(1)
अजनबी सा शहर है हमारे लिये।
आग का एक घर है हमारे लिये।
इस अँधेरी गुफा से गुजरते हुए।
एक तनहा सफर है हमारे लिये।
इस गली, उस सड़क, इस सड़क, उस मकां
भागना दर-ब-दर है हमारे लिये।
झेलने को मिलीं इस कदर ठोकरें
हर खुशी एक डर है हमारे लिये।
यह सुबह की किरन कोंपलों-सी नरम
जेठ की दोपहर है हमारे लिये।
(2)
आप भी क्या हुए दिन अंधेरे हुए
जो भी कम थे सबेरे-सबेरे हुए॥
टूटती थीं हमीं पर सभी बिजलियाँ
डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए॥
रेत पर तिलमिलाती रही देर तक
याद मछली हुई दिन मछेरे हुए॥
एक तिनका हवा में उड़ा देर तक
रात वीरानियों में बसेरे हुए॥
शाम तक होंठ में बन्द थीं हिचकियाँ
चाँद तारे सवालात मेरे हुए॥
(3)
ताज़गी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
कुछ नमी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
हो गई है इमारत खड़ी हर तरफ
आदमी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
हैं धमाके बमों के, लहू की हंसी
जिन्दगी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
धूप की सरहदों से गुज़रते हुए
चाँदनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
जो लपट बन के बामो-फलक तक उठे
वह कनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
लोग दहशत में पूरी तरह गुम नहीं
सनसनी ढूंढ़िए इस शहर के लिए
जी रहे हैं सभी दोस्तों में मगर
दोस्ती ढूंढ़िए इस शहर के लिए
(4)
देखिए पत्तों की हरियाली चुराता कौन है,
टहनियों को इस तरह नंगी बनाता कौन है ।।
सोच कर इस बात को हर आदमी हैरान है, खिड़कियों पर यह उदासी छोड़ जाता कौन है ।।
जब उम्मीदों के नये दस्ते खड़े हों सामने,
भीड़ से चुपचाप शब्दों को उठाता कौन है ।।
हैं हवाएँ पूछती फिरतीं सभी से आजकल, तितलियों के नाम से खुशबू चुराता कौन है ।।
गीत के नाजुक परिन्दों के परों में इस तरह,
रोज़ आकर एक पत्थर बाँध जाता कौन है ।।
(5)
सीने पर जलती अँगीठी धर जाती है रात, कोयले सी सबके चेहरे पर पसर जाती है रात।।
दिन भले हों रोशनी के फूल की खुशबू लिए,
पर कई सदमात से होकर गुजर जाती है रात ।।
शाम से ही खोलते हैं जाल मछुआरे सभी,
मछलियों की शक्ल में फँसकर बिखर जाती है रात।।
हम नसों का टूटना महसूस करते बेहतर.
जबकि बाहर से कहीं भीतर उतर जाती है रात ।।
आस्माँ तो पेड़ है इक जुगनुओं के फूल का,
रोज जिसकी डाल से खामोश झर जाती है रात।।
(6)
आप की बात का असर पाया ।
हर शहर एक लाशघर पाया ।।
आग घर की बुझाने निकले तो,
सारा जलता हुआ शहर पाया ।।
आग पर किस तरह से चलते हैं,
धूप में चल के ये हुनर पाया ।।
जिसको अमृत समझ रहे थे हम,
होंठ पर फिर वही जहर पाया ।।
साफ कपड़े पहनने वालों का,
हाथ हमने लहू से तर पाया ।।
(7)
भर गई है आँख रो लें हम,
घाव सारे आज धो लें हम ।।
दस्तकें देती हवाएँ हैं,
खिड़कियाँ कुछ देर खोलें हम ।।
आँधियों की जाँघ पर दो पल,
सिर टिकाए आज सो लें हम ।।
काटना है गर अँधेरा तो,
रोशनी के बीज बो लें हम ।।
भूल बैठे हैं जिसे कब से,
फूल सी कुछ बात बोलें हम ।।
(8)
सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ ।
खड़ा होकर जिस्म अपना तानता है तेंदुआ ।।
हम शहर का नाम देकर खुश हुए जिसको ।
आज उसको एक जंगल मानता है तेंदुआ ।।
घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर ।
तेज़ चौकन्नी निगाहें डालता है तेंदुआ ।।
आदमी भी आदमी जैसा कहाँ है आजकल ।
इस नये बदलाव को पहचानता है तेंदुआ ।।
कहाँ से छिपकर, कहाँ किसको दबोचे ।
यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ ।।
(9)
हाथ अपने जला के बैठ गए
आग सारी दबा के बैठ गए
एक दीवार की तरह रिश्ते
शाम तक भरभरा के बैठ गए
आ गए कुछ जो तोड़ने को भरम
लोग पर्दा गिरा के बैठ गए
एक गूँगी दुकान पर हम-तुम
शब्द अपने सजा के बैठ गए
बाँटने को अगर हवा आई
लोग खुशबू चुरा के बैठ गए
(10)
झील हैं, आसमान हैं रिश्ते
चील जैसी उड़ान हैं रिश्ते
शाम होते घरों को लौटे हैं
बस सफर की थकान हैं रिश्ते
हर फसल को निहारते गुमसुम
आज भूखे किसान हैं रिश्ते
बस अँगीठी के काम आते हैं
कोयले की दुकान हैं रिश्ते
पाँव फिसले तो टूट जाएँगे
घाटियों की ढलान हैं रिश्ते
(11)
ढल रही है शाम, ये कहकर मुझे ले जाएगी
फूल की खुशबू उठाकर घर मुझे ले जाएगी
जिस्म मुमकिन है करे ज़िद ठहर जाने को मगर
रूह की आवारगी दर-दर मुझे ले जाएगी
जंगलों से कुछ इशारे मिल रहे हैं आजकल
लग रहा भाषा यही बस्तर मुझे ले जाएगी
बढ़ रहे हैं पांव मेरे जिस अबूझी प्यास में
पत्थरों की कैद से बाहर मुझे ले जाएगी
तुम जहां हो बादलों वाली सजल छाया लिए
धूप की तेज़ी उधर अक्सर मुझे ले जाएगी
(12)
फूल-सा मुझको किताबों में दबाकर रख गए
लोग अक्सर रेत में नदियां छुपाकर रख गए
इक खिलौने की तरह हर शख़्स ने देखा मुझे
कुछ को मैं अच्छा लगा, कुछ मुस्कराकर रख गए
एक चकमक की तरह मुझको उठाकर खुश हुए हाथ जब जलने लगे तो तिलमिलाकर रख गए
अपना-अपना दर्द, गम, गुस्सा, उदासी, बेबसी
लोग कपड़ों की तरह मुझमें तहाकर रख गए
मैं उन्हें पीता नहीं तो डूब जाती कायनात
अपने आंसू लोग मेरे पास लाकर रख गए
(13)
आज जिन लोगों के पारे की तरह ईमान हैं
दर हक़ीक़त लोग वे ही देश के भगवान हैं
यह बनाया जायेगा अब देवताओं का नगर
और मारे जायेंगे वे लोग जो इन्सान हैं
जिनका लेखन एक गाली है गरीबों के लिए
वे सुखनवर ऊँची-ऊँची महफ़िलों की शान हैं
है कहीं संगीन का पहरा, कहीं चाकू का डर
हम घरों में क़ैद या लूटे गये सामान है
(14)
इक लतीफ़ा-सा न होठों में दबाकर देखिए
इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए
इंद्रधनुषी स्वप्न सारी रात होंगे पास में
आप पलकों पर जरा मुझको सजा कर देखिए
फूल से कुछ देर को ढक जायेगा सब कुछ यहाँ याद की इन टहनियों को तो हिलाकर देखिए
यह तनावों की जमीं चट्टान खिसकेगी जरूर आप थोड़ी देर को ही खिलखिलाकर देखिए
चुप्पियों में जान होती है सुना होगा कभी
अब वही सरसों हथेली पर जमाकर देखिए
काँप जायेगा अँधेरा एक हरकत पर अभी
आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए
सिर्फ़ स्याही पोंछ देने से न मिट जाऊँगा मैं
आप मेरा नाम नदियों में डुबाकर देखिए
:::::::: प्रस्तुति ::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
मुरादाबाद*
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