिलने लगते हैं

  तुम गुलों से भी बोलती हो क्या "

.............

"इश्क़ में सोच समझ कर नहीं चलते साईं

जिस तरफ़ उसने बुलाया था, उधर जाना था"

हालांकि उन्होंने मोहब्बत में हदें क़तई पार नहीं कीं और स्वीकार किया—

"हमने जुनूने- इश्क़ में कुफ़्र ज़रा नहीं किया

 उससे मोहब्बतें तो कीं, उसको ख़ुदा नहीं किया"

आज हालांकि मानवीय संवेदना में कहीं न कहीं एक अनपेक्षित कमी आई है ।  हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । एक शायर भी इससे अछूता नहीं रह सकता । उसकी शायरी हालात का आईना बन जाती है । इस बाबत मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का शे'र मुलाहिज़ा करें—

 "कुुछ ग़मे-जानां, कुछ ग़मे-दौरां दोनों मेरी ज़ात के नाम 

 एक ग़ज़ल मंसूब है उससे एक ग़ज़ल हालात के नाम"

ज़िया का मन भी आहत होकर कहता है—

“कुछ दुश्मनों की आँख में आँसू भी हैं; 

मगर कुछ दोस्त सिर्फ लाश दबा देने आए हैं“

..........

"पत्थर मार के चौराहे पर एक औरत को मार दिया

 सबने मिलकर फिर ये सोचा उसने गलती क्या की थी"

...........

"दानाओं ने की दानाई, मूंद ली आँखें 

चौराहे पर क़त्ल हुआ पागल ने देखा"

आले अहमद सुरूर ग़ज़ल को 'इबादत, इशारत और अदा की कला' कहते हैं । ज़िया ज़मीर इस रवायत को बड़े सलीक़े से निभाते चलते हैं ।  अपने भोले माशूक़ से ज़िया साहब की मीठी शिकायत है—

 "तुमने जो किताबों के हवाले किए जानां

वे फूल तो बालों में सजाने के लिए थे"

ख़्यालात की नाज़ुकी  उनके यहाँ कहीं-कहीं इतनी 'सटल' हो जाती है कि क़ारी के मुँह से सिर्फ़ "वाह" निकलता है—

  "मेरे हाथों की ख़राशों  से न ज़ख़्मी हो जाए

   मोर के पंख से इस बार छुआ है उसको"

शायरी का फ़न ऐसा है कि उसमें सोच की नूतनता, शिल्प की कसावट और 'अरूज़  का पालन सभी तत्वों का समावेश होना अत्यावश्यक है अन्यथा कोई भी तख़्लीक़ सतही लगेगी । जिया ज़मीर फ़रमाते हैं—

"शौक यारों को बहुत क़ाफ़िया पैमाई का है

 मस'अला है तो फ़क़त शे'र में गहराई का है"

विचारों के सतहीपन को वे सिरे से नकारते हैं— 

"शे'र जिसमें लहू दिल का शामिल ना हो

वो लिखूँ भी नहीं, वो पढ़ूँ  भी नहीं "

...............

  “चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शे'र कहूँगा

 तख़्लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया पैमाई बनेगी"

प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी का इस संबंध में एक शे'र कितना प्रासंगिक है—

 " कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी न करना

   ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी न करना"

आज जब रिश्तो को बनाए रखने की जद्दोजहद में हम सभी लगे हैं।  ऐसे में अना का पर्दा हर बार हमारे संबंधों की चमक पर पड़कर उसे फीका कर देना चाहता है; जबकि रिश्तों को बचाए, बनाए और सजाए रखना उतना कठिन भी नहीं है। बक़ौल ज़िया—

"बस एक बात से शिकवे तमाम होते हैं

बस एक बार गले से लगाना होता है"

ग़ज़लों के बाद यदि नज़्मों पर दृष्टि डालें तो वे भी बेहद असरदार और अर्थपूर्ण बन पड़ी हैं । क्योंकि नज़्मों में अपने विचारों से पाठक को अवगत कराने के लिए अपेक्षाकृत अधिक फैलाव मिल जाता है; इसलिए इस विधा का भी अपना अलग रंग है । 'बिटिया' शीर्षक नज़्म में कन्या भ्रूण हत्या की त्रासदी को बड़ी असरपज़ीरी से उन्होंने हमारे सामने रखा है । 'राष्ट्रपिता' नज़्म महात्मा गांधी के योगदान व बलिदान पर सवालिया और मज़ाक़िया निशान लगाने वाली भेड़चाल को बड़ी संजीदगी से व्यक्त करती है । मेट्रोपॉलिटन, कॉस्मोपॉलिटन, मेगा सिटी, स्मार्ट सिटी इत्यादि विशेषणों से सुसज्जित आधुनिक शह्रों में गुम हुई भारतीयता की असली पहचान हमारी भूल-भुलैया नुमा, टेढ़ी-मेढ़ी पतली गलियों और उनमें बसने वाले मासूम भारत का सजीव अंकन करती है नज़्म 'गलियाँ' ।  'चेन पुलिंग' बतकही शैली में रची गई एक और नज़्म है जो सुखांत पर समाप्त होती है; तो 'कॉफ़ी' शीर्षक नज़्म नाकाम और बेमंज़िल प्यार की ट्रेजेडी को बयान करती है । 'माँ का होना' नज़्म में ज़िया ज़मीर दुनिया की हर माँ के प्रति श्रद्धावनत होते हुए उसके संघर्षों और आपबीती को ख़ूबसूरत ढंग से व्यक्त करते हैं ।

   ग़ज़लों, नज़्मों की भांति ज़िया साहब के दोहों में भी एक गहरी प्रभावशीलता है । निदा फ़ाज़ली, मंसूर उस्मानी, वसीम बरेलवी, शहरयार, बेकल उत्साही आदि मॉडर्न शो'अरा ने भी दोहों में बख़ूबी जौहर आज़माए हैं और ज़िया भी इन सुख़नवरों की राह पर पूरी तन्मयता से बढ़ते नज़र आते हैं— 

"इतनी वहशत इश्क़ में होती है ऐ यार

 कच्ची मिट्टी के घड़े से हो दरिया पार"


 "उसकी आँखों में दिखा सात झील का आब

  चेह्रा पढ़ कर यह लगा पढ़ ली एक किताब"


"जाने कब किस याद का करना हो नुक़सान

जलता रखता हूँ सदा दिल का आतिशदान"


 एक माहिये में कितनी सरलता से वे इतनी भावपूर्ण बात कह जाते हैं—

   "आँसू जैसा बहना

     कितना मुश्किल है

    उन आँखों में रहना"

ज़िया ज़मीर ने भाषायी दुरूहता को अपने शिल्प के आड़े नहीं आने दिया । इन सभी 'फूलों' को हमारे नाम करते हुए उन्होंने यह बख़ूबी ध्यान रखा है कि इनकी गंध हमें भरमा न दे । बल्कि इनमें भारतीयता और उसकी सादगी की भीनी-भीनी ख़ुशबू महकती रहे । आशय यह है कि भाषा छिटपुट जगहों को छोड़कर आमफ़हम ही रखी गई है ।प्रचलित अंग्रेज़ी  शब्दों इंसुलिन, इंटेलिजेंसी,  सॉरी,  मैसेज,  लैम्प-पोस्ट, रिंग,  सिंगल, जाम, टेडी आदि के स्वाभाविक प्रयोग से उन्होंने परहेज़ नहीं किया । वहीं चाबी, पर्ची, चर्ख़ी, काई, टापू, चांदना जैसे ग़ज़ल के लिए 'स्ट्रेंजर' माने जाने वाले शब्दों का इस्तेमाल भी सुनियोजित ढंग से वे कर गए हैं । तत्सम शब्दों गर्जन, नयन, संस्कृति, पुण्य आदि भी सहजता से निभाए गए हैं ।  ज़िया ज़मीर के यहाँ मुहावरों /लोकोक्तियों का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिल जाता है । कान पर जूं न रेंगना, डूबते को तिनके का सहारा, जान पर बन आना आदि का इस्तेमाल प्रशंसनीय है।

संक्षेप में, कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर ने जो ये फूल अपने संग्रह में सजाए हैं; उनकी ख़ुशबू पाठक के ज़ह्न और दिल में कब इतनी गहराई तक उतर जाती है उसे ख़ुद पता नहीं चलता । संग्रहणीय संग्रह के लिए वे निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं और 'ये सब फूल हमारे नाम' करने के लिए भी ।



कृति-
‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)  ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                        प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹

समीक्षक -अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर- 9759526650



सोमवार, 23 जनवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद संभल ) के साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की कृति बाल रामायण की अतुल कुमार शर्मा द्वारा की गई समीक्षा ...रामरस में जलते दीपक की अलौकिक आभा.

आज हम ऐसे युग में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जहां हम अपने आप को ही समय नहीं दे पाते। सुबह से शाम तक मशीन की तरह काम करते हुए भी, मन में चैन नहीं, आत्मा को शांति नहीं, हृदय में संतोष नहीं। जिसके पास जितनी अधिक दौलत है ,उसको उतना अधिक मानसिक असंतोष भी है क्योंकि हमारी इच्छाएं कभी पूर्ण होने का नाम नहीं लेतीं और न ही हम लालच के चलते थकान मानने को तैयार होते हैं। इस भागदौड़ में अपने रिश्ते को निभाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। पारिवारिक रिश्तों को बांधे रखना और सास-बहू, पिता-पुत्र, मां-बेटा, भाई-भाई के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करना, आज के समय में तो लगभग असम्भव ही प्रतीत होता है ।ऐसे विकृत समाज को, किस तरह सुसंगठित, सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाया जाए? यह एक कठिन प्रश्न है। साहित्य की भूमिका ऐसे जटिल समय में और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। गीता, रामायण और रामचरितमानस भारतीय संस्कृति के आधार हैं ,आध्यात्मिक जगत एवं मन की दृढ़ता हेतु इनका अध्ययन आवश्यक है लेकिन व्यक्ति के पास समय का अभाव है। ऐसे में कवि दीपक गोस्वामी चिराग ने, अपने शब्दों को एक ऊंची मशाल की भांति, "बाल रामायण" के रूप में प्रस्तुत किया है जिसको बच्चे  आसानी से समझ सकेंगे तथा संक्षेप में रामायण और रामचरित्र की समझ, अपने अंदर विकसित कर सकेंगे। आकर्षक तरीके से कवि ने पद्य रूप में, रामायण के प्रमुख प्रसंगों तथा सनातनी परंपराओं का उल्लेख किया है, यहां तक कि श्री राम स्तुति को भी अपने ढंग से प्रस्तुत कर, भगवान राम का गुणगान किया है। चारों भाइयों एवं उनकी पत्नियों का परिचय चार लाइनों में समेट कर, कवि ने अपनी योग्यता का परिचय दिया है-

"सिया-राम की मिल गई जोड़ी ,गया अवध को भी संदेश ।

भरत शत्रुघ्न साथ लिए फिर, दशरथ आए मिथिला देश।

लखन लाल ने पाई उर्मिला, और मांडवी भरत के साथ।

छोटे भ्राता शत्रु-दमन ने,श्रुतिकीरत का थामा हाथ।"

कई-कई प्रसंगों का विवरण कुछ ही पंक्तियों में भरना और फिर उसके दृश्यों को भी स्पष्ट कर देना, यह कठिन कार्य है। राम रावण युद्ध की मुख्य कारण बनी सूपर्नखा का, रावण के दरबार में जाकर किए गए विलाप का दृश्य देखिए-

"राम-लखन हैं वे दो भ्राता, दोनों अवधी राजकुमार।

साथ लिए इक नारी सीता,जो सुंदर है अपरंपार।

बदला मेरा ले लो भ्राता,हुआ निशाचर कुल पर वार।

छाती मेरी तब ठंडी हो,हर लाओ तुम उनकी नार।"

अरण्यकांड में हम पढ़ते हैं कि माता सीता का हरण होने पर जटायु, रावण पर हमला बोल देता है, बलशाली रावण के सामने पूरे साहस से लड़ता है, लेकिन विवश हो जाता है और भगवान राम को यह राज बताने के बाद, कि 'सीता का हरण रावण ने किया है' वह प्राणों को त्याग देता है। धर्म की राह पर न्योछावर होने वाले जटायु ने भी भगवान राम की मदद की , इससे सिद्ध होता है कि पशु-पक्षियों में भी, श्रीराम के प्रति प्रेम भरा था।इस दृश्य को दीपक जी इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-

"वन-वन,उपवन खोजैं राघव, नहीं मिली सीता की थाह।

पढ़ा अधमरा मिला जटायू, देख रहा रघुवर की राह।

दसकंधर ने हर ली सीता, किया गीध ने यही बयान।

ज्यौं रघुवर ने गले लगाया, छोड़ दिए फिर उसने प्रान।"

शक्ति और धन का घमण्ड, उस व्यक्ति को स्वयं को ही तोड़ देता है, क्योंकि वास्तविकता को अधिक समय तक नहीं दबाया जा सकता । एक तरफ रामा दल में भाई-भाई के प्रति अपार स्नेह दिखता है, दूसरी तरफ रावण अपने भाई विभीषण को लात मारकर अपने राज्य से निकाल देता है। इसी से रुष्ट होकर, विभीषण भाई रावण की मृत्यु का कारण बन जाता है, उधर शत्रु-दल का होने के बाद भी ,श्रीराम विभीषण को स्नेह प्रदान करते हैं । इस प्रसंग पर कवि ने लिखा है -

"भक्त विभीषण ने समझाया, रावण नहीं रहा था मान।

दसों दिशाओं का था ज्ञाता, आड़े आता था अभिमान।

ठोकर मार विभीषण को जब, दिया राज्य से उसे निकाल।

राम-भक्त था संत विभीषण, पहुंचा रामा दल तत्काल।

उत्तरकांड में राम राज्य का बहुत सुंदर दृश्य देखने में आता है, जहां धर्म है, नीति है, प्रेम है, संयम है, न्याय है, मर्यादाएं हैं, कर्तव्यनिष्ठा का भाव है, भाईचारा है। ऐसे रामराज्य की कल्पना करना जितना सुखद है, उसे स्थापित करना आज के समय में उतना ही मुश्किल भी है। रचियता ने रामराज्य का एक चित्र खींचा है-

"सिंहासन पर बैठे रघुवर,हो गए हर्षित तीनों लोक।

चहुँदिशि बरस रही थीं खुशियां,नहीं दिखे था किंचित शोक।

मालदार हो या हो निर्धन, नहीं न्याय में लगती देर।

एक घाट सब पानी पीते,या हो बकरी या हो शेर।"

"बाल रामायण" की रचना करके दीपक जी ने आज के जहरीले परिवेश में, भक्ति रस की धारा को प्रवाहमान करके, न केवल सुंदर कार्य किया है, बल्कि एक धार्मिक अनुष्ठान किया है, 108 कुंडलीय यज्ञ किया है, नई पीढ़ी को संस्कार देने की कोशिश की है, गृहस्थजनों को अपने परिवारों को संगठित रखने की अपील की है,बच्चों में माता-पिता के प्रति पवित्र भाव रखने की सीख दी है, जन-जन को धर्म के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया है। अर्थात कुल मिलाकर संपूर्ण समाज की बिगड़ती आकृति को, सुडौलता प्रदान करने की भरपूर कोशिश की है।


कृति : "बाल रामायण" (काव्य)

रचयिता : दीपक गोस्वामी "चिराग"

प्रथम संस्करण : 2022, मूल्य: 160 ₹

प्रकाशक : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन,न‌ई दिल्ली


समीक्षक
: अतुल कुमार शर्मा

सम्भल

उत्तर प्रदेश, भारत

मो०-8273011742



रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

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है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन 




गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति "ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की" की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा- ‘आत्मसत्य और बेचैनी को शब्दांकित करती कविताएं’

मुरादाबाद इन अर्थों में विशेष रूप से सौभाग्यशाली रहा है कि यहाँ जन्में अथवा रहे हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के अनेक रचनाकारों ने अपने कृतित्व से न केवल राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य को समृद्ध किया वरन मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को भी समृद्ध किया है। साहित्य की समृद्धि और प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि का यह क्रम आज भी अनवरत रूप से प्रवाहमान है। डाॅ. आर.सी.शुक्ल मुरादाबाद के वर्तमान समय के वरिष्ठ और महत्वपूर्ण रचनाकारों में शुमार ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने हिन्दी व अंग्रेज़ी में समान रूप से उल्लेखनीय सृजन किया है। उनकी अंग्रेज़ी में 10 पुस्तकें तथा हिन्दी में 6 पुस्तकें  प्रकाशित हो चुकी हैं। 

   हिन्दी के विख्यात कवि डा. शोभनाथ शुक्ल ने कहा है कि ‘कविता तो जीवन की व्याख्या है, विसंगतियों एवं जटिल-कुटिल परिस्थितियों में जीवन जीने की कला और संवेदना का लवालब संसार होती है कविता। मानव के लघुतर होते जाते कलेवर का पुनः सृजन करती है और सूखते जाते रिश्तों के तट पर फिर से लहरों की छुवन को महसूस कराती है’। हिन्दी के वरिष्ठ कवि डाॅ. आर.सी.शुक्ल की सद्यः प्रकाशित काव्यकृति ‘ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की’ की रचनाओं से गुजरते हुए भी यही महसूस होता है कि उनके सृजन लोक में जीवन-जगत से जुड़ा और जीवन-जगत से परे का हर छोटा-बड़ा परिदृश्य यहाँ-वहाँ चहलकदमी करता हुआ दिखाई देता है। संग्रह की शीर्षक रचना में शुक्ल जी संकेत में गहरी बात कहते हैं- 

हमारी ज़िन्दगी की सूरत

इस बात पर निर्भर करती है कि

हमारा राजा कैसा है

सूरज अगर बेईमान हो जाय

तो खेतों में खड़ी फसलें तो

बर्बाद हो ही जायेंगी

पुरुषों और स्त्रियों के जिस्मों में भी

लग जायेगी फफूँद

इस संग्रह से पहले शुक्लजी की दो लम्बी कविता की कृतियाँ ‘मृगनयनी से मृगछाला’ और ‘मैं बैरागी नहीं’ आयी हैं जो दर्शन की पगडंडियों पर दैहिक प्रेमानुभूतियों और परालौकिक आस्था के बीच की उस दिव्ययात्रा की साक्षी हैं जिसे कवि ने अपने कल्पनालोक में बैराग्य के क्षितिज तक जाकर जिया है। लगभग ऐसे ही बैराग्य के दर्शन शुक्लजी की इस काव्य-कृति में भी होते हैं लेकिन अलग तरह से-

भवन कितना भी ऊँचा क्यूँ न हो

पर्वत नहीं हो सकता

सिर्फ़ ऊँचाई ही नहीं

पर्वत में गहराई भी होती है

भवन विक्षिप्त रहता है शहर के शोर-शराबे से

पर्वत शान्त होता है किसी ऋषि की तरह

भवन आवास होता है सांसारिक लोगों का

पर्वत पर देवता भी आते हैं

पर्वत बहुत प्रिय है बर्फ़ को

जो प्रतीक है तपस्या की

ओशो की दार्शनिक विचारधारा से भीतर तक प्रभावित शुक्लजी की जीवन-जगत को देखने की दृष्टि भी बिल्कुल अलग है। पुस्तक में संग्रहीत अनेक रचनाएं जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने अलग अंदाज़ में अभिव्यक्त करती हैं। शुक्लजी ‘मनुष्य का जीवन’ शीर्षक से कविता में कहते हैं-

मनुष्य का जीवन

एक मैदान है रेत का

जिस पर आकांक्षाओं के ऊँट

चलते रहते हैं निरंतर

यह मनुष्य ज़िद्दी तो है ही

अज्ञानी भी है

इस मैदान को

हरा-भरा करने के लिए

वह जीवन-भर लगाता रहता है

पौधे मोह के

जो मुरझाकर गिर जाते हैं

कुछ ही समय पश्चात

अनेक विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से मृत्यु को परिभाषित और व्याख्यायित किया है। मृत्यु के संदर्भ में अनेक लेखकों के साथ-साथ अनेक कवियों ने भी अपनी कविताओं में अपने भावों और विचारों को महत्वपूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है, किन्तु मुझे लगता है कि शुक्लजी ने अपने कल्पना-लोक में मृत्यु को अपेक्षाकृत अधिक और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से सोचा है, उसे अनुभूत किया है। परिणामतः उनकी लेखनी से मृत्यु को केन्द्र में अनेक रचनाएं प्रस्फुटित हुई हैं जिनका एक अलग संग्रह ‘मृत्यु के ही सत्य का बस अर्थ है’ शीर्षक से आया है। मृत्यु पर केन्द्रित उनकी एक कविता देखिए जिसमें वह अपने मन का पूर्ण बैराग्य अभिव्यक्त कर रहे हैं-

मृत्यु

किसी दूसरे ग्रह से नहीं आती है

हमें लेने के लिए

वह सदैव मौजूद रहती है

इसी भौतिक जगत में

मृत्यु एक भयप्रद तस्वीर है उस वृक्ष की

जो निर्जीव हो जाता है

उस चिड़िया के उड़ने के पश्चात

जिसने एक लम्बे समय तक बनाए रखा था

उसे अपना आवास

अलवर के कवि विनय मिश्र ने कहा है कि ‘कविता कवि की आत्मा का चित्र है।’ वरेण्य रचनाकार डाॅ. आर.सी.शुक्ल की कविताएं भी उनकी आत्मा के ही शब्दचित्र हैं जिसमें उन्होंने अपनी भावभूमि पर अपने आत्मसत्य और बेचैनी को ही शब्दांकित कर चित्रित किया है। शुक्लजी की अन्य कृतियों की भाँति यह महत्वपूर्ण कृति भी साहित्य-जगत में अपार सराहना पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।



कृति
- ‘ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की’ (कविता-संग्रह)

रचनाकार - डाॅ. आर.सी.शुक्ल

प्रकाशन वर्ष - 2022

प्रकाशक - प्रकाश बुक डिपो, बरेली-243003

मूल्य650 ₹ (पेपर बैक)

समीक्षकयोगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल के गीत संग्रह 'चांद लगे कुछ खोया खोया' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा - छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते मिठास भरे गीत’

लखनऊ की वरिष्ठ गीत-कवयित्री डाॅ. रंजना गुप्ता ने कहा है कि ‘गीत मन की रागात्मक अवस्था है। मन के सम्मोहन की ऐसी दशा जब मन परमानंद की अवस्था में लगभग पहुँच जाता है, हम ज्यों-ज्यों गीत के अनुभूतिपरक सूक्ष्म तत्वों के निकट जाते हैं त्यों-त्यों जीवन का अमूल्य रहस्य परत-दर-परत हमारी आँखों के सामने खुलने लगता है और हम एक अवर्णनीय आनंद में सराबोर होने लगते हैं।’ 

      वरिष्ठ कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ की दो ‘सरस्वती-वंदनाओं’ से आरंभ होकर ‘जो सलोने सपन’ तक के 78 गीतों से गुज़रते हुए डाॅ. पूनम बंसल के मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं, हमारे त्योहारों-पर्वों के महत्व को रेखांकित करते मिठास भरे गीत हैं तो दार्शनिक अंदाज़ में जीवन-जगत के मूल्यों को व्याख्यायित करते गीत भी। कवयित्री ने शिल्पगत प्रयोग भी किए हैं जो संग्रह को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ऐसे ही सार्थक प्रयोगों के प्रमाण स्वरूप दोहा-छंद में लिखे एक गीत ‘कल की कर चिन्ता नहीं’ में कवयित्री जीवन को सकारात्मकता के साथ जीने के संदेश को व्याख्यायित करती हैं-

कल की कर चिन्ता नहीं, कड़वा भूल अतीत

वर्तमान को जी यहाँ, जीवन तो संगीत

अनुभव की छाया तले, पलता है विश्वास

कर्मभूमि है ज़िन्दगी, होता यह आभास

दही बिलोने से सदा, मिलता है नवनीत

इसी तरह जीवन की वास्तविकताओं को शब्दायित करते हुए जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त करता संग्रह का एक अन्य गीत ‘दुख के बाद सुखों का आना’ पाठक को मंथन के लिए विवश करता है-

दुख के बाद सुखों का आना, जीवन का यह ही क्रम है

साथ नहीं कुछ तेरे जाना, क्यों पाले मन में भ्रम है

जन्म-मृत्यु दो छोर सृष्टि के, बहता यह अविरल जल है

मरकर होता पार जगत से, पाता एक नया तल है

रूप बदलकर जीव विचरता, फिर भी आँख करे नम है

हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। प्रेम मात्र एक शब्द ही नहीं है, प्रेम एक अनुभूति है समर्पण, त्याग, मिलन, विरह और जीवन के क्षितिजहीन विस्तार को एकटक निहारने, उसमें डूब जाने की। कवयित्री के प्रेम गीतों में भावनायें अनुभूतियों में विलीन होकर पाठक को भी उसी प्रेम की मिठास-भरी अनुभूति तक पहुंचाने की यात्रा सफलतापूर्वक तय करती हैं। प्रेमगीतों के परंपरागत स्वर को अभिव्यक्त करता कवयित्री का एक हृदयस्पर्शी गीत देखिए-

चाँदनी रात में चाँद के साथ में

गीत को स्वर मिले हैं तुम्हारे लिए

रास्ते दूर तक थे कटीले बने

प्रेम के स्वप्न फिर भी सजीले बने

भावनाएँ सुगंधित समर्पित सभी

फूल मन में खिले हैं तुम्हारे लिए

इसी प्रकार प्रेम में विरह की संवेदना को कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल जब अपने गीत ‘साजन अब तो आ भी जाओ’ में गाती हैं तो लगता है कि जैसे कोई शब्दचित्र उभर रहा हो मन की सतह पर-

प्यार हमारा कहीं न बनकर रह जाये रुसवाई

साजन अब तो आ भी जाओ याद तुम्हारी आई

सपन-सलोने आँखों में आ-आकर हैं शर्माते

साँसों में घुल-मिलकर देखो गीत नया रच जाते

पर खुशियों के आसमान पर ग़म की बदरी छाई

उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी वह जीवनदायिनी घुट्टी है जो पग-पग पर हर पल नई ऊर्जा देती रहती है। हमारे देश में, समाज में उत्सवों की एक समृद्ध परंपरा है, वर्ष के आरंभ से अंत तक लोकमानस को विविधवर्णी उल्लास से सराबोर रखने वाले ये उत्सव अवसाद पर आह्लाद प्रतीक होते हैं। वसन्तोत्सव का आगमन अनूठे आनंद की अनुभूति का संचार तो करता ही है। वसंतोत्सव का पर्व तन की मन की व्याधियों को भूलकर हर्ष और उल्लास के सागर में डूब जाने का पर्व है। वसंत अर्थात चारों ओर पुष्प ही पुष्प, पीली सरसों की अठखेलियां, आमों के बौर की मनमोहक महक, कोयल का सुगम गायन सभी कुछ नई ऊर्जा देने वाला पर्व। संग्रह के एक गीत ‘मन के खोलो द्वार सखी री’ में डाॅ. पूनम बंसल भी वसंत को याद करते हुए अपनी भावनाएं कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-

मन के खोलो द्वार सखी री, लो वसंत फिर आया है

धरती महकी अम्बर महका, इक खुमार-सा छाया है

पीत-हरित परिधान पहनकर, उपवन ने शृंगार किया

प्रणय-निवेदन कर कलियों से भौंरांे ने गुंजार किया

इन प्यारे बिखरे रंगों ने, अभिनव चित्र बनाया है

वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रति पल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। सांस्कृतिक-क्षरण और मानवीय मूल्यों का पतन के रूप में आज के समय के सबसे बड़े संकट और सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिन्ता को कवयित्री गीत में ढालकर कहती हैं-

भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई

मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई

नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूल्यों का भी ह्रास हुआ

मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ

पश्चिम की इस चकाचौंध में लाज-हया भी शरमाई

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समर्थ गीत-कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की ही तरह निश्छल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। उनके इस प्रथम गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ में संग्रहीत उनके मिठास भरे और छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते गीत पाठक-समुदाय को अच्छे लगेंगे और हिन्दी साहित्य-जगत में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करायेंगे, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी। 



कृति - ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ (गीत-संग्रह)            

कवयित्री - डाॅ. पूनम बंसल

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-244105

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य200 ₹


समीक्षक
- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9412805981


रविवार, 11 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा... ख़ुशबू के सफ़र की ग़ज़लें

 ग़ज़ल के संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा है- ‘ग़ज़ल एकमात्र ऐसी विधा है जो किसी ख़ास भाषा के बंधन में बंधने से इंकार करती है। इतिहास को ग़ज़ल की ज़रूरत है, ग़ज़ल को इतिहास की नहीं। ग़ज़ल एक साँस लेती, जीती-जागती तहजीब है।’ मुरादाबाद के साहित्यकार  ज़िया ज़मीर के  ग़ज़ल-संग्रह ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ की 92 ग़ज़लों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अश’आर में अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही उनकी शायरी की खासियत भी है। सादाज़बान में कहे गए अश’आर की बानगी देखिए जिनकी वैचारिक अनुगूँज दूर तक जाती है और ज़हन में देर तक रहती है-

  है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे

  बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे

  मंज़र जिन्होंने आँखों को आँखें बनाया था

  आँखें बची हुईं हैं वो मंज़र नहीं रहे

  हैरत की बात ये नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम

  हैरत की बात ये है कि हम मर नहीं रहे

बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे हर कोई एक बार नहीं कई बार जीना चाहता है परन्तु ऐसा मुमक़िन हो नहीं पाता। जीवन का सबसे स्वर्णिम समय होता है बचपन जिसमें न कोई चिन्ता, न कोई ज़िम्मेदारी, न कोई तनाव। बस शरारतों के आकाश में स्फूर्त रूप से उड़ना, लेकिन यह क्या ! आज के बच्चे खेल़ना, उछलना, कूदना भूलकर अपना बचपन मानसिक बोझों के दबाव में जी रहे हैं। शायर ज़िया ज़मीर भी स्वभाविक रूप से अपने बचपन के दिनों को याद करके अपने बचपन की आज के बचपन से तुलना करने लगते हैं लेकिन अलग अंदाज़ से-

 इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है

 इक ग़म का समन्दर है जो घटता ही नहीं है

 स्कूली किताबों ज़रा फुरसत उसे दे दो

बच्चा मेरा तितली पे झपटता ही नहीं है

इसी संवेदना का एक और शे’र देखिए-

बच्चे को स्कूल के काम की चिंता है

पार्क में है और चेहरे पे मुस्कान नहीं

वह अपनी ग़ज़लों में कहीं-कहीं सामाजिक विसंगतियों पर चिंतन भी करते हैं। वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रतिपल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। आज के विद्रूप समय की इस पीड़ा को शायर बेहद संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करता है-

  ये जो हैं ज़ख़्म, मसाहत के ही पाले हुए हैं

  बैठे-बैठे भी कहीं पाँव में छाले हुए हैं

  कोई आसां है भला रिश्ते को क़ायम रखना

  गिरती दीवार है हम जिसको संभाले हुए हैं

इसी पीड़ा का एक और शे’र देखिए-

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी

वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल ने अपने एक शे‘र में कहा भी है-’पीड़ा, आंसू, ग़म, बेचैनी, टूटन और घुटन/ये सारा कुछ एक जगह शायर में मिलता है’। अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े ज़िया ज़मीर की शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सुप्रसिद्ध नवगीतकार  माहेश्वर तिवारी जी का बहुत चर्चित और लोकप्रिय गीत है- ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेज़बान छत-दीवारों को घर कर देता है’। यह घर हर व्यक्ति के भीतर हर पल रहता है। परिणामतः हर रचनाकार और उसकी रचनाओं के भीतर घर किसी ना किसी रूप में हाज़िर रहता ही है। वर्तमान समय में घरों के भीतर की स्थिति की हकीकत बयान करती हुई ये पंक्तियाँ बड़ी बात कह जाती हैं-

  नन्हे पंछी अभी उड़ान में थे

  और बादल भी आसमान में थे

  किसलिए कर लिए अलग चूल्हे

  चार ही लोग तो मकान में थे

घर के संदर्भ में एक और कड़वी सच्चाई-

  मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है कब्जा इसका

  अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बगैर

ग़ज़ल का मूल स्वर ही शृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को जीते हुए ज़िया ज़मीर अपनी ग़ज़लों में कमाल के शे’र कहते हैं या यों कहें कि वह अपनी शायरी में प्रेम के परंपरागत और आधुनिक दोनों ढंग से विलक्षण शब्दचित्र बनाते हैं-

 वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी

 हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी

 आँखों से पढ़ा करते हैं सब और वो लड़की

 होठों से छुआ करती है तहरीर हमारी

प्रेम का आधुनिक रंग जो शायरी में मुश्किल से दिखता है-

 तनहाइयों की चेहरे पे ज़र्दी लिए हुए

 दरवाज़े पर खड़ा हूँ मैं चाबी लिए हुए

 सुनते हैं उसकी लम्बी-सी चोटी है आजकल

 और घूमती है हाथ में टैडी लिए हुए

उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। खुशबू के सफर की इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को मंत्रमुग्ध रखती है। वह कहते भी हैं- 

‘हमारे शे’र हमारे हैं तरजुमान ज़िया

हमारे फन में हमारा शऊर बोलता है’। 

निश्चित रूप से यह ग़ज़ल-संग्रह साहित्यिक समाज में अपार सराहना पायेगा और अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करेगा। बहरहाल, भाई ज़िया ज़मीर की बेहतरीन शायरी के ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’। 


कृति
- ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)                    

ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                            

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹


समीक्षक
: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981  



बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष रामलाल अनजाना के कृतित्व पर केंद्रित यश भारती माहेश्वर तिवारी का महत्वपूर्ण आलेख .….समकालीन यथार्थ का दस्तावेज़ । यह आलेख अनजाना जी के वर्ष 2003 में प्रकाशित दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है ।


 हिंदी के वरिष्ठ गीत-कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों की सृजन-प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए बहुत सारी गीत पंक्तियों का लेखन किया है। एक गीत में वे लिखते हैं, 'कह रहा हूं जो, लिखा वह ज़िंदगी की पुस्तिका में।' इसका सीधा अर्थ है कि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि कोई भी कविता जीवन से विमुख नहीं हो सकती। गीत या कविता लेखन को वे अपना कर्तव्य ही नहीं, वरन् गीत को अतीत का पुनर्लेखन और भविष्य की आकांक्षा के स्वरूप में देखते हैं। लेखन उनकी दृष्टि में शौक़ या मन बहलाव का माध्यम अथवा पर्याय नहीं है, 'शौकिया लिखता नहीं हूं। गीत है कर्तव्य मेरा। गीत है गत का कथानक । गीत है भवितव्य मेरा।' वैसे भी सुधी विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि काव्य-सृजन ही नहीं, वरन् किसी भी तरह का कलात्मक-सृजन एक तरह से सामाजिक दायित्व का निर्वहन है। इसी दायित्व का निर्वहन तो किया है तुलसी ने, सूर ने, कबीर ने, विद्रोहिणी मीरा ने और अपनी तमाम कलात्मक बारीकियों के प्रति अतिशय सजग एवं प्रतिबद्ध बिहारी तथा घनानंद जैसे उत्तर मध्यकालीन कवियों ने।

      दोहा हिंदी का आदिम छंद है। इतिहास की ओर दृष्टिपात करें तो इस अवधारणा की पुष्टि होती है। छंद शास्त्र के इतिहास के अध्येयताओं ने इसे महाकवि कालिदास की प्रसिद्ध रचना 'विक्रमोर्वशीयम्' में तलाश किया है

मई जाणिअ मिअलोअणि णिसिअरु कोइ हरेइ
जाव णु साव तडिसामलि धारा हरु बरिसेइ

अपभ्रंश, पुरानी हिंदी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं के साहित्य में इस छंद के बहुलांश में प्रयोग मिलते हैं। हिंदी साहित्य का मध्यकाल तो इस छंद का स्वर्णकाल कहा जा सकता है, जिसमें कबीर, तुलसी, रहीम, बिहारी जैसे अनेक सिद्ध कवियों ने इस छंद को अपनाया। मध्यकाल के बाद इस छंद के प्रति रचनाकारों की रुचि कम होती गई, यद्यपि सत सर्व की परंपरा में वियोगी हरि जैसे कुछ कवियों ने इस छंद को अपनाया। द्विवेदी युग के बाद तो एक तरह छांदसिक कविता को हिंदी के जनपद से निकालने का उपक्रम आरंभ हो गया और प्रयोगवाद तथा नई कविता के आगमन के साथ तो इसे लगभग पूरी तरह ख़ारिज़ ही कर दिया गया। यह अलग बात है कि नाथों और सिद्धों ने इसे एक विद्रोही तेवर दिया, जो कबीर तक अविश्रांत गति से बना रहा। रहीम ने उसे कांता सम्मति नीति-वचनों का जामा पहनाया। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, दोहा-लेखन का स्वर्णकाल बिहारी का रचनाकाल है। मतिराम और रसलीन उसी की कड़ियां हैं।
     आज से लगभग दो-ढाई दशक पहले रचनाकारों का ध्यान फिर इस छंद की ओर गया और हिंदी-उर्दू के कई रचनाकारों ने इसको अपनाना शुरू किया। भाली, निदा फ़ाज़ली और सूर्यभानु गुप्त इस नई शुरूआत के ध्वजवाही रचनाकार हैं। अतिशय कामात्मकता और राग-बोध से आप्लावित सृजन धर्मिता से निकाल कर एक बार फिर छंद को बातचीत का लहजा दिया नए दोहा कवियों ने जनता को सीधे-सीधे उसी की भाषा में संबोधित करने का लहजा । लगभग दो दशक पूर्व हिंदी के कई छांदसिक रचनाकारों की रुचि इस छंद में गहरी हुई और जैसे ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और गीत में मुकुट बिहारी सरोज ने इन दोनों काव्यरूपों को आत्यंतिक निजता से निकालकर उसे लोक से, जन से जोड़कर उसे एक सामाजिक, राजनीतिक चेहरा दिया, उसी तरह सर्वश्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, विकल प्रकाश दीक्षित बटुक, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, भसीन, कुमार रवीन्द्र दिनेश शुक्ल, आचार्य भगवत दुबे, डा. राजेन्द्र गौतम, कैलाश गौतम, जहीर कुरैशी, यश मालवीय, विज्ञान व्रत, डा. कुंवर बेचैन, हस्तीमल हस्ती, योगेन्द्र दत्त शर्मा, भारतेन्दु मिश्र, डा. श्याम निर्मम, डा. विद्या बिंदु सिंह तथा सुश्री शरद सिंह सरीखे शताधिक गीत-नवगीत एवं ग़ज़ल के कवियों ने इस सृजन-यात्रा में अपने को शामिल किया। मुरादाबाद नगर में भी सर्वश्री बहोरन लाल वर्मा 'प्रवासी' तथा परशूराम सरीखे वरिष्ठ तथा समकालीन कवियों ने दोहा लेखन में अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। सुकवि रामलाल 'अनजाना' उसी की एक आत्म सजग कड़ी हैं। वे देश के तमाम अन्य कवियों की ही तरह इस त्रययात्रा में अपना कदम ताल मिलाकर अभियान में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं।
     कविवर रामलाल 'अनजाना' की यह उल्लेखनीय विशिष्टता है कि छांदसिक रचनाशीलता में सबके साथ शामिल होकर भी सबसे अलग हैं, सबसे विशिष्ट । समकालीन सोच के अत्यधिक निकट । उनमें सिद्धों, नाथों से लेकर कबीर तक प्रवहमान असहमति की मुद्रा भी है और रहीम का सर्व हितैषी नीति-निदेशक भाव भी । साथ ही साथ सौंदर्य और राग चेतना से संपन्न स्तर भी। कविवर 'अनजाना' की सृजन यात्रा कई दशकों की सुदीर्घ यात्रा है। उनका पहला काव्य-संग्रह 'चकाचौंध 1971 में प्रकाशित हुआ । उसके बाद सन् 2000 में उनके दो संग्रह क्रमशः 'गगन न देगा साथ और 'सारे चेहरे मेरे' प्रकाशित हुए।
    चकाचौंध में विविध धर्म की रचनाएं हैं कुछ तथाकथित हास्य-व्यंग्य की भी लेकिन उन कविताओं के पर्य में गहरे उतर कर जांचने परखने पर वे हास्य कविताएं नहीं, समकालीन मनुष्य और समाज की विसंगतियों पर प्रासंगिक टिप्पणियों में बदल जाती है। गगन न देगा साथ उनके दोहों और गीत -ग़ज़लों का संग्रह है, जो पुरस्कृत भी हुआ है, जिसमें उनके कवि का वह व्यक्तित्व उभर कर आता है जो अत्यंत संवेदनशील और सचेत है। तीसरा संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' उनकी लंबी छांदसिक तथा मुक्त छंद की रचनाओं का है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि उनकी मुक्त छंद की रचनाएं छंद के बंद' को खोलते हुए भी लयाश्रित है और वह लय डा. जगदीश गुप्त की अर्थ की लय नहीं है। इस संग्रह में कुछ दोहे भी हैं जो उनके दोहा लेखन की एक सूचना का संकेत देते हैं। इस संग्रह की उनकी कविताएं भाषा और कथ्य के धरातल पर उन्हें कविवर नागार्जुन के निकट ले जाकर खड़ा करती है। नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे एक पूर्णकालिक कवि की तरह काव्य-सृजन से जुड़ गए
    सुकवि रामलाल 'अनजाना' के संदर्भ में यह कहना कठिन है कि उनके मनुष्य ने उन्हें कवि बनाया अथवा कविता की तरलता ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा निर्मित किया। हिंदी के एक उत्तर मध्यकालीन कवि ने लिखा भी है
लोग हैं लागि कवित्त बनावत ।
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।।

बारीकी से देखा जाए, तो यह बात कविवर 'अनजाना' पर भी शतशः घटित होती है। अपनी कविताओं के प्रति संसार की चर्चा करते हुए अपने संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' की भूमिका में उन्होंने लिखा है, 'अस्मिता लहूलुहान है, महान आदर्शों और महान धर्मात्माओं के द्वारा। असंख्य घड़ियाल पल रहे हैं इनके गंदे और काले पानी में असंख्य पांचालियां, सावित्रियां, सीताएं और अनुसुइयाएं | दुष्ट दुःशासनों के द्वारा निर्वस्त्र की जा रही हैं और उनकी अस्मिता ध्वस्त की जा रही है। दया, करुणा, क्षमा, त्याग, ममता और सहयोग प्रायः लुप्त हो चुके हैं।' यही उनकी कविताओं और उनके  व्यक्ति की चिंताओं-चिंतनों तथा सरोकारों से जुड़े हैं। यहां यही  बात ध्यान देने की है कि 'अनजाना' कबीर की तरह सर्वथा  विद्रोही मुद्रा के कवि तो नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो अप्रीतिकर है, मानव विरोधी है, उससे असहमति की सर्वथा अर्थवान मुद्रा है।। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनमें कबीर और रहीम के व्यक्तित्व का परस्पर घुलन है।
      अपनी जीवन यात्रा के दौरान 'अनजाना' ने जो भोगा, जो जीने को मिला, जो देखा, मात्र वही लिखा है। ठीक कबीर की तरह 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन देखी। 'अनजाना' की कविता में भी कागद की लेखी बहुत कम है। शायद नहीं के  बराबर। इसी ओर अपने पाठकों का ध्यान खींचते हुए तीसरे संग्रह की भूमिका में एक जगह लिखा है- 'हर ओर अंधे, गूंगे, बहरे और पंगू मुर्दे हैं, जिनके न तो दिल हैं, न दिमाग़ हैं, न गुर्दे हैं। जो जितने कुटिल हैं, क्रूर हैं, कामी है, छली हैं, दुराचारी हैं, वे उतने ही सदाचारी, धर्माचार्य, परम आदरणीय और परम श्रद्धेय की पद्मश्री से विभूषित हैं। पहरूए मजबूर हैं, पिंजड़े में बंद पक्षियों की तरह।' इस आत्मकथ्य की आरंभिक पंक्तियां पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियों बरबस कौंच जाती है- 'यहाँ पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग रहते है' कविवर 'अनजाना' के नए संग्रह 'दिल के रहो समीप' के दोहों को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा सकता है ...
नफरत और गुरूर तो देते हैं विष घोल ।
खुशियों को पैदा करें मधुर रसीले बोल ।।
जीवन के पथ पर चलो दोनों आंखें खोल ।
दुखे न दिल कोई कहीं, बोलो ऐसे बोल।।

    कड़वाहट, अहंकार और घृणा से उपजती है और मिठास चाहे वह व्यवहार की हो अथवा वाणी की, इस कड़वाहट को समाप्त कर जीवन को आनंदप्रद तथा सहज, तरल बनाती है। कविवर 'अनजाना' अपने रचना संसार में जाति तथा संप्रदायगत संकीर्णता, जो मनुष्य को मनुष्य से विभाजित करती है, उससे लगातार अपनी असहमति जताते हुए इस मानव विरोधी स्थिति पर निरंतर चोट करते हैं
पूजा कर या कथा कर पहले बन इंसान।
हुआ नहीं इंसान तो जप-तप धूल समान।।

     इसी तरह वे आर्थिक गैर बराबरी को भी न केवल समाज और सभ्यता के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए अस्वीकार्य ठहराते हैं
    कोई तो धन को दुखी और कहीं अंबार ।
    जीवन शैली में करो कुछ तो यार सुधार।।

प्रसिद्ध चिंतक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने लिखा है कि पूंजी सबसे पहले मनुष्य को अनैतिक बनाती है। कवि 'अनजाना' भी लिखते हैं....
पैसा ज्ञानी हो गया और हुआ भगवान ।
धनवानों को पूजते बड़े-बड़े विद्वान ।।

पूंजी के प्रति लोगों के लोग के दुष्परिणाम उजागर करते हुए वे आगे भी लिखते है....
पैसे ने अंधे किए जगभर के इंसान।
पैसे वाला स्वयं को समझ रहा भगवान ।।

इतना ही नहीं, वे तो मानते हैं
मठ, मंदिर, गिरजे सभी हैं पैसे के दास।
बिन पैसे के आदमी हर पल रहे उदास।।
लूटमार का हर तरफ मचा हुआ है शोर।
पैसे ने पैदा किए भांति-भांति के चोर।।
जन्में छल, मक्कारियां दिया प्यार को मार।
पैसे से पैदा हुआ जिस्मों का व्यापार ।।

श्रम ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जीवन की मूल्यवान पूंजी है, इसे सभी सुधीजनों ने स्वीकार किया है। श्रम की प्रतिष्ठा की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने लिखा है ....
मेहनत को मत भूलिए यही लगाती पार
कर्महीन की डूबती नाव बीच मझधार।।

मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है, प्रसंग नहीं है, जिसकी ओर कविवर 'अनजाना' की लेखनी की दृष्टि नहीं गई है। फिर वह पर्यावरण हो अथवा नेत्रदान। नारी की महिमा-मर्यादा की बात हो अथवा सहज मानवीय प्यार की। पर्यावरण पर बढ़ते हुए संकट की ओर इशारा करते हुए वनों-वनस्पतियों के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है....
बाग़ कटे, जीवन मिटे, होता जग वीरान ।
जीवन दो इंसान को, होकर जियो महान।।

यही नहीं वकील, डाक्टर, शिक्षक किसी का भी अमानवीय आचरण उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है ....
लूट रहे हैं डाक्टर, उनसे अधिक वकील।
मानवता की पीठ में ठोंक रहे हैं कील।।
पिता तुल्य गुरु भी करें अब जीवन से खेल।
ट्यूशन पाने को करें, वे बच्चों को फेल।।

अन्यों में दोष दर्शन और उस पर व्यंग्य करना सरल है, सहज है। सबसे कठिन और बड़ा व्यंग्य है अपने कुल - गोत्र की असंगतियों पर चोट करना। 'अनजाना' इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं और समकालीन समाज, विशेष रूप से मंचीय कवियों और उनकी कविताओं में बढ़ती पतनशीलता से अपनी मात्र असहमति और विक्षोभ को ही नहीं दर्ज कराते, वरन् अपनी गहरी चिंता के साथ चोट भी करते हैं उस पर। उनकी चिंता यह है कि जिनकी वाणी हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है आज उन कवियों ने भी अपने दायित्व तथा धर्म को बिगाड़ लिया है। वे सर्जक नहीं, विदूषक बन गए हैं
कहां-कहां किस ठौर का मेटें हम अंधियार ।
कवियों ने भी लिया है अपना धर्म बिगाड़।।
रहे नहीं रहिमन यहां, तुलसी, सूर कबीर ।
भोंडी अब कवि कर रहे कविता की तस्वीर।। 

महाकवि प्रसाद ने जिसके लिए लिखा है- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' अथवा कविवर सुमित्रा नंदन पंत ने जिसे 'मां, सहचरि, प्राण कहा है, उसके प्रति 'अनजाना' भी कम सजग नहीं हैं। जीवन में जो भी सुंदर है, प्रीतिकर है, सुखकर है, कवि उसके कारक के रूप में नारी को देखता है
ठंढी-ठंढी चांदनी और खिली-सी धूप ।
खुशबू, मंद समीर सब हैं नारी के रूप।।
झरने, बेलें, वादियां, सागर, गगन, पठार।
नारी में सब बसे हैं मैंने लिया निहार।।

नारी के ही कुछ सौंदर्य और चित्र दृष्टव्य हैं- यहां नारी जीवन का छंद है।
नारी कोमल फूल-सी देती सुखद सुगंध।
जीवन को ऐसा करे ज्यों कविता को छंद ।।

इतना ही नहीं, वे तो नारी को ही सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकारते हैं। उसमें भगवत स्वरूप के दर्शन करते हैं तथा उसके बदले करोड़ों स्वर्गों के परित्याग की भी वकालत करते हैं। यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि बहुत सारे उत्तर  मध्यकालीन कवियों की तरह यहां रूपासक्ति अथवा देहभोग नहीं। गहरा आदरभाव है। पूजा का भाव ।
    कविवर रामलाल ‘अनजाना' एक मानवतावादी कवि हैं। सहज, सरल, संवेदनशील व्यक्ति और कवि । विकारहीन आम हिंदुस्तानी आदमी जिसके पास एक सौंदर्य दृष्टि भी है और विचारशील मेधा भी। उनके व्यक्तित्व से अलग नहीं है उनकी कविता, वरन् दोनों एक-दूसरे की परस्पर प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए उनकी काव्य भाषा में भी वैसी ही सहजता और तरल प्रवाह है जो उनकी रचनाओं को सहज, संप्रेष्य और उद्धरणीय बनाता है। वे सजावट के नहीं, बुनावट के कवि हैं। ठीक कबीर की तरह। उनकी कविता से होकर गुज़रना अपने समय के यथार्थ के बरअक्स होना है यू और कविता इस यथार्थ से टकराकर ही उसे आत्मसात कर महत्वपूर्ण बनती है। वे मन के कवि हैं। उनकी बौद्धिकता उनके अत्यंत संवेदनशील मन में दूध-मिसरी की तरह घुली हुई है। जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, उनको पढ़ना अपने समय को, समकालीन समाज और मनुष्य को बार-बार पढ़ने जैसा है। उनकी रचनाएं विविधवर्णी समकालीन स्थितियों-परिस्थितियों को प्रामाणिक दस्तावेज हैं, जिनमें एक बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज सभ्यता की सदाकांक्षा की स्पष्ट झलक मिलती है।
      मुझे विश्वास है कि उनके पूर्व संग्रहों की ही तरह इस नये संग्रह 'दिल के रहो समीप' का भी व्यापक हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनका यह संग्रह विग्रहवादी व्यवहारवाद से पाठकों को निकालकर सामरस्य की भूमि पर ले जाकर खड़ा करेगा और हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में सहायक होगा।
शुभेस्तु पंथानः ।

✍️ माहेश्वर तिवारी
'हरसिंगार'
ब/म-48, नवीन नगर
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के चांदपुर (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार उर्वशी कर्णवाल के गीत संग्रह...." मैं प्रणय के गीत गाती" की बिजनौर के साहित्यकार मनोज मानव द्वारा की गई समीक्षा....

 192 पृष्ठों में 120 गीतों से सजा उर्वशी कर्णवाल का छंदबद्ध गीत संग्रह... ..." मैं प्रणय के गीत गाती", जिसमें मेरी दृष्टि से 25 सनातनी छंदों का प्रयोग किया गया है... द्विबाला, आनन्दवर्धक, सारः, लावणी, द्विमनोरम,स्रावि्गणी, राधेश्यामी , शृंगार, चतुर्यशोदा , माधव मालती,  विधाता, भुजंगपर्यात, सार्द्धमनोरम, गंगोदक, मानव, गीतिका, नवसुखदा , द्विपदचौपाई, महालक्ष्मी, दोहा, वीर/आल्हा, विष्णुपद, चौपाई ।

शारदे माँ की सुंदर वंदना से गीत संग्रह का बहुत सुंदर प्रारम्भ किया गया है। गीत- संग्रह में प्रेम के तीनों रूपों को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है , ग्रन्थ प्रणय से शुरू होकर विरह की यात्रा करता हुआ प्रेम के अंतिम एवं सबसे भव्य स्वरूप भक्ति पर समाप्त होता है। 

यों तो संग्रह के सभी गीत छन्द एवं भावों का मधुर संगम के दर्शन कराते है लेकिन अधिकतर गीतों में भावों का विशाल सागर है जिसमें पाठक एक बार डुबकी लगाकर गहराई की ओर जाने से स्वयं को नहीं रोक पायेगा।देखिएगा प्रणय गीतों के कुछ ऐसे ही भाव--

" प्रेम पूज्य है, प्रेम ईश है, प्रेम हृदय का स्पंदन है।

  प्रेम विधाता का अनुभव है , प्रेम दिव्य का दर्शन है।।

एक और गीत देखिएगा

" एक वनिता को व्यथित कर, जा रहे पुरुषत्व लेकर।

  प्रीति की लय से विमुख हो, क्या किया बुद्धत्व लेकर।

उर निरंतर चाहता था , यह भुवन हो प्रीति सिंचित,

स्वाद रंगों से रहित यह, क्या करूंगी सत्व लेकर।

प्रीति की लय से विमुख हो, क्या किया बुद्धत्व लेकर।।

लेखिका ने प्रणय को बहुत ही खूबसूरती से परिभाषा दी है देखिएगा...

" व्याप्त हर कण में सुवासित, सृष्टि है चाहे प्रलय है।

  डूबता जो वह तरेगा, सिंधु सा गहरा प्रणय है।

  डूबकर पा ले चरम जो, या स्वयं को भी मिटा ले, 

  हो नहीं सकता पराजित , मृत्यु का उसको न भय है।

डूबता जो वह तरेगा, सिंधु सा गहरा प्रणय है।।

लेखिका ने चतुर्यशोदा जैसे अत्यंत कठिन छन्द को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है , जिसकी बहुत सुरीली धुन है ...." रिहाले-मस्ती मकुंदरंजिश जिहाले हिजरा हमारा दिल है"

खुले-खुले से सुवास गेसू, मुदित हृदय को किये हुए है,

मंदिर-मंदिर सी, मलय अनोखी, लगे कि जैसे पिये हुए है।

प्रदीप्त स्वर्णिम, सवर्ण किरण सी प्रकाश करती उजास भरती।

झलक तुम्हारी अलग अनूठी कि प्राण लाखों दिए हुए हैं।।"

एक और मधुर छन्द माधवमालती का गीत देखिए

" जिंदगी के इस भँवर में, काल के लंबे सफर में,

शब्द उलझाते बहुत हैं, अर्थ तड़पाते बहुत हैं।

मौन को पढ़ना पड़ेगा,

पथ स्वयं गढ़ना पड़ेगा।।"

जब विरह के चरम पर कलम चले और उसे  मधुर ताल युक्त  गंगोदक छन्द  का साथ मिल जाये तो क्या उत्कृष्टता आती है  इस गीत में  देखिएगा, 

" भाव खो से गये शब्द मिलते नहीं, लय कहाँ गम हुई गीत कैसे लिखूँ,

श्वास या घड़कनें नाम में लीन है, पुष्प मुरझा गया पाँखुड़ी दीन है,

काँच की कोठरी , पात की झोपड़ी , पीर की ,अश्रु की, रीत कैसे लिखूँ ।"

वैसे तो संग्रह में ईश भक्ति , मातृ भक्ति के कई गीत है लेकिन एक गीत जो पितृ महिमा पर केंद्रित है बरबस आकर्षित करता है ।

" हमारे धन्य जीवन का, रहें आधार बाबू जी।

  तुम्हारे पुण्य-कर्मों को, कहें आभार बाबू जी।।

  घनी रातों में दीपक से, दिखाते रोशनी हमको,

  बने चंदा सितारों में , दिखाते चांदनी हमको।

  हमारे ग्रन्थ बाबू जी , हमारा सार बाबू जी ।।"

एक गीत में लेखिका ने समाज मे व्याप्त कोढ़ पर बड़ी सुंदर कलम चलायी है।

" शिकारी कुछ यहाँ ऐसे, चमन को छीन लेते हैं।

   जरा सी दे धरा तुमको , गगन को छीन लेते हैं।।"

आज कम्प्यूटर नेटवर्क के जमाने में पुस्तकों के महत्व को दर्शाते हुए लेखिका कहती है....

" पढ़ो पढ़ाओ किताब सब जन, सखी सहेली किताब होती,

उठे जो मन मे हजार उलझन , सवाल का ये जबाब होती।"

 अंत मे लेखिका ने गीत के माध्यम से कवि समाज के लिए संदेश दिया है कि --

" भूख- गरीबी लाचारी पर, होती खूब रही कविताई,

   अब थोड़ा सा जगना होगा, अंगारों पर लिखना होगा।

   कागज - कलम दवातें छोड़ो, तलवारों पर लिखना होगा

   उठने से पहले दब जाती, चीत्कारों पर लिखना होगा।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा यह छंदबद्ध उत्कृष्ट गीत संग्रह, लेखिका को साहित्य जगत में अपनी एक अलग पहचान दिलाने के समस्त गुण रखता है ।



कृति : मैं प्रणय के गीत गाती (गीत संग्रह)

रचनाकार : उर्वशी कर्णवाल

प्रथम संस्करण : वर्ष 2022

मूल्य : 300 ₹

प्रकाशक : शब्दांकुर प्रकाशन , नई दिल्ली

समीक्षक : मनोज मानव 

पी 3/8 मध्य गंगा कॉलोनी

बिजनौर  246701

उत्तर प्रदेश, भारत

दूरभाष- 9837252598

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम के गीत संग्रह --- 'दर्द अभी सोये हैं' की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा ..... भंवर से किनारे की ओर लाता गीत-संग्रह

 एक रचनाकार अपने मनोभावों को पाठकों/श्रोताओं के समक्ष प्रकट करता ही है परन्तु, जब पाठक/श्रोता उसकी अभिव्यक्ति में स्वयं का सुख-दु:ख देखते हुए ऐसा अनुभव करें कि रचनाकार का कहा हुआ उनके ही साथ घट रहा है, तो उस रचनाकार की साधना सार्थक मानी जाती है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' की प्रवाहमयी लेखनी से होकर साहित्य-जगत् के सम्मुख आया गीत-संग्रह - 'दर्द अभी सोये हैं' इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।

      एक आम व्यक्ति के हृदय में पसरे इसी दर्द पर केन्द्रित एवं उसके आस-पास विचरण करतीं इन 109 अनुभूतियों ने यह दर्शाया है कि रचनाकार का हृदय भले ही व्यथित हो परन्तु, उसने आशा एवं सकारात्मकता का दामन भी बराबर थामे रखा है। यही कारण है कि ये 109 अनुभूतियाॅं वेदना की इस चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करते हुए, उजली आशा का मार्ग तलाश लेती हैं। 

     पृष्ठ 17 पर उपलब्ध गीत - 'दर्द अभी सोये हैं' से आरम्भ होकर वेदना के अनेक सोपानों से मिलती, एवं उनमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान आशा की किरणों में नहाती हुई यह पावन गीत-माला, जब पृष्ठ 126 की रचना - 'मैं तो सहज प्रतीक्षारत हूॅं' पर विश्राम लेती है, तो एक संदेश दे देती है कि अगर एक और ॲंधेरे ने अपनी बिसात बिछा रखी है तो उसे परास्त करने में उजली आस भी पीछे नहीं रहेगी। साथ ही दैनिक जीवन की मूलभूत समस्याओं तथा पारिवारिक व अन्य सामाजिक संबंधों पर दृष्टि डालते हुए, उनके यथासंभव हल तलाशने के प्रयास भी संग्रह को एक अलग ऊॅंचाई प्रदान कर रहे हैं। अतएव,  औपचारिकता वश ही कुछ पंक्तियों अथवा रचनाओं का  यहाॅं उल्लेख मात्र कर देना, इस उत्कृष्ट गीत-संग्रह के साथ अन्याय ही होगा। वास्तविकता तो यह है कि ये सभी 109 गीत पाठकों के अन्तस को गहनता से स्पर्श कर लेने की अद्भुत क्षमता से ओत-प्रोत हैं, ऐसा मैं मानता हूॅं। निष्कर्षत: यह गीत-संग्रह मुखरित होकर यह उद्घोषणा कर रहा है कि दर्द भले ही अभी सोये हैं परन्तु, जब जागेंगे तो आशा के झिलमिलाते दीपों की ओर भी उनकी दृष्टि अवश्य जायेगी।

मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि सरल व सहज भाषा-शैली में पिरोया गया एवं आकर्षक साज-सज्जा व छपाई के साथ, सजिल्द स्वरूप में तैयार यह गीत-संग्रह गीत-काव्य की अनमोल धरोहर तो बनेगा ही, साथ ही वेदना व निराशा का सीना चीरकर, उजली आशा की धारा भी निकाल पाने में सफल सिद्ध होगा। 



कृति : दर्द अभी सोये हैं (गीतसंग्रह)

संपादक : डा. कृष्णकुमार 'नाज़'

कवि : डा. अजय 'अनुपम'

प्रथम संस्करण : 2022

मूल्य : 200 ₹

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन

सी-130, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद (उ.प्र., भारत) - 244001 

समीक्षक : राजीव 'प्रखर' 

डिप्टी गंज,

मुरादाबाद

8941912642, 9368011960