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शनिवार, 24 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी की चौदह ग़ज़लें

 


(1)

अजनबी सा शहर है हमारे लिये। 

आग का एक घर है हमारे लिये।


इस अँधेरी गुफा से गुजरते हुए। 

एक तनहा सफर है हमारे लिये।


इस गली, उस सड़क, इस सड़क, उस मकां 

भागना दर-ब-दर है हमारे लिये।


झेलने को मिलीं इस कदर ठोकरें 

हर खुशी एक डर है हमारे लिये।


यह सुबह की किरन कोंपलों-सी नरम 

जेठ की दोपहर है हमारे लिये।


(2)

आप भी क्या हुए दिन अंधेरे हुए 

जो भी कम थे सबेरे-सबेरे हुए॥


टूटती थीं हमीं पर सभी बिजलियाँ 

डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए॥


रेत पर तिलमिलाती रही देर तक 

याद मछली हुई दिन मछेरे हुए॥


एक तिनका हवा में उड़ा देर तक 

रात वीरानियों में बसेरे हुए॥


शाम तक होंठ में बन्द थीं हिचकियाँ 

चाँद तारे सवालात मेरे हुए॥


(3)

ताज़गी ढूंढ़िए इस शहर के लिए 

कुछ नमी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


हो गई है इमारत खड़ी हर तरफ 

आदमी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


हैं धमाके बमों के, लहू की हंसी 

जिन्दगी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


धूप की सरहदों से गुज़रते हुए 

चाँदनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


जो लपट बन के बामो-फलक तक उठे 

वह कनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


लोग दहशत में पूरी तरह गुम नहीं 

सनसनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए


जी रहे हैं सभी दोस्तों में मगर 

दोस्ती ढूंढ़िए इस शहर के लिए


(4)

देखिए पत्तों की हरियाली चुराता कौन है, 

टहनियों को इस तरह नंगी बनाता कौन है ।।


सोच कर इस बात को हर आदमी हैरान है, खिड़कियों पर यह उदासी छोड़ जाता कौन है ।।


जब उम्मीदों के नये दस्ते खड़े हों सामने, 

भीड़ से चुपचाप शब्दों को उठाता कौन है ।।


हैं हवाएँ पूछती फिरतीं सभी से आजकल, तितलियों के नाम से खुशबू चुराता कौन है ।।


गीत के नाजुक परिन्दों के परों में इस तरह, 

रोज़ आकर एक पत्थर बाँध जाता कौन है ।।


(5)

सीने पर जलती अँगीठी धर जाती है रात, कोयले सी सबके चेहरे पर पसर जाती है रात।।


दिन भले हों रोशनी के फूल की खुशबू लिए, 

पर कई सदमात से होकर गुजर जाती है रात ।।


शाम से ही खोलते हैं जाल मछुआरे सभी,

मछलियों की शक्ल में फँसकर बिखर जाती है रात।।


हम नसों का टूटना महसूस करते बेहतर. 

जबकि बाहर से कहीं भीतर उतर जाती है रात ।।


आस्माँ तो पेड़ है इक जुगनुओं के फूल का, 

रोज जिसकी डाल से खामोश झर जाती है रात।। 


(6)

आप की बात का असर पाया । 

हर शहर एक लाशघर पाया ।।


आग घर की बुझाने निकले तो, 

सारा जलता हुआ शहर पाया ।।


आग पर किस तरह से चलते हैं, 

धूप में चल के ये हुनर पाया ।।


जिसको अमृत समझ रहे थे हम, 

होंठ पर फिर वही जहर पाया ।।


साफ कपड़े पहनने वालों का, 

हाथ हमने लहू से तर पाया ।। 


(7)

भर गई है आँख रो लें हम, 

घाव सारे आज धो लें हम ।।


दस्तकें देती हवाएँ हैं, 

खिड़कियाँ कुछ देर खोलें हम ।।


आँधियों की जाँघ पर दो पल, 

सिर टिकाए आज सो लें हम ।।


काटना है गर अँधेरा तो, 

रोशनी के बीज बो लें हम ।।


भूल बैठे हैं जिसे कब से, 

फूल सी कुछ बात बोलें हम ।।


(8)

सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ । 

खड़ा होकर जिस्म अपना तानता है तेंदुआ ।।


हम शहर का नाम देकर खुश हुए जिसको । 

आज उसको एक जंगल मानता है तेंदुआ ।।


घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर । 

तेज़ चौकन्नी निगाहें डालता है तेंदुआ ।।


आदमी भी आदमी जैसा कहाँ है आजकल ।

 इस नये बदलाव को पहचानता है तेंदुआ ।।


कहाँ से छिपकर, कहाँ किसको दबोचे । 

यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ ।।



(9)

हाथ अपने जला के बैठ गए 

आग सारी दबा के बैठ गए


एक दीवार की तरह रिश्ते 

शाम तक भरभरा के बैठ गए


आ गए कुछ जो तोड़ने को भरम 

लोग पर्दा गिरा के बैठ गए


एक गूँगी दुकान पर हम-तुम 

शब्द अपने सजा के बैठ गए


बाँटने को अगर हवा आई 

लोग खुशबू चुरा के बैठ गए


(10)

झील हैं, आसमान हैं रिश्ते 

चील जैसी उड़ान हैं रिश्ते


शाम होते घरों को लौटे हैं 

बस सफर की थकान हैं रिश्ते


हर फसल को निहारते गुमसुम 

आज भूखे किसान हैं रिश्ते


बस अँगीठी के काम आते हैं 

कोयले की दुकान हैं रिश्ते


पाँव फिसले तो टूट जाएँगे 

घाटियों की ढलान हैं रिश्ते


(11)

ढल रही है शाम, ये कहकर मुझे ले जाएगी

फूल की खुशबू उठाकर घर मुझे ले जाएगी


जिस्म मुमकिन है करे ज़िद ठहर जाने को मगर 

रूह की आवारगी दर-दर मुझे ले जाएगी


जंगलों से कुछ इशारे मिल रहे हैं आजकल 

लग रहा भाषा यही बस्तर मुझे ले जाएगी


बढ़ रहे हैं पांव मेरे जिस अबूझी प्यास में 

पत्थरों की कैद से बाहर मुझे ले जाएगी


तुम जहां हो बादलों वाली सजल छाया लिए 

धूप की तेज़ी उधर अक्सर मुझे ले जाएगी


(12)

फूल-सा मुझको किताबों में दबाकर रख गए 

लोग अक्सर रेत में नदियां छुपाकर रख गए


इक खिलौने की तरह हर शख़्स ने देखा मुझे 

कुछ को मैं अच्छा लगा, कुछ मुस्कराकर रख गए


एक चकमक की तरह मुझको उठाकर खुश हुए हाथ जब जलने लगे तो तिलमिलाकर रख गए


अपना-अपना दर्द, गम, गुस्सा, उदासी, बेबसी 

लोग कपड़ों की तरह मुझमें तहाकर रख गए


मैं उन्हें पीता नहीं तो डूब जाती कायनात 

अपने आंसू लोग मेरे पास लाकर रख गए 


(13)

आज जिन लोगों के पारे की तरह ईमान हैं 

दर हक़ीक़त लोग वे ही देश के भगवान हैं


यह बनाया जायेगा अब देवताओं का नगर 

और मारे जायेंगे वे लोग जो इन्सान हैं


जिनका लेखन एक गाली है गरीबों के लिए

वे सुखनवर ऊँची-ऊँची महफ़िलों की शान हैं


है कहीं संगीन का पहरा, कहीं चाकू का डर 

हम घरों में क़ैद या लूटे गये सामान है


(14)

इक लतीफ़ा-सा न होठों में दबाकर देखिए 

इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए


इंद्रधनुषी  स्वप्न  सारी  रात  होंगे  पास में 

आप पलकों पर जरा मुझको सजा कर देखिए


फूल से कुछ देर को ढक जायेगा सब कुछ यहाँ याद की इन टहनियों को तो हिलाकर देखिए


यह तनावों की जमीं चट्टान खिसकेगी जरूर आप थोड़ी देर को ही खिलखिलाकर देखिए


चुप्पियों में जान होती है सुना होगा कभी 

अब वही सरसों हथेली पर जमाकर देखिए


काँप जायेगा अँधेरा एक हरकत पर अभी 

आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए


सिर्फ़ स्याही पोंछ देने से न मिट जाऊँगा मैं 

आप मेरा नाम नदियों में डुबाकर देखिए



:::::::: प्रस्तुति ::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822


मुरादाबाद*

बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष रामलाल अनजाना के कृतित्व पर केंद्रित यश भारती माहेश्वर तिवारी का महत्वपूर्ण आलेख .….समकालीन यथार्थ का दस्तावेज़ । यह आलेख अनजाना जी के वर्ष 2003 में प्रकाशित दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है ।


 हिंदी के वरिष्ठ गीत-कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों की सृजन-प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए बहुत सारी गीत पंक्तियों का लेखन किया है। एक गीत में वे लिखते हैं, 'कह रहा हूं जो, लिखा वह ज़िंदगी की पुस्तिका में।' इसका सीधा अर्थ है कि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि कोई भी कविता जीवन से विमुख नहीं हो सकती। गीत या कविता लेखन को वे अपना कर्तव्य ही नहीं, वरन् गीत को अतीत का पुनर्लेखन और भविष्य की आकांक्षा के स्वरूप में देखते हैं। लेखन उनकी दृष्टि में शौक़ या मन बहलाव का माध्यम अथवा पर्याय नहीं है, 'शौकिया लिखता नहीं हूं। गीत है कर्तव्य मेरा। गीत है गत का कथानक । गीत है भवितव्य मेरा।' वैसे भी सुधी विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि काव्य-सृजन ही नहीं, वरन् किसी भी तरह का कलात्मक-सृजन एक तरह से सामाजिक दायित्व का निर्वहन है। इसी दायित्व का निर्वहन तो किया है तुलसी ने, सूर ने, कबीर ने, विद्रोहिणी मीरा ने और अपनी तमाम कलात्मक बारीकियों के प्रति अतिशय सजग एवं प्रतिबद्ध बिहारी तथा घनानंद जैसे उत्तर मध्यकालीन कवियों ने।

      दोहा हिंदी का आदिम छंद है। इतिहास की ओर दृष्टिपात करें तो इस अवधारणा की पुष्टि होती है। छंद शास्त्र के इतिहास के अध्येयताओं ने इसे महाकवि कालिदास की प्रसिद्ध रचना 'विक्रमोर्वशीयम्' में तलाश किया है

मई जाणिअ मिअलोअणि णिसिअरु कोइ हरेइ
जाव णु साव तडिसामलि धारा हरु बरिसेइ

अपभ्रंश, पुरानी हिंदी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं के साहित्य में इस छंद के बहुलांश में प्रयोग मिलते हैं। हिंदी साहित्य का मध्यकाल तो इस छंद का स्वर्णकाल कहा जा सकता है, जिसमें कबीर, तुलसी, रहीम, बिहारी जैसे अनेक सिद्ध कवियों ने इस छंद को अपनाया। मध्यकाल के बाद इस छंद के प्रति रचनाकारों की रुचि कम होती गई, यद्यपि सत सर्व की परंपरा में वियोगी हरि जैसे कुछ कवियों ने इस छंद को अपनाया। द्विवेदी युग के बाद तो एक तरह छांदसिक कविता को हिंदी के जनपद से निकालने का उपक्रम आरंभ हो गया और प्रयोगवाद तथा नई कविता के आगमन के साथ तो इसे लगभग पूरी तरह ख़ारिज़ ही कर दिया गया। यह अलग बात है कि नाथों और सिद्धों ने इसे एक विद्रोही तेवर दिया, जो कबीर तक अविश्रांत गति से बना रहा। रहीम ने उसे कांता सम्मति नीति-वचनों का जामा पहनाया। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, दोहा-लेखन का स्वर्णकाल बिहारी का रचनाकाल है। मतिराम और रसलीन उसी की कड़ियां हैं।
     आज से लगभग दो-ढाई दशक पहले रचनाकारों का ध्यान फिर इस छंद की ओर गया और हिंदी-उर्दू के कई रचनाकारों ने इसको अपनाना शुरू किया। भाली, निदा फ़ाज़ली और सूर्यभानु गुप्त इस नई शुरूआत के ध्वजवाही रचनाकार हैं। अतिशय कामात्मकता और राग-बोध से आप्लावित सृजन धर्मिता से निकाल कर एक बार फिर छंद को बातचीत का लहजा दिया नए दोहा कवियों ने जनता को सीधे-सीधे उसी की भाषा में संबोधित करने का लहजा । लगभग दो दशक पूर्व हिंदी के कई छांदसिक रचनाकारों की रुचि इस छंद में गहरी हुई और जैसे ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और गीत में मुकुट बिहारी सरोज ने इन दोनों काव्यरूपों को आत्यंतिक निजता से निकालकर उसे लोक से, जन से जोड़कर उसे एक सामाजिक, राजनीतिक चेहरा दिया, उसी तरह सर्वश्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, विकल प्रकाश दीक्षित बटुक, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, भसीन, कुमार रवीन्द्र दिनेश शुक्ल, आचार्य भगवत दुबे, डा. राजेन्द्र गौतम, कैलाश गौतम, जहीर कुरैशी, यश मालवीय, विज्ञान व्रत, डा. कुंवर बेचैन, हस्तीमल हस्ती, योगेन्द्र दत्त शर्मा, भारतेन्दु मिश्र, डा. श्याम निर्मम, डा. विद्या बिंदु सिंह तथा सुश्री शरद सिंह सरीखे शताधिक गीत-नवगीत एवं ग़ज़ल के कवियों ने इस सृजन-यात्रा में अपने को शामिल किया। मुरादाबाद नगर में भी सर्वश्री बहोरन लाल वर्मा 'प्रवासी' तथा परशूराम सरीखे वरिष्ठ तथा समकालीन कवियों ने दोहा लेखन में अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। सुकवि रामलाल 'अनजाना' उसी की एक आत्म सजग कड़ी हैं। वे देश के तमाम अन्य कवियों की ही तरह इस त्रययात्रा में अपना कदम ताल मिलाकर अभियान में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं।
     कविवर रामलाल 'अनजाना' की यह उल्लेखनीय विशिष्टता है कि छांदसिक रचनाशीलता में सबके साथ शामिल होकर भी सबसे अलग हैं, सबसे विशिष्ट । समकालीन सोच के अत्यधिक निकट । उनमें सिद्धों, नाथों से लेकर कबीर तक प्रवहमान असहमति की मुद्रा भी है और रहीम का सर्व हितैषी नीति-निदेशक भाव भी । साथ ही साथ सौंदर्य और राग चेतना से संपन्न स्तर भी। कविवर 'अनजाना' की सृजन यात्रा कई दशकों की सुदीर्घ यात्रा है। उनका पहला काव्य-संग्रह 'चकाचौंध 1971 में प्रकाशित हुआ । उसके बाद सन् 2000 में उनके दो संग्रह क्रमशः 'गगन न देगा साथ और 'सारे चेहरे मेरे' प्रकाशित हुए।
    चकाचौंध में विविध धर्म की रचनाएं हैं कुछ तथाकथित हास्य-व्यंग्य की भी लेकिन उन कविताओं के पर्य में गहरे उतर कर जांचने परखने पर वे हास्य कविताएं नहीं, समकालीन मनुष्य और समाज की विसंगतियों पर प्रासंगिक टिप्पणियों में बदल जाती है। गगन न देगा साथ उनके दोहों और गीत -ग़ज़लों का संग्रह है, जो पुरस्कृत भी हुआ है, जिसमें उनके कवि का वह व्यक्तित्व उभर कर आता है जो अत्यंत संवेदनशील और सचेत है। तीसरा संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' उनकी लंबी छांदसिक तथा मुक्त छंद की रचनाओं का है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि उनकी मुक्त छंद की रचनाएं छंद के बंद' को खोलते हुए भी लयाश्रित है और वह लय डा. जगदीश गुप्त की अर्थ की लय नहीं है। इस संग्रह में कुछ दोहे भी हैं जो उनके दोहा लेखन की एक सूचना का संकेत देते हैं। इस संग्रह की उनकी कविताएं भाषा और कथ्य के धरातल पर उन्हें कविवर नागार्जुन के निकट ले जाकर खड़ा करती है। नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे एक पूर्णकालिक कवि की तरह काव्य-सृजन से जुड़ गए
    सुकवि रामलाल 'अनजाना' के संदर्भ में यह कहना कठिन है कि उनके मनुष्य ने उन्हें कवि बनाया अथवा कविता की तरलता ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा निर्मित किया। हिंदी के एक उत्तर मध्यकालीन कवि ने लिखा भी है
लोग हैं लागि कवित्त बनावत ।
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।।

बारीकी से देखा जाए, तो यह बात कविवर 'अनजाना' पर भी शतशः घटित होती है। अपनी कविताओं के प्रति संसार की चर्चा करते हुए अपने संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' की भूमिका में उन्होंने लिखा है, 'अस्मिता लहूलुहान है, महान आदर्शों और महान धर्मात्माओं के द्वारा। असंख्य घड़ियाल पल रहे हैं इनके गंदे और काले पानी में असंख्य पांचालियां, सावित्रियां, सीताएं और अनुसुइयाएं | दुष्ट दुःशासनों के द्वारा निर्वस्त्र की जा रही हैं और उनकी अस्मिता ध्वस्त की जा रही है। दया, करुणा, क्षमा, त्याग, ममता और सहयोग प्रायः लुप्त हो चुके हैं।' यही उनकी कविताओं और उनके  व्यक्ति की चिंताओं-चिंतनों तथा सरोकारों से जुड़े हैं। यहां यही  बात ध्यान देने की है कि 'अनजाना' कबीर की तरह सर्वथा  विद्रोही मुद्रा के कवि तो नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो अप्रीतिकर है, मानव विरोधी है, उससे असहमति की सर्वथा अर्थवान मुद्रा है।। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनमें कबीर और रहीम के व्यक्तित्व का परस्पर घुलन है।
      अपनी जीवन यात्रा के दौरान 'अनजाना' ने जो भोगा, जो जीने को मिला, जो देखा, मात्र वही लिखा है। ठीक कबीर की तरह 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन देखी। 'अनजाना' की कविता में भी कागद की लेखी बहुत कम है। शायद नहीं के  बराबर। इसी ओर अपने पाठकों का ध्यान खींचते हुए तीसरे संग्रह की भूमिका में एक जगह लिखा है- 'हर ओर अंधे, गूंगे, बहरे और पंगू मुर्दे हैं, जिनके न तो दिल हैं, न दिमाग़ हैं, न गुर्दे हैं। जो जितने कुटिल हैं, क्रूर हैं, कामी है, छली हैं, दुराचारी हैं, वे उतने ही सदाचारी, धर्माचार्य, परम आदरणीय और परम श्रद्धेय की पद्मश्री से विभूषित हैं। पहरूए मजबूर हैं, पिंजड़े में बंद पक्षियों की तरह।' इस आत्मकथ्य की आरंभिक पंक्तियां पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियों बरबस कौंच जाती है- 'यहाँ पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग रहते है' कविवर 'अनजाना' के नए संग्रह 'दिल के रहो समीप' के दोहों को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा सकता है ...
नफरत और गुरूर तो देते हैं विष घोल ।
खुशियों को पैदा करें मधुर रसीले बोल ।।
जीवन के पथ पर चलो दोनों आंखें खोल ।
दुखे न दिल कोई कहीं, बोलो ऐसे बोल।।

    कड़वाहट, अहंकार और घृणा से उपजती है और मिठास चाहे वह व्यवहार की हो अथवा वाणी की, इस कड़वाहट को समाप्त कर जीवन को आनंदप्रद तथा सहज, तरल बनाती है। कविवर 'अनजाना' अपने रचना संसार में जाति तथा संप्रदायगत संकीर्णता, जो मनुष्य को मनुष्य से विभाजित करती है, उससे लगातार अपनी असहमति जताते हुए इस मानव विरोधी स्थिति पर निरंतर चोट करते हैं
पूजा कर या कथा कर पहले बन इंसान।
हुआ नहीं इंसान तो जप-तप धूल समान।।

     इसी तरह वे आर्थिक गैर बराबरी को भी न केवल समाज और सभ्यता के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए अस्वीकार्य ठहराते हैं
    कोई तो धन को दुखी और कहीं अंबार ।
    जीवन शैली में करो कुछ तो यार सुधार।।

प्रसिद्ध चिंतक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने लिखा है कि पूंजी सबसे पहले मनुष्य को अनैतिक बनाती है। कवि 'अनजाना' भी लिखते हैं....
पैसा ज्ञानी हो गया और हुआ भगवान ।
धनवानों को पूजते बड़े-बड़े विद्वान ।।

पूंजी के प्रति लोगों के लोग के दुष्परिणाम उजागर करते हुए वे आगे भी लिखते है....
पैसे ने अंधे किए जगभर के इंसान।
पैसे वाला स्वयं को समझ रहा भगवान ।।

इतना ही नहीं, वे तो मानते हैं
मठ, मंदिर, गिरजे सभी हैं पैसे के दास।
बिन पैसे के आदमी हर पल रहे उदास।।
लूटमार का हर तरफ मचा हुआ है शोर।
पैसे ने पैदा किए भांति-भांति के चोर।।
जन्में छल, मक्कारियां दिया प्यार को मार।
पैसे से पैदा हुआ जिस्मों का व्यापार ।।

श्रम ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जीवन की मूल्यवान पूंजी है, इसे सभी सुधीजनों ने स्वीकार किया है। श्रम की प्रतिष्ठा की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने लिखा है ....
मेहनत को मत भूलिए यही लगाती पार
कर्महीन की डूबती नाव बीच मझधार।।

मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है, प्रसंग नहीं है, जिसकी ओर कविवर 'अनजाना' की लेखनी की दृष्टि नहीं गई है। फिर वह पर्यावरण हो अथवा नेत्रदान। नारी की महिमा-मर्यादा की बात हो अथवा सहज मानवीय प्यार की। पर्यावरण पर बढ़ते हुए संकट की ओर इशारा करते हुए वनों-वनस्पतियों के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है....
बाग़ कटे, जीवन मिटे, होता जग वीरान ।
जीवन दो इंसान को, होकर जियो महान।।

यही नहीं वकील, डाक्टर, शिक्षक किसी का भी अमानवीय आचरण उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है ....
लूट रहे हैं डाक्टर, उनसे अधिक वकील।
मानवता की पीठ में ठोंक रहे हैं कील।।
पिता तुल्य गुरु भी करें अब जीवन से खेल।
ट्यूशन पाने को करें, वे बच्चों को फेल।।

अन्यों में दोष दर्शन और उस पर व्यंग्य करना सरल है, सहज है। सबसे कठिन और बड़ा व्यंग्य है अपने कुल - गोत्र की असंगतियों पर चोट करना। 'अनजाना' इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं और समकालीन समाज, विशेष रूप से मंचीय कवियों और उनकी कविताओं में बढ़ती पतनशीलता से अपनी मात्र असहमति और विक्षोभ को ही नहीं दर्ज कराते, वरन् अपनी गहरी चिंता के साथ चोट भी करते हैं उस पर। उनकी चिंता यह है कि जिनकी वाणी हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है आज उन कवियों ने भी अपने दायित्व तथा धर्म को बिगाड़ लिया है। वे सर्जक नहीं, विदूषक बन गए हैं
कहां-कहां किस ठौर का मेटें हम अंधियार ।
कवियों ने भी लिया है अपना धर्म बिगाड़।।
रहे नहीं रहिमन यहां, तुलसी, सूर कबीर ।
भोंडी अब कवि कर रहे कविता की तस्वीर।। 

महाकवि प्रसाद ने जिसके लिए लिखा है- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' अथवा कविवर सुमित्रा नंदन पंत ने जिसे 'मां, सहचरि, प्राण कहा है, उसके प्रति 'अनजाना' भी कम सजग नहीं हैं। जीवन में जो भी सुंदर है, प्रीतिकर है, सुखकर है, कवि उसके कारक के रूप में नारी को देखता है
ठंढी-ठंढी चांदनी और खिली-सी धूप ।
खुशबू, मंद समीर सब हैं नारी के रूप।।
झरने, बेलें, वादियां, सागर, गगन, पठार।
नारी में सब बसे हैं मैंने लिया निहार।।

नारी के ही कुछ सौंदर्य और चित्र दृष्टव्य हैं- यहां नारी जीवन का छंद है।
नारी कोमल फूल-सी देती सुखद सुगंध।
जीवन को ऐसा करे ज्यों कविता को छंद ।।

इतना ही नहीं, वे तो नारी को ही सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकारते हैं। उसमें भगवत स्वरूप के दर्शन करते हैं तथा उसके बदले करोड़ों स्वर्गों के परित्याग की भी वकालत करते हैं। यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि बहुत सारे उत्तर  मध्यकालीन कवियों की तरह यहां रूपासक्ति अथवा देहभोग नहीं। गहरा आदरभाव है। पूजा का भाव ।
    कविवर रामलाल ‘अनजाना' एक मानवतावादी कवि हैं। सहज, सरल, संवेदनशील व्यक्ति और कवि । विकारहीन आम हिंदुस्तानी आदमी जिसके पास एक सौंदर्य दृष्टि भी है और विचारशील मेधा भी। उनके व्यक्तित्व से अलग नहीं है उनकी कविता, वरन् दोनों एक-दूसरे की परस्पर प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए उनकी काव्य भाषा में भी वैसी ही सहजता और तरल प्रवाह है जो उनकी रचनाओं को सहज, संप्रेष्य और उद्धरणीय बनाता है। वे सजावट के नहीं, बुनावट के कवि हैं। ठीक कबीर की तरह। उनकी कविता से होकर गुज़रना अपने समय के यथार्थ के बरअक्स होना है यू और कविता इस यथार्थ से टकराकर ही उसे आत्मसात कर महत्वपूर्ण बनती है। वे मन के कवि हैं। उनकी बौद्धिकता उनके अत्यंत संवेदनशील मन में दूध-मिसरी की तरह घुली हुई है। जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, उनको पढ़ना अपने समय को, समकालीन समाज और मनुष्य को बार-बार पढ़ने जैसा है। उनकी रचनाएं विविधवर्णी समकालीन स्थितियों-परिस्थितियों को प्रामाणिक दस्तावेज हैं, जिनमें एक बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज सभ्यता की सदाकांक्षा की स्पष्ट झलक मिलती है।
      मुझे विश्वास है कि उनके पूर्व संग्रहों की ही तरह इस नये संग्रह 'दिल के रहो समीप' का भी व्यापक हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनका यह संग्रह विग्रहवादी व्यवहारवाद से पाठकों को निकालकर सामरस्य की भूमि पर ले जाकर खड़ा करेगा और हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में सहायक होगा।
शुभेस्तु पंथानः ।

✍️ माहेश्वर तिवारी
'हरसिंगार'
ब/म-48, नवीन नगर
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 6 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरण..... मुरादाबाद से गहरा लगाव रहा था बाबा नागार्जुन का

      सहज जीवन के चितेरे, शब्दों के अनूठे चित्रकार, प्रकृति प्रेमी जनकवि बाबा नागार्जुन का मुरादाबाद से विशेष लगाव रहा है। अक्सर गर्मियों के तपते दिन वह  लैंस डाउन और जहरी खाल की हरी भरी उपत्यकाओं में बिताते रहे हैं। वहां की हरियाली,घुमावदार सड़कें, चेरापूंजी जैसी बारिश और साहित्यकार वाचस्पति का स्नेह उन्हें हर साल वहां खींच लाता था तो मुरादाबाद भी वह आना नहीं भूलते थे। यहां प्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर तिवारी और हिन्दू कालेज के सेवानिवृत्त प्रवक्ता डॉ डी. पी. सिंह -डॉ माधुरी सिंह के यहाँ रहते। उनके परिवार के साथ घंटों बैठकर बतियाते रहते। पता ही नहीं चलता था समय कब बीत जाता था।   साहित्य से लेकर मौजूदा राजनीति तक चर्चा चलती रहती और उनकी खिलखिलाहट पूरे घर में गूंजती रहती । मुरादाबाद प्रवास के दौरान वह सदैव सम्मान समारोह, गोष्ठियों से परहेज करते रहते थे।

    वर्ष 91  का महीना था बाबा, माहेश्वर तिवारी के यहां रह रहे थे। महानगर के तमाम साहित्यकारों ने उनसे अनुरोध किया कि वह अपने सम्मान में गोष्ठी  की अनुमति दे दें लेकिन वह तैयार नहीं हुए। वहीं साहित्यिक संस्था "कविता गांव की ओर"  के संयोजक राकेश शर्मा जो पोलियो ग्रस्त थे, बाबा के पास पहुंचे, परम आशीर्वाद लिया । बाबा देर तक उनसे बतियाते रहे. बातचीत के दौरान राकेश ने बाबा से उनके सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन करने को अनुमति मांगी। बाबा ने सहर्ष ही उन्हें अनुमति दे दी।
      अखबार वालों से वह दूर ही रहते थे । पता चल जाये कि अमुक पत्रकार उनसे मिलने आया है तो वह साफ मना कर देते। स्थानीय साहित्यकारों से वह जरूर मिलते थे, बतियाते बतियाते यह भी कह देते थे बहुत हो गया अब जाओ ।दाएं हाथ में पढ़ने का लैंस लेकर अखबार पढ़ने बैठ जाते थे और शुरू कर देते थे खबरों पर टिप्पणी करना।
    वर्ष 1992 में जब  बाबा यहां आए तो उस समय यहां कृषि एवं प्रौद्योगिक प्रदर्शनी चल रही थी। छह जून को के.सी. एम. स्कूल में कवि सम्मेलन था । बाबा ने एक के बाद एक, कई रचनाएं सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कवि सम्मेलन जब खत्म हुआ तो वह चलते समय वहाँ व्यवस्था को तैनात पुलिस कर्मियों के पास ठहर गये और लगे उनसे बतियाने। ऐसा अलमस्त व्यक्तित्व था बाबा का। वह सहजता के साथ पारिवारिकता से जुड़ जाते थे।
    बच्चों के बीच बच्चा बनकर उनके साथ घंटों खेलते रहना उनके व्यक्तित्व का निराला रूप दिखाता था। डॉ माधुरी सिंह अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर बच्चों का एक स्कूल टैगोर विद्यापीठ संचालित करती थीं।  वर्ष 1995 की तारीख थी दस अगस्त , बाबा जब वहां गए तो बैठ गए बच्चों के बीच और बाल सुलभ क्रीड़ाएं करते हुए उन्हें अपनी कविताएं सुनाने लगे । यही नहीं उन्होंने बच्चों से भी कविताएं सुनीं, जमकर खिलखिलाए और बच्चों को टाफियां भी बांटी। बच्चों के बीच बाबा , अद्भुत और अविस्मरणीय पल थे।

     बाबा जब कभी मुरादाबाद आते, मेरा अधिकांश समय उनके साथ ही व्यतीत होता था । वर्ष 1985 में नजीबाबाद में आयोजित दो दिवसीय लेेेखक शिविर में भी उनके साथ रहने का  सुअवसर प्राप्त हुआ। अनेक यादें उनके साथ जुड़ी हुई हैं। वर्ष 1998 में इस नश्वर शरीर को त्यागने से लगभग छह माह पूर्व ही वह दिल्ली से यहां आए थे । कुछ दिन यहां रहने के बाद वह काशीपुर चले गए थे ।
















✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822










सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी को लखनऊ की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था सर्वजन हिताय साहित्यिक समिति ने किया डॉ. अम्बिका प्रसाद गुप्त स्मृति सम्मान 2020 से सम्मानित


लखनऊ की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था सर्वजन हिताय साहित्यिक समिति की ओर से रविवार नौ अक्टूबर 2022 को लखनऊ में हज़रतगंज स्थित प्रेस क्लब सभागार में आयोजित भव्य सारस्वत सम्मान समारोह में प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी को वर्ष 2020 का 'डॉ. अम्बिका प्रसाद गुप्त स्मृति सम्मान' प्रदान किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं विचारक प्रोफेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित, विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल, नवगीतकार वीरेंद्र आस्तिक तथा संस्था के उपाध्यक्ष जगमोहन नाथ कपूर सरस, रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी प्रलयंकर, राकेश बाजपेई के कर कमलों से समारोह के मुख्य अतिथि नवगीतकार माहेश्वर तिवारी को अंगवस्त्र, मानपत्र, प्रतीक चिह्न एवं सम्मान राशि भेंट कर सम्मानित किया गया। कार्यक्रम का संचालन संस्था के संस्थापक व संयोजक राजेन्द्र शुक्ल राज ने किया।          कार्यक्रम में सम्मानित माहेश्वर तिवारी ने अपने नवगीत पढ़े- 

"एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है

बेज़ुबान छत दीवारों को घर कर देता है

आरोहों अवरोहों से बतियाने लगती हैं

तुमसे जुड़कर चीज़ें भी बतियाने लगती हैं

एक तुम्हारा होना अपनापन भर देता है"। 

      इस अवसर पर लखनऊ के स्थानीय कवियों शिव भजन कमलेश, डॉ रंजना गुप्ता, सोम दीक्षित, अम्बरीष मिश्र आदि अनेक कवियों ने कविता पाठ किया।

श्री माहेश्वर तिवारी को लखनऊ में डॉ. अम्बिका प्रसाद गुप्त स्मृति सम्मान से सम्मानित किए जाने पर मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा, हस्ताक्षर एवं मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से डॉ. अजय अनुपम, डॉ. मक्खन मुरादाबादी, डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', ज़िया ज़मीर, राजीव प्रखर, हेमा तिवारी, डॉ. पूनम बंसल, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, डॉ. मनोज रस्तोगी, मनोज मनु, मयंक शर्मा, फरहत अली, राहुल शर्मा आदि ने बधाई दी।





:::::::प्रस्तुति::::::

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक- अक्षरा, मुरादाबाद

मोबाइल-9412805981

शनिवार, 23 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी की रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' की ओर से पावस-गोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन ---------

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में नवीन नगर स्थित 'हरसिंगार' भवन में सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी की रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर पावस-गोष्ठी, संगीत संध्या एवं सम्मान समारोह का आयोजन  किया गया जिसमें नई दिल्ली निवासी वरिष्ठ साहित्यकार विजय किशोर मानव एवं ओम निश्चल को अंगवस्त्र, प्रतीक चिन्ह, मानपत्र, श्रीफल तथा सम्मान राशि भेंटकर "माहेश्वर तिवारी साहित्य सृजन सम्मान" से सम्मानित किया गया। । मुख्य अतिथि विख्यात व्यंग्यकवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी रहे। कार्यक्रम का संचालन योगेन्द्र वर्मा व्योम ने किया।  

कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा  बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं लिपिका, कशिश भारद्वाज, संस्कृति, प्राप्ति, सिमरन, आदया एवं तबला वादक राधेश्याम द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- 

बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे

सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे। 

और- 

डबडबाई है नदी की आँख

बादल आ गए हैं

मन हुआ जाता अँधेरा पाख

बादल आ गए हैं।

 पावस गोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.  डॉ. आर.सी.शुक्ल ने सुनाया-

 न संभावित करुणा के सम्मुख अपना शीश झुकाऊंँ

मन कहता है आज तुम्हारे आंँगन में रुक जाऊँ। 

यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने गीत पढ़ा- 

धूप गुनगुनाते हैं पेड़़

हिल-मिलकर गाते हैं पेड़़

देख रहे हैं

मौसम का आना-जाना

पत्ता-पत्ता बनकर आँख

दिन का पीला पड़कर मुरझाना

रीती है एक-एक शाख

रातों में आसमान से

जाने क्या-क्या

बतियाते हैं पेड़़

सम्मानित कवि ओम निश्चल ने सुनाया- 

बारिश की तरह आओ

बूंदों की तरह गाओ

मन की वसुंधरा पर

तुम आके बरस जाओ

अतिथि कवि विजय किशोर मानव ने सुनाया-

 यहां उदासी

बारहमासी

घर आई है

धूप ज़रा सी

रोना हंसना

दांव सियासी

छुअन किसी की

लगे दवा सी

वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने सुनाया- 

वेदना ,संवेदना में दें बदल

चित्त चिंतन चेतना में दें बदल

आचरण में ज्ञान गीता का मिले

कर्म को आराधना में दें बदल

 कवयित्री विशाखा तिवारी रचना प्रस्तुत की-

आज व्याकुल धरती ने

पुकारा बादलों को

मेरी शिराओं की तरह

बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं

कवि वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी ने गीत सुनाया- 

मुँह पर गिरकर बून्दों ने बतलाया है

देखो कैसे सावन घिरकर आया है

बौछारों से तन-मन ठंडा करने को

डाल-डाल झूलों का मौसम आया है

वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने सुनाया- 

सच को सच बतलाने वाले पहले भी थे अब भी हैं

तम में दीप जलाने वाले पहले भी थे अब भी हैं

प्रेम और सद्भाव की बातें सब को रास नहीं आती

घर घर आग लगाने वाले पहले भी थे अब भी हैं। 

कवि समीर तिवारी ने सुनाया -

बदल गया है गगन सारा,सितारों ने कहा

बदल गया है चमन हमसे बहारो ने कहा

वैसे मुर्दे है वही सिर्फ अर्थियां बदली

फ़क़ीर ने पास में आकर इशारों से कहा

कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की- 

कंक्रीट के जंगल में,

 गुम हो गई हरियाली है

आसमान में भी अब, 

नहीं छाती बदरी काली है

कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने पावस दोहे प्रस्तुत किये-

तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप

धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप

पिछले सारे भूलकर, कष्ट और अवसाद

पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद

राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए- 

झूलों पर अठखेलियां, होठों से मृदुगान

ऐसा सावन हो गया, कब का अन्तर्धान

प्यारी कजरी-भोजली, और मधुर बौछार

तीनों मिलकर कर रहीं, सावन का श्रृंगार

 ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की- 

पिंजरे से क़ैदियों को रिहा कर रहे हैं हम

क्या जाने किसका क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम

कुछ टहनियों पे ताज़ा समर आने वाले हैं

यादों के इक शजर को हरा कर रहे हैं हम

 काशीपुर से कवयित्री ऋचा पाठक ने सुनाया- 

साथ नहीं हो कहीं आज तुम

फिर क्यूँ हर पल हम मुस्काये

हर आहट पर बिजली कौंधी

लगा यही बस अब तुम आये। 

 कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया- 

खिलखिलाती धूप सा है हास तुम्हारा

कुशल अहेरी अद्भुत है यह पाश तुम्हारा।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने गीत सुनाया- 

अधरों पर मचली है पीड़ा

करने मन की बात

रोपा तो था सुख का पौधा

 हमने घर के द्वारे

सावन भादों सूखे निकले

 बरसे बस अंगारे

कवि दुष्यंत बाबा ने सुनाया ----

तोड़ा उसने मेघ से नाता और बूंद धरा पर आयी

मां सी ममता मिली उसे जब आकर नदी समाई

बहती सरिता देखी तो हृदय सागर का भी फूटा

पुनर्मिलन सुख देता है यदि बेबस हो कोई छूटा

कवि प्रत्यक्ष देव त्यागी ने कहा ----

ये रूप जो तेरा,

लगे तुझे है खजाना,

ये किसी का नहीं है,

उम्र संग है ये जाना,

इसी को तू रख ले,

बढ़ा ले खजाना,

जब मुट्ठी खुलेगी,

रह कुछ नहीं जाना।

विख्यात कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी , डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, डॉ. उन्मेष सिन्हा, माधुरी सिंह, डी पी सिंह एवं  उमाकांत गुप्त भी कार्यक्रम में शामिल रहे। संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा  आभार-अभिव्यक्ति प्रस्तुत की गई।