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रविवार, 17 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के लघुकथा संग्रह सपनों का शहर की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा-‘संवेदनाओं के अमृत सरोवर में आकंठ डूबी लघुकथाएं’

    लघुकथा के संबंध में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल ने महत्वपूर्ण रूप से व्याख्या करते हुए कहा है कि ‘लघुकथा किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार की संक्षिप्त और शिल्प से तराशी गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता में वह जीवन की व्याख्या को समेटकर चलती है।’ दरअसल लघुकथा अपने आकार प्रकार में दिखने वाली ऐसी छोटी रचना है जो संवेदनाओं के अमृत सरोवर में आकंठ डूबकर अपने समय को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, समस्याओं के समाधान भी तलाशती है। लघुकथा अपने आकार से अधिक अपनी मारक क्षमता के लिए पहचानी जाती है। लघुकथा त्वरित की विधा होने के बाबजूद कभी भी सीधे-सीधे वह बयाँ नहीं करती जो वह अपने अंतिम वाक्य से उत्पन्न प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ अभिव्यक्त कर जाती है। लघुकथा का यह अनकहा ही लघुकथा की खूबसूरती है। यह खूबसूरती ‘सुबह होगी’ से चलकर ‘सपनों का शहर’ तक की 24 वर्षीय लघुकथा-यात्रा में उपजीं वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है।

संग्रह की पहली ही लघुकथा ‘काश’ में सेठजी का भिखारी को 10 रुपये के लिए दुत्कारना और फिर बाद में सेठजी का टेन्डर 10 रुपये के अंतर से ही पास होने से रह जाना, पाठक को भीतर तक झकझोर देता है। ‘भूख’ शीर्षक से 2 लघुकथाएं संग्रह में शामिल हैं और दोनों ही लघुकथाएं संवेदनशीलता की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त करते हुए मन को मथने के लिए अनेक प्रश्न छोड़ जाती हैं अपने-अपने अंतिम वाक्य-‘ हमारा तो कहानी सुनकर ही पेट भर जाता है माँ...’ और ‘...हमें नहीं पता, ट्रेनिंग क्या होती है? हमें तो भूख लगती है, बस इतना पता है...’ के साथ। इसी प्रकार संग्रह की शीर्षक लघुकथा ‘सपनों का शहर’ भी प्रभाकर द्वारा अपनी डिग्रियों की फाइल को जला देने के अंतिम शब्दचित्र के साथ व्यवस्था की अव्यवस्थित स्थिति पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगाकर मंथन को विवश करती है।

विश्नोई जी ने अपने आत्मकथ्य में कहा है कि ‘जैसा देखा वैसा लिखा’। इस आँखिन देखी की सशक्त अभिव्यक्ति का प्रमुख कारक आम बोलचाल की भाषा का होना है। कीर्तिशेष गीतकवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ-‘जिस तरह तू बोलता है/उस तरह तू लिख...’ विश्नोई जी की लघुकथाओं पर शत-प्रतिशत सटीक बैठती हैं। दरअसल वह मूलतः व्यंग्य-कवि हैं, परिणामतः उनकी कविताओं की तरह ही उनकी लघुकथाओं की भाषा भी कहीं-कहीं चुटीली और मारक होने के साथ ही सामान्यतः सहज तथा बोधगम्य है, यही उनकी लघुकथाओं का सबसे बड़ा सकारात्मक और महत्वपूर्ण पक्ष भी है। 

निष्कर्ष रूप में, संवेदनाओं की सार्थक व सशक्त अभिव्यक्ति के मानक-बिन्दु गढ़ता यह लघुकथा-संग्रह ‘सपनों का शहर’ बहुत ही श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण संग्रह है जो साहित्य-जगत में निश्चित रूप से पर्याप्त चर्चित होगा तथा सराहना पायेगा, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी। 




 कृति - ‘सपनों का शहर’ (लघुकथा-संग्रह)                    

लघुकथाकार    - अशोक विश्नोई                                  

प्रकाशक    - विश्व पुस्तक प्रकाशन, नयी दिल्ली-110063

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य       - रु0 250/-

समीक्षक

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9412805981

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा का योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों पर केंद्रित आलेख -- नवगीत वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित करने वाली एक मजबूत शाखा हैं योगेंद्र वर्मा व्योम

     


आधुनिक हिंदी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पूरे देश के भीतर मुरादाबाद शहर को पहचान दिलाने वाले योगेन्द्र वर्मा व्योम  के नवगीतों से गुज़रना मतलब एक ताज़गी भरे नगर से गुज़रना है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण मैं उनके काव्य सृजन की प्रक्रिया का साक्षी रहा हूँ। वह इतनी खूबसूरती से और बड़ी बारीकी से ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूँढ लाते हैं जिन्हें सामान्य कवि/ गीतकार की दृष्टि खोज ही नहीं पाती। यही उनके नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है।

         नवगीत की सबसे प्रमुख और प्रथम शर्त ही नयापन है।योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों में इस नयेपन की मिठास मिलती ही है। गीत और ग़ज़ल काव्य की अलग अलग विधाएँ हैं, दोनों का कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग है। ग़ज़ल के छंद विधान यानि कि क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर आदि का अभिनव प्रयोग कर नवगीत 'जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए' रचा गया है जिसमें ग़ज़ल विधा के व्याकरण का मानवीकरण करते हुए कथ्य का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया गया है-

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए 

जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये सुख-सुविधाओं के

और साथ में कुछ रदीफ़ उजली आशाओं के

शब्दों में लेकिन मीठापन बोना भूल गए

सुबह-शाम के दो मिसरों में सांसें बीत रहीं

सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-लम्हा जीत रहीं

लगता विश्वासों में छन्द पिरोना भूल गए

     

अनेक कवियों ने बरसात के मौसम पर केन्द्रित अनेक गीतों, ग़ज़लों, दोहों का सृजन किया है लेकिन बूँदों की आकाश से धरती तक की यात्रा और बूँदों का आपस में बतियाना व्योमजी के नवगीतों में ही मिलता है। उनके एक नवगीत 'मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है' पर दृष्टि पढ़ते ही महाकवि बाबा नागार्जुन के कालजयी गीत "बादल को घिरते देखा है" की स्मृति ताज़ा हो जाती है। इस नवगीत में वे बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं-

मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है

इठलाते बल खाते हुए धरा पर आती हैं

रस्ते-भर बातें करती हैं सुख-दुख गाती हैं

संग हवा के खुश हो शोर मचाते देखा है

कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर चिंतन करती हैं

और कभी सूखे खेतों में खुशियाँ भरती हैं

धरती को बच्चे जैसा दुलराते देखा है

         वे चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है जो उनके नवगीतों में सहज रूप से दिखता है। मन को गाँव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। गाँव भले ही मन का हो लेकिन गाँव है तो चौपालें भी होंगी और गाँव है तो पंचायत भी होगी और चुनाव भी होंगे। मन के भाव और गाँव के वातावरण को शानदार अभिव्यक्ति दे रहा है उनका नवगीत-

तन के भीतर बसा हुआ है मन का भी इक गाँव

बेशक छोटा है लेकिन यह झांकी जैसा है

जिसमें अपनेपन से बढ़कर बड़ा न पैसा है

यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते जब-जब हुए चुनाव

चौपालों पर आकर यादें जमकर बतियातीं

हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख गीतों में गातीं

इनका माटी से फ़सलों-सा रहता घना जुड़ाव

   

  रिश्तों के खोखलेपन या उनकी मर्यादा के चटक जाने का मार्मिक वर्णन उनके एक अन्य गीत "मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया" में भी देखने को मिलता है जिसमें मायके से मिलने वाली उपेक्षा से दुखी एक विवाहित लड़की के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। दरअसल रिश्ते हमारे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी होते हैं उन्हें सहेज कर रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी भी कारण से यह पूँजी व्यर्थ न जाए इसकी कोशिश लगातार रखी जानी चाहिए। रिश्तों को बनाए रखने के अनुरोध को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में अभिव्यक्त करते हुए वे खानदान के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की भूमिका में नज़र आते हैं-

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी रिश्ते बने रहें

बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब कमरों के खोलें

हो न सके जो अपने, आओ हम उनके हो लें

ध्यान रहे ये पुल कोशिश के ना अधबने रहें

यही सत्य है ये जीवन की असली पूँजी हैं

रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन हर पल गूँजी हैं

अपने अपनों से पल-भर भी ना अनमने रहें

       वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखने में आता है कि चिट्ठियाँ आनी-जानी बंद हो गई हैं। इसके लिए लोगों द्वारा अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया जाना भी जिम्मेदार है और डाक विभाग द्वारा साधारण डाक के वितरण में बरती जा रही लापरवाही भी। इस सरकारी व्यवस्था की अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए मन की पीड़ा को नवगीत में वर्णित करने का प्रयोग विलक्षण है। बहुत ही खूबसूरत एकदम नए किस्म का नवगीत है यह। मैं इसको व्यंग्य-नवगीत की संज्ञा देना चाहूँगा-  

अब तो डाक-व्यवस्था जैसा अस्त-व्यस्त मन है

सुख साधारण डाक सरीखे नहीं मिले अक्सर

मिले हमेशा बस तनाव ही पंजीकृत होकर

फिर भी मुख पर रहता खुशियों का विज्ञापन है

गूगल युग में परम्पराएँ गुम हो गईं कहीं

संस्कार भी पोस्टकार्ड-से दिखते कहीं नहीं

बीते कल से रोज़ आज की रहती अनबन है

   

  कोई भी कवि अपनी कविता की विषयवस्तु अपने आसपास के वातावरण से ही खोजता है और उसे अपने ढंग से अपनी कविता में ढालता भी है। समाज में कभी मुहल्ला-संस्कृति भी थी जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते थे, फिर कॉलोनी-संस्कृति और अब अपार्टमेंट-संस्कृति प्रचलित है जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। क्या कॉलोनी के लोग भी किसी गीत की विषयवस्तु हो सकते हैं? मैं कहूँगा कि हाँ। ऐसा सिर्फ़ उनके यहाँ ही देखने को मिल सकता है। सिमटे हुए स्वार्थी जीवन की विद्रूपता का जैसा चित्रण इस नवगीत में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है-

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे कॉलोनी के लोग

सम्बन्धों में शंकाओं का पौधारोपण है

केवल अपने में ही अपना पूर्ण समर्पण है

एकाकीपन के स्वर जैसे कॉलोनी के लोग

ओढ़े हुए मुखों पर अपने नकली मुस्कानें

यहाँ आधुनिकता की बदलें पल-पल पहचानें

नहीं मिले संवत्सर जैसे कॉलोनी के लोग

      यह कॉलोनी-संस्कृति संवादहीनता की वाहक बनकर कहीं न कहीं हम सबको ही प्रभावित कर रही है। और यही संवादहीनता आज के समाज की बड़ी समस्या बन गई है जिसका कुप्रभाव अवसाद के रूप में देखने को मिल रहा है। शब्दों को केंद्रबिंदु बनाकर लिखा गया व्योमजी का यह नवगीत बहुत मार्मिक बन पड़ा है-

अब संवाद नहीं करते हैं मन से मन के शब्द

हर दिन हर पल परतें पहने दुहरापन जीते

बाहर से समृद्ध बहुत पर भीतर से रीते

अपना अर्थ कहीं खो बैठे अपनेपन के शब्द

आभासी दुनिया में रहते तनिक न बतियाते

आसपास ही हैं लेकिन अब नज़र नहीं आते

ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढ रहे हैं अभिवादन के शब्द

       

      1970 के दशक में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने व्यवस्था विरोध के लिए नारों का काम किया, आज भी आम आदमी की ज़बान पर दुष्यंत का कोई न कोई शेर ज़रूर रहता है। दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' को उन्होंने अपने नवगीत की विषयवस्तु बनाया है। पहली बार किसी कवि के द्वारा दूसरे कवि और उसकी कविता को नवगीत जैसी विधा की विषयवस्तु बनाया जाना अपने आप में चमत्कृत कर देने जैसा प्रयोग है। जनवाद की पैरोकारी करता दुष्यंतजी के आगमन का आवाहन समेटे उनका यह नवगीत भी अपने आप में अनूठा है-

बीत गया है अरसा, आते अब दुष्यंत नहीं

पीर वही है पर्वत जैसी पिघली अभी नहीं

और हिमालय से गंगा भी निकली अभी नहीं

भांग घुली वादों-नारों की जिसका अंत नहीं

हंगामा करने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही

कोशिश भी की लेकिन फिर भी सूरत रही वही

उम्मीदों की पर्णकुटी में मिलते संत नहीं

        कोरोना काल में उपजीं भीषण विद्रूपताओं से आम आदमी आज भी रोज़ाना लड़ाई लड़ रहा है। इस कोरोना काल में लोग बीमारी से तो मरे ही भूख से भी मरे और बहुत लोगों का रोजगार भी खत्म हुआ। उस समय कड़ी धूप में पैदल अपने गांव की ओर चलते जा रहे प्रवासी मजदूरों का दृश्य आँखों में उतर आता है। इसी मंज़र को बेहद भावुक रूप में उन्होंने अपने नवगीत में अभिव्यक्त किया है, भूख जब रोटी के नाम खत लिखती है तो एक बेहद संवेदनशील दृश्य पैदा होता है। मेरी दृष्टि में इस कोरोना काल की व्यथा को समेटे इससे मार्मिक नवगीत कोई दूसरा नहीं हो सकता-

आज सुबह फिर लिखा भूख ने ख़त रोटी के नाम

एक महामारी ने आकर सब कुछ छीन लिया

जीवन की थाली से सुख का कण-कण बीन लिया

रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से पल-पल है संग्राम

ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली जीना कैसे हो

बेकारी का घुप अँधियारा झीना कैसे हो

केवल उलझन ही उलझन है सुबह-दोपहर-शाम

      'रिश्ते बने रहें' नवगीत-संग्रह के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों को पढ़कर मैं यह बात दावे से कह सकता हूंँ कि हिंदी साहित्य के इतिहास का चित्र बनाने वाला चित्रकार जब कभी नवगीत के वृक्ष का चित्रण करेगा तो मुरादाबाद का नाम दो विशेष कारणों से चित्र में प्रकाशित दिखाई देगा। प्रथम तो नवगीत वृक्ष की जड़ों में से एक साहित्य-ऋषि दादा माहेश्वर तिवारी और दूसरा नवगीत वृक्ष को पुष्पित पल्लवित करने वाली सबसे मजबूत शाखाओं में से एक योगेंद्र वर्मा व्योम। 


✍️ राहुल शर्मा

आफीसर्स कालोनी, रामगंगा विहार-1

काँठ रोड, मुरादाबाद- 244105

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9758556426

शनिवार, 1 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम की रचना ---हैं यही नववर्ष की शुभकामनायें


सब सुखी हों स्वस्थ हों

उत्कर्ष पायें

हैं यही नववर्ष की

शुभकामनायें


अब न भूखा एक भी जन

देश में हो

अब न कोई मन कहीं भी

क्लेश में हो

अब न जीवन को हरे

बेरोज़गारी

अब न कोई फै़सला

आवेश में हो

हम नयी कोशिश

चलो कुछ कर दिखायें

हैं यही नववर्ष की

शुभकामनायें


धर्म के उन्माद का

ना हो अंधेरा

दूर ले जाये कहीं

हिंसा बसेरा

हो तनिक न जातिगत

विद्वेष का विष

फिर उगे विश्वास का

नूतन सबेरा

हों सुगंधित प्यार से

सारी दिशायें

हैं यही नववर्ष की

शुभकामनायें


✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981

रविवार, 12 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष प्रो. महेंद्र प्रताप के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित योगेन्द्र वर्मा व्योम का आलेख- मैं वंशी हूँ मेरे भीतर गाता कोई...

 


यह समय का योग रहा या मेरे भाग्य का हेटापन कि मुझे कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी का बहुत ही अल्प सान्निध्य या आशीर्वाद मिल सका, फलतः मेरे पास दादा से जुड़ा कोई संस्मरण विशेष तो नहीं है किन्तु फिर भी लगभग 17-18 वर्ष पहले हिन्दी दिवस के एक कार्यक्रम में उनकी गरिमामयी उपस्थिति और उनके प्रभावशाली उद्बोधन का मैं भी साक्षी रहा हूँ। संभवतः 2002 की बात है, संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में लाइनपार स्थित गायत्री मंदिर में हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन था जिसकी अध्यक्षता कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी कर रहे थे। कार्यक्रम की रूपरेखा के अनुसार पहले सत्र में विचार गोष्ठी तत्पश्चात दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी का आयोजन निर्धारित था। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी साहित्य संगम संस्था के अध्यक्ष और कीर्तशेष कवि राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग जी कर रहे थे। मंच पर दादा के साथ अतिथियों के अतिरिक्त कई वक्ता भी उपस्थित थे। विचार गोष्ठी में पूर्वप्रदत्त विषय पर वक्ताओं के उद्बोधन के पश्चात कार्यक्रम अध्यक्ष होने और सर्वाधिक वरिष्ठ होने के नाते अंत में दादा का उद्बोधन हुआ जो काफ़ी लम्बा चला। उसके पश्चात कार्यक्रम के दूसरे सत्र के रूप में जैसे ही काव्य गोष्ठी का आरंभ हुआ, दादा बोले-"भाई अब मैं नीचे श्रोताओं में बैठूँगा और वहीं से कवियों को सुनूँगा।" सब लोगों ने कहा कि "दादा, आप कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हैं इसलिए आपको मंच पर ही बैठना चाहिए।" लेकिन दादा नहीं माने। यह उनके बड़े साहित्यिक क़द और दंभरहित सहज व्यक्तित्व का प्रमाण था. कार्यक्रम के अंत तक दादा उपस्थित रहे और सभी कवियों को उन्होंने गंभीरता पूर्वक सुना भी और भरपूर सराहना भी दी. दादा महेंद्र प्रताप जी से जुड़ी पावन अल्प स्मृतियों को प्रणाम और दादा को विनम्र श्रद्धांजलि। 

                 साहित्यिक मुरादाबाद तथा डा. अजय अनुपम जी के संपादन में प्रकाशित "महेन्द्र मंजूषा" में दादा महेंद्र प्रताप जी के गीत पढ़ते हुए कीर्तिशेष गीतकवि विद्यानंदन राजीव जी कथन स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'कविता के उपवन में गीत चंदन-तरु के समान हैं, जो अपनी प्रेरक महक से मनुष्य को जंगलीपन से मुक्ति दिलाकर जीने का सलीक़ा सिखाता है।'  दादा के गीतों से गुज़रते हुए भी उसी चंदन की भीनी-भीनी महक महसूस होती है क्योंकि आध्यात्मिक भाव-व्यंजना के माध्यम से मनुष्यता के प्रति दादा की प्रबल पक्षधरता उनके लगभग सभी गीतों में प्रतिबिंबित होती है, उदाहरणार्थ उनके एक गीत के इस अंश का गांभीर्य कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह रहा है-

मैं डाली हूँ मुझमें फूल खिलाता कोई

मैं वंशी हूँ मेरे भीतर गाता कोई

एक भ्रान्त छाया में मेरी अस्ति समाई

मुझको गले लगाकर व्यक्ति बनाता कोई

दादा महेन्द्र प्रताप जी के गीतों को सतही तौर पर पढ़ा जाए तो प्रथम् दृष्टया ये गीत सहज प्रेमगीत ही लगते हैं किन्तु यदि गीतों के भीतर उतरकर उनकी भावभूमि को अनुभूत किया जाए तो ये गीत विशुद्ध आध्यात्मिक गीत प्रतीत होते हैं जिनमें उन्होंने अपने अभीष्ट के रूप में ईश्वर को केन्द्रित कर अपने भाव अभिव्यक्त किए हैं-

बन्द द्वार तक आकर आहट ने मुख मोड़ लिया

मैंने भ्रम में सारे जग से नाता जोड़ लिया

संकुलता का क्षोभ चेतना को है चीर रहा

पर, प्राणों का लक्ष्य अलक्षित और अजीत रहा

गेय अगीत रहा... 

दादा महेन्द्र प्रताप जी का ऐसा ही एक और गीत है जिसमें वह अपने भीतर की आध्यात्मिक भावाभिव्यक्ति को पराकाष्ठा की सीमा तक जाकर जीते हुए अपनी दिव्य प्यास का उल्लेख करते हैं-

एक बार जागे तो जागे,

फिर न बुझाने से बुझ पाए

जिसमें सुख की सत्ता डूबे,

जिसमें सब दुख-द्वंद समाए

ऐसी जलन जगे, शीतलता, 

जिसके पीछे-पीछे डोले

जिसको गले लगाकर

तृष्णा का मरुथल मधुबन बन जाए

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ... 

दादा महेन्द्र प्रताप जी का रचनाकर्म मात्रा में भले ही कम रहा हो किन्तु महत्वपूर्ण बहुत अधिक है। उनकी रचनाओं में सृजन के समय का कालखण्ड पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है, निश्चित रूप से दादा की सभी रचनाएँ साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। 

                  


✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

मुरादाबाद

मोबाइल- 9412805981

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम की कृति ---बात बोलेगी.... । यह कृति देश के प्रमुख गीत-नवगीत एवं गजलकारों डा. शिवबहादुर सिंह भदौरिया, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, सत्यनारायण, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शचीन्द्र भटनागर, डॉ माहेश्वर तिवारी, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, डा. कुँअर बेचैन, ज़हीर कुरैशी, डा. ओमप्रकाश सिंह, डा. राजेन्द्र गौतम, आनंद कुमार ‘गौरव’ और डॉ कृष्णकुमार 'नाज़' से लिये गए साक्षात्कारों का संकलन है । उनकी यह कृति गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई ।



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::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का समकालीन गीत संग्रह - रिश्ते बने रहें । यह कृति वर्ष 2016 में गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित हुई है । इसकी भूमिका देवेन्द्र शर्मा इंद्र तथा माहेश्वर तिवारी ने लिखी है । इस कृति में उनके 35 गीत-नवगीत संग्रहीत हैं -----


 

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डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

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रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम का गीत ------जब तक पिता रहे तब तक ही घर में रही मिठास

 


बहुत दूर हैं पिता

किन्तु फिर भी हैं
मन के पास

पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास

नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास

कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास

✍️  योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' द्वारा पिता-दिवस की पूर्व संध्या पर 19 जून 2021 को आयोजित ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी

 


मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से  पिता-दिवस की पूर्व संध्या पर 19 जून 2021 को एक ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी का आयोजन गूगल मीट के माध्यम से किया गया। 

संस्था के सह संयोजक कवि राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत सरस्वती-वंदना से आरंभ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता  करते हुए सुप्रसिद्ध  व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी  ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार की - 

खेत जोत कर जब आते थे, थककर पिता हमारे। कहते! बैलों को लेजाकर पानी जरा दिखाना।

हरा मिलाकर न्यार डालना रातब खूब मिलाना।। बलिहारी थे उस जोड़ी पर हलधर पिता हमारे।।

मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम ने अपने भाव कुछ इस प्रकार प्रकट किये - 

हिमकिरीट-से हैं पिता, मां गंगा की धार। 

इनके पुण्य -प्रताप से, जग में बेड़ा पार। 

 विशिष्ट अतिथि के रुप में वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार थी - 

घर की बगिया का होता है, पिता मूल आधार। 

बच्चों के सपनों को बुनता, खुशियों का संसार। कर्तव्यों की गठरी थामें, जतन करे दिन रात,

 बरगद है वो हर आँगन का, लिए छाँव उपहार।।

  वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी - 

पिता खामोश रहकर हर, घड़ी चिंता करे सबकी। पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया।। 

वरिष्ठ शायर ओंकार सिंह विवेक ने अपने शेरों से यह कहते हुए महफ़िल को लूटा -  

 मेरी सभी ख़ुशियों का हैं आधार पिता जी,

 और माँ के भी जीवन का हैं शृंगार पिता जी। हालाँकि ज़ियादा नहीं कुछ आय के साधन, 

 फिर भी चला  ही लेते हैं परिवार पिता जी। 

 सप्ताह में हैं सातों दिवस काम पे जाते, 

 जाने नहीं क्या होता है इतवार,पिताजी। 

कवयित्री  डॉ. अर्चना गुप्ता का कहना था - 

 मेरे अंदर जो बहती है उस नदिया की धार पिता। भूल नहीं सकती जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता।उनके आदर्शों पर चलकर मेरा जीवन सुरभित है, बनी इमारत जो मैं ऊँची हैं उसके आधार पिता।।

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति की - 

बहुत दूर हैं पिता किन्तु फिर भी हैं मन के पास। पथरीले पथ पर चलना मन्ज़िल को पा लेना,

 कैसे मुमकिन होता क़द को ऊँचाई देना।

 याद पिता की जगा रही है सपनों में विश्वास।। 

कार्यक्रम का संचालन  कर रहे राजीव प्रखर ने पिता की महिमा का बखान करते हुए कहा - 

दोहे में ढल कर कहे, घर-भर का उल्लास।

 मम्मी है यदि कोकिला, तो पापा मधुमास।। 

चुपके-चुपके झेल कर, कष्टों के तूफ़ान। 

 पापा हमको दे गये, मीठी सी मुस्कान।। 

 कवयित्री डॉ. रीता सिंह ने पिता की महिमा का वर्णन करते हुए कहा - 

हर बेटी के नायक पापा। 

करते हैं सब लायक पापा। 

कारज अपने सभी निभाते, 

बनें नहीं अधिनायक पापा। 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने पारिवारिक मूल्यों को कुछ इस प्रकार को उकेरा - 

"करता है रात दिन, वह सुपोषित मुझे, सूर्य सी ऊर्जा लिए।

 उगता है नित्य वह, और पार करता है, अग्नि पथ मेरे लिए।" 

कवि मनोज मनु के भावाभिव्यक्ति इस प्रकार रही -  सिर पर छाँव पिता की। 

कच्ची दीवारों पर छप्पर। 

आंधी बारिश खुद पर झेले,

 हवा थपेड़े रोके, जर्जर 

 तन भी ढाल बने,

  कितने मौके-बेमौके।।

कवि दुष्यंत बाबा ने अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार प्रस्तुत की - 

पिता  हैं  पोषक, पिता सहारा।

 ये  संतति  के  हैं  सृजन  हारा। 

 पूरे  कुल  का  जो भार उठाएं, 

 कभी न इनके दिल को दुखाएं।।

योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा आभार-अभिव्यक्त किया गया । 

::::::: प्रस्तुति:::::::

 राजीव 'प्रखर'

सह संयोजक- हस्ताक्षर

मुरादाबाद

मोबाइल- 8941912642

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका मासूम की ग़ज़ल यात्रा पर केंद्रित योगेन्द्र वर्मा व्योम का आलेख --... ख़याल बनके जो ग़ज़लों में ढल गया है कोई ...-


मुरादाबाद की मिट्टी में ही सृजनशीलता गहरे तक समाई हुई है, यही कारण है कि हिन्दी और उर्दू के साहित्य को महत्वपूर्ण रूप से समृद्ध करने वाले अनेक रचनाकार मुरादाबाद ने दिए हैं जिन्होंने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को वैश्विक स्तर तक समृद्ध किया है। जिगर मुरादाबादी, हुल्लड़ मुरादाबादी, दुर्गादत्त त्रिपाठी, माहेश्वर तिवारी, डॉ मक्खन मुरादाबादी, मंसूर उस्मानी, डॉ कृष्ण कुमार नाज़, ज़िया ज़मीर आदि ऐसे अहम नाम हैं जिन्होंने अपने रचनाकर्म से मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को उत्तरोत्तर समृद्ध करने का महत्वपूर्ण काम किया। वर्तमान में भी अनेक नवोदित रचनाकार अपनी रचनाओं की सुगंध से जहाँ एक ओर मुरादाबाद के उजले साहित्यिक भविष्य की संभावना बन रहे हैं वहीं दूसरी ओर मुरादाबाद का नाम मुरादाबाद से बाहर भी प्रतिष्ठित कर रहे हैं। राजीव प्रखर, हेमा तिवारी भट्ट, मीनाक्षी ठाकुर, मयंक शर्मा, फरहत अली सहित ऐसे रचनाकारों की फेहरिस्त में एक महत्वपूर्ण नाम मोनिका मासूम का भी है जिन्होंने बहुत ही अल्प समय में अपने ग़ज़ल-लेखन से मुरादाबाद के रचनाकारों के बीच अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने में सफलता अर्जित की है।

साहित्य में ग़ज़ल एक बहुत ही महत्वपूर्ण और मिठास भरी विधा है जिसके परंपरागत स्वर में मुहब्बत की कशिश और कसक का मखमली अहसास ज़िन्दादिली के साथ अभिव्यक्त होता रहा है लेकिन समय के साथ-साथ ग़ज़ल की कहन में भी बदलाव आता गया और आम जनजीवन से जुड़े संदर्भ भी ग़ज़ल के कथ्य का हिस्सा बनने लगे, दुष्यंत कुमार इस संदर्भ में ऐसा महत्वपूर्ण नाम हैं जिन्होंने ना केवल ग़ज़ल की दिशा को सफलतापूर्वक नया मोड़ दिया बल्कि ग़ज़ल के शिल्प में कही गई आम आदमी की पीड़ा को और समसामयिक विद्रूपताओं को भी प्रभावी ढंग से कहने में सफल रहे। हालांकि उर्दू साहित्य-जगत ग़ज़ल के इस बदले हुए स्वरूप से कभी सहमत नहीं रहा। आज के समसामयिक विषय-संदर्भ को मोनिका जी बहुत ही संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करती हैं-

‘है सफ़र कितना पता चलता है संगे-मील से

 कोई बतलाता नहीं है रास्ता तफ़सील से

 मांगती है ज़िन्दगी हर मोड़ पर कोई सुबूत

 आप ज़िन्दा हैं ये लिखवा लीजिए तहसील से’

जबसे हम प्रगतिशील हुए और वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग करने लगे तभी से मानवीय संवेदना में तेज़ी से ह्रास होने लगा और समाज में विद्रूपताएं बलवती होती गयीं। कन्या-भ्रूण हत्या भी ऐसी ही संवेदनहीन सामाजिक विद्रूपता है जो इस सृष्टि का सबसे बड़ा पाप होने के साथ-साथ जघन्य अपराध भी है। एक नारी होने के नाते और माँ होने के नाते मोनिका जी अपने मन की टीस को ग़ज़ल में अभिव्यक्त करती हैं-

'मुझको तेरा हक़ न तेरी मेहरबानी चाहिए

शान से जीने को बस इक ज़िंदगानी चाहिए

जन्म लेने से ही पहले मारने वाले मुझे

मर गया जो तेरी आँखों में वो पानी चाहिए'

सदियों से नारी को अबला और दोयम दर्ज़ा प्रदान करने वाले समाज को अपनी लेखनी के माध्यम से चुनौती देते हुए नारी स्वाभिमान की बात जब की जाती है तो मोनिका मासूम की लेखनी से स्वर गूंजता है-

       ‘फूल,फ़ाख़्ता, तितली, चाँदनी नहीं हूँ मैं

मखमली कोई गुड़िया मोम की नहीं हूँ मैं

तुमको दे दिया किसने मालिकाना हक़ मुझ पर

मिल्क़ियत किसी के भी बाप की नहीं हूँ मैं’

ग़ज़लों में आए बदलाव के इस दौर में कथ्य की विषयवस्तु तो बदली ही, भाषा भी सहज हुई क्योंकि अरबी-फारसी की इज़ाफत वाले उर्दू शब्दों और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्दों वाली रचनाएं आम पाठक को प्रभावित करने में अब सफल नहीं होती हैं। लिहाज़ा ग़ज़लों में भी नए-नए प्रतीकों के माध्यम से शे’र कहने का प्रचलन बढ़ा, मोनिका जी भी ऐसा ही प्रयोग करती दिखती हैं-

‘हो पायल चुप तो बिछुआ बोलता है

नई दुल्हन का लहजा बोलता है

अभी बाक़ी है अपना राब्ता कुछ

अभी रिश्ता हमारा बोलता है’

साहित्य की लगभग सभी विधाओं में प्रेम की सुगंध को मिठास भरा स्वर मिला है, उर्दू साहित्य में विशेष रूप से। उर्दू के अनेकानेक रचनाकारों ने अपनी-अपनी तरह से प्रेम को ग़ज़लों में नज़्मों में प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त किया है। मोनिका जी भी अपने विविध-रंगी अश्’आर में प्रेम को अपनी ही तरह से बयाँ करती हैं-

‘बेचैन धड़कनों की हरारत बयां करे

 लफ़्ज़ों में कैसे कोई मुहब्बत बयां करे

 तू मेरी ज़िन्दगी से है वाबस्ता इस तरह

 जैसे क़लम सियाही से निस्बत बयां करे’

या फिर-

‘ख़याल बनके जो ग़ज़लों में ढल गया है कोई

मेरे बुजूद की रंगत बदल गया है कोई

बदन सिहर उठा है लब ये थरथराए हैं

ये मुझमें ही कहीं शायद मचल गया है कोई

यह सत्य है कि आज से 10 वर्ष पहले तक मुरादाबाद की महिला रचनाकारों की सूची में 3-4 नाम यथा- डा. मीना नक़वी, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, डॉ. पूनम बंसल आदि ही प्रमुखता से चर्चा में आते थे लेकिन आज के समय में यह सूची काफी समृद्ध है और इस सूची में शामिल कई नवोदित महिला रचनाकार कविता के साथ-साथ गद्य लेखन में भी महत्वपूर्ण सृजन कर रही हैं। मोनिका जी की रचनात्मक प्रतिभा को भी प्रोत्साहन और प्रखरता प्रदान करने में डॉ. मनोज रस्तोगी जी द्वारा संचालित वाट्स एप ग्रुप ‘साहित्यिक मुरादाबाद’ की भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जैसाकि मोनिका जी स्वयं भी कई बार इस बात को स्वीकार करती रही हैं। विशुद्ध गृहणी मोनिका जी की ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को झकझोरती रहती है। 


✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’                              मुरादाबाद-244001,मोबाइल- 9412805981

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021